Sunday, 2 December 2018

अपनी सरकार से अपेक्षाएं- 3



यह बात सैकड़ों मंचों से लाखों बार कही गई है कि राज्य की बुनियादी जिम्मेदारी जनता के लिए, उत्तम शिक्षा और उत्तम स्वास्थ्य सेवा की व्यवस्था करना है। पूंजीवादी जनतांत्रिक देश भी इस धारणा में विश्वास रखते हैं। हमारे देश में भी राजनेता इन दो मुद्दों पर अपनी प्रतिबद्धता आए दिन व्यक्त करते हैं। इनके अनुरूप नीतियां भी बनाई जाती हैं। शिक्षा के अधिकार व स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकारों के दायरे में लाना इसका प्रमाण है। लेकिन नीतिगत स्तर पर तय की गई बात को अमल में लाने के लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, उसका अभाव यहां से वहां तक दिखाई देता है। इसीलिए जिन राज्यों के चुनाव परिणाम सिर्फ पांच दिन बाद घोषित होना है, वहां की चुनी सरकारों से हमारी उम्मीद है कि वे जनादेश का सम्मान करते हुए इन दो बुनियादी प्रश्नों पर मन-वचन-कर्म से अनुकूल आचरण करेंगे।

सबसे पहले शिक्षा को लें। मेरी राय है कि प्रदेश में शिक्षामंत्री एक ही होना चाहिए। अभी जो उच्च शिक्षा और शालेय शिक्षा के दो अलग-अलग मंत्रालय हैं, वे शिक्षा को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखने से रोकते हैं। हां, दोनों के लिए अलग-अलग निदेशालय हो सकते हैं। वह एक प्रशासनिक आवश्यकता है। अगली बात स्कूली शिक्षा के लिए शिक्षा का अधिकार कानून सही भावना से लागू करने की है। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में एक गलत वायदा किया है कि आठवीं कक्षा में परीक्षा ली जाएगी। शिक्षाशास्त्र से अपरिचित अभिभावकों व शिक्षकों की यह राय हो सकती है, लेकिन इसमें समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक दोनों पहलुओं को नजरअंदाज कर दिया गया है। जिन बच्चों को पढ़ाई में कमजोर मान परीक्षा में फेल कर दिया जाता है, वे हीनभावना से ग्रस्त हो जाते हैं; उनके अन्य गुणों का विकास करने से वे वंचित हो जाते हैं, और स्कूल से निकाल देने के बाद उनके अराजक हो जाने की भयावह आशंका भी बन जाती है। दरअसल, आवश्यकता बच्चों के सर्वांगीण विकास, उनके अंतर्निहित गुणों की परख तथा उनके सतत आंतरिक मूल्यांकन की है। हमारी समझ में वह पुरानी पद्धति बेहतर थी जब एक ही कक्षा शिक्षक पहली से पांचवीं तक व छठवीं से आठवीं तक अपनी कक्षा के साथ लगातार चलता था।

आरटीई कानून ने विभाग के लिए एक नई समस्या खड़ी कर दी है कि निजी विद्यालयों में पहली से शुरू कर बारहवीं कक्षा तक साधनहीन परिवारों के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाए। कानून की मंशा ठीक है, किंतु शिक्षा विभाग की ही नहीं, आरटीई फोरम जैसे स्वैच्छिक संगठनों का भी बहुत सारा समय इसी में चला जाता है। इसका विकल्प है कि सरकारी स्कूलों को सुविधासंपन्न बनाया जाए, ताकि पालकों के मन में बच्चों को निजी स्कूल में भेजने का विचार ही न आए। इस बिंदु पर नई सरकारें दिल्ली की आप सरकार से प्रेरणा ले सकती हैं। राजनीतिक पूर्वाग्रह से मुक्त होकर देखिए कि दिल्ली में सरकारी स्कूलों का कैसा कायाकल्प केजरीवाल सरकार ने कर दिया है। मेरा अपना अनुभव है कि यदि स्थानीय निवासी व पालक रुचि लें व सरकार थोड़ी सी मदद कर दे तो सरकारी स्कूलों में कहीं बेहतर पढ़ाई हो सकती है। हां, सत्ताधीशों को अभिजात मानसिकता को छोड़ना होगा।

उच्च शिक्षा की बात की जाए तो फिलहाल वहां भी बंटाधार है। जब राज्यपालों पर लाखों रुपया दक्षिणा लेकर कुलपति नियुक्त करने का आरोप लगे; अथवा मुख्यमंत्री दलीय निष्ठा के आधार पर कुलपति, कार्यपरिषद सदस्य, प्राध्यापक, अधिष्ठाता आदि पदों पर मनोनयन अथवा नियुक्ति करने पर विवश हों तो फिर शिक्षा में गुणवत्ता कहां से आए? नई सरकार को याद दिलाएं कि जवाहरलाल नेहरू ने मात्र चालीस वर्ष आयु के रवि मथाई को आईआईएम अहमदाबाद का प्रथम डायरेक्टर नियुक्त किया था। आईआईएम-ए भारत का सर्वोपरि उच्च शिक्षण संस्थान व विश्वख्याति का गौरव प्राप्त है। क्या आने वाली राज्य सरकारें कुछ ऐसा साहसिक  प्रयोग कर सकेंगी? एक समय था जब पं. कुंजीलाल दुबे व द्वारिकाप्रसाद मिश्र जैसे विद्वान राजनेता क्रमश: नागपुर व सागर विवि के कुलपति थे। आज शायद ऐसे प्रयोग नए सिरे से करने का समय आ गया है। विद्वान कुलपति, उत्तम प्रशासन के लिए रैक्टर व दैनंदिन प्रशासन के लिए रजिस्ट्रार की पुरानी पद्धति बुरी नहीं थी। सागर में तो कुलपति का निर्वाचन करने की परंपरा थी जो अभी कलकत्ता में चल रही है। यह भी विचारयोग्य है।

शिक्षा का स्तर ऊपर उठाने के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है सुयोग्य तथा प्रशिक्षित शिक्षकों की। जब विश्वविद्यालय की बात आए तो वहां ऐसे शिक्षक चाहिए जो मौलिक शोध में रुचि रखते हों व अन्य विद्यार्थियों को उस ओर प्रवृत्त कर सकें। लेकिन फिलहाल स्कूल हो या कॉलेज या विश्वविद्यालय- स्थिति क्या है? शिक्षकों के लाखों पद रिक्त पड़े हैं। निविदा भर्ती से काम चलाया जा रहा है, जिसकी सीमाएं स्पष्ट हैं। छत्तीसगढ़ में, और शायद मध्यप्रदेश में भी, ये हाल है कि सरकारी कॉलेज तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मिलने वाला अनुदान उठाने में अक्षम हैं क्योंकि शिक्षकों की कमी के कारण उन्हें स्थायी मान्यता नहीं मिल पाती जो अनुदान पाने की अनिवार्य शर्त है। अनुदान प्राप्त निजी महाविद्यालय में और दयनीय स्थिति है। वहां शिक्षक एक के बाद एक सेवानिवृत्त होते जा रहे हैं और राज्य सरकार नई नियुक्तियों के लिए अनुदान नहीं दे रही है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि पैंतीस साल पहले कोई युवा सहायक प्राध्यापक या लेक्चरर नियुक्त हुआ तो आज भी उसका पदनाम वही है। इन महाविद्यालयों में पूर्णकालिक प्राचार्य तक नहीं है। फिर भी आप गुणवत्ता की अपेक्षा करते हैं।

बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं पर चर्चा करते हुए सबसे पहले ध्यान आता है कि स्वास्थ्य बीमा योजना को बंद कर देना चाहिए। मुझे नहीं पता कि राज्य सरकार ऐसा करने में सक्षम है या नहीं। लेकिन यह कड़वी सच्चाई अपनी जगह है कि इस योजना से न मरीज खुश हैं और न डॉक्टर। डॉक्टरी पेशे में जो गड़बड़झाला है, वह एक गंभीर नैतिक प्रश्न है, लेकिन यह स्थान उस चर्चा के लिए नहीं है। मैं पूर्व में दिए कुछ सुझावों को दोहराना चाहूंगा। अव्वल तो नए-नए मेडिकल स्नातकों को ग्रामीण व दूरस्थ क्षेत्रों में हर हाल में सेवा देने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई में सरकार शायद पचास लाख रुपए प्रति विद्यार्थी निवेश करती होगी। संभव है कि यह राशि ज्यादा ही हो। अभी की व्यवस्था में नया गे्रजुएट दो लाख या पांच लाख की बांड राशि भरकर गांव जाने से छुटकारा पा लेता है। यह गरीब जनता के साथ क्रूर मजाक है। बांड याने अनुबंध की राशि पढ़ाई के पूरे खर्च के समतुल्य होना चाहिए, ताकि नया डॉक्टर कोई बहानेबाजी किए बिना ग्रामीण अंचल में न्यूनतम तीन साल तक सेवाएं दे सके।

इसके साथ सरकार को शहरी क्षेत्र में निजी अस्पताल खोलने पर बैंकों से ऋण देने पर पूरी तरह रोक लगाना उचित होगा। बैंक ऋण केंद्रीय विषय है, लेकिन राज्य सरकार यह तो कर ही सकती है कि, दूरस्थ अंचल में अस्पताल खोलने में ब्याज राशि पर सब्सिडी का प्रावधान करे, ताकि युवा डॉक्टर गांवों में जाकर सेवा करने की ओर आकर्षित हो सकें। मैं इस बात पर भी आश्चर्य करता हूं कि एम्स याने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में सेवारत डॉक्टर निजी पै्रक्टिस क्यों नहीं कर पाते! उसके लिए क्या नियम और कैसा वातावरण है, नई सरकार को इसका अध्ययन करना चाहिए। यहां पुन: दिल्ली की आप सरकार द्वारा की गई मोहल्ला क्लीनिक पहल का जिक्र करना उचित होगा। हमारे नीति-निर्माता चाहें तो सुदूर क्यूबा से भी प्रेरणा ले सकते हैं, जहां सर्वप्रथम शहरी क्षेत्रों में पॉलीक्लीनिक स्थापित किए गए। इनमें पांच डॉक्टर होते थे- जीपी याने जनरल पै्रक्टिशनर, शिशु रोग विशेषज्ञ, मातृरोग विशेषज्ञ, दंतचिकित्सक एवं जनस्वास्थ विशेषज्ञ। इससे भारी लाभ हुआ और धीरे-धीरे कर दूर-दराज के अंचलों तक पॉलीक्लीनिक सेवा का विस्तार किया गया।

भारत में जनस्वास्थ्य अभियान के प्रमुख कार्यकर्ता डॉ. अमित सेनगुप्ता का पंद्रह दिन पहले समुद्र में डूब जाने से निधन हो गया। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मैं याद करता हूं कि छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य अभियान की शुरूआत की गई थी। यह इस मिशन की पहल तथा तत्कालीन स्वास्थ्य सचिव डॉ. आलोक शुक्ला की सक्रिय साझेदारी थी, जिससे मितानिन की अवधारणा स्थापित हुई। छत्तीसगढ़ के बाहर मितानिन को हम ''आशा'' वर्कर के नाम से जानते हैं। छत्तीसगढ़ में ही गनियारी में जनस्वास्थ्य सहयोग व दल्ली राजहरा में शहीद अस्पताल ने स्वास्थ्य सेवा में जिस निस्वार्थ भावना के साथ बेहतरीन उदाहरण पेश किए हैं, उनका न सिर्फ अभिनंदन हो, बल्कि उनसे प्रेरणा, मार्गदर्शन भी लेना होगा। सीधी-सच्ची बात है कि जिस राज्य में शिक्षा व स्वास्थ्य पर समुचित ध्यान दिया जाएगा, उसकी जनता को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता।  लेकिन यदि हमारी रुचि पुलिस राज्य कायम करने में हो तो बात अलग है।

#देशबंधु में 03 दिसंबर 2018 को प्रकाशित

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