Tuesday, 25 December 2018

"कौन देस को वासी"


सुप्रसिद्ध कथा-शिल्पी सूर्यबाला की नवीनतम कृति एक उपन्यास के रूप में सामने आई है। ''कौन देस को वासी : वेणु की डायरी’’ लेखिका के लिए तो एक उपलब्धि है; मैं अगर कहूं उन्होंने इसके माध्यम से हिन्दी जगत को एक बेजोड़ उपहार दिया है तो यह शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। एक संपूर्ण उपन्यास होने की कौन सी शर्त यह कृति पूरी नहीं करती? फिर बात भले ही कथावस्तु की हो, भाषा और शैली की हो, चरित्र-चित्रण और संवाद प्रस्तुति की हो, दृश्य विधान की हो या मनोभावों को उकेरने की हो।
उपन्यास विधा को लेकर मेरे अपने कुछ आग्रह हैं। मैं खुद को उस चली आ रही मान्यता से सहमत पाता हूं कि उपन्यास आधुनिक समय का महाकाव्य है। इसका सामान्य अर्थ है कि महाकाव्य की ही भांति उपन्यास में भी एक ओर दृश्य का विस्तार और दूसरी ओर विचार की गहनता अनिवार्य अंग है। यह कठिन साधना है। जहां रचना को विस्तार देने के लिए विहंगम दृष्टि अपेक्षित है जो समय और स्थान की रुकावटों के पार जा सके, वहीं गहराई में उतरने के लिए तीक्ष्ण दृष्टि की दरकार है जो दृश्य और भाव दोनों में भीतर तक धंस जाए। इसके अलावा एक उपन्यास मेरी राय में लेखक (लेखिका) से इस मायने में परिश्रम की मांग करता है कि वह कथानक को समेटने और कलम को विश्राम देने की जल्दबाजी न करे। जिस वृहत् कैनवास पर उपन्यास की रचना होती है, उसमें विषय वस्तु के साथ न्याय करने के लिए कृति का आकार भी पर्याप्त संतोषजनक होना वांछित है। हां, संक्षिप्त आकार में महाकाव्यात्मक आयामों वाला ''ओल्ड मैन एंड द सी'' जैसा उपन्यास भी लिखा गया है, लेकिन यह अद्भुत सर्जना तो कोई अर्नेस्ट हेमिंग्वे ही कर सकता है!
दृश्य का विस्तार, विचार की सघनता और कृति का आकार- इन तीनों कसौटियों पर उपन्यास खरा उतरता है; लेकिन मैं जिस एक अन्य वजह से इस रचना से प्रभावित हुआ वह है लेखिका का विषय चयन, जिसका परिचय फ्लैप के पहले पैराग्राफ से ही मिल जाता है- ''प्रवासी भारतीय होना भारतीय समाज की महत्वाकांक्षा भी है, सपना भी है, कैरियर भी है और सब कुछ मिल जाने के बाद नॉस्टेल्जिया का ड्रामा भी। लेकिन कभी-कभी वह अपने आपको, अपने परिवेश को, अपने देश और समाज को देखने की एक नई दृष्टि का मिल जाना भी होता है। अपनी जन्मभूमि से दूर किसी परायी धरती पर खड़े होकर वे जब अपने आपको और अपने देश को देखते हैं तो वह देखना बिलकुल अलग होता है। भारतभूमि पर पैदा हुए किसी व्यक्ति के लिए यह घटना और भी ज्यादा मानीखेज इसलिए हो जाती है कि हम अपनी सामाजिक परम्पराओं, रुढिय़ों और इतिहास की लम्बी गुंजलकों में घिरे और किसी मुल्क के वासी के मुकाबले कतई अलग ढंग से खुद को देखने के आदी होते हैं। उस देखने में आत्मालोचन बहुत कम होता है। वह धुंधलके में घूरते रहने जैसा कुछ होता है। विदेशी क्षितिज से वह धुंधलका बहुत झीना दीखता है और उसके पार बसा अपना देश ज्यादा साफ।''
विगत तीसेक सालों में भारतीय समाज के एक वर्ग विशेष में अमेरिका के प्रति पहले से किसी मात्रा में चला आ रहा आकर्षण और प्रबल हुआ है। देश के उच्च शिक्षण संस्थानों से पढ़कर निकलने वाले प्रतिभावान युवाओं के मन में बात बैठ गई है कि उनके स्वप्न अमेरिका जाकर ही पूरे हो सकते हैं। जो अमेरिका नहीं जा पाते, वे इंग्लैंड, जर्मनी, सिंगापुर, हांगकांग या आस्ट्रेलिया में अवसर मिलने से संतोष हासिल कर लेते हैं। यह प्रवृत्ति कैसे पनपी है, इसे लेकर खूब विश्लेषण हुआ है और लगातार हो रहा है। फिलहाल वह हमारा विवेच्य बिन्दु नहीं है। भारत और अमेरिका (या उसके प्रतिरूप) में कई तरह के अंतर हैं- निजी स्तर पर, आर्थिक स्तर पर, पारिवारिक माहौल में, कार्यस्थल के वातावरण में, प्राकृतिक परिवेश में, कार्य संस्कृति में और ये सब अपनी-अपनी तरह से नए-नए तनावों को जन्म देते हैं। एक नए माहौल में खुद को ढालने की चुनौती, पीछे छूट गए लेकिन नाभिनालबद्ध परिवेश को संजोने या बिलगाने की द्विविधा, सपना पूरा होने का उल्लास तो कहीं स्वप्न भंग से उपजा अवसाद, ये सब मिलकर एक नया रंगमंच खड़ा कर देते हैं जिसमें हरेक को अपनी भूमिका निभानी पड़ती है।
यह हिंदी साहित्य में एक लगभग अनछुआ विषय है। वर्षों पूर्व महेंद्र भल्ला के दो उपन्यास और एक नाटक इस मानसिक अंतद्र्वंद्व को लेकर लिखे गए थे। उषा प्रियंवदा के उपन्यास ''रुकोगी नहीं राधिका'' को भी शायद इस श्रेणी में रखा जा सकता है, किंतु ये सब सर्वग्रासी वैश्वीकरण का दौर प्रारंभ होने के पहिले की कथाएं हैं। जहां तक मुझे स्मरण है ये रचनाएं निजी अनुभवों पर आधारित थीं, और उनमें सामाजिक जीवन में आए बदलाव व उससे उपजी बेचैनी का वर्णन शायद नहीं था। 1990 के बाद से भारत में आए परिवर्तनों को ममता कालिया, अलका सरावगी आदि की रचनाओं में देखा जा सकता है। अलका सरावगी का उपन्यास ''एक ब्रेक के बाद'' विशेषकर उल्लेखनीय है, किन्तु इन कृतियों का फलक विवेच्य उपन्यास की तुलना में सीमित था। संभव है कि इस दौरान अन्य रचनाएं भी आई हों, जिन्हें पढऩे, समझने का अवसर मुझे न मिल पाया हो। अपने सीमित अध्ययन के बल पर हम कह सकते हैं कि सूर्यबाला ने ''कौन देस को वासी'' में एक नई ज़मीन तोड़ी है। उन्होंने भारत और अमेरिका दोनों के वर्तमान सामाजिक परिवेश का सूक्ष्म अध्ययन करते हुए कथानक को इस विस्तार में खूबी के साथ टांक दिया है।
कथावस्तु के नएपन के अलावा उपन्यास के शिल्प में भी एक नयापन झलकता है। उपन्यास के उपशीर्षक ''वेणु की डायरी'' से भान होता है कि यह डायरी शैली में लिखी गई रचना है। लेकिन यह उपशीर्षक अधूरा है। इसकी आवश्यकता भी नहीं थी। ''कौन देस को वासी'' अपने आप में एक मुकम्मल, रोचक और जिज्ञासा जगाने वाला शीर्षक हो सकता था। मैं कहना चाहूंगा कि ''डायरी'' का संकेत देकर लेखिका ने खुद के साथ अन्याय किया हैा। शैली के स्तर पर उन्होंने जो प्रयोग किए हैं, उसे समझने में यह उपशीर्षक एक तरह से बाधक ही बनता है। दरअसल, रचना में एक नहीं, बल्कि दो डायरियां समानांतर चल रही हैं; और डायरी के बाहर भी बहुत कुछ लिखा या कहा गया है, जिसकी मुख्य सूत्रधार कथानायक वेणु माधव शुक्ल न होकर उसकी मां है जो शायद स्वयं कथा लेखिका भी हो सकती हंै! यह मां ही हैं जो रचना का ताना-बाना बुन रही हैं और उसमें रंग भी भर रही हैं । लेखिका ने उपन्यास को नौ खंडों में विभक्त करने के अलावा उसे बहुत से परिच्छेदों व उप-परिच्छेदों में विभाजित किया है। उसने इनमें से प्रत्येक को एक उपयुक्त शीर्षक दिया है जो कथा को समझने में, उसके मर्म तक पहुंचने में पाठक की सहायता करते हैं।
वैसे ''कौन देस को वासी'' की कहानी सीधी-सरल है। उत्तर भारत के एक मध्यवित्त परिवार का होनहार युवक वेणु अपनी प्रतिभा के बल पर उच्च अध्ययन के लिए अमेरिका चला जाता है और फिर वहीं का होकर रह जाता है। इस कहानी में परिवार के सदस्य हैं, नाते-रिश्तेदार हैं; अमेरिका में मिले अपने जैसे प्रवासी भारतीय और उनके नाते-रिश्तेदार भी हैं; विभिन्न स्तरों पर परिचित होते व संवाद करते अमेरिकी नागरिक हैं, व उनका अबूझा सा जीवन व्यापार है। उपन्यास में पात्रों की संख्या काफी बड़ी है, जिनकी बातों, इशारों, उपालंभों से भारत व अमेरिका के दो विपरीत ध्रुवों के बीच चल रहा मानसिक अंतद्र्वंद्व प्रकट होता है। अमेरिका स्वर्ग है, इंद्र की अमरावती है, जहां पहुंचकर जीवन धन्य हो जाता है। कथानायक ही नहीं, उसके परिवार, रिश्तेदारों के सपने कुंलाचे भरने लगते हैं, जिनका सबसे सशक्त प्रतीक वेणु की नवविवाहिता मेधा है। सपनों को पूरा करने की ख्वाहिश, न पूरा कर पाने की बेबसी, अपने संस्कारों से मुक्त न हो पाने की मौन विवशता- इन सबसे बीच कितने ही मन कांच की तरह दरकने लगे हैं, जिसकी आंशिक क्षतिपूर्ति वेणु के बेटे के अपनी अमेरिकी सहचरी सैंड्रा के साथ काम करने के लिए भारत लौटने से होती है।
भारत और अमेरिका के सामाजिक परिवेश का जिस बारीकी से चित्रण है, वह इस उपन्यास की एक अन्य विशेषता है। एक लेखक अपने चिर-परिचित परिवेश का सूक्ष्म वर्णन कर सके, यह शायद बड़ी बात न हो; किन्तु यहां तो लेखिका ने ऐसे देश के परिदृश्य को चित्रित किया है, जिससे उसका कोई लंबा परिचय नहीं रहा है। यहां सूर्यबाला ने अपनी लेखनी की धाक स्थापित की है। अमेरिका का शैक्षणिक माहौल, कारपोरेट संस्कृति, बाजार, पारिवारिक रिश्ते, स्त्री-पुरुष संबंध, युवा पीढ़ी आशा-निराशा, श्वेत-अश्वेत संबंध आदि और इनको संचालित करते प्रेम, उपेक्षा, अहंकार, घृणा, करुणा, स्वार्थ, मोहभंग जैसे तमाम मनोभावों को लेखिका ने प्रामाणिकता के साथ अभिव्यक्त किया है। और यह संभव हो सका है एक समर्थ, सजीव भाषा के कारण, जिसमें भरपूर व्यंजना व शब्दों का सजग चयन हैं। भाषा प्रयोग में किस्सागोई का तत्व भी है और नाटकीयता का भी। उपन्यास के पात्र, स्थान व परिस्थिति के अनुरूप भाषा अपनाएं और उनके उच्चारण भी उसके अनुकूल हों, यह रंगमंचीय विशेषता भी नज़र आए बिना नहीं रहती।
मैंने उपन्यास के अनेक अंशों को रेखांकित कर रखा था कि इस आलेख में उन्हें उद्धृत करूंगा। यह मोह मुझे छोडऩा पड़ा। इतने सारे उद्धरण एक छोटे से निबंध में कैसे समाएंगे? इसलिए मैं अपनी बात इतना कहकर समाप्त करूंगा कि उपन्यास का अंत मुझे एक तरह से एंटी-क्लाइमैक्स प्रतीत हुआ। यथार्थ की भूमि पर लिखी गई रचना का अंत यदि आदर्शवादी नहीं होता तो बेहतर था। इसी अंत में सत्य का कितना अंश है और लेखिका के अपने मनोगत का कितना प्रभाव है, यह मैं नहीं जानता। बहरहाल, मैं इस उपन्यास को पढऩे की पुरजोर सिफारिश करता हूं जो अपने समय को खंड-खंड में समझने की बजाय एक सुदीर्घ पटल पर आज की नई वास्तविकताओं को सामने रखता है।
अक्षर पर्व नवम्बर 2018 अंक की प्रस्तावना
  
 

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