Wednesday, 2 October 2019

भक्ति, शक्ति, युक्ति, विभक्ति


भक्ति, शक्ति, युक्ति और विभक्ति- ये साधारण नहीं, अर्थगंभीर शब्द हैं। यहां इनका प्रयोग कविता की तुक मिलाने के लिए नहीं हो रहा है, बल्कि ये चार सूत्र हैं जिनके सहारे भारत के स्वर्णिम भविष्य की रचना की जा रही है। मोदीराजा की प्रजा का विकास का मंत्र इनमें निहित है। देश की आर्थिक खुशहाली के लिए ये चार मजबूत आधार स्तंभ हैं। आइए समझते हैं कि यह कैसे है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत एक धर्मप्रवण देश है। यहां जितने धर्म, संप्रदाय, पंथ, उपासना पद्धतियां, उपासना स्थल, ईश्वर, अवतार, देवी-देवता, अवतारी पुरुष, पर्व-व्रत, त्यौहार हैं, दुनिया में कोई अन्य देश या समाज उनका मुकाबला नहीं कर सकता। वहां सगुण और निर्गुण भक्ति दोनों के कई-कई स्वरूप हैं। सामान्यत: भक्ति से अर्थ परलोक सुधारने से लिया जाता है, किंतु हमारे यहां भक्ति के दो प्रमुख प्रकार हैं। पारलौकिक के अलावा इहलौकिक भक्ति की परिपाटी भी इधर कुछ वर्षों में चमत्कारी गति से विकसित हुई है। दोनों तरह की भक्ति के चलते देश ने जो तरक्की की है, उसका विधिवत अध्ययन अब तक नहीं किया गया है।अर्थशास्त्रियों को चाहिए कि वे इस दिशा में ध्यान दें। उनसे बेहतर कौन जानता है कि अर्थ और आस्था के बीच कितना गहरा, अन्योन्याश्रित संबंध है। ऐसा कौन सा तीर्थ है जहां मेला न भरता हो, और ऐसा कौन सा उपासना स्थल है जिसके साथ दो-चार-दस दूकानें न जुड़ी हों या अन्य व्यवसायिक गतिविधियों की गुंजाइश न हो?
यह ईश्वर में आस्था ही है जो हमें उपासना स्थलों के निर्माण के लिए प्रेरित करती है, भले ही उनमें देव प्रतिमा हो, न हो। यह निर्माण कितनी प्रक्रियाओं से गुजर कर पूरा होता है और इनमें कितने लोगों का श्रम निवेश होता है। नए निर्माण के साथ पुरानी निर्मितियों का जीर्णाेद्धार भी चलता रहता है। ईंट, सीमेंट, संगमरमर, ग्रेनाइट, पत्थर, बालू, सोना, चांदी, तांबा कितनी ही वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। खदानों में काम चलता है।कारखानों में माल बनता है, भराई और लदान होता है, परिवहन के साधन लगते हैं, बड़े-छोटे मालवाहकों के चक्के घूमते हैं; बिजली-टेलीफोन, पानी का इंतजाम होता है, फूलमाला, फूल, चादर, ध्वजा, पताका, पोशाक, घंटे-घड़ि़याल, दीपदान, आरती, लोबान, मोमबत्ती, घी, तेल, सब कुछ की जरूरत पड़ती है। इसमें लाखों लोगों को रोजगार की प्राप्ति होती है। खदान मजदूर से लेकर ट्रक चालक तक, पंडे-पुजारी से लेकर याचक तक के जीवनयापन में इनकी महती भूमिका से भला कौन इंकार करेगा? ये जो सावन में लाखों लोग कांवड़ यात्रा पर निकल पड़ते हैं, उनसे रोजगार के अस्थायी ही सही, लेकिन कितने नए अवसर सृजित होते हैं। पकौड़ा इकॉनामी का ये अभिन्न अंग हैं।
कुछ दिन पहले एक अखबार ने अपने मुख्य शीर्षक में मोदीजी को ही बुद्ध की उपमा दे दी। इसके पहले ये देश के पिता घोषित हो चुके थे। इन्हें गौतम और गांधी का संयुक्त अवतार कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा! कितने लोगों को इहलोक इनकी भक्ति से सुधर रहा है। कम्प्यूटर जानने वाले कितने युवाओं को इनकी कृपा से काम मिल जाता है; सोशल मीडिया में ट्रॉल करने वाले हजारों जनों की रोजी-रोटी इसी के भरोसे चल रही है, जापान से लेकर अमेरिका तक, विवेक अग्निहोत्री से लेकर प्रसून जोशी इत्यादि तक, स्वयंसेवकों से लेकर एनआरआई व पीआईओ तक जिस उमंग-उत्साह से नित नए आयोजनों की श्रृंखला बनी है, वह वालमार्ट या मैक्डोनाल्ड से किस मायने में कम है? सोचकर देखिए, अगर यह सब न होता तो हमारे टीवी चैनल कैसे चलते? कितना अच्छा है कि सुबह आस्था आदि चैनलों पर रामदेव, रविशंकर आदि के प्रवचन सुनो और रात को न्यूज चैनल पर मोदी लीला देखने के बाद चैन की नींद सो जाओ। जो चौकीदार है, वही पिता है और उसकी शरण में हम बालकों को अभय मिला है।
हरि अनंत, हरिकथा अनंता। भक्ति की चर्चा को विश्राम देकर शक्ति के सूत्र पर दृष्टिपात करें। हम महाशक्ति बनने के पथ पर अग्रसर हैं। डीआरडीओ और ओएफबी आदि समय के साथ अपनी प्रासंगिकता खो चुके हैं। हमें अपनी सामरिक ताकत बढ़ाना है, ताकि घर और बाहर के शत्रुओं को मात दी जा के। सीबीआई, आईबी, बीएसएफ, सीआरपीएफ, एनआईए, थलसेना, नभसेना, जलसेना, सब अपनी-अपनी जगह मुस्तैद हैं; लेकिन अब एकीकृत कमांड की आवश्यकता है। मौका पड़े तो हम अपनी तरफ से अणुबम का उपयोग करने से भी नहीं हिचकेंगे। देश के भीतर भी जो हमारा विरोध करते हैं, उन्हें भी पता चल जाए कि उन्हें बख्शा नहीं जाएगा। क्या किसी को अनुमान है कि देश में कितने सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और हर साल कितने नए कैमरे खरीदे जाते हैं? टेलीफोन टेप करने के लिए कौन से उपकरण लगते हैं और इस काम में कितने लोगों को रोजगार उपलब्ध होता है? अभी जब अडानी, अंबानी, टाटा, बिड़ला इत्यादि सैन्य साज-सामग्री का निर्माण करेंगे तो उससे कितनी नई नौकरियां युवाओं को मिल पाएंगी? सीआरपीएफ, सीआईएसएफ की नई बटालियन बनने से कितने युवाओं के परिवारों को फौरी राहत महसूस होती है? अभी तक हम अपने को ''सॉफ्ट पॉवर'' मान खुद को हीन समझते थे। मान लेना चाहिए कि शक्ति का यह नवोन्मेष भारत के लिए कल्याणकारी होगा।
और युक्ति? युक्ति याने जुगाड़। जुगाड़ में क्या वे बातें शामिल नहीं हैं जो नहीं करना चाहिए? मसलन- भ्रष्टाचार। लेकिन बताइए कि कौन सा देश-काल-समाज है, जो भ्रष्टाचार रहित हो। कौटिल्य के अर्थशास्त्र व कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् तक में उत्कोच याने घूस का उल्लेख है। तो इस युक्ति से कितने ही लोगों का काम सध जाता है, कितनों की साध पूरी हो जाती है, समय और श्रम की बचत होती है, वैकल्पिक रोजगार के अवसर निर्मित होते हैं। लेकिन जब सरकार चली जाए, ओहदा छिन जाए और जांच बैठा दी जाए तब भी नए सिरे से बड़ी संख्या में लोगों को काम मिल जाता है। पुलिस वाले हथकड़ियां लेकर कलाइयां ढूंढने में लग जाते हैं, ईडी और सीबीआई में विशेष कक्ष स्थापित हो जाते हैं, कहीं वाइस सेंपल तो कहीं डीएनए टेस्ट, तो कहीं किसी फोरेंसिक जांच का समय आ जाता है। जेलखाने आबाद होने लगते हैं। कोर्ट-कचहरी में आवाजाही बढ़ जाती है। अस्पताल के कैदी कक्ष में भी सरगर्मियां होने लगती हैं। कितने सारे वकील कितने उनके असिस्टेंट, कितने स्टेनो-टाइपिस्ट, कितने अर्जीनवीस, फिर फोटो कॉपियर मशीनें, ए-फोर, ए-थ्री कागज की खपत, अखबारों की सुर्खियां। जीडीपी में बढ़ोतरी में इनके योगदान को तो रेखांकित करना ही होगा।
चौथे तथा अंतिम सूत्र याने विभक्ति को जान लेना शायद कठिन नहीं है। देश की सत्ता जिनके हाथों में है, वे एक स्वर्णिम अतीत की कल्पना में खोये हुए हैंऔर एक अखंड भारत उनका अभीष्ट है। उनका नक्शा बर्मा या म्यांमार से शुरू होकर अफगानिस्तान तक जाता है। नेपाल, तिब्बत व श्रीलंका भी इसी के भीतर हैं। इस नक्शे में चप्पे-चप्पे पर विचरण करती हुई आर्यजाति वैदिक संस्कृति का निर्माण करती है और इसमें कोई अन्य धर्म या दर्शन नहीं है, बौद्ध धर्म भी नहीं। यह दंतकथाओं में खोया लोक है, जिसकी पुनर्प्राप्ति के लिए यज्ञ चल रहा है- असम में, काश्मीर में, आदिवासी प्रांतरों में। एक बहुमत है जो अपना है। एक अल्पमत है जो पराया है।
असम में राष्ट्रीय नागरिकता पंजी बन गई है और देश के अन्य प्रांतों में भी उसका अनुकरण किया जाएगा। आदिवासी दरअसल वनवासी हैं; नागर समाज उनका आखेट करने के लिए स्वतंत्र है और रोकने वाले राजद्रोह के अपराधी हैं। काश्मीर याने काश्मीर घाटी हमारी है, जहां नीलमत पुराण और राजतरंगिणी के साक्ष्य ही मान्य हैं, तथा हम व्यग्र हैं कि वहां के सदियों के वासियों को इस पवित्र भूमि का परित्याग कर अन्यत्र चले जाना चाहिए। यक्ष प्रश्न है कि जब पी.ओ.के. पर आधिपत्य कर लेंगे, तब वहां के निवासियों का प्रत्यार्पण कहां किया जाएगा! फिलहाल, काश्मीर में सात लाख के लगभग सैनिक-अर्द्धसैनिक बल तैनात हैं; असम में नए बंदीगृह बनाए जा रहे हैं; सरकार, पुलिस, वकील, पत्रकार, मानव अधिकार कार्यकर्ता, राजनैतिक दल सबको व्यस्त रहने का जायज कारण मिल गया है। कुल मिलाकर चार सूत्रों का पालन करते हुए देश तरक्की कर रहा है।
#देशबंधु में 3 अक्टूबर 2019 को प्रकाशित

विराट व्यक्तित्व को समझने की अधूरी कोशिश


महात्मा गांधी के विराट व्यक्तित्व की थाह पाना असंभव है। विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर उनके सहचर मित्र थे तो उपन्यास सम्राट प्रेमचंद उनके अनुयायी। ''युद्ध और शांति'' के कालजयी लेखक लेव टॉल्सटाय से उन्होंने प्रेरणा ली तो ''ज्यां क्रिस्तोफ'' जैसी महान कृति के उपन्यासकार रोम्यां रोलां को उन्हें सलाह देने का अधिकार हासिल था। शांतिदूत दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल उनसे प्रभावित थे तो सार्थक फिल्मों के प्रणेता-अभिनेता चार्ली चैंप्लिन पर उनका गहरा असर था। अल्बर्ट आइंस्टाइन ने तो 1939 में ही यह घोषणा कर दी थी- आने वाली पीढिय़ां मुश्किल से इस बात पर विश्वास कर पाएंगी कि हाड़-मांस से बना यह पुतला कभी इस पृथ्वी पर चला था। महात्मा गांधी से यदि मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला और आंग सान सू ची ने प्रेरणा ली तो फिदेल कास्त्रो और हो ची मिन्ह ने भी स्वयं को इनका अनुयायी घोषित किया। साम्राज्यवादी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अधनंगा फकीर कहकर उनका उपहास करने की चेष्टा की तो स्वाधीनता संग्राम में साथी भारत कोकिला सरोजिनी नायडू ने सहज विनोद में उन्हें मिकी माउस की संज्ञा दी। रवींद्रनाथ ने ही 1919 में उन्हें महात्मा की उपाधि दी और 1944 मेें नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने न सिर्फ उन्हें राष्ट्रपिता का संबोधन दिया, बल्कि आज़ाद हिंद फौज की पहली ब्रिगेड का नाम ही गांधी ब्रिगेड रखा। 30 जनवरी 1948 की शाम पं. जवाहरलाल नेहरू ने रुंधे हुए स्वर में घोषणा की- हमारे जीवन से प्रकाश चला गया है।
मोहनदास करमचंद गांधी प्रकाश भी थे और प्रकाश स्तंभ भी। उनके विद्वान पौत्र राजमोहन गांधी ने जब उनकी वृहत् जीवनी लिखी तो उपमा-अलंकार के फेर में पड़े बिना पुस्तक को शीर्षक दिया- मोहनदास। इसके आगे जिसको जो मर्जी आए जोड़ ले। एक समय वे मिस्टर गांधी के नाम से जाने गए। परिवार के सदस्यों ने उन्हें बापूजी कहा, लेकिन आम जनता द्वारा प्रयुक्त जी रहित बापू में आदर और आत्मीयता के भाव में कोई कमी नहीं है। भारत के ग्रामीण समाज में सहज रूप से उन्हें बाबा या बबा कहकर भी पुकारा गया। प्रेमचंद के कम से कम चार उपन्यासों- रंगभूमि, कर्मभूमि, गबन और गोदान में गांधी की उपस्थिति सर्वत्र है। वे उनकी अनेक कहानियों में भी प्रकट होते हैं। मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, निराला, पंत, महादेवी, बच्चन, सोहनलाल द्विवेदी प्रभृति कितने वरेण्य साहित्यकारों ने उन पर कविताएं लिखीं। कवि प्रदीप लिखित जागृति के गीत ''साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल'' से लेकर, ''लंबे हाथ'' के ''तुममें ही कोई गौतम होगा, तुममें ही कोई होगा गांधी'' न जाने कितनी फिल्मों में उन पर गीत लिखे गए। रायपुर के बैरिस्टर गांधीवादी रामदयाल तिवारी ने 1937 में ''गांधी मीमांसा'' शीर्षक से उनके जीवन दर्शन पर ग्रंथ लिखा। दो साल पहिले चंपारन सत्याग्रह की शताब्दी पर दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हुईं। आज जब 150वीं जयंती मनाई जा रही है तो ध्यान आना स्वाभाविक है कि पच्चीस साल पहले अविभाजित मध्यप्रदेश में सरकार ने एक सौ पच्चीसवां जन्मदिन समिति बनाई थी और उसके अध्यक्ष कनक तिवारी ने आयोजनों की झड़ी और पुस्तकों की ढेरी लगा दी थी।
इस असमाप्त पृष्ठभूमि में आज अपने आपसे यह सवाल करने की आवश्यकता है कि गांधी हमारे लिए क्या मायने रखते हैं। जो बीत गई सो बीत गई, लेकिन वर्तमान में गांधी की क्या कोई प्रासंगिकता है? क्या भारत को या दुनिया को उनकी वैसी ही ज़रुरत है जो उनके जीवनकाल में थी? आज के वैश्विक परिदृश्य में क्या उनसे उसी तरह प्रेरणा ली जा सकती है, जैसी आज से चालीस-पचास साल पहले तक ली जाती थी? फिल्मों में कोर्टरूम और पुलिस थाने के दृश्यों में गांधी की तस्वीर लगभग अनिवार्य तौर पर देखने मिलती है, सरकारी दफ्तरों और इमारतों में भी उनके चित्र दीवार पर बदस्तूर टांगे जाते हैं। इस औपचारिकता का निर्वाह वे सत्ताधीश भी करते हैं जिनके मन में गांधी नहीं, गोडसे बसता है। इसीलिए वे मजबूरी का नाम महात्मा गांधी का मुहावरा चलाते हैं, जिसका प्रतिउत्तर मित्र लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल ''मजबूती का नाम महात्मा गांधी'' से देते हैं। आज भी चरखा चलाने और खादी पहनने वाले अनेकानेक जन मजबूरी और मजबूती के बीच के भारी अंतर को नहीं समझ पाते। गांधी एक छाया और छायाचित्र की तरह हमारे राष्ट्रीय जीवन में मौजूद हैं। उन्हें शायद किसी दिन कल्कि अवतार भी घोषित कर दिया जाए!किंतु बुनियादी प्रश्न तो गांधी के विचारों को समझने व आत्मसात करने का है। वे सब जो गांधी के नाम पर यत्र-तत्र-सर्वत्र समारोह कर रहे हैं, वे गांधी जीवन दर्शन को यदि यत्किंचित भी समझ पाएंगे तो स्वयं अपना भला करेंगे।
गांधी ने कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। इस गहन-गंभीर लेकिन सादे से सुनाई देने वाले वाक्य की तह में जाने का प्रयत्न करना चाहिए। मेरी सीमित समझ में कुछ बिंदु आते हैं। एक-गांधी के जीवन में कोई लाग-लपेट नहीं थी। वे भीतर-बाहर से एक थे। पारदर्शी। दो- मैंने जितना इतिहास पढ़ा है, उसके अनुसार वे अब तक के एकमात्र योद्धा हैं, जिसने सही मायने में (अंग्रेजी में कहेंगे लैटर और स्पिरिट) धर्मयुद्ध लड़ा। युधिष्ठिर को भी मिथ्या संभाषण का आश्रय लेना पड़ा था, लेकिन गांधी ने ऐसा नहीं किया। यह काम वही मनुष्य कर सकता था जिसमें अपार नैतिक साहस हो। तीन-उन्होंने अपनी शर्तों पर अपने जीवन का संचालन किया। कभी किसी को बड़ा या छोटा नहीं समझा। न कभी किसी का तिरस्कार किया और न कभी किसी का रौब उन पर गालिब हो पाया। चार- सत्य, अहिंसा, सविनय अवज्ञा, अपरिग्रह इन सात्विक गुणों का ही इस्तेमाल उन्होंने अस्त्र की तरह किया। धार न भोथरी थी, न जंग लगी, उसमें चमक थी, तभी कारगर हो पाई। पांच- समय की पाबंदी, मितव्ययिता, छोटी सी छोटी वस्तु जैसे कागज के टुकड़े या आलपीन तक का उपयोग कर जीवन में संयम व संतुलन का संदेश दिया। छह- कभी जानने की कोशिश कीजिए कि भारी व्यस्तता के बीच भी वे विश्व भर का साहित्य पढऩे का समय कैसे निकाल लेते थे। सात- वे मनोविज्ञान के पारखी थे। तभी उनके आह्वान पर चूल्हा-चौका, परदा-घूंघट-बुर्का तजकर लाखों स्त्रियां स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने सड़कों पर आ गई। सहर्ष जेल यात्राएं भी झेल लीं। इसी का दूसरा पक्ष है कि जो स्त्री-पुरुष साहस के ऐसे धनी न थे, उन्हें कई तरह के रचनात्मक कार्यक्रमों से जोड़ दिया। आठ- भाषण, प्रवचन, मानसिक व्यायाम से परे स्वयं कर्मठ जीवन जिया और अपने संपर्क में आए हर व्यक्ति को निरंतर कर्मप्रधान जीवनयापन की शिक्षा दी। नौ- देश की आज़ादी के प्रधान लक्ष्य के अलावा देश और दुनिया के समक्ष उपस्थित समस्याओं एवं चुनौतियों का संज्ञान लेते हुए उनके समाधान की पहल की। दस- धर्म, संप्रदाय, भाषा, वेशभूषा, देश, प्रांत, स्त्री-पुरुष जैसी तमाम कोटियों से ऊपर उठकर मनुष्य मात्र का सम्मान, मानवीय गरिमा अक्षुण्ण रखने की आकुलता उनमें थी। गांधी को समझने-समझाने की यह एक आधी-अधूरी, असमाप्त कोशिश है।
#देशबंधु में 2 अक्तूबर 2019 को प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित विशेष संपादकीय

Wednesday, 25 September 2019

देशबन्धु के साठ साल-12


हमने सीखा था कि एक फोटो एक हजार शब्दों के बराबर होता है। इस सीख का दूसरा पहलू था कि तस्वीरें झूठ नहीं बोलतीं। उन दिनों टीवी नहीं था। सोशल मीडिया भी नहीं था। तस्वीर की फोटोशॉपिंग कर झूठ को सच या सच को झूठ सिद्ध करने की गुंजाइश नहीं थी। महानगरों से प्रकाशित पत्रों में बेहतरीन फोटो छापने की होड़ होती थी। एक अच्छे फोटो से समाचार में निखार आता, पेज की सजावट में वृद्धि होती और पाठक को भी चाक्षुष आनंद मिलता। अखबार पर उसका भरोसा भी बढ़ता। लेकिन रायपुर-जबलपुर जैसे आंचलिक केंद्रों से प्रकाशित अखबारों के सामने व्यवहारिक अड़चन थी। अच्छी से अच्छी तस्वीर खींचकर ले आएं लेकिन उसे छापें कैसे? अखबारी भाषा में जिसे ''ब्लॉक" कहते थे, उसे बनाने की सुविधा इन स्थानों पर नहीं थी। ब्लॉक याने सीसे में ढालकर लकड़ी पर मढ़ी गई फोटो की प्रतिकृति। उन दिनों हम जैसे सभी अखबार महत्वपूर्ण व्यक्तियों के पासपोर्ट आकार के फोटो के ब्लॉक बाहर से बनवाकर अपने कंपोजिंग कक्ष की आलमारी में तरतीबवार जमा कर रख लेते थे। किसी व्यक्ति से संबंधित समाचार के साथ फोटो देना आवश्यक समझा तो उसका ब्लॉक निकालकर पेज में सजा दिया। छपाई के बाद ब्लॉक वापिस आलमारी में।
इस प्रक्रिया में कभी-कभार मनोरंजक स्थिति उत्पन्न हो जाती। एक बार विनोबा भावे से संबंधित समाचार देना था तो उनकी जगह रायपुर के प्रतिष्ठित शिक्षक आचार्य सुधीर कुमार बोस का फोटो लग गया। जब रॉबर्ट कैनेडी की हत्या हुई तो जॉन एफ. कैनेडी का फोटो लगाया और अपनी अक्लमंदी का परिचय देते हुए शीर्षक दिया- अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन कैनेडी, जिसके भाई रॉबर्ट कैनेडी की भी हत्या कर दी गई। एक बार तो हद हो गई। वरिष्ठ राजनेता और राज्य के तत्कालीन शिक्षामंत्री शंकरदयाल शर्मा के स्थान पर हकीम वीरूमल आर्यप्रेमी की तस्वीर का ब्लाक लग गया। 60-70 के दौरान हकीम वीरूमल और एक डॉक्टर आजाद के आधा-आधा पेज के विज्ञापन उनके छत्तीसगढ़-प्रवास के दिनों में छपा करते थे। गलत फोटो इसलिए लग गया क्योंकि डॉ. शर्मा और हकीमजी दोनों के ब्लॉक कई बार छपने के कारण घिस गए थे और सिर्फ टोपी और गोलमटोल चेहरे का साम्य देखकर अनुमान से ब्लॉक चुन लिया गया। आज नवीनतम तकनीकी के प्रयोग के बाद भी अखबारों में गलतियां किसी न किसी रूप में होती ही हैं। ऐसी चूकों के चलते जगहंसाई होती है। अपने आप पर गुस्सा आता है। उन पर पाठकों व संबंधित पक्षों से माफी मांगने के अलावा और कोई उपाय नहीं होता।
आमतौर पर पाठक या तो अखबार के संपादक को उसका नाम प्रतिदिन छपने के कारण जानते हैं या फिर प्रकाशन स्थल सहित अनेकानेक केंद्रों में नियुक्त संवाददाताओं को उनके सामाजिक संपर्कों के कारण। संपादकीय कक्ष में दिन या रात पाली में कई-कई घंटे बैठकर अखबार की पृष्ठ सज्जा व उसे अंतिम रूप देने वाले डेस्क संपादक अमूमन पृष्ठभूमि में ही रहे आते हैं। सलीम-जावेद के पहले संवाद लेखकों को कौन जानता था? इनकी भूमिका पर बाद में लिखूंगा, लेकिन संवाददाताओं के कारण यदि कभी पाठकों की भूरि-भूरि प्रशंसा मिलती है तो कभी विचित्र स्थिति भी पेश आ जाती है। उदाहरण के लिए यह सच्चा किस्सा सुन लीजिए। यह सन् 65-66 की बात होगी। पंडरिया (कबीरधाम ज़िला) के संवाददाता एक दिन गुस्से में भरकर प्रेस आए। दरयाफ्त किया- उनके भेजे समाचार कई दिन से नहीं छप रहे हैं। क्या बात है? प्रांतीय डेस्क के प्रभारी ने उन्हें मेरे पास भेज दिया। मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया- आप रोज-रोज थानेदार के खिलाफ समाचार क्यों भेजते हैं? एक-दो बार छाप दिया, लेकिन हर दिन तो ऐसा नहीं कर सकते। इस पर उनका उत्तर खासा दिलचस्प था। थानेदार रोज मेरे घर के सामने से निकलता है। मुझे देखकर भी नमस्ते नहीं करता। ऐेसे में गांव में मेरी क्या इज्जत रह जाएगी? मैंने संवाददाता महोदय को समझाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने। अंतत: कुछ दिनों बाद हमें उनके स्थान पर दूसरा व्यक्ति नियुक्त करना पड़ा।
दरअसल, भारतीय समाज अखबारनवीसों को विशिष्ट श्रेणी का नागरिक मानकर चलता है। और भला ऐसा क्यों न हो? गांधी, नेहरू, तिलक, सुभाष, राजाजी सबने तो स्वाधीनता संग्राम में अखबार निकालकर अपनी कलम के जौहर दिखलाए थे। उनका असर आज तक चला आ रहा है। कोई व्यक्ति अपने किसी काम के लिए राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजता है तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, कलेक्टर के अलावा उसकी प्रति ''समस्त अखबारों को भेजी जाती है। पत्रकारों के पास नागरिक अपने दुख-दर्द सुनाने आते हैं, उनसे अक्सर भयभीत रहते हैं और अखबार वाले क्या नहीं कर सकते के मिथक में भी विश्वास रखते हैं। ऐसे में एक ग्रामीण संवाददाता यदि थानेदार को नमस्कार करने के बजाय उससे पहल करने की अपेक्षा करे तो इसमें उसका क्या दोष है? एक और सच्चा किस्सा सुन लीजिए। रायपुर का एमजी रोड एक समय ''वन वे" था। किसी हड़बड़ी में मैं गलत दिशा में गाड़ी ले गया। ट्रैफिक सिपाही ने रोका। चालान काटने के लिए नाम, पिता का नाम पूछा। पता देशबन्धु सुनते ही वह रुक गया। वही अखबार जिसके राजनारायण मिश्र मालिक हैं! हां भाई, वही मेरे बॉस हैं। ठीक है। जाओ। आगे से ध्यान रखना।
हम पत्रकारों को इससे एकदम विपरीत स्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। दफ्तर में मेरा कक्ष काफी छोटा है। एक दिन धड़धड़ाते हुए सात-आठ लोग कमरे में घुस आए। आप ही संपादक हैं? हां। आज आपने मेरे बारे में कैसे छाप दिया कि मैं शहर का कुख्यात गुंडा हूं, कहते हुए पेपर पटक दिया। मैंने देखा- बीते दिन किसी पुलिस कार्रवाई के सिलसिले में नाम के साथ विशेषण छपा था। मैंने पूछा- इसमें गलत क्या लिखा है? तुम अपने साथियों को लेकर धमक पड़े हो तो यह क्या है? मैं तुम्हें देख लूंगा। ठीक है, उसके लिए प्रतीक्षा क्यों? मैं तो यहीं अकेला निहत्था बैठा हूं। जो चाहो कर लो। उसका दिमाग थोड़ा ठंडा हुआ। मेरी बेटी स्कूल में पढ़ती है।उसे सहेलियों ने आज उल्टी-सीधी सुनाई। अगर बेटी के बारे में इतना सोचते हो तो ऐसे काम ही क्यों करते हो? मैं उस लड़के के पिता को जानता था। उन्होंने सुनील दत्त की फिल्म 'साधना" से प्रेरणा ले विवाह किया था। मैंने उसके पिता की याद दिलाई तो उसका स्वर एकदम नरम हो गया। अपनी बेअदबी के लिए माफी मांगकर वह और उसके साथी चले गए। मुझे मन ही मन डर तो लगा था, लेकिन बाबूजी ने बरसों पहले जबलपुर में इसी तरह दो बार दादा लोगों को शांत किया था। वे प्रसंग मेरे ध्यान में थे।
इन संस्मरणों में खास कुछ भी नहीं है। ये पत्रकारों की सामान्य दिनचर्या के हिस्से हैं। किसी भी अन्य व्यवसाय में और किसी भी व्यक्ति के जीवन में ऐसे खट्टे-मीठे अनुभव आते होंगे। हम कभी-कभार हवा के घोड़े पर सवार होते हैं तो अक्सर हमें जमीन पर ही चलना होता है। एक समय मैंने नोटिस किया कि पत्रकार गण किसी कार्यक्रम में गए तो उचित सत्कार न होने के कारण बहिष्कार करके लौट आए। मैंने देशबन्धु में अपने साथियों को हिदायत दी कि यदि आप किसी आयोजन को व्यापक जनहित में मानकर रिपोर्टिंग करने जा रहे हैं तो काम पूरा करके लौटिए। सुविधाओं की चिंता मत कीजिए। अगर पूरे समय खड़े रहकर कवरेज करना है तो वह भी कीजिए। आखिरकार हम पाठकों के प्रति उत्तरदायी हैं। सुप्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार जेम्स रेस्टन के संस्मरणों से मैंने दो बातें जानी थीं। एक- व्हाइट हाउस की पत्रकार वार्ता में अधिकृत संवाददाता ही सामने बैठते हैं। संयोग से यदि प्रधान संपादक भी आ जाए तो वह पीछे खड़ा होगा। दो- जब पत्रकार अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ दौरे पर जाते हैं तो अखबार उनका अनुमानित यात्रा व्यय राष्ट्रपति भवन को भेज देता है। मुफ्त की सैर नहीं होती। यह शायद एक कारण है कि अमेरिका में आज भी पत्रकार राष्ट्रपति का विरोध करने का साहस जुटा पाते हैं।
#देशबंधु में 26 सितंबर 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 18 September 2019

देशबन्धु के साठ साल-11


आज जब कारपोरेट पूंजी ने भारत की अर्थव्यवस्था को बेतरह अपने शिकंजे में जकड़ लिया है और विनिवेश जैसी छलपूर्ण संज्ञा की ओट में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को निजी पूंजी के हवाले करने का षड़यंत्र लगभग सफल हो चुका है, तब यह स्मरण हो आना स्वाभाविक है कि आज से 50-60 वर्ष पहले सार्वजनिक क्षेत्र के इन्हीं उद्यमों ने भारतवासियों के हृदय में नए सिरे से आत्मविश्वास भर दिया था, मन में नई ऊर्जा का संचार किया था और एक बेहतर भविष्य का स्वप्न हमारी आंखों में तैरने लगा था। छत्तीसगढ़ में पब्लिक सेक्टर के इन उद्यमों के कारण जो परिवर्तन आए, देशबन्धु लंबे समय से उनका साक्षी रहा है।
छत्तीसगढ़ का रेल यातायात उन दिनों दक्षिण-पूर्व रेलवे के अंतर्गत संचालित होता था। जिसका मुख्यालय कलकत्ता में था। बिलासपुर जोन की स्थापना तो बहुत बाद में हुई। हम अखबार वालों का काम सामान्यत: रेलवे के जनसंपर्क विभाग से ही पड़ता था। एक वरिष्ठ अधिकारी रघुवर दयाल (आर. दयाल) तब द.पू. रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी थे। रायपुर के अखबारों में रेलवे से संबंधित कोई भी खबर छपे तो शाम की बंबई-हावड़ा मेल से उसकी कतरन उनके पास चली जाती थी। यदि उस पर कोई स्पष्टीकरण या निराकरण की आवश्यकता हो तो दिन भर में कार्रवाई पूरी कर लौटती मेल से संपादक को उत्तर भेज दिया जाता था। सरकारी काम-काज में ऐसी फुर्ती और जवाबदेही की आज कल्पना करना भी मुश्किल है।
रेलवे के जनसंपर्क विभाग ने 1964 की मई में एक प्रेस टूर का आयोजन किया। वे हमें भिलाई के निकट स्थापित चरौदा मार्शलिंग यार्ड; बिलासपुर डिवीजन की कार्यप्रणाली; और बिलासपुर से भनवार टांक तक बिछ रही दूसरी रेलवे लाइन से परिचित कराना चाहते थे। मेरे लिए किसी प्रेस टूर पर जाने का यह पहला अवसर था। मालगाड़ी के डिब्बे में प्रथम श्रेणी की एक बोगी लगा दी गई। तीन-चार दिन तक हमारा ठिकाना उसी बोगी में रहा। चरौदा में हमने देखा कि किस तरह भिलाई इस्पात कारखाने के भीतर वैगनों में माल भराई होती है और मार्शलिंग यार्ड में उन वैगनों को अलग-अलग पटरियों पर डालकर विभिन्न दिशाओं के विभिन्न स्टेशनों के लिए पचास-साठ डिब्बों की मालगाड़ियां बनाई जाती हैं। खोडरी, खोंगसरा, भनवार टांक जैसे वनक्षेत्र के बीच बसे लगभग निर्जन रेलवे स्टेशनों पर फर्स्ट क्लास की एकाकी कोच में रात बिताना तो एक नया अनुभव था ही, रेल पटरियां बिछाते मजदूरों की गैंग, जंगल में तंबू तानकर बने रेलवे के अस्थायी दफ्तर व इंजीनियरों आदि के आवास, वहीं भोजन का प्रबंध- यह सब भी पत्रकार की कल्पना को पंख लगाने के लिए क्या कम था? मैंने लौटने के बाद दो किश्तों में अपने अनुभव लिखे।
इस अध्ययन यात्रा के दौरान भिलाई इस्पात संयंत्र के जनसंपर्क विभाग के अधिकारियों से संक्षिप्त परिचय हो गया था। एकाध माह बाद ही भिलाई में पहली पत्रवार्ता में जाने का अवसर मिला। स. इंद्रजीत सिंह तब संयंत्र के जनरल मैनेजर थे (बाद में इसी को प्रबंध संचालक का पदनाम दे दिया गया)। एफ. सी. ताहिलरमानी मुख्य जनसंपर्क अधिकारी थे और के.के. वर्मा आदि उनके अधीनस्थ अधिकारी। इस पत्रवार्ता में लगे जमघट को देखकर मुझे हैरानी हुई। रायपुर से हम 15-20 पत्रकार, साथ में दुर्ग व राजनांदगांव के सभी पत्रों के संवाददाता। श्री सिंह ने संयंत्र की मासिक प्रगति का विवरण पढ़कर सुनाया, दो-चार सवाल हुए और भिलाई होटल में लंच के साथ पत्रवार्ता समाप्त। उस दिन तो नहीं, लेकिन बाद में मैंने श्री ताहिलरमानी को पत्र लिखा कि इस मासिक पत्रवार्ता में हमारे दुर्ग प्रतिनिधि ही भाग लेंगे; रायपुर-राजनांदगांव से कोई नहीं आएगा। धीरे-धीरे अन्य अखबारों ने भी यह पद्धति अपना ली। ध्यान दीजिए कि उस समय तक भिलाई में किसी भी अखबार का दफ्तर या रिपोर्टर तैनात नहीं था। दुर्ग-भिलाई की पहचान एक जुड़वां शहर के रूप में थी।
खैर, भिलाई के जनसंपर्क विभाग की कार्यदक्षता और तत्परता भी गौरतलब थी। जितना में समझता हूं इसकी नींव श्री ताहिलरमानी ने ही डाली थी और उसे स्थिर करने का काम प्रदीप सिंह ने किया। भिलाई के बारे में कोई भी खबर छपे, तुरंत उस पर आधिकारिक प्रतिक्रिया आ जाती थी। जनसंपर्क विभाग पर ही आम नागरिकों को संयंत्र का अवलोकन याने गाइडेड टूर कराने का दायित्व था। छत्तीसगढ़ में जो मेहमान आते थे, उन्हें भिलाई देखने की उत्सुकता होती थी और मेजबानों को भी चाव होता था कि उन्हें भिलाई स्टील प्लांट तथा मैत्रीबाग घुमाने ले जाएं। भिलाई की टाउनशिप भी अपने आप में आकर्षण का केंद्र थी। उस समय की एक मार्मिक खबर कुछ-कुछ याद आती है। एक रशियन इंजीनियर की आकस्मिक मृत्यु मैत्रीबाग से लगे मरौदा जलाशय में हो गई। उसका तेरह साल का बेटा कार लेकर अस्पताल भागे-भागे आया। सबको आश्चर्य हुआ कि इतने छोटे से लड़के ने कैसे कार चला ली!
बैलाडीला लौह अयस्क परियोजना और उसी क्षेत्र में निर्माणाधीन डी.बी.के. रेलवे (किरंदुल-विशाखापटट्नम लाइन) पर चल रहे काम को देखना भी कम रोमांचक नहीं था। उन दिनों जगदलपुर में होटल भी नहीं थे। रायपुर से जगदलपुर की सिंगल लेन सड़क पर, बीच-बीच में लकड़ी के पुलों से गुजरते हुए दस घंटे में यात्रा पूरी हुई थी। गीदम-दंतेवाड़ा तब छोटे-छोटे गांव थे। एक रात हमने भांसी बेस कैंप में तंबुओं में ही गुजारी थी। मई माह में भी रात को कंबल ओढ़ने की जरूरत पड़ गई थी। किरंदुल का मानो तब अस्तित्व ही नहीं था। भांसी से हम जीप से ऊपर डिपाजिट-12 तक गए थे, जहां उत्खनन प्रारंभ होने वाला था। मैं देख रहा था कि कितने ही लोग सामान की बोरियां उठाए धीरे-धीरे पैदल ऊपर चढ़ रहे हैं। उस दिन पहली बार डिपॉजिट-12 पर साप्ताहिक बाजार लगने वाला था। इसके अलावा हमारे पत्रकार दल ने नई रेल लाइन बिछाने के काम का भी अवलोकन किया।
तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से विस्थापित जनों की एक बस्ती दंडाकारण्य प्रोजेक्ट के अंतर्गत बस्तर में बसाई गई थी। उनमें से कई लोग रेलवे लाइन पर काम कर रहे थे। वरिष्ठ साथी मेघनाद बोधनकर व मैं उनकी कॉलोनी में गए। विपरीत परिस्थितियों के बीच भी उनकी जिजीविषा, परिश्रम, सुरुचिसंपन्नता को उन्होंने जैसे संजोकर रखा था, उससे हम बेहद प्रभावित हुए थे।
कुछ साल बाद शायद 1972 में एक प्रेस टूर में कोरबा जाने का अवसर मिला, जहां बाल्को (जिसे वाजपेयी सरकार ने वेदांता को बेच दिया) के एल्युमीनियम संयंत्र के निर्माण का शुरुआती काम चल रहा था। बाल्को के पहले इंजीनियर आर.पी. लाठ तथा कार्मिक प्रबंधक दामोदर पंडा से पहली बार भेंट हुई। श्री पंडा हमारे पथप्रदर्शक थे और श्री लाठ से आगे चलकर हमारी पारिवारिक मित्रता हुई। देश के नक्शे पर कोरबा एक औद्योगिक नगर के रूप में उभरने के पहले चरण में था। भिलाई, चरौदा, भनवार टांक, भांसी डिपाजिट-12, कोरबा, इन सभी स्थानों पर एक नया भारत मानो अंगड़ाई लेकर उठ रहा था। अंग्रेजों की दो सौ साल की गुलामी ने भारत के आत्मबल, उद्यमशीलता, साहसिकता को नष्ट कर दिया था। उसके विपरीत एक नई फिजां बन रही थी।
देशबन्धु में हमें संतोष था कि हम इस परिवर्तन के गवाह बन रहे हैं। आज जब बात-बात पर सार्वजनिक उद्योगों की निंदा और निजी क्षेत्र की वकालत होती है तो ऐसा करने वालों की समझ पर तरस आता है। क्योंकि हमने देखा, लिखा और छापा है कि सार्वजनिक क्षेत्र ने अपनी गलतियों व कमजोरियों के बावजूद एक सशक्त देश की बुनियाद रखने में कितनी महती भूमिका निभाई है।
#देशबंधु में 19 सितंबर 2019 को प्रकाशित

Friday, 13 September 2019

देशबन्धु के साठ साल-10



''अकाल उत्सव समाप्त हो गया"

अप्रैल 1980 में प्रथम पृष्ठ पर एक सप्ताह तक छपी रिपोर्टिंग श्रृंखला का यही मुख्य शीर्षक था। बीते साल छत्तीसगढ़ में अकाल पड़ा था। इधर इंदिरा गांधी दुबारा प्रधानमंत्री बनकर लौट आई थीं।  केंद्र की जनता पार्टी सरकार को तो मतदाता ने नकार ही दिया था; राज्यों में भी जनता पार्टी की सरकारें बरखास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था। मध्यप्रदेश भी उन राज्यों में एक था। छत्तीसगढ़ में अकाल की स्थिति को देखते हुए सरकार ने राहत कार्य प्रारंभ कर दिए थे। इंदिरा जी 23 मार्च को एक दिन के हवाई दौरे पर राहत कार्यों का निरीक्षण करने छत्तीसगढ़ आईं। उनका दौरा भारी व्यस्त था। एक दिन में नौ स्थानों पर जाने का कार्यक्रम था। हमने अपने सभी वरिष्ठ साथियों को अलग-अलग स्थान पर कवरेज करने भेजा। मैं स्वयं रायपुर से लगभग 55 कि.मी. दूर संडी बंगला नामक गांव गया। वहां सिंचाई विभाग की एक सौ साल पुरानी निरीक्षण कुटी थी, जिसे बंगला कहा जाता था। इंदिराजी को यहां निकटस्थ जर्वे गांव से गुजरने वाली नहर पर राहत कार्य के अंतर्गत गहरीकरण और गाद निकालने जैसे कामों का स्थल निरीक्षण करना था।

 हम इस तरह भिन्न-भिन्न जगहों पर गए। रायपुर के साथी शाम तक लौट आए। दूरदराज के संवाददाताओं ने फोन पर रिपोर्ट दाखिल कर दीं। यह तो सामान्य बात थी। हमने ठीक एक सप्ताह बाद उन्हीं साथियों को दुबारा राहत कार्यस्थल भेजा। देखकर आएं कि एक सप्ताह बाद क्या स्थिति बनी है। सत्येंद्र गुमाश्ता महासमुंद के पास तालाब गहरीकरण स्थल पर गए थे। उन्होंने लौटकर जो रिपोर्ट बनाई वह 8 अप्रैल को छपी। उसका पहला पैराग्राफ कुछ इस तरह था- ''तालाब  में जाने के लिए एक कोने में बाकायदा पार फूटी हुई थी। इसी रास्ते से होकर श्रीमती गांधी को तालाब के भीतर ले जाया गया था। वहां मिट्टी के भीतर एक गेंदे की माला अभी भी दबी पड़ी थी। उसके पास ही जमीन पर जमे सिंदूर की लाली और कुछ दूरी पर नारियल की टूटी हुई ताजा खोपड़ी।  टीका लगाने और आरती उतारने की याद के लिए यह सब काफी था।" इस एक पैराग्राफ ने ही सरकारी कामकाज की तल्ख  हकीकत सामने रख दी थी। हमने इसी वाक्य के आधार पर मुख्य शीर्षक बना धारावाहिक रिपोर्ट छापना शुरू कर दिया। आर.के. त्रिवेदी राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल के सलाहकार थे।  बाद में वे केंद्रीय निर्वाचन आयुक्त बने।  राज्य का प्रशासन उनके ही जिम्मे था। वे इस रिपोर्ट को पढ़कर बेहद खफा हुए। उन्होंने दिल्ली दरबार तक शिकायत की। लेकिन जिन तक शिकायत गई, वे त्रिवेदीजी के मुकाबले देशबन्धु को बेहतर जानते थे। बात वहीं खत्म कर दी गई।

जिस एक समाचार ने हमें अपने पत्रकार कर्म की सार्थकता के प्रति आश्वस्त किया और जो  हमारे लिए गहरे संतोष का कारण बनी, वह 29 फरवरी 1992 को प्रकाशित हुई षी। इस भीतर तक हिला देने वाले समाचार को सरगुजा के तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख कौशल मिश्र ने भेजा था। आदिवासी बहुल सरगुजा अंचल की एक दूरस्थ पहाड़ी बसाहट में रिबई पंडो नामक आदिवासी के पोते बाबूलाल की भूख के चलते अकाल मृत्यु हो गई थी। एक-दो दिन बाद इस बच्चे की मां ने भी भूख से दम तोड़ दिया। इनके अंतिम संस्कार के लिए रिबई को अपनी दो एकड़ जमीन दो सौ रुपए में गिरवी रखना पड़ी।  खबर छपते ही जिला प्रशासन तो क्या राज्य सरकार और केंद्र सरकार तक हरकत में आई।  जिला प्रशासन ने जैसा कि अमूमन होता है खबर पर लीपापोती करने की कोशिश की। आनन-फानन में रिबई पंडो की झोपड़ी में अनाज पहुंचा दिया गया। देशबन्धु पर गलत खबर छापकर सनसनी फैलाने का आरोप भी लगाया गया, लेकिन सच्चाई सामने आ चुकी थी और उसे दबाना मुमकिन नहीं था। सच्चाई जानने प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव  मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के साथ 7 अप्रैल 1992 को सरगुजा पहुंचे।

सरगुजा की यह खबर तो एक त्रासदी घटित हो जाने के बाद प्रकाशित हुई, लेकिन हमारे संवाददाता खेमराज देवांगन एक ऐसी रिपोर्ट लेकर आए, जिसने तीन ग्रामीण महिलाओं को प्रताडि़त होने से बचा लिया। यह समाचार 20 नवंबर 2001 के अंक में प्रकाशित हुआ। वैसे तो हिंदीभाषी क्षेत्र में स्त्री अधिकारों के मामले में छत्तीसगढ़ अन्य राज्यों से काफी बेहतर स्थिति में है, लेकिन टोनही की सामाजिक कुप्रथा से प्रदेश पूरी तरह मुक्त नहीं हो सका है। देखा गया है कि किसी बेसहारा, अशक्त, अक्षम महिला पर टोनही (डायन) होने का आरोप लगाकर समाज उसे कई तरीकों से प्रताडि़त करता है। उसे जात बाहर कर देते हैं। गांव से बाहर भी निकाल देते हैं।  फिर उसकी संपत्ति पर रिश्तेदार या कोई और कब्जा जमा लेते हैं। उपरोक्त रिपोर्ट छपने  के कोई दो-तीन सप्ताह पहले ही एक अन्य गांव में कुछ महिलाओं को टोनही के आरोप में निर्वस्त्र कर गांव की गलियों में घुमाया गया था। इस बीच हमारे संवाददाता को सूचना मिली कि रायपुर से कुछ ही किलोमीटर दूर स्थित बेंद्री गांव में इसी तरह का षडय़ंत्र रचा जा रहा है। खेमराज ने उस गांव जाकर पूरे मामले को समझा और विस्तारपूर्वक रिपोर्ट प्रकाशित की। समाचार का शीर्षक था-''उन्हें आज साबित करना होगा वे टोनही नहीं हैं।" समाचार की प्रशासन तंत्र में अनुकूल प्रतिक्रिया हुई। फौरी कदम उठाए गए और एक अनहोनी होते-होते टल गई। इस रिपोर्ट पर खेमराज देवांगन को स्टेट्समैन का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ।

1980-81 में ही प्रकाशित एक रिपोर्ट इन सबसे अलग मिजाज़ की थी और उसके बनने का किस्सा भी दिलचस्प है। रायपुर के ही एक अन्य अखबार में पाठकों के पत्र स्तंभ में एक चार पंक्तियों का संक्षिप्त पत्र छपा- लुड़ेग के बाज़ार में आदिवासी टमाटर लेकर आते हैं और शाम होते-होते औने-पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। मैंने अपने एक सहयोगी गिरिजाशंकर को कहा कि वे लुड़ेग जाएं और पूरी रिपोर्ट तैयार करें। गिरिजा उसी रात निकल पड़े। रायपुर से रायगढ़ ट्रेन से, वहां से बस-ट्रक जो मिले उससे लुड़ेग- रायपुर से लगभग साढ़े तीन सौ कि.मी. दूर मुख्य मार्ग से कटकर, जशपुर जिले का एक आदिवासी ग्राम।  दो दिन बाद लौटकर वे जो रिपोर्ट लाए, वह चौंका देने वाली थी। दो रुपए में पचास किलो टमाटर! आदिवासी अंचल में टमाटर की फसल बहुतायत से होती है। बांस की टोकरियों में भर कई-कई कि.मी. पैदल चलकर आदिवासी लुड़ेग के बाज़ार आते हैं। दिन भर उनका माल कोई नहीं खरीदता। जानबूझ कर। दिन ढलते जब घर जाने का समय हो जाए तो क्या करें? क्या वापिस उतना बोझ लादकर लौटें? तब रांची आदि स्थानों से आए बिचौलिए उनकी मजबूरी  का लाभ उठाकर पानी के भाव टमाटर खरीद लेते हैं। जिस दिन यह खबर छपी, उसी दिन नवनियुक्त मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह रायगढ़ जिले के प्रथम प्रवास पर पहुंचे थे। उन्होंने समाचार देखकर तुरंत कार्रवाई की। घोषणा की कि रायगढ़ जिले में टमाटर आधारित कृषि उद्योग की स्थापना की जाएगी। घोषणा के बाद सरकारी स्तर पर कुछ दिनों तक हलचल होती रही फिर उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

#देशबंधु में 12 सितंबर 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 4 September 2019

देशबन्धु के साठ साल-9


16 सितंबर 1980 का दिन देशबन्धु के इतिहास में, मुहावरे की भाषा में कहूं तो, स्वर्णाक्षरों में अंकित है। दो दिन पहले दा राजनारायण मिश्र को हमने कलकत्ता (अब कोलकाता) रवाना किया था और अब उनसे एक खबर पाने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। दरअसल, प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचारपत्र ''द स्टेट्समैन" ने ''स्टेट्समैन अवार्ड फॉर एक्सीलेंस इन रूरल रिपोर्टिंग" की स्थापना उसी वर्ष की थी। श्रेष्ठ ग्रामीण पत्रकारिता के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय ऐसे तीन पुरस्कार पहली बार 1979 में छपी रिपोर्टों पर दिए जाने थे। हमने फरवरी-मार्च 80 में अपने साथियों की लिखी रिपोर्टं उन्हें भेज दी थीं। जुलाई में एक उत्साहवर्धक सूचना भी उनसे मिल गई थी कि राजनारायण मिश्र की एक रिपोर्ट को पुरस्कार हेतु चुना गया है। यह नहीं बताया गया था कि दा को तीन में कौन सा पुरस्कार मिलेगा। द स्टेट्समैन का स्थापना दिवस 16 सितंबर है और उसी दिन पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया था। शाम को दा का फोन आया तो हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं था। उनकी रिपोर्ट को प्रथम पुरस्कार मिला था। देश के कोने-कोने से विभिन्न अखबारों से प्राप्त तीन-चार सौ प्रविष्टियों के बीच पुरस्कार मिलने पर गर्व और प्रसन्नता का अनुभव होना स्वाभाविक था।
हमें इस बात का संतोष भी हुआ कि अपने स्थापना काल से लेकर अब तक देशबन्धु ने जिस संपादकीय नीति का वरण किया, उसे राष्ट्रीय स्तर पर और वह भी अपनी पत्रकार बिरादरी के बीच, मान्यता मिली। रॉबर्ट फ्रास्ट की कविता- ''द रोड नॉट टेकन एकाएक मानो चरितार्थ हो गई। कविता की पंक्तियां हैं- ''टू रोड्स डाइवर्जड इन द वुड्स, एंड आई, आई टुक द वन, लैस ट्रॅवल्ड बाई; एंड देट हैज़ मेड ऑल द डिफरेंस"। इसका सरल अनुवाद होगा- वन में दो पगडंडियां फूट रही थीं, मैंने वह चुनी, जिस पर कम लोग ही चले थे, और उसी से हुआ इतना बड़ा फर्क। कम चली राह पर या नई राह खोजने की यह नीति हमने अन्य प्रसंगों में भी अपनाई। फिलहाल ग्रामीण पत्रकारिता की ही चर्चा करें। स्टेट्समैन अवार्ड के पहले वर्ष में ही पहला पुरस्कार हासिल करने से जो शुरूआत हुई, वह लंबे समय तक चलती रही। देशबन्धु के पत्रकारों ने यह पुरस्कार अब तक कुल मिलाकर ग्यारह बार हासिल किया। सत्येंद्र गुमाश्ता ने एक अलग रिकॉर्ड कायम किया। उन्हें अलग-अलग सालों में तीसरा, दूसरा और पहला पुरस्कार मिले। धमतरी के ज़ियाउल हुसैनी को शायद दो बार पुरस्कार मिला। इनके अलावा गिरिजाशंकर, नथमल शर्मा, पवन दुबे, प्रशांत कानस्कर, खेमराज देवांगन भी पुरस्कृत हुए।
ग्रामीण और विकासपरक पत्रकारिता के प्रति बाबूजी का आग्रह प्रारंभ से ही था। एक समाचार माध्यम के रूप में हमारी भूमिका यदि एक ओर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुरूप लोकहित की योजनाओं व कार्यक्रमों की सूचना जन-जन तक पहुंचाना है; तो दूसरी ओर आम जनता की आशा-आकांक्षा, सुख-दु:ख को शासन के ध्यान में लाना भी है। यदि इस दूसरी भूमिका में बहुसंख्यक ग्रामीण समाज के प्रति दुर्लक्ष्य करें तो फिर पत्रकारिता के व्यवसाय में बने रहने का हमारा औचित्य और अधिकार ही क्या है? इसी सोच के अनुरूप हमने ग्रामीण क्षेत्र में अपने संवाददाताओं को लगातार प्रोत्साहित किया, मुख्यालय से वरिष्ठ साथियों को जब आवश्यक समझा, दूरस्थ गांवों तक कवरेज के लिए भेजा तथा अन्य उपाय किए। मैं कह सकता हूँ कि अखबारों का कारपोरेटीकरण होने के पहले तक मध्यप्रदेश में देशबन्धु ही ऐसा पत्र था जिसकी रिपोर्टों का तत्काल संज्ञान शासन-प्रशासन में लिया जाता था और उन पर यथासंभव उचित कार्रवाई भी होती थी।
इस दिशा में एक नया प्रयोग देशबन्धु ने 1968 में किया। बिलासपुर के निकट अकलतरा के पत्रकार परितोष चक्रवर्ती को हमने बाकायदा पर्यटक संवाददाता नियुक्त किया। परितोष कोई एक गांव चुनकर वहां जाते थे और दिन-दिन भर रुक जनता से चर्चा के बाद उस स्थान पर विस्तृत फीचर तैयार करते थे। संवाददाता पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर मोल नहीं लेना चाहते थे, उनके लिए यह सुकून की बात थी। वे गांव के प्रभुओं से कह सकते थे कि हैड ऑफिस से पत्रकार आया था। उसने जो लिखा, उस पर हम क्या कर सकते थे। लेकिन मुझे ध्यान आता है कि स्वयं परितोष को एकाधिक बार ऐसे वर्चस्ववादी जनों का विरोध और नाराजगी झेलना पड़ी थी। आगे चलकर परितोष ने एक कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में हिंदी जगत में अपनी पहचान कायम की। उन्होंने बांग्ला के दो-तीन उपन्यासों का भी हिंदी रूपांतर किया। किसी बात पर नाराज होकर उन्होंने मुझे खलनायक बनाकर भी एक कहानी लिखी थी, लेकिन अभी तीन-चार साल पहले प्रकाशित उनके उपन्यास ''प्रिंटलाईन" में परितोष ने देशबन्धु के दिनों को मोहब्बत के साथ याद किया है जिसमें मेरे प्रति भी उनका सदाशय ही व्यक्त हुआ है। खैर, यह बात यूं ही याद आ गई।
देशबन्धु की ग्रामीण रिपोर्टिंग के अध्याय में बहुत से स्मरणीय प्रसंग हैं। आदिवासी अंचल कांकेर के हमारे तत्कालीन संवाददाता बंशीलाल शर्मा एक अनोखे पत्रकार थे। वे दूर-दराज के गांवों का नियमित दौरा करते थे और प्रशासन की आंखें खोल देने वाली तथ्यपरक रिपोर्टें लेकर आते थे। उन्होंने अबूझमाड़ के दुर्गम इलाके की एक नहीं, दो बार साइकिल से कठिन यात्रा की थी। शायद दूसरी बार राजनारायण मिश्र उनके साथ थे। पंद्रह दिन की यात्रा में न रहने का ठिकाना, न खाने का। गांव में आदिवासी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जैसा सत्कार कर दें, वही स्वर्ग समान। जिस इलाके में सिर्फ पगडंडियों पर चलना हो, वहां साइकिल से यात्रा करना भी दुस्साहस ही था। अबूझमाड़ में सरकार कैसे चलती थी, इसका एक प्रत्यक्षदर्शी अनुभव मेरा अपना है। मई 1972 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अबूझमाड़ का प्रवेशद्वार माने जाने वाले ग्राम ओरछा के प्रवास आईं। मैं रात भर जीप से यात्रा कर वहां पहुंचा था। इंदिराजी का हेलीकॉप्टर उतरा। उन्होंने बड़े प्रेम से आदिवासियों से बातचीत की। ग्राम पंचायत को एक ट्रांजिस्टर भेंट किया। बच्चों को बिस्किट-चॉकलेट बांटे। फिर अमेरिकी सहायता (यूएसएड) से बने एक हैंडपंप का उद्घाटन किया। सच्चाई यह थी कि नीचे छोटे डोंगर की झील से टैंकरों में पानी लाकर ऊपर एक बड़े गड्ढे में भर दिया था। उस पर मोटे-मोटे तखत रख उन पर रिग मशीन खड़ी कर दी थी। इंदिराजी ने हैंडपंप चलाया तो पहले से एकत्र पानी की ही धार उससे निकली। वे जो ट्रांजिस्टर उपहार दे गईं थीं, उसे भी कोई राजस्व कर्मचारी अपने घर ले गया। रिपोर्ट छपी तो ट्रांजिस्टर पंचायत घर में वापिस आया, लेकिन जो बड़ा घोटाला हुआ था, उसका क्या हुआ, पता नहीं चला।
ग्रामीण समाज के साथ हमने सिर्फ समाचार के स्तर पर ही रिश्ता कायम नहीं किया, बल्कि उनके जीवन में बेहतरी लाने की दिशा में भी एक छोटा कदम उठाया। इसकी प्रेरणा मुझे हिंदुस्तान टाइम्स के तत्कालीन संपादक बी.जी. वर्गीज से मिली। उन्होंने दिल्ली से कोई 50-60 कि.मी. दूर छातेरा नामक एक गांव को अंगीकृत कर उसकी विकास में भागीदार बनने की अनूठी पहल की थी। हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार छातेरा जाते, वहां की समस्याओं और आवश्यकताओं को समझते और उन्हें संबंधित अधिकारियों के ध्यान में लाते, ताकि समाधान हो सके। इसके लिए हर सप्ताह ''आवर विलेज छातेरा" शीर्षक से एक कॉलम प्रकाशित होता था।
हमने भी ऐसा ही कुछ करने की ठानी। हमारे साथियों ने खोजबीन कर राजिम और चंपारन के बीच लखना नामक गांव का चयन किया। इस गांव के विकास में सहभागी बनने के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में मैंने सत्येंद्र गुमाश्ता को मनोनीत किया। वे हर सप्ताह लखना जाते, वहां की स्थितियों का अवलोकन करते और ''हमारा गांव लखना शीर्षक कॉलम में उनका वर्णन करते। वे देशबन्धु की ओर से विभिन्न सरकारी कार्यालयों में भी जाते और गांव की समस्याओं का निराकरण करने अधिकारियों को प्रेरित करते। लखना गांव बरसात में टापू बन जाता था। तीन तरफ महानदी, एक तरफ उसमें मिलने वाला बरसाती नाला। एक पुलिया बन जाने से बारहमासी रास्ता खुल जाता। यह काम हुआ। शिक्षा, स्वास्थ्य, पशुचिकित्सा, दुग्धपालन इत्यादि कई विषयों पर हमारी इस मुहिम ने ध्यान आकर्षित करवाया। लखना में अब तक बिजली नहीं पहुंची थी। बिजली विभाग से संपर्क साध कर यह काम भी हुआ। गांव में स्ट्रीट लाइट लगा दी गई। मैं उसके दो-चार दिन बाद वहां गया। शाम के समय जब स्ट्रीट लाइट का उजाला फैल चुका था। ग्रामवासियों से हमारी बातचीत हुई। एक जन ने जो बात कही, वह आज तक मेरे कानों में गूंजती है। उसने कहा- ''लाइट आ जाने से हमारी जिंदगी बढ़ गई। अब तक हम सात-साढ़े सात बजे तक घरों में बंद हो जाते थे। अंधेरे में और करते भी क्या। लेकिन अब देखिए, रात के नौ बजे तक लोग-बाग घरों के बाहर बैठे हैं। बच्चे खेल रहे हैं। आदमी-औरत अपनी-अपनी मंडली में बैठे हैं।"
अभी दो साल पहले रायपुर रेलवे स्टेशन पर मैं ट्रेन की प्रतीक्षा में खड़ा था। एक सज्जन आए। आप ललित सुरजन हैं? हां कहने पर वे उत्साहित हुए। अपना परिचय दिया- मैं लखना का हूं। आपके अखबार ने हमारे गांव की तस्वीर बदल दी। उनके दिए इस सर्टिफिकेट को मैंने मन की दीवाल पर मढ़ लिया है।
#देशबंधु में 05 सितम्बर 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 28 August 2019

देशबन्धु के साठ साल-8


अनेक सेवानिवृत्त अधिकारियों ने, जो बड़े-बड़े पदों पर काम कर चुके हैं, आत्मकथाएं लिखी हैं। ये सभी पुस्तकें अंग्रेजी में लिखी गई हैं और लगभग निरपवाद आत्मश्लाघा से भरपूर हैं। मेरे देखे में एक आरएसवीपी नरोन्हा और दूसरे जावेद चौधरी ही हैं जिनकी आत्मकथा क्रमश: ''ए टेल टोल्ड बाई एन इडियट" और ''द इनसाइडर्स व्यू : मेमॉयर्स ऑफ ए पब्लिक सर्वेंट" निज पर अधिक केंद्रित होने के बजाय प्रशासनिक काम-काज की बारीकियों में झांकने का अवसर प्रदान करती हैं। मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव पद से सेवानिवृत्त और बाद में चार दफे भोपाल क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा सदस्य बने सुशीलचंद्र वर्मा की 'कलेक्टर की डायरी" शायद किसी वरिष्ठ आईएएस द्वारा हिंदी में लिखी गई एकमात्र आत्मकथा है। इस पुस्तक को धारावाहिक रूप में छापने का सुअवसर भी देशबन्धु को मिला। वर्माजी का अंदाजा-बयां बेहद दिलचस्प और पुरलुत्फहै। उनकी रोचक लेखन शैली नरोन्हा साहब की लेखनी के समकक्ष ठहरती है। वर्माजी ने बैतूल, रायपुर जैसे महत्वपूर्ण समझे जाने वाले जिलों की कलेक्टरी की और आगे चलकर वे केंद्र में ग्रामीण विकास विभाग के सचिव भी रहे। उनके समान कर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठ और ज़िन्दादिली से भरपूर व्यक्ति ने जाने किस अवसाद में डूबकर आत्महत्या कर ली। उनकी मृत्यु एक एंटी-क्लाइमेक्स ही कही जा सकती है!
मेरे स्मृतिपटल पर अनायास कनोज कांति दत्ता का नाम उभरता है। वे बंगाल के किसी नगर से 1955-56 के आसपास भिलाई इस्पात संयंत्र में फिटर जैसे किसी पद पर नियुक्ति पाकर यहां आ गए थे। उन्होंने अपने जीवन के कोई 35 साल इस कारखाने में खपा दिए और रिटायरमेंट के बाद भिलाई में ही बस गए। दत्ताजी ने कारखाने के भीतर और बाहर के जीवन पर एक उपन्यास ''लौह वलय" शीर्षक से लिखा। मूल बांग्ला से अनुवाद सुपरिचित लेखिका संतोष झांझी ने किया। वे भी भिलाई निवासी हैं। ''लौह वलय" में इस्पात कारखाने के भीतर का कारोबार कैसे चलता है, इसका बारीकी और विस्तार से वर्णन हुआ है। हिंदी में शायद यह अपनी तरह का एकमात्र उपन्यास है। इसे भी हमने धारावाहिक प्रकाशित किया। अंग्रेजी में ऑर्थर हैली जैसे लेखकों ने मोटरकार कारखाने, बिजली संयंत्र, एयरपोर्ट, होटल जैसे स्थलों का दो-दो साल तक अध्ययन कर उनपर लोकप्रिय उपन्यास लिखे हैं। यहां तो लेखक ताउम्र उस कारखाने के जीवन को जी रहा है। उनके अनुभव प्रत्यक्ष और प्रामाणिक हैं। मुझे अफसोस है कि ''लौह वलय" का पुस्तकाकार प्रकाशन नहीं हो पाया। दत्ताजी उसके पहले ही अंतिम यात्रा पर रवाना हो गए। उनकी एक कहानी ''रिक्शावाला" भी बहुचर्चित हुई थी।
देशबन्धु के इन मित्र लेखकों के अलावा संपादक मंडल के अनेक सहयोगियों ने भी ऐसे नियमित कॉलम लिखे, जिनसे देशबन्धु की पहचान और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। संपादक पं. रामाश्रय उपाध्याय ''एक दिन की बात" शीर्षक से सप्ताह में छह दिन कॉलम लिखते थे। वे साल में एक बार अपने गांव जाते थे, तभी उनकी लेखनी विराम लेती थी। देश के किसी भी अखबार में सबसे लंबे समय तक प्रकाशित कॉलम के रूप में इसने एक रिकार्ड कायम किया और ''लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स" में बाकायदा दर्ज हुआ। पंडितजी वक्रतुंड के छद्मनाम से स्तंभ लिखते थे। वे अपनी बेबाकी के लिए प्रसिद्ध थे। उनसे मिलने वाले भी घबराते थे कि पंडितजी कहीं उनको ही निशाना न बना दें। एक बार तो उन्होंने बाबूजी के खिलाफ तक लिख दिया था। लिख तो दिया, छप भी गया, लेकिन अगले दिन घबराए कि अब न जाने क्या हो! बाबूजी पंडितजी को नागपुर के दिनों से जानते थे। उन्होंने हँस कर टाल दिया। कुछ समय बाद बाबूजी के किसी मित्र पर तीर चलाया।उन्होंने बाबूजी से शिकायत की तो सीधा उत्तर मिला- भाई! वे तो मेरे खिलाफ तक लिख देते हैं। दुर्वासा ऋषि हैं। पंडितजी स्वाधीनता सेनानी थे। 1942 में भूमिगत हुए। लेकिन स्वाधीनता सेनानी की पेंशन लेना उन्होंने कुबूल नहीं किया। उनकी औपचारिक शिक्षा तो शायद मैट्रिक के आगे नहीं बढ़ी थी, लेकिन वे देश-दुनिया की हलचलों से बाखबर एक अध्ययनशील व्यक्ति थे। वे तीस साल तक हमारे साथ रहे। फिर बेहतर सुविधाओं की प्रत्याशा में एक नए अखबार में चले गए। वहां उनका मोहभंग हुआ तो पत्रकारिता से अवकाश ले लिया। तब उनकी आयु पचहत्तर वर्ष के आसपास थी। हमारे साथ उनका आत्मीय जुड़ाव अंत तक बना रहा।
देशबन्धु के किसी संपादक द्वारा लिखा गया सबसे लोकप्रिय कॉलम ''घूमता हुआ आईना" था जिसे हमारे वरिष्ठ साथी, और मेरे गुरु व बड़े भाई राजनारायण मिश्र लिखते थे। दरअसल, इस कॉलम की शुरुआत मैंने की थी, किंतु कुछ ही हफ्तों बाद दा (इसी नाम से वे जाने जाते थे) ने मुझसे कॉलम ले लिया। यह उनकी चुटीली शैली का कमाल था कि सोमवार को हजारों पाठक बेसब्री से ''आईना" का इंतजार करते थे। इस स्तंभ में वे अधिकतर रायपुर शहर की उन घटनाओं व स्थितियों का सजीव चित्रण करते थे, जो अमूमन लोगों के ध्यान में नहीं आतीं। वे दौरे पर जाते थे तो अपनी सूक्ष्म व वेधक दृष्टि से उस स्थान की तस्वीरें भी उतार लाते थे। (दा पर मैं पृथक लेख लिख चुका हूं। वह मेरे ब्लॉग स्पॉट पर उपलब्ध है)।
सत्येंद्र गुमाश्ता एक और काबिल व विश्वस्त सहयोगी थे। वे 1963 में देशबन्धु से जुड़े और सारे उतार-चढ़ावों के बीच अंत तक साथ बने रहे। कैंसर के असाध्य रोग ने सत्येंद्र को असमय ही हमसे छीन लिया। दुबले-पतले-लंबे सत्येंद्र सरल स्वभाव के धनी थे। अखबार की साज-सज्जा में नए प्रयोग करने का उन्हें बहुत चाव था। वे अक्सर रात को पहले पेज की ड्यूटी निभाते थे। उसी के साथ उन्होंने साप्ताहिक ''रायपुर डायरी" स्तंभ लिखना प्रारंभ किया। इसमें वे सामान्यत: बीते सप्ताह की प्रमुख घटनाओं का जायजा लेते थे। कॉलम के अंत में वे ''धूप में चलिए हल्के पांव" के उपशीर्षक से एक विनोदपूर्ण टिप्पणी लिखा करते थे। दरवेश के छद्मनाम से लिखा यह कॉलम भी पाठकों के बीच खासा लोकप्रिय हुआ। सत्येंद्र हमारे ही नहीं, छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार थे, जिन्होंने कोई एक दर्जन देशों की यात्राएं कीं। देशबन्धु की ओर से वे पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका की यात्राओं पर गए। पाकिस्तान तो वे क्रिकेट की टेस्ट सीरीज कवर करने के नाम पर गए थे, लेकिन उनका असली मकसद दूसरा था। वे लाहौर में सुप्रसिद्ध गायिका नूरजहां से मिले, उनका इंटरव्यू लिया। इसी तरह कुछ अन्य हस्तियों से भी उन्होंने मुलाकात की। सिरीमावो भंडारनायक और शेख हसीना से भेंट करने वाले वे प्रदेश के शायद एकमात्र पत्रकार हुए हैं।
देशबन्धु की प्रयोगधर्मिता का एक परिचय इन स्थायी स्तंभों के अलावा नए-नए विषयों पर प्रारंभ कॉलमों एवं फीचरों से मिलता है। मसलन यदि बसन्त दीवान प्रदेश के पहले प्रेस फोटोग्राफर के रूप में साथ जुड़े तो चीनी नायडू ने प्रथम खेल संवाददाता का दायित्व संभाला। कृषि विज्ञान में उपाधि लेकर टी.एस. गगन (प्रसिद्ध उपन्यास लेखक तेजिंदर) संपादकीय विभाग में काम करने आए तो उन्होंने खेती-किसानी पर सवाल-जवाब का स्तंभ शुरू कर दिया, जो ग्रामीण अंचलों में काफी पसंद किया गया।सेवाभावी डॉ. एस.आर. गुप्ता ने हिंदी में स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर लेख लिखे तो आगे चलकर अनेक डॉक्टरों ने अपनी-अपनी विशेषज्ञता पर साप्ताहिक या पाक्षिक कॉलम लिखे। निस्संदेह इसमें उन्हें भी लाभ हुआ। रायपुर में ओरियेंटल बैंक ऑफ कॉमर्स के मैनेजर श्री कुमार की पत्नी श्रीमती श्रेष्ठा ठक्कर एक दिन प्रस्ताव लेकर आईं कि वे महिलाओं के लिए सौंदर्य प्रसाधन पर कॉलम शुरू करना चाहती हैं। उनके कॉलम को पर्याप्त सराहना और हमें एक नया पाठक वर्ग मिला। इन विविध स्तंभों के बीच एक व्यापक जनोपयोगी और गंभीर कॉलम था- अमृत कलश, जिसे पोषण विज्ञान की अध्येता डॉ. अरुणा पल्टा ने कई बरसों तक जारी रखा। इसी तरह दर्शनशास्त्र की विदुषी डॉ. शोभा निगम ने क्लासिक ग्रंथों पर शोधपूर्ण लेखों की माला ''प्राच्य मंजरी" शीर्षक से लंबे समय तक लिखी।
हमारा एक दैनिक स्तंभ ''दुनिया को जानें" सामान्य ज्ञान पर आधारित व विद्यार्थियों के लिए था। इसकी लोकप्रियता अपार थी। लोग घरों में इसकी कतरनों की फाइलें बनाकर रखने लगे, ताकि बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं में या अन्य अवसरों पर काम आ सकें। इसी के साथ हमारे मित्र प्रो. शरद इंग्ले ने विद्यार्थियों के लिए कैरियर गाइडेंस पर एक नियमित स्तंभ लगभग पच्चीस साल तक लिखा। देशबन्धु ने हर साल एक जनवरी को "नववर्षांक" परिशिष्ट प्रकाशित करने की परिपाटी भी प्रारंभ की। कई साल तक भारत में आयोजित अन्तरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भी अपना संवाददाता भेजने वाला प्रदेश का एकमात्र अखबार देशबन्धु ही था। बदलते समय के साथ और भिन्न-भिन्न कारणों से अनेक कॉलम बंद हो गए। लेकिन मुझे अच्छा लगता है जब कोई पुराना पाठक मिलता है और अपने किसी प्रिय कॉलम की चर्चा छेड़ देता है। देशबन्धु की असली पूंजी पाठकों से मिली प्रशंसा ही है।
#देशबंधु में 29 अगस्त 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 21 August 2019

देशबन्धु के साठ साल-7


कुछ ज्ञान-कुछ विज्ञान देशबन्धु का एक लोकप्रिय साप्ताहिक स्तंभ था। इसकी परिकल्पना प्रो. वी.जी. वैद्य ने की थी। नामकरण भी उन्होंने ही किया था। प्रो. वैद्य रायपुर के शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय (अब एनआईटी) में रसायनशास्त्र के प्राध्यापक थे। आम अध्यापकों के विपरीत उनकी लिखने-पढ़ने में दिलचस्पी थी; वे कैंपस के बाहर की हलचलों में भी दिलचस्पी रखते थे; और खाली समय में भी व्यस्त रहने के कारण निकाल लेते थे। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने रविशंकर वि.वि. में छात्रों के लिए फोटोग्राफी की निशुल्क कक्षाएं संचालित कीं। कुछ साल बाद वे पुणे चले गए तो वहां तर्कर्तार्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी की मराठी विश्वकोष परियोजना से जुड़ गए। उन्होंने प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नार्लीकर व लेखक लक्ष्मणराव लोंढे की अनेक मराठी विज्ञान कथाओं का हिंदी अनुवाद देशबन्धु के लिए किया। फिर स्वयं भी हिंदी में विज्ञान कथाएं लिखने लगे, जिसका पुस्तक रूप में प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट ने किया। प्रसंगवश, वैद्य साहब के भाई एम.जी. वैद्य भोपाल में प्रतिष्ठित पत्रकार थे, भाभी श्रीमती शकुंतला वैद्य रूसी भाषी की कक्षाएं संचालित करती थीं और इंदौर के सीपीआई नेता अनंत लागू उनकी पत्नी के भाई थे।
सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा का चलते-चलते उल्लेख पिछले अध्याय में हुआ है। एक ओर अपने विषय के अधिकारी विद्वान; दूसरी ओर अद्भुत सादगी। वे साधारण सा कुर्ता-पाजामा पहनते थे और साईकिल पर चलते थे। उन्हें अपने पांडित्य पर लेशमात्र भी गर्व नहीं था और धन-दौलत का मोह उन्होंने कभी नहीं पाला। एक बार कार खरीद ली तो वह भी इकलौती संतान बेटी संज्ञा को दे दी। घर-गिरस्ती उन्होंने भाभी श्रीमती उमा महरोत्रा के जिम्मे छोड़ रखी थी, जो इप्टा से जुड़ी रहीं और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में भी उत्साहपूर्वक भाग लेती रहीं। इस दम्पति ने समाज हित में अनेक काम किए और एक के बाद दोनों की पार्थिव देहें रायपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दी गईं। महरोत्राजी व्यंग्य कविताएं भी लिखते थे, जो मुझे कभी पसंद नहीं आईं। वे अपने ''दो शब्द कॉलम में कोई दो शब्द उठाकर उसकी सविस्तार व्याख्या करते थे। यह स्तंभ अनेक वर्षों तक चला। हिंदी भाषा के प्रति प्रेम व रुचि जागृत करने की यह एक अनूठी पहल थी।
समय-समय पर देश की अनेक मूर्धन्य हस्तियों ने देशबन्धु में कॉलम लिखे। इनमें इंद्रकुमार गुजराल, विजय मर्चेंट, जयंत नार्लीकर, के.एफ. रुस्तमजी, अरुण गांधी के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। गुजराल साहब का आशीर्वाद और स्नेह हमें अंत तक मिलता रहा। 7 अप्रैल 2008 को देशबन्धु के दिल्ली संस्करण के उद्घाटन पर वे ही मुख्य अतिथि थे। उन्होंने अपने विशाल पुस्तक संग्रह का एक भाग देशबन्धु लाइब्रेरी को भेंट भी किया। वे सामान्यत: अन्तरराष्ट्रीय राजनीति पर अंग्रेजी में लिखते थे, जिसका अनुवाद हमें करना होता था। उपरोक्त सभी महानुभावों के साथ भी यही बात थी। मई-जून 2003 में मुझे डाक से एक मोटा लिफाफा मिला। भीतर एक लेख के साथ साइरस रुस्तमजी का लिखा एक पत्र था- ''मैं के.एफ. रुस्तमजी का पुत्र हूं। वे आपके अखबार के लिए लिखते थे। उनके कागजात में उनका यह आखिरी लेख मिला है, जिसे वे समय रहते आपको भेज नहीं पाए। संभव हो तो इसका उपयोग कर लीजिए। अंग्रेजो में लिखे पत्र का भाव यही था। महात्मा गांधी के पौत्र अरुण गांधी उन दिनों भारत में ही पत्रकारिता कर रहे थे और उन्होंने भी अपने लेख छापने के लिए सरलता से हामी भर दी थी। अरुण अब अमेरिका में रहते हैं। पिछले साल उनकी पुस्तक आई है- द गिफ्ट ऑफ एंगर। यह पुस्तक बापू के साथ बीते समय में हासिल अनुभवों पर आधारित है। इसमें बापू के जीवन दर्शन की सरल-सुबोध व्याख्या की गई है।
हमारे लेखकों की सूची में एक उल्लेखनीय नाम प्रो. एस.डी. मिश्र का है। वे रायपुर के शासकीय विज्ञान म.वि. में गणित के प्राध्यापक थे और 1964 में तबादले पर अन्यत्र चले गए थे। लेकिन एक गुणी अध्यापक के रूप में उनकी चर्चा उनके पूर्व छात्रों के बीच अक्सर होती थी। प्रो. मिश्र ने 92-93 साल की उम्र में अपने संस्मरण लिपिबद्ध करना प्रारंभ किया। यह अपने आप में अचरज की बात थी। उनके सुपुत्र डॉ. परिवेश मिश्र ने जब ये संस्मरण मुझे दिखाए तो मैं चकित रह गया। ऐसी सुंदर भाषा, ऐसे रोचक विवरण! गुजरे समय और स्थानों को उन्होंने जीवंत कर दिया। हमने दो बार में उनके संस्मरण 26-26 किश्तों में छापे। पहले ''ग्राउंड जीरो से उठी यादें; फिर बेमेतरा से बैरन बाज़ार तक। मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि हिंदी में ऐसे संस्मरण लिखने वाले लेखक बिरले ही होंगे। रायपुर, नागपुर, भोपाल, दमोह इत्यादि अनेक स्थानों पर, यहां तक कि विदेशों में बसे उनके छात्र इन संस्मरणों को खोज-खोज कर पढ़ते। हमसे संपर्क कर उनका पता-फोन नंबर लेते और उनसे बात करते। संस्मरण लिपिबद्ध करने के कुछ समय पहले ही उनकी जीवन संगिनी का निधन हुआ था। लेकिन संस्मरण पढ़ने के बाद उनके छात्रों-मित्रों-परिचितों ने जब उनसे संपर्क किया तो उनका अकेलापन कुछ हद तक दूर हुआ।
डॉ. जयंत नार्लीकर रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के निमंत्रण पर तीन दिन के लिए रायपुर आ रहे थे। इंग्लैंड से लौटने के बाद उन्होंने विज्ञान के लोकव्यापीकरण को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था। मैं उनका तब से प्रशंसक था जब वे 1960 के दशक में कैंब्रिज में फ्रेड हॉयल के साथ खगोलशास्त्र पर शोध कर रहे थे और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति हासिल कर चुके थे। उनका रायपुर आना हमारे लिए एक बड़ी खबर थी। हमने नार्लीकरजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक पूरे पेज की विशेष सामग्री प्रकाशित की और तीनों दिन उनके व्याख्यानों को प्रमुखता के साथ छापा। इसी समय लगे हाथ उनके अंग्रेजो लेखों को अनुवाद कर छापने की अनुमति भी मांग ली, जो सहर्ष मिल गई। महान क्रिकेट खिलाड़ी विजय मर्चेंट ने तो अंतरर्देशीय पत्र पर उनके लेख छापने की अनुमति प्रदान की थी। इन सबके लेख नई-नई जानकारियों से भरे होते थे; पाठकों का ज्ञान उनसे बढ़ता था और अखबार की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि होती थी। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि इनमें से किसी ने भी हमसे न पारिश्रमिक की अपेक्षा की और न मांग की।
जयंत नार्लीकर के प्रथम रायपुर आगमन पर हमने जैसी विशेष सामग्री प्रकाशित की थी, बिलकुल उसी तरह हमने विश्वविख्यात सितारवादक रविशंकर का भी अभिनंदन किया। इस तरह विभिन्न अवसरों पर विशेष परिशिष्ट प्रकाशित करने की एक परंपरा ही देशबन्धु में स्थापित हो गई। याद आता है सितंबर 1979 में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम भारत दौरे पर आई थी। तब हमने कुछ सप्ताह पूर्व ही ऑफसेट मशीन पर छपाई प्रारंभ की थी। बहुमुखी प्रतिभासंपन्न लेखक-कवि-बैंक अधिकारी ओम भारती उन दिनों रायपुर में पदस्थ थे।ओम की क्रिकेट में भी खासी दिलचस्पी थी। उन्होंने क्रिकेट पर टैब्लाइड आकार में बत्तीस पेज के एक विशेषांक की योजना प्रस्तावित की। भारत में क्रिकेट की जैसी लोकप्रियता है, उसे देखते हुए कहना न होगा कि देशबन्धु का यह क्रिकेट विशेषांक अत्यन्त लोकप्रिय हुआ और हमें अंक दुबारा छापना पड़ा। इस अंक की बहुत सारी प्रतियां लेकर ओम नागपुर भी गए, जहां एक मैच होना था। वहां वीसीए स्टेडियम में देशबन्धु की धूम मच गई। उसी दौर में हमने शतरंज पर एक साप्ताहिक स्तंभ शुरू किया। किसी हिंदी दैनिक में यह शायद अपनी तरह का पहला कॉलम था! इसे मुजाहिद खान तैयार करते थे, जो शायद रायपुर तहसील कार्यालय में कार्यरत थे। छत्तीसगढ़ में शतरंज का खेल लोकप्रिय हो चला था, जिसे आगे बढ़ाने में देशबन्धु ने भी एक छोटी सी भूमिका निभाई।
देशबंधु में 22 अगस्त 2019 को प्रकाशित

Saturday, 17 August 2019

स्वाधीनता और जनतंत्र का रिश्ता


आज हम आज़ादी के बहत्तर साल पूरे कर स्वाधीन मुल्क के तिहत्तरवें वर्ष में पहला कदम रख रहे हैं। इस मुबारक मौके पर एक पल रुककर हमें खुद से पूछना चाहिए कि देश की स्वतंत्रता हासिल करना हमारा अंतिम लक्ष्य था या किसी वृहत्तर लक्ष्य की पूर्ति के लिए एक अनिवार्य साधन था! वैसे जवाब हमें पता है। हम जानते हैं कि अंग्रेजों की एक सौ नब्बे साल की गुलामी ने भारत को हर तरह से कमज़ोर कर दिया था, तोड़ दिया था। भारतीय समाज से उद्यमशीलता, कल्पनाशीलता, प्रयोगशीलता, साहसिकता जैसे गुण लगभग समाप्त कर दिए गए थे। जिन नायकों व मनीषियों ने स्वाधीनता की लड़़ाई में देश का नेतृत्व किया, उन्हें पता था कि आज़ादी मिलने के बाद खुली हवा में सांस लेते हुए ही भारतवासी अपने खोए आत्मबल को हासिल कर सकेंगे। 1757 में पलासी के युद्ध से लेकर 1942-43 में बंगाल के भीषण अकाल और 1946 के नौसैनिक विद्रोह तक देश ने क्या-क्या नहीं देखा और भुगता। हमें हर कीमत पर स्वाधीनता हासिल करना ही थी, ताकि आने वाली पीढिय़ों के जीवन में अंधकार, अशिक्षा, दुर्भिक्ष, कुपोषण, परावलंबन, आत्मग्लानि जैसी बाधाएं और विपत्तियां घर न कर सकें। 

इस पृष्ठभूमि का स्मरण करते हुए यह उचित होगा कि स्वतंत्रता दिवस को स्वाधीनता सेनानियों के प्रति कृतज्ञता दिवस के रूप  में मनाया जाए। आज यह ध्यान रखना पहले से कहीं अधिक आवश्यक है, क्योंकि एक साजिश के तहत देश का नया इतिहास लिखने का काम चल रहा है। जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में कुर्बानियों दीं, उनके नाम और चिह्न मिटाए जा रहे हैं, उनकी स्मृति का खुलेआम अपमान किया जा रहा है। दूसरी ओर वे ताकतें जिन्होंने औपनिवेशिक सत्ता का तन-मन-धन से सहयोग किया, बल्कि जो अंग्रेजी राज में हुक्म के ताबेदार बन गए, उनका गुणगान हो रहा है, उनकी जय जयकार की जा रही है, उनकी मूर्तियां और मंदिर बन रहे हैं। सत्य को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है। जो नए-नए किस्से गढ़े जा रहे हैं उन्हें सुन-पढ़कर हैरत होती है। दुर्भाग्य है कि पूंजीमुखी मीडिया को इस छद्म को रचने में सत्तातंत्र का सहायक बनने में कोई ग्लानि महसूस नहीं हो रही है। इसलिए आज वक्त है कि जनता तिलक, गोखले, गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, मौलाना आज़ाद, राजेंद्र प्रसाद, बाबा साहेब, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद  और उनके तमाम साथियों के बारे में जितना कुछ जान सकती है, सही रूप में जानने-समझने की कोशिश करे। 

एक स्वतंत्रचेता नागरिक को जानना चाहिए कि चंद्रशेखर आज़ाद ने जिस क्रांतिकारी दल का गठन किया उसका नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन क्यों रखा। वे समाजवाद और गणतंत्र जैसी संज्ञा का प्रयोग क्यों कर रहे थे? शहीदे-आज़म भगतसिंह, ने ''मैं नास्तिक क्यों हूं" जैसी पुस्तिका क्या सोचकर लिखी? ''कीरति" पत्रिका में उनके जो लेख छपे, उनमें उन्होंने दक्षिणपंथी, हिंदुत्ववादी नेताओं की आलोचना क्यों की? उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को अपना नेता क्यों माना? सुभाषचंद्र बोस ने महात्मा गांधी को ''राष्ट्रपिता" का संबोधन क्यों दिया? उन्होंने आज़ाद हिंद फौज में गांधी, नेहरू और मौलाना आज़ाद के नाम पर ब्रिगेडें क्यों बनाईं? जर्मनी से भारत आ रही मित्र को उन्होंने बापू से मिलने की सलाह यह कहकर क्यों दी कि वे हमारे पिता हैं? बाबासाहब आंबेडकर ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की गवाही में महात्मा गांधी के साथ पूना-पैक्ट क्यों किया? यह भी समझना लाजिमी है कि एक महान लक्ष्य के लिए साथ मिलकर काम कर रहे लोगों के बीच जब-तब मतभेद होना अस्वाभाविक नहीं है। इसलिए जब मतभेदों को बढ़ा-चढ़ाकर उभारा जाता है और उसकी ओट में व्यापक सहमतियों को दबाने के  प्रयत्न होते हैं तो सावधानी रखना आवश्यक है कि जनता इस चालबाजी में फंसकर न रह जाए।

इस अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य पर भी हमें विचार करना आवश्यक है कि स्वाधीनता संग्राम के अंतिम दशकों में जिन्होंने हमारा नेतृत्व किया, उन्होंने भविष्य की राह तैयार करने के लिए संविधान सभा का गठन क्यों किया? इस संविधान सभा का स्वरूप क्या था? इसके सदस्य कौन थे? लगभग तीन साल तक चली कार्रवाईयों में क्या-क्या निर्णय लिए गए? ये निर्णय विरोध को दरकिनार करके लिए गए या फिर आम सहमति बनाने की कोशिशें की गईं? हमारे इन पुरखों ने भारत की कल्पना एक गणराज्य के रूप में क्यों की? उन्होंने संसदीय जनतंत्र प्रणाली का चयन क्यों किया? वे कौन से कारण थे जो इस ऐतिहासिक निर्णय के पीछे थे? अगर इन बातों को समझने की कोशिश नहीं की जाती तो इसका एक ही मतलब होता है कि हम अपने पुरखों का अपमान कर रहे हैं। उन्होंने जो विरासत हमें सौंपी है, उसे ठुकरा रहे हैं। क्या हमें स्वयं को एक विचारविपन्न समाज में तब्दील कर लेना चाहिए? याद रखिए, 1991 से लगातार आवाजें उठी हैं कि भारत एक बार फिर नवसाम्राज्यवादी ताकतों का गुलाम बनने की राह पर चल पड़ा है। एक लंबे संघर्ष और बेशुमार कुर्बानियों के बाद हासिल आज़ादी का क्या यही हश्र होना है?

आज की दुनिया की यह भयावह सच्चाई है कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद नया बाना धारण करके जगह-जगह अपनी घुसपैठ कर चुके हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति आइज़नहावर ने 1960 के अपने अंतिम भाषण में सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ (मिलिटरी-इंडस्ट्रियल कांप्लेक्स) के खिलाफ अमेरिकी जनता को आगाह किया था। उसी दानवी ताकत ने कितने ही देशों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। जिस डिजिटल प्रगति पर जनसामान्य मुग्ध है, उसे पता ही नहीं है कि ऊपर से मासूम दीखने वाले ये खिलौने कैसे उसके लिए आत्मघाती हो सकते हैं। जानना चाहिए कि इज़राइल जिसका निर्माण ही 1948 में हुआ, आज कैसे विश्व बाज़ार में हथियारों का बड़ा सौदागर बन गया है। उसने भारत को अपने हथियारों का सबसे बड़ा ग्राहक कैसे बना लिया, क्या यह हमारी सोच का विषय नहीं होना चाहिए? यह भी तो पूछना चाहिए कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या के पीछे अदृश्य हाथ किसका था! क्या कारण था कि पहले राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी, फिर भाई रॉबर्ट कैनेडी की हत्या की गई और तीसरे भाई एडवर्ड कैनेडी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार भी नहीं बनने दिया गया! क्या विश्व के दो लोकतांत्रिक देशों की इन घटनाओं में कोई समानता खोज सकते हैं?

मेरे कहने का आशय  है कि यह समय भावनाओं में बहने का नहीं है। राष्ट्रीय जीवन में जो भी घटनाचक्र चल रहा है, उसका सतर्क दृष्टि से अध्ययन और समीक्षा करना इस दौर की सबसे अहम मांग है। अखबार, रेडियो, टीवी, फेसबुक, वाट्सएप पर जो कुछ सामग्री परोसी जा रही है, उसे अंतिम सत्य मानकर स्वीकार मत कीजिए। घटनाओं की तह में जाइए। कार्य-कारण संबंध तलाश कीजिए। सोचिए कि क्या हमें जनतंत्र नहीं चाहिए? सोचिए कि हम एकरस जीवन जीना चाहते हैं या विविधता होना चाहिए? सोचिए कि हम अमूमन जो कुर्ता पहनते हैं, उसे पंजाब में ''बंगाली" और बंगाल में ''पंजाबी" क्यों कहा जाता है? आज दोसा-इडली कैसे सारे देश में लोकप्रिय हैं और कैसे मक्के की रोटी-सरसों का साग सब तरफ प्रचलित हो गए हैं। रसगुल्ला हमारी राष्ट्रीय मिठाई कैसे बन गई? जिन प्रदेशों में साड़ी ही सर्वमान्य थी, वहां सलवार-कुर्ती ने अपनी प्रमुख जगह कैसे बना ली? खान-पान, वस्त्राभूषण, रहन-सहन सबमें विविधता, फिर भी भारतीय होने के एहसास की एकता- क्या यह हमारी ताकत नहीं है?  

और जब विविधता में एकता ही हमारा मूलमंत्र है तो फिर राजनीति में भी विविधता क्यों न हो? सच तो यह है कि अब तक राजनीति में चली आ रही विविधता के कारण ही हमारी एकता के सूत्र मजबूत हुए हैं। विविधता को समाप्त कर एकरूपता लाने का विचार खतरनाक है। स्वतंत्रता को कायम रखना है तो जनतंत्र को बचाना होगा। जनतंत्र को बचाने के लिए ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, अपना-पराया, हिंदू-मुसलमान, दलित-सवर्ण, शाकाहारी-मांसाहारी, आदमी-औरत, काश्मीरी-गुजराती, पंजाबी-मद्रासी, मराठी-बंगाली जैसे तमाम द्वैतभाव से मुक्ति पानी होगी। मैंने अपने बचपन से स्वतंत्रता का यही अर्थ समझा है। शायद आप भी मेरी तरह सोचते हों!
 
देशबंधु में 15 अगस्त 2019 को प्रकाशित  

Thursday, 8 August 2019

देशबन्धु के साठ साल-6


देशबन्धु ने समाचार जगत में विगत साठ वर्षों के दौरान जो साख कायम की है, उसकी बुनियाद में देशबन्धु की संपादकीय नीति के दो तत्व प्रमुख हैं। एक तो पत्र ने प्रारंभ से अब तक एक सुस्पष्ट, संयमपूर्ण और अविरल वैचारिक दृष्टि का पालन किया है। दूसरे- अखबार अपनी संपादकीय प्रयोगधर्मिता के लिए अक्सर चर्चित रहा है। इसके तीन मुख्य घटक हैं। एक-स्थायी स्तंभ और फीचर। दो- विकासपरक रिपोर्टिंग। तीन- ग्रामीण पत्रकारिता। स्थायी स्तंभों की चर्चा करते हुए सबसे पहले हरिशंकर परसाई का नाम आता है। मैं नोट करना चाहूंगा कि 3 दिसंबर 1959 को बाबूजी ने जबलपुर से 'नई दुनिया का तीसरा संस्करण प्रारंभ किया था। कालांतर में नए प्रबंधन के तहत उसका नाम बदलकर 'नवीन दुनिया कर दिया गया। उसकी कहानी आगे आएगी। परसाईजी ने बाबूजी के कहने पर 1960 में ''सुनो भाई साधो शीर्षक से साप्ताहिक कॉलम लिखना प्रारंभ किया, जो इंदौर, रायपुर और जबलपुर में अनेक वर्षों तक एक साथ छपता रहा।
जबलपुर में ही जब 1963 की रामनवमी पर बाबूजी और उनके समानधर्मा मित्रों ने मिलकर सांध्य दैनिक ''जबलपुर समाचार का प्रकाशन शुरू किया तो परसाईजी उसमें ''सबका मुजरा लेय शीर्षक से नया स्तंभ लिखने लगे। काफी आगे जाकर जब परसाईजी का अस्वस्थता के कारण बाहर आना-जाना अत्यन्त सीमित हो गया, तब हमारे आग्रह पर उन्होंने ''पूछिए परसाई से शीर्षक से एक और नया कॉलम लिखना स्वीकार किया। इस कॉलम को उन्होंने देखते ही देखते लोकशिक्षण के एक जबरदस्त माध्यम में परिणत कर दिया। इसमें वे पाठकों के आए सैकड़ों पत्रों में से हर सप्ताह कुछ चुनिंदा और गंभीर प्रश्नों के सारगर्भित लेकिन चुटीले उत्तर देते थे। 1983 में प्रारंभ यह कॉलम 1994 तक जारी रहा। कुछ समय पूर्व एक वृहदाकार ग्रंथ के रूप में कॉलम का संकलन छपा, लेकिन किसी अज्ञात कारण से पुस्तक का शीर्षक बदलकर ''पूछो परसाई से रख दिया गया!
मुझे यह उल्लेख करते हुए खुशी होती है कि परसाईजी की लगभग अस्सी प्रतिशत या उससे भी अधिक रचनाएं देशबन्धु में ही प्रकाशित हुई हैं। ऐसा नहीं कि वे सिर्फ कॉलम या व्यंग्य लेखन ही करते थे। समसामयिक घटनाचक्र पर उनकी पैनी नजर रहती थी और वे महत्वपूर्ण ताजा घटनाओं पर वक्तव्य या टिप्पणी जारी करते थे, जो देशबन्धु में ही प्रथम पृष्ठ पर छपती थी। परसाईजी तर्कप्रवीण थे और उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी। उनके सामने पुस्तक या पत्रिका का कोई पन्ना खोलकर रख दीजिए। वे एक नजर डालेंगे और पूरी इबारत को हृदयंगम कर लेंगे। अपनी इस ''एलीफैंटाइन मेमोरी याने गज-स्मृति से वे हम लोगों को चमत्कृत कर देते थे। समसामयिक मुद्दों पर वे जो तात्कालिक प्रतिक्रिया व्यक्त करते थे, वह भी लोकशिक्षण का ही अंग था। पाठकों की अपनी समझ उनसे साफ होती थी। जो लोग उन्हें सिर्फ व्यंग्यकार मानते हैं, वे उनके व्यक्तित्व के इस गंभीर पहलू की अनदेखी कर देते हैं।
यह एक उम्दा संयोग था कि परसाईजी और बाबूजी दोनों ने 1983 में एक साथ अपने स्थायी कॉलम प्रारंभ किए। बाबूजी ने ''दरअसल शीर्षक से सामयिक विषयों पर लेख लिखे। एक तरह से दोनों अभिन्न मित्रों के कॉलम एक दूसरे के विचारों को प्रतिबिंबित करते थे। बाबूजी के अखबारी लेखन की शुरूआत वैसे 1941-42 में हो चुकी थी, जब विद्यार्थी जीवन में उन्होंने वर्धा से हस्तलिखित पत्रिका ''प्रदीप की स्थापना की थी। बाद के सालों में एक के बाद एक कई अखबारों की स्थापना व उनके संपादन-संचालन की दौड़धूप में उनका नियमित लेखन बाधित हो गया था। लेकिन बीच-बीच में समय निकालकर जब वे लिखते तो उसमें उनकी गहरी समझ और अंतर्दृष्टि का परिचय मिलता। एक तरफ निरालाजी के निधन पर ''महाकवि का महाप्रयाण" ; दूसरी ओर रुपए के अवमूल्यन, वीवी गिरि के चुनाव; तीसरी ओर किसान ग्राम दुलारपाली पर फीचर आदि उनकी सर्वांगीण संपादकीय दृष्टि के उदाहरण हैं। नेहरूजी के निधन पर रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता का जो त्वरित अनुवाद बाबूजी ने किया, मेरी राय में वह सर्वोत्तम अनुवाद है।
अपने स्तंभकारों की चर्चा करते हुए मैं राजनांदगांव के अग्रज साथी रमेश याज्ञिक का स्मरण करता हूं। रमेश भाई की हिंदी में हल्का सा गुजराती पुट था, लेकिन उनकी लेखन शैली अत्यन्त रोचक और बांध लेने वाली थी। उन्होंने टीजेएस जॉर्ज की लिखी वीके कृष्णमेनन की जीवनी का अनुवाद देशबन्धु के लिए किया था। हमारा एक प्रयोग उन दिनों बहुचर्चित और बहुप्रशंसित हुआ जब रमेश भाई ने गुजराती लेखक अश्विन भट्ट के रोमांचक उपन्यास ''आशका मांडल का अनुवाद किया और वह लगातार छब्बीस साप्ताहिक किश्तों में प्रकाशित हुआ। ऐेसे एक-दो अनुवाद उन्होंने और भी किए। उनके साप्ताहिक स्तंभ ''यात्री के पत्र को भी पाठकों से भरपूर सराहना मिली। वे उन दिनों अपने व्यापार के सिलसिले में लगातार दूर-दूर की यात्राएं कर रहे थे और उन अनुभवों के आधार पर किस्सागोई की शैली में भारतीय समाज की जीवंत और प्रामाणिक छवि उकेर रहे थे। रमेश भाई ने एक कथाकार के रूप में भी पर्याप्त ख्याति अर्जित की। प्रसंगवश बता दूं कि देशबन्धु में पहिला धारावाहिक उपन्यास 1965-66 में छपा था जो डॉ. सत्यभामा आडिल ने लिखा था। हृदयेश, मनहर चौहान आदि के उपन्यास भी हमने धारावाहिक प्रकाशित किए।
एक ओर जहां रायपुर व छत्तीसगढ़ में अनेक लेखक नियमित कॉलम के द्वारा देशबन्धु से जुड़े, वहीं जबलपुर में प्रकांड विद्वान प्रो. हनुमान वर्मा ने ''टिटबिट की डायरी शीर्षक कॉलम लिखा, कहानीकार-व्यंग्यकार सुबोध कुमार श्रीवास्तव ने भी व्यंग्य का कॉलम हाथ में लिया; उधर सतना में समाजवादी नेता जगदीश जोशी के अलावा लेखक कमलाप्रसाद, देवीशरण ग्रामीण, बाबूलाल दहिया, सेवाराम त्रिपाठी के साप्ताहिक स्तंभ भी अनेक वर्षों तक प्रकाशित होते रहे। छत्तीसगढ़ में रमाकांत श्रीवास्तव, बसन्त दीवान, रवि श्रीवास्तव, कृष्णा रंजन आदि मित्रों ने नियमित कॉलम लिखे। पुरुषोत्तम अनासक्त व परदेसीराम वर्मा के उपन्यास भी धारावाहिक छपे। डॉ. रमेशचंद्र महरोत्रा ने अनेक वर्षों तक ''दो शब्द स्तंभ निरंतर लिखा, जो पांच खंडों में दिल्ली से प्रकाशित हुआ। नागपुर के डॉ. विनय वाईकर व रायपुर के प्रो. खलीकुर्रहमान ने महाकवि गालिब के साथ-साथ उर्दू शायरी की श्रेष्ठता से पाठकों को परिचित कराया। मैंने अभी अपने संपादकीय सहयोगियों के लिखे स्तंभों का जिक्र नहीं किया है, और न देश के अनेक मूर्धन्य विद्वान स्तंभकारों का। कहानी अभी अधूरी है।
#देशबंधु में 08 अगस्त 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 31 July 2019

देशबन्धु के साठ साल-5


बापा! आज फिर जरूरत पड़ गई है। इंग्लैंड से मोनोटाइप मशीन ला रहे हैं। मार्जिन मनी का इंतजाम नहीं है।
- ये क्या मशीन है? क्यों खरीद रहे हो? किस काम आएगी? कितनी कीमत है?
- इस मशीन से कंपोजिंग होगी। एक शिफ्ट में आठ आदमियों के बराबर काम करेगी।
- मतलब तुम सात लोगों को नौकरी से निकाल दोगे?
- नहीं बापा। मशीन पर दो आदमी काम करेंगे। और हम पेज संख्या बढ़ा रहे हैं। निकालेंगे किसी को नहीं, बल्कि अपने लोगों को उस पर ट्रेनिंग देंगे। उनका वेतन बढ़ जाएगा और पेपर भी ज्यादा अच्छा निकलेगा।
- ठीक है। रकम ले जाओ। लेकिन किसी को हटाना मत।
बापा और बाबूजी के बीच यह संवाद मई-जून 1969 में किसी दिन हुआ। मैं श्रोता की हैसियत से उपस्थित था। बापा याने रूड़ाभाई वालजी सावरिया, जिन्हें रायपुर में रूड़ावाल सेठ के नाम से जाना जाता था। वे साहूकार थे और नहरपारा में उनके स्वामित्व की महाकौशल फ्लोर मिल की अरसे से बंद पड़ी इमारत को हमने एक साल पहले ही फ्लैटबैड रोटरी मशीन आने के साथ किराए पर लिया था। यह कोई पचास साल पुरानी, मोटी दीवालों, इमारती लकड़ी के फर्श और टीन की छत वाली तीन मंजिला, तीन हॉल की इमारत थी। इसे किराए पर लेने में कांग्रेस नेता मन्नालाल शुक्ल ने हमारी सहायता की थी। वे नगरपालिका के पूर्व उपाध्यक्ष एवं उस समय विधानसभा सदस्य थे।
मेरे दादाजी की उम्र के बापा एक दिलचस्प व्यक्ति थे। उन्होंने व उनके सुपुत्र कांतिभाई ने गाढ़े वक्तों में कई बार हमें सहायता दी और कभी खाली हाथ नहीं लौटाया। जब ग्यारह वर्ष बाद हम स्वयं के भवन में आए, तब न जाने कितने माहों का किराया बाकी था जो हमने धीरे-धीरे कर चुकाया। बापा थे तो साहूकार, लेकिन उनके संस्कार गांधीवादी थे। नहरपारा की उसी गली में वे स्वयं जहां रहते थे, वह पुरानी शैली का साधारण दिखने वाला मकान था, जिसमें साज-सजावट की आवश्यकता उन्हें कभी महसूस नहीं हुई। एक दिन प्रेस परिसर में एक फियेट कार आकर खड़ी हो गई। तीनेक माह खड़ी रही। हमारे पास तब कार नहीं थी। बाबूजी ने बापा से निवेदन किया कि यह कार हमें मिल जाए। किश्तों में पैसा चुका देंगे। बापा का उत्तर अनपेक्षित था। जिसकी कार है, वह तकलीफ़ में है। ईमानदार आदमी है। जिस दिन हालत सुधरेगी, कर्ज की रकम चुकाकर गाड़ी ले जाएगा। गाड़ी बेचकर उसकी इज्ज़त नहीं उतारूंगा। तकरीबन छह माह बाद वैसा ही हुआ। यह बीते समय की व्यवसायिक नैतिकता का एक उदाहरण है। बापा जैसे लोग शायद तब भी अपवाद ही थे। मोनो मशीन की चर्चा करते-करते यह अवांतर प्रसंग ध्यान आ गया।
इसी सिलसिले में एक और रोचक वाकया घटित हुआ। दुर्ग के ब्यूरो प्रमुख धीरज भैया दफ्तर आए। उनके साथ एक सज्जन और थे। परिचय कराया- ''ये राजनांदगांव के कन्हैयालाल शर्मा हैं। दुर्ग में बैंक ऑफ महाराष्ट्र में अकाउंटेंट हैं। अपने पेपर के मुरीद हैं। मोनो मशीन आयात करने में इनका बैंक अपनी मदद करेगा। शर्माजी ने शाखा स्तर पर सारी औपचारिकताएं रुचि लेकर पूरी करवाई। नागपुर जोनल ऑफिस तक जाकर प्रस्ताव पुणे मुख्यालय अंतिम स्वीकृति हेतु भिजवा दिया। हमारी तवालत बची। इसी बीच बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो गया। बैंकों का सारा कारोबार कुछ समय के लिए एक तरह से स्थगित हो गया। हमारा आवेदन भी ठंडे बस्ते में चला गया। एक बार फिर हमें अप्रत्याशित रूप से मदद मिली। संघ के मराठी मुखपत्र ''तरुण भारत के प्रबंध संचालक भैया साहेब खांडवेकर से बाबूजी का पुराना परिचय था। बाबूजी ने मुझे पत्र देकर उनके पास नागपुर भेजा। भैया साहब ने बैंक के चेयरमैन से बात की और उनसे मिलने मुझे पुणे भेज दिया। मैं चेयरमैन से मिला। उन्होंने पांच-सात मिनट में मुझसे प्रकरण समझा और अधिकारों का प्रयोग करते हुए ऋण प्रस्ताव को तुरंत स्वीकृति दे दी। यथासमय दो मशीनें लंदन से रायपुर आ गईं।
मशीनें आ गईं। उनको चलाने वाले दक्ष सहयोगी भी तैनात हो गए। पुराने लोगों को प्रशिक्षण भी मिल गया। लेकिन मशीन तो मशीन है। नई हो तब भी कभी तो बिगड़ेगी ही और रिपेयरिंग की आवश्यकता भी होगी। मोनोटाइप कंपनी के कलकत्ता (अब कोलकाता) ऑफिस से मैकेनिक बुलाना महंगा पड़ता था, आने-जाने में समय भी लगता था। वक्त पर मैकेनिक न आए तब क्या किया जाए? ऐसे में धीरज भैया ने ही एक और सज्जन को ढूंढ निकाला। भिलाई इस्पात संयंत्र के प्रेस में श्री अवस्थी नामक सज्जन मोनो मैकेनिक का काम कर लेते थे। हमें जब भी जरूरत पड़े, धीरज भैया रात-बिरात स्कूटर पर बैठाकर उन्हें भिलाई से रायपुर ले आते थे। अवस्थीजी देशबन्धु परिवार के अतिथि सदस्य बन गए। एक समय वह भी आया जब उन्होंने भिलाई में देशबन्धु की एजेंसी ले ली और इस्पात नगरी में अखबार का प्रसार बढ़ाने में भूमिका निभाई। मैं यहां मोनोटाइप मशीन से जुड़े दो अन्य व्यक्तियों का भी उल्लेख करना चाहता हूं।
मोनोटाइप मशीन में अक्षर ढालने के लिए एक मैट्रिक्स (Matrix) या सांचा होता है। पीतल से बने इस सांचे में सारे अक्षर व चिह्न उत्कीर्ण होते हैं, जो सीसे में ढलकर आकार ग्रहण करते हैं। यह सांचा चार-छह माह से अधिक नहीं चलता। अर्थात छठे-छमासे इंग्लैंड से नया सांचा मंगाना पड़ता था, जिसकी कीमत उस समय चालीस हजार रुपए के करीब थी। मेरे कॉलेज जीवन के साथी और पारिवारिक मित्र महेंद्र कोठारी यहां सामने आए। कैमिकल इंजीनियर महेंद्र ने अपने कारखाने में यह सांचा बनाने का प्रयोग किया और काफी हद तक सफल हुए। उनके बनाए सांचे की कीमत पड़ी लगभग ढाई हजार रुपए। यह सांचा तीन माह तक ठीक से चलता था। महेंद्र ने फिर देश में कई हिंदी अखबारों को अपनी बनाई मैट्रिक्स बेची। वैसे इसमें उन्हें कोई खास मुनाफा नहीं हुआ। लेकिन ध्यान आता है कि ''मेक इन इंडिया का प्रयोग आज से पचास साल पहले एक युवा इंजीनियर ने सफलता से कर दिखाया था।
मैंने पहले की एक किश्त में बताया था कि फ्लैटबैड रोटरी मशीन में न्यूज प्रिंट याने अखबारी कागज के पत्ते की बजाय रील या रोल का इस्तेमाल होता था। रायपुर रेलवे स्टेशन पर मुंबई-कोलकाता से वैगन में रोल आते थे। उन्हें वैगन से उतारना, मालधक्के से प्रेस तक लाना मेहनत और सूझबूझ का काम था। बैलगाड़ी में तीन रोल चढ़ाए और उतारे जाते थे। नहरपारा से लगे लोधीपारा के ही भरत नामक युवा मालधक्के पर हमाली करते थे। उनकी एक टीम थी जो हमारे लिए कागज के रोल मालधक्के से प्रेस गोदाम तक लाने में जुटती थी। इसी टीम ने हमारी छपाई मशीनों को भी जब मौका आया ट्रकों से उतार कर मशीन रूम में ले जाने तक का काम बेहद सावधानी व कुशलता के साथ किया। मोनो मशीनों को भी स्थापित करने का काम भरत के ही जिम्मे था। मेरे हमउम्र भरत स्वयं बहुत मेहनती थे। वे टीम को निर्देश देने में भी सक्षम और अपने काम के प्रति बेहद जिम्मेदार थे।
अब तक की कड़ियों को पढ़कर पाठकों ने अनुमान कर लिया होगा कि अखबार को चलाने में कितने सारे जनों की, विविध स्तरों पर प्रत्यक्ष और-परोक्ष भूमिका निभाना होती है।
#देशबंधु में 01 अगस्त 2019 को प्रकाशित
  
 

Thursday, 25 July 2019

".तो आ जाओ"



कुछ दिन पहले सड़क किनारे एक विशालकाय होर्डिंग पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखी इबारत देखने मिली। ''अगर कॉमर्स पढ़ना चाहते हो तो आ जाओ। यह होर्डिंग, जाहिर है कि एक कोचिंग संस्थान का था। इस संदेश को पढ़कर पहला ख्याल यही आया कि देश में सारे स्कूल-कॉलेज बंद कर देना चाहिए। कोचिंग संस्थाओं के मालिक ही देश की नई पीढ़ी का प्रगति पथ प्रशस्त करने के लिए पर्याप्त हैं। तकरीबन पच्चीस साल पूर्व कोचिंग संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाने पर, उन पर नियंत्रण रखने के बारे में संसद और समाज में बहस होती थी जो अब नहीं होती। हम अपने बच्चों को इस या उस ''सर के हवाले कर निश्चिंत हो गए हैं। लेकिन मेरा मकसद इस समय शिक्षा प्रणाली पर चर्चा करने का नहीं, बल्कि इस लुभावने आमंत्रण को पढ़कर मन में जो विचार उठे, उन्हें आपसे साझा करना है।

''... तो आ जाओ  के आह्वान पर मैं कोचिंग संस्था और शिक्षा जगत से भटक कर न जाने कहां कहां पहुंच गया! एक पल के लिए लगा मानों मैं  किसी भीड़ भरे बाजार में आ गया हूं जहां चारों तरफ दूकानें सजी हैं और दूकानदार हांका लगा रहे हैं- हमारी दूकान पर आ जाओ। सबसे सुंदर, सबसे टिकाऊ, सबसे सस्ता माल यहीं मिलेगा। ऐसा नजारा मैंने जबलपुर के गुरंदी बाजार से लेकर लंदन के पेटीकोट मार्केट और शंघाई के बाजार तक देखा है। दूसरे पल महसूस हुआ कि मैं किसी बस अड्डे पर खड़ा हूं। बस का इंजिन चालू कर ड्राइवर अपनी सीट पर बैठा है और नीचे खड़ा कंडक्टर हांका लगा रहा है- लखौली, आरंग, तुमगांव, पिथौरा की सवारी आ जाओ। दूसरी बस का कंडक्टर किसी और रूट का, और तीसरी बस वाला तीसरे किसी रूट के गांवों के नाम गिना रहा है।

मैं इसी तरह भटकते-भटकते कहीं और पहुंच जाता हूं। यहां भी ऊंची आवाज में हांके लग रहे हैं-

दस-बीस-चालीस करोड़ चाहिए तो आ जाओ।
मंत्री बनना है तो आ जाओ।
छापे पड़ने से बचना है तो आ जाओ।
जेल जाने से बचना है तो आ जाओ।
मारे जाने से बचना है तो आ जाओ।

मैं एक तरफ ये आवाज सुन रहा हूं और दूसरी तरफ देखता हूं कि कितने सारे लोग दौड़ते -भागते हांका लगाने वाले की ओर उमड़ पड़ रहे हैं। एक दूकान पर ऐसी भीड़! जबकि बाकी जगह दूकानदार मुंह लटकाए बैठ गए हैं। अगर यह बस अड्डे का दृश्य है तो मानो सारे यात्री पुन्नी मेला जा रहे हैं। उन्हें कहीं और जाना ही नहीं है।
अगर यह कोचिंग संस्थान का दृश्य है तो उस जगह का है जहां जीवन जीने की कला सिखाई जाती है, जहां योगबल से जितेंद्रिय बना जाता है, जहां व्यक्ति के बदलने से समाज बदलने का मंत्र मिलता है, जहां किसी जादू से भक्त की मुरादें पूरी हो जाती हैं। यह सचमुच इक्कीसवीं सदी के भारत की अद्भुत कहानी है।

तुम्हें अगर राजनीति में सफल होना है ''तो आ जाओ" का मंत्र सुगठित रूप में शायद पहली बार 1967 में फूंका गया था। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को अत्यन्त क्षीण बहुमत से जीत मिली थी और उसका प्रभाव विधानसभा चुनावों में भी देखने मिला था, जो साथ-साथ संपन्न हुए थे। गैर-कांग्रेसवाद का नारा तब बुलंद हुआ था और कितने ही प्रदेशों में बड़ी संख्या में कांग्रेस विधायकों ने अपना दल त्याग संयुक्त विधायक दल की याने संविद सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका अदा की थी। मध्यप्रदेश में इनका नेतृत्व श्रीमती विजयाराजे सिंधिया ने किया था और छत्तीस दलबदलू विधायकों के सहारे गोविंद नारायण सिंह की सरकार बनी थी। तब मुख्यमंत्री द्वारिकाप्रसाद मिश्र ने श्रीमती इंदिरा गांधी से कहा था कि उन्हें राज्यपाल से मिलकर विधानसभा भंग कर नए चुनाव की सिफारिश करने की अनुमति दी जाए। इंदिराजी ने उनकी राय नहीं मानी। वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री यशवंत राव चव्हाण का मानना था कि दलदबल के इसी अस्त्र से वे उत्तरप्रदेश में चरणसिंह सरकार को अपदस्थ कर देंगे। अगर मिश्रजी की सलाह मान ली गई होती तो दलबदल की दूकान पर वहीं ताला लग गया होता। आज किसे दोष दें- श्रीमती सिंधिया को, श्रीमती गांधी को, श्री चव्हाण को या उन तमाम समाजवादी-साम्यवादी नेताओं को जो दलबदल में जनसंघ के पिछलग्गू बन गए?

1985 में राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद दलबदल की प्रवृत्ति पर रोक लगाने की ईमानदार लेकिन निष्फल कोशिश की। वे दलबदल विरोधी कानून लेकर आए। उस समय मधु लिमये एकमात्र नेता थे, जिन्होंने कहा था कि इस कानून से कोई लाभ नहीं होगा। वही हुआ। पहले एक तिहाई विधायकों के एकमुश्त दल बदलने की वैधानिक न्यूनतम सीमा तय की गई। वह बढ़कर पचास प्रतिशत और फिर दो-तिहाई कर दी गई, किंतु कानून तोड़ने में माहिर, और ऐसा करने में गर्व महसूस करने वाले भारतीय समाज के रहनुमाओं ने असंभव को भी संभव कर दिखाया। निस्संदेह, भारतीय संस्कृति के रखवालों ने ही ताला तोड़ने के गुर सिखाए।
1985 में आपके इस अखबार की भी राय थी कि लंबा-चौड़ा कानून बनाने के बजाय एक सीधा-सरल प्रावधान हो कि दलबदलू विधायक की सदस्यता तुरंत रद्द हो जाएगी और उसे अगले चुनाव तक कोई पद नहीं मिलेगा। लेकिन अब लगता है कि  इसकी भी कोई काट शायद निकाल ली जाती! आज पश्चिम बंगाल, आंध्र, कर्नाटक, गोवा, मणिपुर, मेघालय, लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, कुल मिलाकर चारों तरफ जो स्थिति बनी है, उसे देखकर तो यही प्रतीत होता है कि ''तो आ जाओ" का प्रलोभन बाकी तमाम बातों पर भारी पड़ गया है।

मुझे इस बात की चिंता कम है कि प्रदेश सरकारों का क्या होगा। बड़ी चिंता यह है कि इस दलबदल का मकसद कहीं गहरा है। ''तो आ जाओ" के होर्डिंग लगाकर जो बैठे हैं, वे दरअसल भारत में संसदीय जनतंत्र को समाप्त करना चाहते हैं। जब निर्वाचित प्रतिनिधियों की इन कारगुजारियों के चलते मतदाता उनमें विश्वास खो बैठेंगे, तब क्या होगा? यही न कि ये सब भ्रष्ट हैं, लालची हैं, भरोसेमंद नहीं हैं; कि इससे बेहतर तो तानाशाही है।
जिन समाज ने दो सौ साल तक अंग्रेजों की गुलामी झेली है; उस पर यदि कोई देसी तानाशाह राज करने लगे तो उसे जनता शायद खुशी-खुशी स्वीकार कर लेगी। आश्चर्य मत कीजिए यदि आगामी लोकसभा चुनावों के पूर्व इस देश में एक नया संविधान लागू हो जाए। आखिरकार, कितने ही संविधानवेत्ता और संसदविद् न जाने कब से राष्ट्रपति शासन प्रणाली की पैरवी करते आए हैं। अगर हम इसी योग्य हैं तो यही सही।

देशबंधु में 25 जुलाई 2019 को प्रकाशित

Wednesday, 17 July 2019

देशबन्धु के साठ साल-4


'प्रिंटर्स डेविल' याने छापाखाने का शैतान अखबार जगत में और पुस्तकों की दुनिया में भी एक प्रचलित मुहावरा रहा है। छपी हुई सामग्री में कोई शब्द या अक्षर इधर का उधर हो जाए, फलत: अर्थ का अनर्थ होने की नौबत आ जाए तो उसे किसी अदृश्य शक्ति याने शैतान की कारगुजारी बता कर बच जाओ। वास्तविकता में यह अक्सर कंपोजिंग की गलती होती है। बाज दफे समाचार-लेखक भी हड़बड़ी में कुछ गलत लिख जाता है और कंपोजाटर सतर्क न हो तो वैसा ही गलत छप भी जाता है। एक बेहतरीन कंपोजिटर को परिश्रमी और सजग होने के साथ-साथ भाषा का भी पर्याप्त ज्ञान होना आवश्यक होता है। मैंने अब तक ऐसी दो ही पत्रिकाएं देखीं, जिनमें कभी न तो तथ्यों की गलती देखने मिली और न वर्तनी या व्याकरण की। एक- अमेरिका से प्रकाशित ''नेशनल ज्योग्राफिक'' और दूसरी इंग्लैंड की ''द इकानॉमिस्ट''। बाकी तो हम गलतियां करते चलते हैं और समझदारी हो तो इसके लिए पाठकों से माफी भी मांग लेते हैं। आप समझ रहे होंगे कि एक अच्छा अखबार निकालने की शर्त है कि उसमें गलतियां न हों और यह बड़ी हद तक कंपोजिंग विभाग में कुशल सहयोगी होने पर निर्भर करता है।
मैं देशबन्धु के कंपोजिंग विभाग के साथियों को याद करता हूं तो सबसे पहले 'राय साहब' का ध्यान आता है। सिर्फ बाबूजी ही उन्हें जीतनारायण नाम से संबोधित करते थे। जौनपुर (उप्र) के राय साहब शायद 1956 में भोपाल में बाबूजी से जुड़ गए थे। वे ऊंची कद-काठी के स्वामी थे। मैं उन दिनों अपनी बुआ के पास पहले नागपुर, फिर ग्वालियर में पढ़ रहा था, इसलिए मैंने उन्हें रायपुर आने पर ही पहली बार देखा। वे कंपोजाग से पदोन्नत होकर फोरमैन बन चुके थे। आगे चलकर वे हैड फोरमैन भी बने। बढ़ती आयु में जब नेत्र ज्योति शिथिल होने लगी तो उनके प्रभावी व्यक्तित्व के अनुकूल दूसरे काम सौंप दिए गए। उन्हें गुजरे लंबा समय बीत गया है, लेकिन चाची और उनके बच्चों के साथ आज भी संपर्क बना हुआ है। फोरमैन के जिम्मे संपादकीय विभाग से समाचार आदि लेना, उसे कंपोजिटरों के बीच बांटना, कंपोज हो गई सामग्री के प्रूफ निकालना, सुधार करना, और इस लंबी प्रक्रिया में समय की पाबंदी व अनुशासन बनाए रखना आदि काम होते थे। उन शुरुआती दिनों में चार पेज के अखबार में भी कोई अठारह-बीस कंपोजिटर, उन पर दो या तीन फोरमैन और सबके ऊपर हैड फोरमैन होता था। राय साहब के साथ इलाहाबाद से आए रामप्रसाद यादव, जबलपुर के दुलीसिंह, जगन्नाथ प्रसाद पांडे आदि थे। ये सभी अपने फन के माहिर थे।
समय आगे बढ़ने के साथ इनका स्थान लेने के लिए एक नई पीढ़ी सामने आ गई। 1970 के दशक में एक समय ऐसी स्थिति बनी कि अखबार निकलने में प्राय: रोज ही देरी होने लगी। जो हैड फोरमैन थे, वे विभाग को सम्हाल नहीं पा रहे थे। तब मैंने एक प्रयोग किया। तीन युवा फोरमैन क्रमश: लीलूराम साहू, मोहम्मद सलाम हाशिमी और रणजीत यादव को एक-एक माह के लिए हैड फोरमैन का प्रभार इस वायदे के साथ सौंपा कि जिसका काम सबसे अधिक संतोषजनक होगा, उसे विभाग का मुखिया बना दिया जाएगा। उन तीनों साथियों में अपनी बेहतर काबिलियत का परिचय लीलूराम ने दिया। वे हैड फोरमैन नियुक्त किए गए और रिटायरमेंट तक इस पद पर बने रहे। मेरे हमउम्र लीलूराम का कद नाटा था, लेकिन वे अपने दायित्व को भलीभांति समझते थे, उनमें नेतृत्व क्षमता भरपूर थी, और वे नई चीजें सीखने में भी दिलचस्पी रखते थे। अपने इन गुणों और साथ में विनम्र स्वभाव के कारण वे प्रेस में हम सभी के प्रिय थे। नए दौर में कंपोजिंग विभाग में उन्नत तकनीकी का आगमन हुआ तो उसे समझने और उपयोग करने में भी लीलूराम ने देरी नहीं की।
हैड कंपोजिंग याने छापे के अक्षर हाथ से जोड़ने की विधि पुरानी पड़ चुकी थी। उन दिनों लाईनोटाइप और मोनोटाइप ऐसी दो यांत्रिक प्रणालियां प्रचलन में थीं। पहली में एक-एक लाइन मशीन से ढलकर निकलती थी। एक गलती हो जाए तो पूरी लाइन बदलो। दूसरी में एक-एक अक्षर की पृथक ढलाई होती थी। हमने मोनोटाइप मशीनें खरीदना तय किया। छत्तीसगढ़ में देशबन्धु पहला अखबार था, जहां ये मशीनें आईं। स्वाभाविक ही यहां उनका कोई जानकार नहीं था। हम इलाहाबाद से रामनिवास सिंह और जगदीश नारायण श्रीवास्तव को लेकर आए। सिंह साहब मशीन ऑपरेटर थे, याने की-बोर्ड पर कंपोजिंग करते थे।
जगदीश उससे जुड़ी मशीन पर सात सौ डिग्री तापमान पर खौलते सीसे से अक्षरों की ढलाई करते थे। रामनिवास सिंह बुजुर्ग थे। खादी के शुभ्र धवल वस्त्र पहनते थे। उनकी भाषा बेहद अच्छी थी। संपादकों की गलतियां सुधार देते थे। जगदीश भी अपने काम में कुशल, और मृदुभाषी व्यक्ति थे। एक लंबे अरसे बाद जब मोनो तकनीक भी पुरानी पड़ गई, मशीनें बेच दी गईं, तब भी जगदीश एक तरह से प्रेस परिसर के सुपरवाइजर बनकर जीवन पर्यन्त हमारे साथ बने रहे। उनके बेटे आज भी किसी न किसी रूप में प्रेस से जुड़े हुए हैं।
इधर मोनो मशीन खरीदने की प्रक्रिया प्रारंभ की, इलाहाबाद से कुशल कर्मियों को बुलाया; दूसरी ओर यह भी तय किया कि वर्तमान स्टाफ को भी इन मशीनों पर काम सिखाया जाए। कलकत्ता में मोनोटाइप कंपनी तकनीकी प्रशिक्षण देने के लिए एक स्कूल चलाती थी। लीलूराम, फेरहाराम साहू और हेमलाल धीवर को इस स्कूल में शायद तीन माह का प्रशिक्षण लेने भेजा गया। इन तीनों साथियों ने पूरे मनोयोग के साथ काम सीखा और अपने प्रशिक्षकों से सराहना हासिल की। मोनोटाइप स्कूल के प्राचार्य ने तीनों को श्रेष्ठ प्रशिक्षार्थी होने के प्रमाणपत्र दिए और एक अलग पत्र भेजकर हेमलाल की विशेष प्रशंसा की कि उनके जैसा कुशाग्र प्रशिक्षार्थी पहले कभी नहीं आया। लगभग एक साल बाद रायपुर नवभारत में मोनोटाइप मशीन आई तो उनके प्रबंधन के अनुरोध पर लीलूराम को वहां दूसरी शिफ्ट में काम करने भेजा कि उनके लोगों को काम सिखा दें। हमने तो सहयोग की भावना से भेजा था, लेकिन नवभारत में उन्हें बेहतर सुविधाओं का लाभ देकर वहीं रोक लेने की पेशकश कर दी। लीलूराम उनके ऑफर को ठुकराकर वापिस लौट आए।
समय के साथ एक बार फिर तकनीकी में बदलाव आया। मोनोटाइप मशीनों का स्थान वेरीटाइपर मशीनों ने ले लिया। अब तक हॉट मैटल प्रोसेस याने गर्म धातु से ढलाई होती थी। उसकी जगह कंप्यूटर आधारित प्रक्रिया आ गई जो कुछ-कुछ फोटोग्राफी से मिलती-जुलती थी। इसमें एक फिल्म के निगेटिव पर शब्द और पृष्ठ का संयोजन होकर उसके पॉजीटिव से ऑफसेट मशीन पर छपाई होती थी। लीलूराम और हेमलाल ने इस प्रविधि को समझने-सीखने में कोई देरी नहीं की।
उन्होंने अपने अन्य साथियों को भी काम सिखाया। मेरे प्रिय साथी लीलू कंपोजिंग प्रक्रिया के इस तीसरे चरण में भी विभाग प्रमुख का दायित्व कुशलतापूर्वक सम्हालते रहे। जब चौथे चरण में डेस्कटॉप कंप्यूटर का युग आया, तब तक वे शायद रिटायरमेंट की आयु में पहुंच चुके थे। इस नई तकनीक के साथ वे मेल नहीं बैठा सके। उन्हें कोई दूसरा दायित्व भी सौंपा किंतु वह उनके मन-माफिक नहीं था। वे रिटायर होकर चले गए। काफी समय से उनसे मुलाकात नहीं हुई है। हेमलाल डेस्कटॉप पर भी कुछ बरसों तक काम करते हुए हमारे साथ बने रहे। अभी कुछ दिन पहले ही उनके देहांत की सूचना मुझे मिली। कंपोजिंग विभाग की यह कहानी अभी अधूरी है।
देशबंधु में 18 जुलाई 2019 को प्रकाशित