Sunday, 16 December 2018

कांग्रेस के तीन नए मुख्यमंत्री

                                              
मध्यप्रदेश में कमलनाथ, राजस्थान में अशोक गहलोत और अंत में छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल कांग्रेस विधायक दल के नेता याने कि अपने-अपने प्रदेश के नए मुख्यमंत्री चुन लिए गए हैं। हम इन तीनों को जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने की अपेक्षा के साथ अपनी शुभकामनाएं व बधाईयां देते हैं। इन तीनों नेताओं का निर्वाचन किसी हद तक सस्पेंस भरा लेकिन दिलचस्प रहा। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तीनों प्रदेशों के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के साथ अलग-अलग तस्वीरें खिंचवाई और उनके कैप्शन देते हुए निर्वाचन प्रक्रिया को एक खूबसूरत दार्शनिक अंदाज दे दिया। यह इस बात की कोशिश थी कि चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री पद की दौड़ में मुकाबला तो हो लेकिन दावेदारों के बीच किसी तरह की कड़वाहट को न पनपने दिया जाए। इन नेताओं के समर्थकों की अपनी भावनाएं हो सकती हैं, लेकिन उन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया के बयान, सचिन पायलट की शालीनता और टी.एस. सिंहदेव की निश्छल हंसी को ध्यान में रखना चाहिए।
मध्यप्रदेश में कमलनाथ का मुख्यमंत्री बनना हर दृष्टि से स्वाभाविक और उचित था। उन्हें एक साल से कुछ ज्यादा समय हुए प्रदेशाध्यक्ष का गुरुतर दायित्व देकर मध्यप्रदेश भेजा गया था। उनकी मेहनत रंग लाई है और चुनावी रणनीति बड़ी हद तक कामयाब हुई है। कमलनाथ के बारे में प्रसंगवश यह तथ्य जानना रोचक होगा कि वे द्वारिकाप्रसाद मिश्र के बाद महाकौशल क्षेत्र से बनने वाले पहले मुख्यमंत्री हैं। याने पैंतालीस वर्ष बाद महाकौशल प्रदेश को यह सौभाग्य मिला है। अभी उन्हें विधानसभा का चुनाव जीतना बाकी है। कमलनाथ 1980 में छिंदवाड़ा लोकसभा क्षेत्र में पैराशूट उम्मीदवार के रूप में आए थे। उस समय यह कोई असामान्य घटना नहीं थी, लेकिन पूरे भारत में तथाकथित बाहरी उम्मीदवारों में एकमात्र कमलनाथ ही निकले जिन्होंने अपने लोकसभा क्षेत्र से कभी मुंह नहीं मोड़ा, कोई बेवफाई नहीं की और इसलिए छिंदवाड़ा की जनता का प्यार और विश्वास उन्हें बार-बार मिलता रहा। बहत्तर वर्ष के कमल केन्द्र में एक सफल मंत्री रह चुके हैं। अब उन्हें खाली खजाने वाले मध्यप्रदेश में अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय देना होगा।
अशोक गहलोत का मुख्यमंत्री चुना जाना पहली नजर में अटपटा लगता है। विगत पांच वर्ष से सचिन पायलट जिस तरह से लगातार संघर्ष कर रहे थे, उसका उचित फल उन्हें नहीं मिला और कहा जा रहा है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। लेकिन इस मुद्दे पर थोड़ी गहराई में जाने की आवश्यकता है। ऐसा माना जाता था कि राजस्थान में कांग्रेस को इस बार भारी-भरकम विजय मिलेगी। उसे स्पष्ट और सुविधाजनक बहुमत तो मिला लेकिन अपेक्षा से कम। अशोक गहलोत यदि चुनाव मैदान में नहीं होते तो कांग्रेस को अभी मिली सफलता पाने में भी शायद तकलीफ होती! वे चुनाव मैदान के पुराने खिलाड़ी हैं। एक साफ सुथरी छवि वाले मजबूत प्रशासक के रूप में उनकी पहचान रही है। उन्होंने पिछले दिनों गुजरात और कर्नाटक के चुनावों में भी कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने में अपने राजनैतिक कौशल का परिचय दिया है। इस तरह देखें तो राजस्थान में कांग्रेस की विजय का श्रेय संयुक्त रूप से गहलोत और पायलट की जोड़ी को मिलता है। कांग्रेस आलाकमान ने मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री का फार्मूला अपनाकर स्थिति को संभाला वह उचित हुआ।
छत्तीसगढ़ का मामला इन दोनों से अधिक दिलचस्प है, जिसका प्रमाण कांग्रेस को यहां प्राप्त तीन चौथाई बहुमत से मिलता है। यह एक अभूतपूर्व विजय रही है। इस जीत का श्रेय बराबरी से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल और नेता प्रतिपक्ष टी.एस. सिंहदेव को जाता है। इन दोनों ने लगातार बिना थके, बिना रुके मेहनत की। भूपेश बघेल को इस दौरान जिन मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ा, वह इस प्रदेश के राजनीतिक इतिहास का एक दुखद अध्याय है। नया राज्य बनने के बाद जब वे जोगी सरकार में मंत्री थे तब उनके पिता को कारावास भुगतना पड़ा था। इस बार स्वयं उन्हें जेल में कुछ समय बिताना पड़ा और उनकी वृद्धा माता और पत्नी को भी पेशियों पर तलब किया गया। श्री बघेल के व्यक्तित्व में एक तरह की तुर्शी और आनन फानन में निर्णय लेने की प्रवृत्ति है, लेकिन उनकी संघर्षशीलता में कोई कमी नहीं है।
ये संक्षिप्त व्यक्तिचित्र हमें इन तीनों नए मुख्यमंत्रियों की नेतृत्व क्षमता के प्रति आश्वस्त करते हैं। जो यह अभीष्ट पद पाने से वंचित रह गए, उनके लिए अपनी योग्यता प्रदर्शित करने हेतु अवसरों की कमी नहीं है। मैं याद करना चाहूंगा कि सोनिया गांधी चाहतीं तो प्रधानमंत्री बन सकती थीं। राहुल गांधी चाहते तो उनके मंत्री बनने में कोई बाधा नहीं थी। देश के सभी कांग्रेसजनों को अपने शीर्ष नेतृत्व के ये दोनों उदाहरण हमेशा याद रखना उपयुक्त होगा। इसी बात को राहुल गांधी ने अपने तीनों फोटो कैप्शन में अलग-अलग तरह से व्यक्त किया है। हम यह भी रेखांकित करेंगे कि राजनीति में वरिष्ठता और अनुभव ही हमेशा काम में नहीं आते। पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह राजनीति को विरोधाभासों का समन्वय करने की कला करार देते थे। वह एकदम सटीक परिभाषा है।
जनतंत्र में बहुत सारे अंतर्विरोधों को समझते हुए, समेटते हुए काम करना होता है। इसलिए टी.एस. सिंहदेव, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, ताम्रध्वज साहू, चरणदास महंत इन सबमें से किसी को भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है, इनकी योग्यता पर किसी तरह का संदेह नहीं है। इन्होंने अपने-अपने प्रदेश में जैसे एकजुट होकर विधानसभा चुनाव में काम किया उसकी आवश्यकता तीन महीने बाद लोकसभा चुनावों के समय भी पड़ेगी। उसकी तैयारी में सबको अभी से जुट जाना चाहिए। मैं ब्रिटिश जनतंत्र के एक सुंदर दृष्टांत से अपनी बात खत्म करूंगा। अलेक्स डगलस होम 1963-64 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री थे, लेकिन इसके बाद 1970 से 74 के बीच वे अपने देश के विदेश मंत्री भी रहे; याने पद नहीं, पार्टी द्वारा सौंपा गया दायित्व  उन्होंने अधिक महत्वपूर्ण माना।
 
देशबंधु में 17 दिसंबर 2018 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय 

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