देश में इन दिनों चारों तरफ आम चुनावों का माहौल है, लेकिन इसी बीच रायपुर में एक गैर-चुनावी घटना से प्याली में तूफान उठने की स्थिति बन गई। हुआ यह है कि प्रदेश के चर्चित आरटीआई कार्यकर्ता कुणाल शुक्ल एक दिन सुबह-सुबह वरिष्ठ विधायक और पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के सरकारी बंगले को खाली करने की मांग लेकर बंगले के सामने ही धरने पर बैठ गए। धरना अधिक देर तक नहीं चल पाया। पुलिस आई और उन्हें उठाकर ले गई। लेकिन इस घटना ने झील में कंकड़ फेंकने का काम तो कर ही दिया और मुझ जैसे लोगों को सोचने के लिए मसाला दे दिया।
भाजपाई बृजमोहन अग्रवाल सन् 1990 में पहली बार विधायक बने। हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों में उन्होंने लगातार सातवीं बार जीत का रिकॉर्ड बनाया है। तीस साल की उम्र में विधायक बने बृजमोहन अब साठ सीढ़ियां पार कर चुके हैं। वे एक संपन्न व्यापारी परिवार से आते हैं, लेकिन नगर की जनता मुख्यत: उनकी मिलनसारिता से प्रभावित होती है। जब राजधानी भोपाल में थी, तब भी छत्तीसगढ़ से कोई भोपाल जाए तो बृजमोहन के सरकारी घर पर यथोचित ध्यान रखा जाता था। रायपुर में वे शहर की सड़कों पर अपने स्कूटर पर ही घूमने, पान खाने, मिलने-मिलाने निकल जाते थे। रायपुर के ही एक कांग्रेसी विधायक कुलदीप जुनेजा उनका अनुसरण करते नजर आते हैं। कुलदीप को भी स्कूटी की सीट पर अपना दफ्तर जमाए देखा जा सकता है। लेकिन माफ कीजिए, मैं बहक गया। बात तो बंगले की हो रही थी।
2003 में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बनी बृजमोहन को मंत्री पद हासिल हुआ और उन्होंने बिना समय गंवाए रायपुर की सिविल लाइंस के सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले बंगले पर कब्जा कर लिया। यह परंपरा से रायपुर संभाग के कमिश्नर का बंगला था, जो राज्य बनने के बाद प्रदेश के मुख्य सचिव के नाम हो गया था। चीफ सेक्रेटरी अरुण कुमार इसमें रहे और रिटायर होने के बाद प्रशासनिक सुधार आयोग के अध्यक्ष की हैसियत से भी वहीं काबिज रहे आए। लेकिन मंत्रीजी नौकरशाह पर भारी पड़ गए। अरुण कुमार को बंगला छोड़ना पड़ा। तब से बृजमोहन अग्रवाल का निवास यहां बना हुआ है याने पंद्रह साल कुछ माह से। यह समझ आता है कि प्रदेश के वरिष्ठतम विधायकों में से एक श्री अग्रवाल को एक सुविधायुक्त आवास की सुविधा होना चाहिए, लेकिन उन्हें इसी जगह से इतना मोह है तो उसका कोई कारण अवश्य होगा!
मुश्किल यह हुई है कि पंद्रह साल बाद सत्ता में लौटी कांग्रेस के नए-नवेले मंत्री रुद्रकुमार गुरु ने अपने आवास के लिए इसी बंगले को चुन लिया। रायपुर कमिश्नर के इस सौ साल पुराने बंगले में ऐसी क्या कोई खासियत होगी जो किसी मंत्री को अपनी ओर आकर्षित करती है? श्री गुरु का कथन है कि वे शिफ्ट होंगे तो इसी बंगले में वरना अपने पैतृक आवास से ही काम चलाते रहेंगे। उन्हें दूसरे सरकारी आवास में जाना कुबूल नहीं है। लेकिन हमारी समझ में बात नहीं आई कि कुणाल शुक्ल एकाएक रुद्रकुमार गुरु के हनुमान क्यों बन गए! वे एक ऊर्जावान युवा हैं जो पिछले कई सालों से सूचना के अधिकार कानून व जनहित याचिका आदि का सहारा लेकर प्रशासन तंत्र की जवाबदेही सुनिश्चित करने के उपक्रम में लगे रहते हैं। इस बंगला प्रसंग में भी उन्होंने शायद जनहित मानकर ही हस्तक्षेप किया होगा; लेकिन प्रतीत होता है कि इस पूरे मामले के जितने स्टेकहोल्डर याने हितग्राही हो सकते हैं, वे इस ओर से पूरी तरह निर्विकार हैं।
मुझे इस संदर्भ में कुछ सप्ताह पहले लिखे अपने ही एक लेख की याद हो आई। सन् 2000 में राज्य गठन के बाद स्वाभाविक था कि मंत्रियों को शासकीय आवासगृहों या कि बंगलों की आवश्यकता पड़ती। मंत्री द्वय सत्यनारायण शर्मा व अमितेश शुक्ल पूर्व से ही रायपुर के स्थायी निवासी थे। शर्माजी ने जनसंकुल बांसटाल की गली में अपने निजी आवास में ही रहना पसंद किया। वह मकान उनके लिए सदा से मंगलकारी था। वहीं से उनकी राजनीति परवान चढ़ी। अमितेश का खम्हारडीह का सुसज्जित बंगला तो वैसे भी पूर्व मुख्यमंत्री का निजी आवास था, सो उसमें शुभ-लाभ सोचने की कोई बात नहीं थी। अगर अन्य किसी मंत्री ने भी इन उदाहरणों का अनुकरण किया हो तो मुझे ध्यान नहीं है।
फिलहाल, मेरा ध्यान इस तथ्य पर जाता है कि बृजमोहन अग्रवाल ने 1990 के अपने पहले चुनाव के बाद 1993, 1998 और 2003 के चुनाव भी रामसागरपारा में अपने पैतृक निवास से ही जीते थे। अगले तीन चुनाव अर्थात 2008, 2013 व 2018 की विजय उन्हें मंत्री बंगले में रहते हुए प्राप्त हुई। किंतु इससे जुड़ा तथ्य यह भी है कि यह पुराना बंगला अपने तमाम रंग-रोगन के बावजूद उनकी महत्वाकांक्षा पूरी करने में सहायक नहीं बन सका। छत्तीसगढ़ भाजपा में उनकी ख्याति चुनावी रणनीतिकार के रूप में रही है। विगत पंद्रह सालों में भाजपा जितने भी चुनाव-उपचुनाव जीती है, उसमें बृजमोहन ने महती भूमिका निभाई है। यह राजनीति की विडंबना है कि इसके बाद भी वे जहां पहुंचना चाहते थे, नहीं पहुंच सके हैं। मेरी समझ में रुद्रकुमार गुरु के लिए भी यहां एक अव्यक्त संदेश है। जिस घर में रहकर दो बार विधायक और फिर मंत्री बने, वहीं बने रहने में क्या परेशानी है। अफसरों के बंगले तो वैसे भी तबादले पर आने-जाने वालों के लिए बनते हैं। उनसे क्यों मोह पाला जाए?
जो बात मंत्रियों पर लागू होती है, वह विधायकों पर भी लागू होना ही है। जशपुर के राजकुमार युद्धवीर सिंह विधायक बने तो उन्होंने रायपुर में एनआईटी डायरेक्टर के लिए नामांकित आवास पर कब्जा कर लिया। एक संपन्न राजपरिवार के वारिस होने के नाते शहर में कहीं भी वे अपनी मर्जी का आवास ले सकते थे। मालूम नहीं, शिक्षकों की कालोनी, विद्यार्थियों के छात्रावास के निकट रहने में उन्हें क्या सुख मिला। उनके नक्शेकदम पर रायपुर पश्चिम के तेजतर्रार युवा विधायक विकास उपाध्याय चल पड़े हैं। उन्होंने जिस बंगले पर आधिपत्य जमाया है वह छत्तीसगढ़ के सबसे प्रतिष्ठित शासकीय विज्ञान महाविद्यालय के प्राचार्य का नामांकित आवास है। उन्हें यहां आकर रहने की क्या सूझी? विकास का आधा समय तो धरना, प्रदर्शन, जन आंदोलन में जाता है। अब कुछ समय विधानसभा में बीतेगा। दिन भर की मशक्कत के बाद एक अच्छी नींद लेने के लिए वह पुराना घर क्या बुरा था? जनसंपर्क करना है, लोगों से मिलना-जुलना है तो कुलदीप जुनेजा को अपना आदर्श बनाने में कोई हर्ज नहीं है। अनुपम गार्डन में पेड़ की छाँह तले बैठकर भी जनता के साथ संवाद किया जा सकता है।
मेरी बात व्यक्ति को लेकर नहीं, वरन हाल-हाल में पनप रही एक नई प्रवृत्ति को लेकर है। हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों का ध्यान सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की ओर जाना चाहिए। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि में पूर्व मुख्यमंत्रियों को आबंटित बंगले निरस्त कर दिए गए हैं। मोतीलाल वोरा, मुलायम सिंह, मायावती तक को बंगले खाली करने पड़े हैं। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट ने लालबत्ती का प्रयोग भी निषिद्ध कर दिया। जननेता की पहचान लाव-लश्कर से नहीं, जनसामान्य के प्रति उसके व्यवहार व सरोकार से बनती है। कथित चायवाले को जनता ने चुना, लेकिन सोने के धागे से बुने नाम वाले सूट को उसने पसंद नहीं किया। बंगलों की चर्चा चलने पर मुझे अनायास 1956 का भोपाल याद आने लगता है। विधायक विश्रामगृह क्रमांक 1, 2 और 3 में विधायकगण सत्र के दौरान आकर ठहरते थे। सत्रावसान के बाद क्षेत्र में लौट जाते थे। यही हमने दिल्ली में देखा। नॉर्थ एवेन्यू व साउथ एवेन्यू में संसद सदस्यों के लिए फ्लैट बने हैं। एलआईजी मानदंड के फ्लैट, जिनमें संसद सत्र के दौरान सदस्य रुकते हैं। मध्यप्रदेश में तीन बार मुख्यमंत्री रहे श्यामाचरण शुक्ल भी जब लोकसभा में पहुंचे तो नॉर्थ ब्लॉक का फ्लैट ही उन्हें मिला। कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ सांसद इंद्रजीत गुप्त तो अंत तक वेस्टन कोर्ट के एक कमरे में ही रहते रहे। अगर ये उदाहरण प्रेरणा दे सकें तो ठीक, अन्यथा जो चल रहा है, वह चलता रहेगा।
#देशबंधु में 16 मई 2019 को प्रकाशित
No comments:
Post a Comment