Thursday 23 May 2019

गहलौत, नाथ, बघेल और आने वाले दिन


इस वक्त आप शायद टीवी स्क्रीन पर नजरें गड़ाए बैठे होंगे! आज सत्रहवीं लोकसभा के बहुप्रतीक्षित चुनाव परिणाम आने का दिन जो है। टीवी स्टूडियो में सुबह छह बजे से ज्ञानी, पंडित, विश्लेषक आकर बैठ गए होंगे और अभी शायद डाक मतपत्रों की गणना शुरू हो गई होगी! ऐसे में आज आपको मेरा कॉलम पढ़ने का भी समय और धीरज कहां होगा? मैं आज कॉलम न भी लिखता तो काम चल जाता, मेरी ही मेहनत बचती, लेकिन पिछले सत्रह सालों में जब एक भी हफ्ते व्यवधान नहीं हुआ तो आज का गुरुवार ही अपवाद क्यों बने, यही सोचकर लिखने बैठ गया। दिक्कत विषय चुनने की भी है। एक्जाट पोल पहिले ही आ चुके हैं। पिछले रविवार की शाम से उन पर चकल्लस चल रही है। मैं खुद भी सोशल मीडिया पर अपनी अकल के नमूने पेश कर चुका हूं। इस क्षण उस बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है। चुनाव परिणाम शाम-रात तक आ ही जाएंगे, तब उन पर बहस होगी। फिलहाल, क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मैं कुछ ऐसी चर्चा करूं जिस पर अमूमन अभी ज्ञानीजनों का ध्यान नहीं गया है?
मैं उन तीन राज्यों के बारे में कुछ बातें करना चाहता हूं, जिनमें विगत नवंबर 2018 में विधानसभा चुनाव हुए थे। मेरा आशय राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ से है। जैसा कि आपको ध्यान होगा, इन तीनों राज्यों के चुनाव परिणाम 11 दिसंबर को घोषित हुए और उसके एक सप्ताह बाद 17 दिसंबर को तीनों नवनिर्वाचित मुख्यमंत्रियों ने अपना-अपना पदभार ग्रहण किया। उन्हें अपना मंत्रिमंडल गठित करने में इसके बाद कुछ दिन और लग गए। इस बीच 10 मार्च 2019 को केंद्रीय चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनावों की अधिसूचना जारी कर दी, जिसके बाद सारे सरकारी कामकाज एक तरह से रुक ही गए। सीधा गणित है कि इन तीनों प्रदेशों की नई सरकारों को मात्र पैंसठ या सत्तर दिन ही मिल पाए, जिसमें वे अपने चुनावी वायदों और पार्टी की नीतियों के अनुरूप कुछ ठोस काम कर पाते। बाकी तो दैनंदिन प्रशासन अपनी गति से चलना ही था। देश के अन्य राज्यों की तुलना में इन राज्यों में, कह सकते हैं, कि एक विशिष्ट परिस्थिति निर्मित हो गई थी।
तीन नई सरकारें। तीन नए मुख्यमंत्री। इनमें शायद सबसे कम परेशानी राजस्थान के अशोक गहलोत के सामने थी। वह इसलिए कि वे पहले भी दो बार पूरे पांच साल के लिए मुख्यमंत्री पद सम्हाल चुके थे और राज्य के प्रशासन तंत्र पर उनकी पकड़़ पहिले से थी। मेरा अनुमान है कि राजस्थान में चूंकि सरकारें पांच साल में बदलती रही हैं, इसलिए नौकरशाही भी दूसरे राज्यों के मुकाबले व्यक्ति निष्ठा अथवा दलीय निष्ठा से किसी हद तक मुक्त रही होगी। मध्यप्रदेश का मामला इस लिहाज से अधिक गंभीर था। कमलनाथ वैसे तो सन् 1980 से लगातार लोकसभा सदस्य रहे हैं और चुनावों के एक साल पहिले वे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बन गए थे, फिर भी उनके सामने कई तरह की अड़चनें थीं। यह याद रखना होगा कि राजस्थान व मध्यप्रदेश दोनों में कांग्रेस को स्पष्ट जनादेश मिलने में कुछ कसर रह गई थी। राजस्थान में सत्ताच्युत भाजपा कांग्रेस को चुनौती देने लायक सीटें नहीं जीत पाई, किंतु मध्यप्रदेश में दोनों के बीच मात्र चार सीटों का अंतर था और भाजपा किसी कदर उद्धत होकर अपनी पराजय मानने तैयार न थी और न है।
एक अन्य परिस्थिति का भी उल्लेख करना चाहिए। राजस्थान में युवा प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, लेकिन गहलोत की वरिष्ठता का आदर व उपमुख्यमंत्री मिल जाने के कारण वहां कोई आंतरिक संकट उपस्थित नहीं हुआ। मध्यप्रदेश में कमलनाथ प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते स्वाभाविक रूप से मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, लेकिन युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया व हमउम्र दिग्विजय सिंह के साथ जाने-अनजाने उनकी तुलना होने लगी। यहां तक बातें उठीं कि सरकार तो दिग्विजय चला रहे हैं। अजय सिंह, राहुल, सुरेश पचौरी, अरुण यादव भी नेपथ्य में विद्यमान थे। लेकिन इन सबसे बढ़कर दो अन्य कारण भी थे। एक तो कमलनाथ को प्रदेश सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं था। वे कैलाशनाथ काटजू व प्रकाशचंद सेठी की परंपरा के मुख्यमंत्री हैं। केंद्र में अनेकानेक कार्य सुनिश्चित नीति और प्रक्रिया से चलते हैं जबकि मध्यप्रदेश जैसे राज्य में लगभग सारे समय प्रशासन में अस्त-व्यस्तता का माहौल बना रहता है। दूसरे, प्रदेश की नौकरशाही पिछले पंद्रह सालों के दौरान भाजपा व शिवराज सिंह के साथ काम करने के अभ्यस्त हो चुकी है।
हम देख रहे हैं कि एक्जिट पोल आने के बाद शायद इन सभी कारणों से मध्यप्रदेश में भाजपा के हौसले एक बार फिर बुलंद हो गए हैं। प्रतिपक्ष के नेता गोपाल भार्गव ने तो राज्यपाल को पत्र लिखकर विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने की मांग कर दी है, जबकि उसके लिए फिलहाल कोई तर्कसंगत आधार नहीं है। आशंका होती है कि चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा कमलनाथ सरकार को अपदस्थ करने के लिए हरसंभव प्रयत्न करेगी। भाजपा का यह अतिउत्साह और आत्मविश्वास का अतिरेक जनतांत्रिक परंपराओं के विपरीत दिखाई देता है। सामान्य तौर पर विधानसभा का मानसून सत्र जुलाई में आहूत होगा। क्या शिवराज सिंह और गोपाल भार्गव डेढ़-दो माह भी धैर्य नहीं रख सकते? तिस पर तुर्रा यह कि ''हमने कांग्रेस को सरकार बनाने दी।" बहुत मेहरबानी आपकी। लेकिन फिर गोवा और मेघालय और मणिपुर में इतनी ही दयानतदारी दिखा देते। अच्छी बात है कि कमलनाथ ने बेहद संयत स्वर में इनकी चुनौती को कबूल कर लिया है।
छत्तीसगढ़ की स्थिति राजस्थान और मध्यप्रदेश दोनों से भिन्न है। मोदी-शाह तंत्र की सोच थी कि यहां तो भाजपा लगातार चौथी बार जीतेगी, जिसका असर म.प्र. व राजस्थान में भी होगा। यही सोचकर सबसे पहिले विधानसभा चुनाव छत्तीसगढ़ में करवाए गए। लेकिन भाजपा का दांव उल्टा पड़ गया। छत्तीसगढ़ से जो लहर उठी, उससे म.प्र. व राजस्थान में कांग्रेस को कुछ न कुछ लाभ ही पहुंचा। यहां कांग्रेस ने तीन चौथाई बहुमत हासिल किया तो पूरे देश में पार्टी के भीतर नए उत्साह का संचार हुआ। भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव, ताम्रध्वज साहू, रवींद्र चौबे आदि सभी वरिष्ठ नेताओं को दूसरे प्रदेशों में भी लोकसभा चुनाव में मदद करने भेजा गया। टीएस बाबा ओडिशा के प्रभारी बनाए गए, जबकि मुख्यमंत्री भूपेश मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के अनेक क्षेत्रों में स्टार प्रचारक के रूप में भूमिका निभाते नज़र आए। यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि पार्टी के भीतर भूपेश एक कद्दावर ओबीसी नेता बनकर उभरे हैं। यह तस्वीर का एक पहलू है। इसका दूसरा पक्ष भी देख लेना चाहिए।
इसमें संदेह नहीं कि भूपेश सरकार को इस बीच काम करने के लिए जो सत्तर दिन मिले, उनमें कर्ज माफी जैसे अनेक कदम त्वरित रूप से उठाए गए। वायदे निभाए गए। लेकिन अब सामने चुनौतियों का अंबार लगा है। राज्य के प्रशासन तंत्र को लेकर जो स्थिति म.प्र. में है, वही छत्तीसगढ़ में है। मुख्यमंत्री को सर्वोच्च वरीयता देकर ऐसा तंत्र स्थापित करने की जरूरत है जो राग-द्वेष, ईर्ष्या प्रतिद्वंद्विता, भ्रष्टाचार से मुक्त होकर सरकार की रीति-नीति के अनुसार काम करे और परिणाम दे सके। शीर्ष नेताओं के बीच आपसी खींचतान की जो $खबरें आ रही हैं, वे भी चिंता उपजाती हैं। मतभेद होना सामान्य है, लेकिन उनके समाधान संभव है और इन्हें अखबारों की गपशप बनने से बचाने की फौरी आवश्यकता है। आज शाम को चुनाव परिणाम घोषित होने के साथ ही सरकारी कामकाज पर लगी रोक हट जाएगी। मेरी अपनी राय में युवा मुख्यमंत्री को अब अधिकतर समय अपने कार्यालय में बैठकर प्रशासन को सही दिशा व गति देने पर केंद्रित करना वांछित होगा
#देशबंधु में 23 मई 2019 को प्रकाशित
  
 

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