Thursday 9 May 2019

आम चुनाव बनाम टीवी चैनल


टीवी चैनल किसी आम चुनाव के परिणामों को कैसे प्रभावित कर सकते हैं इसका पहले-पहल उदाहरण 1960 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में देखने मिला था। रिपब्लिकन पार्टी की ओर से विदा लेते उपराष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन उम्मीदवार थे और उन्हें चुनौती देने उतरे थे डेमोक्रैटिक पार्टी के युवा सीनेटर जॉन एफ. कैनेडी। दोनों उम्मीदवारों के बीच अमेरिकी टीवी चैनलों पर वाद-विवाद प्रतिस्पर्द्धा के अंदाज में डिबेट आयोजित हुए थे, जिनमें कैनेडी निक्सन पर भारी पड़ गए थे। उसी समय अनेक राजनैतिक पंडितों ने मान लिया था कि भविष्य के चुनाव टेलीविजन के माध्यम से ही तय होंगे। मीडिया जगत के लिए यह एक खुशखबर थी कि वे देश के भाग्यनियंता बन सकते हैं। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं- सोचने और करने के बीच अक्सर एक फर्क होता है, जिसे क्षणिक भावावेग में झुठला दिया जाता है। इसमें शक नहीं कि टीवी के परदे पर निक्सन के मुकाबले कैनेडी की छवि निखरी हुई थी। उनके मुखमंडल पर युवकोचित मासूमियत तथा साथ ही एक आभिजात्य गरिमा थी, सूत्रधार के प्रश्न पूछने पर उनके उत्तर त्वरित व सटीक थे और वे अपनी सहज मुस्कान से दर्शकों-मतदाताओं को लुभा पाने में सफल थे। दूसरी ओर निक्सन यद्यपि कहीं अधिक अनुभवी राजनेता थे, किंतु उनके मुखानन पर प्रौढ़ता की परछांई के अलावा एक तरह की पाषाणी निर्विकारता थी तथा अपने उत्तरों व तर्कों में वे सहजता के बजाय वकीली अंदाज में पेश आ रहे थे। जाहिर है कि वे दर्शकों को रिझाने में उतने सफल नहीं हुए।
लेकिन सिर्फ इतने से यह मान लेना भूल होगी कि कैनेडी टीवी प्रदर्शन की बदौलत चुनाव जीत गए। दरअसल, निक्सन उपराष्ट्रपति के रूप में हमेशा राष्ट्रपति आइज़नहोवर की छाया में रहे और अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व उस समय तक विकसित नहीं कर पाए थे। जबकि जॉन कैनेडी सीनेट में अपनी प्रभावशाली भूमिका के कारण लगातार लोकप्रिय हो रहे थे। उन्हें अपने परिवार की देशव्यापी प्रतिष्ठा का भी लाभ मिल रहा था। उपराष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में उनके साथ टैक्सास के लिंडन जॉनसन थे, जिस कारण से रंगभेदग्रस्त दक्षिणी प्रदेशों में उनकी स्वीकार्यता बढ़ी। शिकागो के अत्यन्त प्रभावशाली मेयर तथा ट्रेड यूनियनों के सरताज रिचर्ड डेली ने भी उनका साथ दिया था। शायद कारपोरेट अमेरिका ने भी उनको पसंद किया था। ऐसे तमाम मिले-जुले कारणों की भी उनकी जीत में भूमिका निभाई। याद रहे कि कैनेडी रोमन कैथॉलिक थे, और प्रोटेस्टेंट बहुल अमेरिका ने उनकी जीत की संभावना क्षीण थी, और वे बहुत कम अंतर से ही विजय हासिल कर पाए थे।
खैर, निक्सन-कैनेडी टीवी डिबेट के बाद तो यह चलन ही बन गया कि हर राष्ट्रपति चुनाव के समय दोनों प्रमुख उम्मीदवार टीवी पर बहस में आमने-सामने आकर दर्शकों का दिल जीतने की भरसक कोशिश करते हैं। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के परवर्ती चुनावों में हमने देखा कि चुनाव प्रचार का अनिवार्य अंग बन जाने के बावजूद जीत-हार में टीवी ने कोई निर्णायक भूमिका नहीं निभाई। 1964 में कार्यवाहक राष्ट्रपति जॉनसन ही बाकायदा चुने गए, 1968 फिर 1972 में निक्सन को मतदाताओं ने चुना और 1976 में जॉर्जिया के गवर्नर लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य पर लगभग गुमनाम जिम्मी कार्टर राष्ट्रपति चुन लिए गए। 1997 में बिल क्लिंटन जब चुने गए, तब उनकी भी कोई खास पहचान नहीं थी। और यह तथ्य सामने है कि 2016 में हिलेरी क्लिंटन को अपनी तमाम लोकप्रियता के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप के हाथों मात खानी पड़ी। इन उदाहरणों से समझ आता है कि तब का टीवी हो या आज का सर्वग्रासी मीडिया, चुनावों में उसकी भूमिका सीमित ही हो सकती है।
मैंने अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी आदि के साथ 1990 के बाद के रूस के चुनावों का भी जो सीमित अध्ययन किया है उससे निष्कर्ष यही निकलता है कि मतदाता सामान्यत: उन मुद्दों के आधार पर ही किसी पार्टी या व्यक्ति को वोट देना पसंद करता है जो उसके जीवन से जुड़े बुनियादी मुद्दों की समझ रखने के साथ उनको महत्व दे और उन पर आधारित योजना तथा कार्यक्रम लाकर बेहतर भविष्य का स्वप्न दे सके। लेकिन बात इतनी सरल नहीं है। जहां एक ओर औसत मतदाता हैं, वहीं दूसरी ओर तरह-तरह के निहित स्वार्थ भी सक्रिय होते हैं जिनकी कोशिश अपने अजेंडों को लागू करने वाली सरकार बनाने की होती है। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जिम्मी कार्टर, बिल क्लिंटन, बराक ओबामा की पीठ पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ''ट्राइलेटरल कमीशन'' का हाथ था। अपनी गतिविधियां अत्यन्त पोशीदा ढंग से चलाने वाले इस गुट में अमेरिका, यूरोप व जापान के अनेकानेक धनकुबेर शामिल हैं। इनमें जॉर्ज सोरोस व बिल गेट्स जैसे नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं।
कहना न होगा कि भारत के आम चुनावों में भी ये दोनों धाराएं साथ-साथ चलती हैं। आम जनता को तो सिर्फ इतने से मतलब है कि उसका जीवन सुकून से गुजरे यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, मकान, बिजली, पानी के लिए उसे भटकना न पड़े और हमेशा अमन-चैन बना रहे। लेकिन समाज के वर्चस्ववादी तबका तो हमेशा ऊंची उड़ान भरने की फिराक में रहता है। उसके लोभ-लालच के बारे में जितना कहा जाए कम है। वह तो शेष समाज को अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहता है। समानता, न्याय, करुणा, त्याग- ये उसकी डिक्शनरी से विलोपित हैं। अपने दावानल जैसे स्वार्थ की पूर्ति के लिए वह कई तरह के उपाय अपनाता है। वह जानता है कि राजसत्ता पर नियंत्रण किए बिना वह अपनी मनमानी नहीं कर सकता। इसके लिए निहायत जरूरी है कि वह चुनावों में हस्तक्षेप करे और अपने लिए क्रीतदासों की चुनी हुई फौज खड़ी कर ले। यहां आकर उसे मीडिया की जरूरत पड़ती है। यह अनायास नहीं है कि वैश्विक मीडिया कमोबेश पूंजीपतियों के नियंत्रण में है। इकानामिस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट जैसे मशहूर और प्रतिष्ठित पत्र भी उस ट्राइलेटरल कमीशन का अंग रहे हैं, जिसका ज़िक्र हम ऊपर कर आए हैं। लॉर्ड थॉमसन और रूपर्ट मर्डोक आदि के आधिपत्य वाले पत्र-पत्रिकाएं, टीवी चैनल भी इस वैश्विक दुरभिसंधि से बाहर नहीं हैं। इनके पास सिनेमा स्टूडियो हैं, फिल्म निर्माण कंपनियां हैं, म्यूजाक कंपनियां हैं और फुटबॉल, बेसबॉल आदि के क्लब भी हैं। इन तमाम अवयवों का प्रयोग आम जनता पर मनोवैज्ञानिक नियंत्रण स्थापित करने याने ब्रेनवाशिंग के लिए किया जाता है। जनता खेल-तमाशे में मशगूल-मस्त रही आए और जब कभी वह बाहर निकलकर स्वतंत्र निर्णय लेने की सोचे तो उसे व्यर्थ मुद्दों में उलझा दिया जाए। इस प्रवृत्ति को हम भारत में बखूबी देख रहे हैं।
इसी तीन मई को प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। लेकिन मेरे शहर रायपुर में पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आयोजित एकाध कार्यक्रम के अलावा कहीं भी प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता की चर्चा नहीं हुई। मीडियाकर्मियों की अच्छी-खासी संख्या है, लेकिन उनके बीच इस दिन को लेकर कोई उत्तेजना देखने में नहीं आई। सोशल मीडिया पर अवश्य कुछ टिप्पणियां पढ़ने मिलीं, जिनसे इस उत्साहहीनता का कारण स्पष्ट होता है। वह यही कि मीडिया पर नियंत्रण तो पूंजीपतियों का है, पत्रकार करें भी तो क्या करें! यह एक कड़वी सच्चाई है, लेकिन शायद राहत की बात भी है कि सोशल मीडिया पर लोग अपने दिल की बात कह रहे हैं। क्या इसका कोई दूरगामी और व्यापक प्रभाव हो सकेगा, यह जानने के लिए प्रतीक्षा करना पड़ेगी। यहां एक मौजूं प्रश्न उठता है कि क्या दुनिया के चौकीदारों के लिए सोशल मीडिया पर पूर्ण नियंत्रण रख पाना संभव है?
वर्चस्ववादी, प्रभुतावादी शक्तियां समाचारपत्रों व टीवी का उपयोग अब तक अपनी इच्छानुसार करती आई हैं। अपने देश के आम चुनावों में भी हमने इसे देखा है।
जनता इस रहस्य को समझने लगी है। वह अब टीवी चैनलों पर आंख मूंद कर ऐतबार नहीं करती। अखबारों में सत्ताधीशों के लंबे-लंबे इंटरव्यू देखकर वह जान जाती है कि यह प्रायोजित सामग्री है। आम नागरिक जब किसी विषय पर अपनी राय व्यक्त करना चाहता है तो उसे टीवी या किसी हद तक अखबार में भी जगह नहीं मिलती। अब वह सोशल मीडिया का सहारा लेने लगा है। चुनाव, पार्टी, नेता, प्रत्याशी-इन सबके बारे में वह अपनी राय यूट्यूब, ट्विटर, फेसबुक पर साझा करने लगा है। निस्संदेह निहित स्वार्थ भी इन माध्यमों का उपयोग दुष्प्रचार के लिए करने दें, किंतु अब उनका झूठ पकड़ में आ जाता है। कोई न कोई उसे उजागर कर देता है। इस तरह सोशल मीडिया पर एक संतुलन साधने की कोशिश होने लगी है जो पारंपरिक मीडिया खासकर टीवी के एकतरफा आख्यान का निषेध करती है। इस दिशा में जनता जितनी जागरूक, जितनी सजग होगी, जितनी निर्भीकता का परिचय दे सकेगी, उसी अनुपात में स्थितियां सुधर पाएंगी।
#देशबंधु में 09 मई 2019 को प्रकाशित
  
 

No comments:

Post a Comment