Saturday, 29 September 2012

सरकार गिरने-टिकने के आगे





जैसे ही केन्द्र सरकार ने खुदरा व्यापार में एफडीआई की अनुमति सहित अन्य आर्थिक कदम उठाए, वैसे ही चर्चा निकल पडी क़ि यूपीए सरकार अब सुरक्षित नहीं है। कुछ ऐसा माहौल बना मानो कि सरकार अब गिरी कि तब गिरी। टीवी पर वार्ताकारों की टीकाएं सुनो तो लगता था कि मनमोहन सिंह की कुर्सी खिसकने में ज्यादा देर नहीं है, लेकिन सारी अटकलबाजियां निर्मूल साबित हुईं। जिस दिन ममता बनर्जी के मंत्री इस्तीफा सौंपने वाले थे, उसके एक दिन पहले ही सरकार ने एफडीआई के संबंध में औपचारिक अधिघोषणा भी कर दी। संदेश साफ था- हम तो वही करेंगे जो तय कर चुके हैं, अब तुमसे जो बने सो कर लो।

इस समूचे घटनाचक्र में सबसे पहले तो यह वास्तविकता प्रगट हुई कि ममता बनर्जी अपराजेय नहीं हैं। कांग्रेस ने पिछले तीन सालों में लगातार उनकी धौंस सही, लेकिन अंतत: उसे तय करना पड़ा कि सरकार चलाना है, तो कठोर निर्णय लेना ही पडेंग़े और राजनीतिक ब्लैकमेल एक सीमा से आगे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। सच कहें तो इसमें एक व्यापक संदेश छुपा हुआ है कि गठबंधन की राजनीति की भी अपनी सीमाएं होती हैं और हर वक्त बहला-फुसला कर मान-मनोव्वल कर काम चला लेना उचित नहीं है। इस सच्चाई को दोनों बड़े दल याने कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ सारे क्षेत्रीय दलों को भी समझ लेना चाहिए।

अभी यह कहना मुश्किल है कि 2014 के आमचुनाव के बाद राजनीति का गणित क्या होगा, किंतु यह मान लिया जाए कि अगली सरकार भी गठबंधन से ही बनेगी तब उस स्थिति के लिए अभी से खेल के नियम तय कर लिए जाना चाहिए।  दोनों बड़ी पार्टियों को यह दृढ़ता दिखाने की आवश्यकता है कि वे किसी भी छोटे दल के साथ सिध्दांतविहीन एवं कार्यक्रमविहीन गठजोड़ नहीं करेंगे। इस लिहाज से कांग्रेस व भाजपा दोनों को चाहिए कि वे शीघ्र ही अपने चुनावी घोषणापत्र का प्रारूप तैयार करें; जिन दलों को वे समझते हैं कि साथ आएंगे, उनसे इस प्रारूप पर चर्चा करें और चुनाव के पहले अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम की घोषणा कर दें। इसमें परिस्थिति के अनुसार छोटे-मोटे संशोधन तो शायद होंगे, लेकिन बुनियादी मुद्दों पर कोई हीला-हवाला नहीं होना चाहिए।

अगर ऐसी प्रक्रिया अपनाई जाती है तो उसमें दो शर्ते और होना चाहिए। एक- जो दल नेतृत्व कर रहा है उसे आवश्यकता के अनुसार निर्णय लेने की स्वतंत्रता हो, यद्यपि ऐसा अपवादस्वरूप ही होगा। दो- मंत्रिमण्डल में विभागों का वितरण प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है और किसी भी सहयोगी दल को यह छूट नहीं होना चाहिए कि वह इस मामले में प्रधानमंत्री पर दबाव डाले। यह सचमुच अफसोस की बात है कि पिछले पन्द्रह सालों में गठबंधन के छोटे दलों ने अपने सहयोग की कीमत मनचाहा विभाग हासिल करने में वसूली तथा ऐसा करते हुए व्यापक देशहित को ध्यान में नहीं रखा। ममता बनर्जी ने जिस तरह से दिनेश त्रिवेदी को रेल मंत्री पद से हटवाया और अनुभवहीन मुकुल रॉय को उस पद पर आसीन किया, ऐसे उदाहरण अब और नहीं दोहराए जाना चाहिए।

पिछले एक सप्ताह के घटनाचक्र के दौरान पाठकों का ध्यान भारतीय जनता पार्टी के उस बयान की ओर भी गया होगा जिसमें उसने खुदरा बाजार के एफडीआई के मामले पर संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की। यह एक हास्यास्पद, अतार्किक और अवास्तविक मांग थी। जिस भाजपा ने संसद का पूरा का पूरा मानसून सत्र नहीं चलने दिया वह एक खास मुद्दे पर विशेष सत्र बुलाने की मांग करे तो इसे और क्या कहा जाए? इसी तरह कुछ एक नेताओं ने मनमोहन सिंह को चुनौती दी है कि वे विश्वास मत हासिल करके दिखाएं। यह मांग भी उतनी ही बेढब है। विपक्ष के सामने पर्याप्त अवसर था कि वह कोयला घोटाले पर संसद में खुली बहस कर सरकार की नाक में दम कर देता। उस अवसर को गंवा दिया, तो अब शीतकालीन सत्र तक इंतजार कर लेने में ही बुध्दिमानी होगी।

इस घटनाक्रम में विरोधी दलों द्वारा बीस सितम्बर को भारत बंद रखने के आह्वान पर भी गौर करने की जरूरत है। भाजपा के एक प्रवक्ता ने टीवी बहस के दौरान कहा कि विरोध दर्ज कराने के लिए इस चरम-सीमा तक जाना आवश्यक था। कुछ समय पूर्व संसद न चलने देने पर भी भाजपा का तर्क बिलकुल यही था। इन बयानों से क्या अर्थ निकाला जाए। एक तरफ तो आप संसद से किनाराकशी कर रहे हैं और दूसरी तरफ बंद के आह्वान से आम जनता को जो तकलीफें होती हैं उसे स्वीकार करने को भी आप तैयार नहीं हैं। बहरहाल जैसा कि मैं समझ पाया यह भारत महाबंद सफल नहीं रहा। जिन किराना व्यापारियों को विशेषकर तकलीफ होने की बात कही जा रही है, उन्होंने ही दिल्ली जैसे शहर में अपना व्यापार जारी रखा। बाकी की तो बात ही क्या। मतलब यह कि आज की परिस्थिति में बंद एक निष्प्रभावी अस्त्र हो गया है। पहले जब बंद का आह्वान होता था, तो साल में कभी एकाध बार। उस समय राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता पहले से वातावरण बनाते थे तथा दुकानदारों का सहयोग लेने में सफल हो जाते थे। अब बंद की रणनीति ही बदल चुकी है। उच्छृंखल युवाओं को आगे कर धमकी-चमकी से दुकानें बंद करवाने को स्वस्थ राजनीति नहीं माना जा सकता।

कुल मिलाकर पिछले कुछ सप्ताहों में देश के राजनीतिक फलक पर जो दृश्य देखने मिले हैं वे जागरूक समाज को गंभीर विचार मंथन का अवसर देते हैं। सरकार ने जो ताबड़तोड़ निर्णय लिए, वे प्रत्यक्ष तौर पर अर्थनीति से संबंधित है, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि और भविष्य दोनों घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ सामाजिक परिदृश्य से भी ताल्लुक रखते हैं और सरकार गिरने-टिकने के आगे जहां और भी है, की हकीकत की ओर नागरिकों का ध्यान आकृष्ट करते हैं।

देशबंधु में 27 सितम्बर 2012 को प्रकाशित 



 
 

Thursday, 20 September 2012

क्या गाँधी के विचार जीवित हैं?

 
 
 
प्रिय दीपक जी,

आपके
पत्र से जानकारी मिली कि आप किसी खास प्रयोजन से उन व्यक्तियों की सूची तैयार कर रहे हैं, जिन्होंने किसी न किसी रूप में गांधीजी के विचारों को जीवित रखा है। आपको उचित ही इस बात का एहसास है कि संपूर्णता अपने आप में एक भ्रम है इसलिए ऐसे व्यक्तियों को भी आप सूची में शामिल करना चाहते हैं जो आंशिक रूप से ही सही, इस प्रयत्न में जुटे हैं। यहां तक तो बात ठीक है, लेकिन इसके आगे मुझे आपने यह कहकर भारी उलझन में डाल दिया है कि मैं ऐसे व्यक्तियों के नाम आपको सुझाऊं। आपका पत्र मुझे करीब तीन हफ्ते पूर्व मिला था और तब से मैं लगातार सोच रहा हूं कि क्या मैं सचमुच इस योग्य हूं कि आपके इस महत्तर उद्देश्य में किसी तरह से सहयोग कर सकूं!

आपका संदेश मिलने के बाद मैंने अपने आसपास देखना प्रारंभ किया। अविभाजित मध्यप्रदेश पर नजर दौड़ाई। पूरे देश के नक्शे में ढूंढने की कोशिश की और विश्व के मानचित्र को भी सामने रखकर अपनी बुध्दि और स्मृति दोनों को कुरेदने का यत्न किया। यूं तो वर्तमान समय में गांधीवादियों की एक अच्छी-खासी सूची तैयार हो सकती है कि वे गांधी के विचारों को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं, लेकिन मैं यह साहस नहीं जुटा पा रहा हूं कि आपकी सूची में शामिल करने के लिए उनके नाम प्रस्तावित करूं। दरअसल सबसे पहले तो हमें यह तय करना चाहिए कि गांधी के विचार क्या थे और उन्हें हम किस रूप में ग्रहण करते हैं। ऐसा करते हुए यह ध्यान अवश्य देना होगा कि गांधी महासागर की तरह विस्तृत और विराट व्यक्तित्व के धनी थे।  उनके कामों और विचारों को हम चाहें जितनी कोशिश कर लें, संपूर्णता में परखने का दावा नहीं कर सकते।

आज इसलिए गांधीजी पर चर्चा करते हुए हमें वे निकष सामने रखना चाहिए जिन पर गांधीजी ने स्वयं को निर्ममतापूर्वक कसा। मोटे तौर पर ये हैं- सत्य, अहिंसा, निर्भीकता, अपरिग्रह, श्रम की महत्ता, मनुष्य मात्र की प्रतिष्ठा, समरसता, सामाजिक न्याय, स्वाधीनता इत्यादि। इन मूल्यों के आधार पर गांधीजी ने अपना जीवन कैसे जिया और उसमें कौन से अवसर थे जो इस दृष्टि से रेखांकित करने योग्य हैं, यह भी देखना होगा। यह उचित होगा कि अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मैं कुछ उदाहरण रखूं।

गुजरात गांधीजी का गृह प्रदेश है। गांधीजी के विचारों के अनुसरण में ही पिछले साठ साल से वहां मद्यनिषेध लागू है। अगर मान लिया जाए कि गुजरात में एक भी व्यक्ति मदिरापान नहीं करता, तब भी क्या हम कह सकते हैं कि वहां का हर निवासी गांधीवादी है? इसी तरह देश में बहुत बड़ी संख्या में लोग गांधी टोपी पहनते हैं, लेकिन क्या वे गांधी के विचारों को जीवित रखने का कोई यत्न कर रहे हैं? मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूं जो पारिवारिक संस्कारों के चलते आज भी चरखा कातते हैं, उन्हें अपने आप गांधीवादी होने का खिताब भी मिल जाता है, लेकिन क्या चरखा कातना पर्याप्त है? हमारे एक मित्र हैं जो स्वयं को गांधीवाद का बहुत बड़ा अध्येता मानते हैं: उन्हें इस नाते व्याख्यान देने जगह-जगह बुलाया जाता है, लेकिन वही मित्र इन दिनों कभी भगतसिंह के रास्ते पर, तो कभी नेताजी के रास्ते पर चलने की सलाह देने लगे हैं। तो क्या गांधी के विचार सिर्फ सभा-समितियों तक सीमित रखना पर्याप्त है? एक और सज्जन  हैं जिन्होंने उड़ीसा में फादर ग्राह्म स्टेन्स की नृशंस हत्या के कुछ दिनों बाद एक पुस्तिका प्रकाशित कर यह सिध्द करने का प्रयत्न किया कि गांधीजी ईसाइयत के कितने खिलाफ थे। क्या ऐसे व्यक्ति को गांधीवादी माना जा सकता है?

ये तमाम उदाहरण देने का मेरा आशय यह है कि आप जो सूची बना रहे हैं उसमें कोई भी नाम शामिल करने से पहले यह जरूर देखें कि वह व्यक्ति गांधी की कसौटी पर कितना खरा उतरता है, फिर भले ही वह अपने आपको गांधीवादी न मानता हो; या सामान्य तौर पर जिसका कोई संबंध गांधीवाद से न जुड़ता हो। मैं आपको 1946 में वापिस ले जाना चाहता हूं। कृपया विचार करें कि गांधीजी ने पंडित नेहरू को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित क्यों किया।  उन्होंने यह क्यों कहा कि मेरे बाद जवाहर मेरी भाषा बोलेगा। मैं इस बात पर गौर करता हूं तो मुझे लगता है कि गांधीजी से अनेक मुद्दों पर असहमति रखने के बावजूद पंडित नेहरू में वे अनेक गुण थे जो बापू के अपने चरित्र का हिस्सा थे। पिछले पचास-साठ साल के दौरान बहुत से विद्वानों ने गांधी और नेहरू के बीच द्वैत स्थापित करने की कोशिश की है, लेकिन मेरी समझ में वे सच्चाई से मुंह मोड़ लेते हैं।

बहरहाल, आपके पत्र पर विचार करते हुए एक वृहत्तर फलक पर सिर्फ दो नाम स्मरण आते हैं, जिन्हें सच्चे अर्थों में गाँधी का उत्तराधिकारी माना जा सकता है- एक नेल्सन मंडेला और दूसरी आंग सान सू ची। इनके बाद भारत से मेरे सामने कुछ नाम आते हैं जिन्हें आप शायद गांधीजी के विचारों का पोषक न मानें, लेकिन मेरी राय में जो सचमुच गांधी के विचारों पर चलते रहे हैं। मैं सबसे पहले वे चार नाम लेना चाहता हूं जिनके बारे में मैं एकाधिक बार अपने कॉलमों में लिख चुका हूं ये हैं- डॉ. कुरियन, प्रोफेसर यशपाल, जस्टिस कृष्णा अय्यर और ई. श्रीधरन। दुर्भाग्य से डॉ. कुरियन अब हमारे बीच नहीं हैं। इन्होंने ध्येय के प्रति एकांतिक निष्ठा रखी, संकटों से विचलित होकर समझौते नहीं किए, अग्रिम पंक्ति में रहकर डटकर नेतृत्व किया, जिनके बीच ये रहे उनका आत्मबल बढ़ाने का काम किया, उन्हें विपरीत परिस्थितियों में भी अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ रहना सिखाया और सत्यनिष्ठा व अपरिग्रह के साथ पूरा जीवन जिया। इस सूची में और नाम भी जुड़ सकते हैं बशर्ते आपको मेरी बात जंच रही हो।

यदि आप मेरे दृष्टिकोण से सहमत न हों तब एक दूसरी सूची बनाई जा सकती है। इसमें आप निम्नांकित श्रेणियों से चयन कर सकते हैं- खादी पहनने वाले, गांधी टोपी पहनने वाले, लंगोटी पहनने वाले, शराब न पीने वाले, गांधीजी पर कविता, लेख और पुस्तकें लिखने वाले, गांधीदर्शन के अध्यापकगण, गांधी के नाम पर बनी संस्थाओं के प्रमुख, गांधी जयंती और पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रमों के सूत्रधार और वित्तीय मददगार, गांधी के नाम पर वोट मांगने वाले, स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने का दावा करने वाले, सेवाग्राम और साबरमती में धूनी रमाकर बैठे लोग, स्वदेशी के मंत्रोच्चाटक, गांधीजी की मूर्तियां बनाने वाले, नीलामी में उनकी चिट्ठियां, चश्मा और घड़ी खरीदने वाले, गांधी का नाम लेकर अनशन करने वाले, मुन्नाभाई से प्रेरित गांधीगिरी करने वाले आदि-आदि। इनमें से हरेक इस बात का श्रेय ले सकता है कि वह गांधी के विचारों को जीवित रखने का काम कर रहा है।

अगर आपको मेरी बात न रुची हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूं।

आपका

ललित सुरजन
देशबंधु में 20 सितम्बर 2012 को प्रकाशित


 

Wednesday, 12 September 2012

पन्द्रह मिनट की बहस





इस अखबार के पाठकों में काफी संख्या में ऐसे व्यक्ति होंगे जो टीवी के समाचार चैनलों पर प्रसारित होने वाली बहसें सुनते हैं। अगर कोई न भी सुनना चाहे तो अपने पसंदीदा कार्यक्रम के लिए सर्फिंग करते हुए किसी न किसी चैनल पर कोई न कोई बहस अनायास ही देखने-सुनने मिल जाती है। कुछ बहसें तो ऐसा होती हैं जो दिन में दस बार दिखाई जाती हैं। मसलन बीते शुक्रवार की रात महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के जोशीले सेनापति राज ठाकरे के साथ ''टाइम्स नाउ'' के अर्णब गोस्वामी ने जो साक्षात्कार लिया, पहले तो उसकी झलकियां या ट्रेलर ही-तीन बार दिखाया गया, फिर प्राइम टाइम में साक्षात्कार प्रसारित हुआ और फिर अगले दिन याने शनिवार को दिन में शायद बारह बार उसे प्रसारित किया गया। ऐसा करके ''टाइम्स नाउ'' राज ठाकरे का प्रचार कर रहा था या खुद अपना, यह सवाल पूछा जा सकता है।

बहरहाल ऐसी तमाम बहसों को जब आप देखते सुनते हैं तो कुछ बारीकियों पर आपका ध्यान जरूर जाता होगा। एक तो कोई भी बहस आधा घंटे से ज्यादा की नहीं होती, बल्कि बाइस या चौबीस मिनट की ही होती है। इसमें भी कम से कम चार-चार मिनट के दो ब्रेक लिए जाते हैं। कोई वक्ता अपनी बात कहने को होता है कि उसे रोक दिया जाता है कि हम ब्रेक के बाद इस पर बात करेंगे। फिर ऐसी बहसों में अमूमन चार से ज्यादा भागीदार आमंत्रित होते हैं कई बार तो छह या सात भी। अब आप हिसाब लगाकर देखिए कि किसी गंभीर मुद्दे पर ज्यादा से ज्यादा पन्द्रह मिनट बात हो रही है तो उसमें एक प्रतिभागी के हिस्से में तीन या चार मिनट से ज्यादा का समय कहां मिलता होगा।

यह टीवी बहसों की तकनीकी सच्चाई है। एक पार्टी प्रवक्ता या विषय विशेषज्ञ से उम्मीद की जाती है कि वह लोकमहत्व के बडे से बड़े प्रश्न पर तीन मिनट में अपना पक्ष प्रस्तुत कर दे। इसमें भी यह पेंच छिपा हुआ है कि चैनल जिस पार्टी या व्यक्ति को पूर्व-निर्धारित सोच से कटघरे में खड़ा करना चाहता है, उसे कार्यक्रम का सूत्रधार अधिक बोलने ही नहीं देता, बीच-बीच में रोक देता है और कई बार तो सूत्रधार के बजाय वह जज बन जाता है। इसमें यह भी होता है कि जिस पार्टी पर आक्रमण किया गया है उसका प्रवक्ता एक होता है, जबकि बाकी तीन-चार या पांच प्रतिभागी विपक्ष के होते हैं। कुल मिलाकर एक को मिलते हैं दो या तीन मिनट और बाकी को बारह या तेरह मिनट। स्पष्ट है कि इस तरह की आभासी बहस में संतुलन और निष्पक्षता की कोई गुंजाइश नहीं होती। इस सच्चाई को जानने के बावजूद इसे हमारे राष्ट्रीय जीवन की विडम्बना ही मानना चाहिए कि जिन मुद्दों पर जनता व्यथित और चिंतित है, उनके स्पष्टीकरण अथवा निराकरण के लिए वह टीवी जैसे एक घोर अगंभीर माध्यम पर भरोसा किए बैठी रहती है। इसके चलते हम समय-सिध्द संस्थाओं, मंचों और अवसरों की ओर दुर्लक्ष्य करने लगे हैं। 

फिलहाल हम यदि संसद और विधानसभाओं की बात न भी करें तो भी यह याद कर लेना अच्छा होगा कि एक समय विश्वविद्यालय, छात्रसंघ, श्रमिक संघ, यहां तक कि गणेशोत्सव और दुर्गोत्सव जैसे मंच नागरिकों को उपलब्ध थे, जिनमें वलंत मुद्दों पर खुली व खरी चर्चा हो सकती थी। अपने ही प्रमाद में हमने इन्हें तिरस्कृत कर दिया है। हमारी व्यवस्था में इस बात की भी भरपूर गुंजाइश है कि राजनीतिक दल  आम सभाएं करें और उनके माध्यम से समाज के जरूरी प्रश्नों पर लोक शिक्षण करें। ऐसी सभाएं जब आम चुनाव के पहले होती हैं तब उनका स्वर अलग होता है। उस समय वोट बटोरने के लिए लच्छेदार बातें की जाती हैं, लेकिन जब चुनाव का मौका न हो तब इन मंचों का उपयोग तर्कपूर्ण बहसों के लिए होना चाहिए। लेकिन हमें याद नहीं पड़ता कि पिछले बीस साल में कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा अन्य किसी दल ने इन अवसरों का उपयोग लोक शिक्षण अथवा जनजागरण के लिए किया हो। इस अवधि के दौरान कांग्रेस, भाजपा व क्षेत्रीय दलों ने अगर आम सभाएं की हैं तो संकीर्ण और तात्कालिक लाभ पाने की दृष्टि से।

अब हम अपना ध्यान संसद और विधानसभाओं पर केन्द्रित कर सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इन निर्वाचित सदनों की कार्यप्रणाली पर विगत तीन दशकों के दौरान लगातार सवाल उठाए जाते रहे हैं। ये हमारी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे, इनकी विश्वसनीयता क्षीण होती गई है और इनकी कार्यप्रणाली को लेकर प्रबुध्द वर्ग ही नहीं, आम जनता में भी गहरा असंतोष पनपने लगा है। हम जब सांसदों और विधायकों को चुनते हैं तो उनसे सहज उम्मीद करते हैं कि वे सदन में जन आकांक्षाओं को वाणी देंगे तथा देश-प्रदेश की प्रगति के लिए ईमानदारी के साथ अपना कर्तव्य निभाएंगे, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। साल दर साल सत्र छोटे होते गए हैं, बैठकों के दिनों में कटौती होती गई है और जितने दिन सदन बैठता है उसका एक बड़ा हिस्सा निरर्थक बहसों और अवांछनीय दृश्यों में चला जाता है। तिस पर यह विरोधाभास कि सांसद और विधायक अपने लिए सुविधाएं साल-दर-साल बढ़ाते गए हैं। गोया, जिस जनता ने उन्हें चुनकर भेजा है उसके प्रति अब उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है।

संसद के हाल में सम्पन्न मानसून सत्र के दौरान हमने इसका प्रत्यक्ष अनुभव किया। सत्र प्रारंभ होने के पहले विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने टि्वटर पर लिखा था कि वे कौन-कौन से मुद्दे सदन में उठाने वाली हैं। मैंने इस पर उन्हें अपनी टिप्पणी भेजी थी कि कृपया सुनिश्चित कीजिए कि सदन की कार्रवाई चलती रहे। इसका कोई उत्तर पाने की अपेक्षा मैंने नहीं की थी, और वह आया भी नहीं। लेकिन जो हुआ वह सबके सामने है। कोयला घोटाले पर सत्तारूढ़ दल को बहुत अच्छे से घेरा जा सकता था। सरकारी पक्ष याने यूपीए का जितना संख्या बल है लगभग उतना ही संख्या बल संयुक्त विपक्ष का भी है: अगर सदन का बहिष्कार न कर बहस की जाती तो सरकार पर आक्रमण करने में भाजपा का साथ वामदलों ने व बीजू जनतादल ने भी दिया होता। लेकिन हुआ यह कि मात्र 140 सदस्य संख्या वाली भाजपा ने संसद को एक तरह से बंधक बना लिया। इस कारण न सिर्फ सत्तारूढ़ यूपीए अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं कर पाया, बल्कि वामदल, बीजद, जदयू, झारखण्ड विकास पार्टी आदि भी अपनी बात सदन में सामने नहीं रख पाए। भाजपा की इस हठधर्मिता का परिणाम यह हुआ कि जनता को अंतत: पन्द्रह मिनट बहस वाले टीवी चैनल पर निर्भर करना पड़ा। इससे चैनलों को चाहे जो फायदा हुआ हो, भाजपा को तो बिलकुल नहीं हुआ। प्रधानमंत्री ने सत्र समाप्ति के बाद सच ही कहा कि यह सत्र पूरी तरह से व्यर्थ चला गया। यह सोचकर तकलीफ होती है कि आगे भी ऐसा ही होगा।

देशबंधु में 13 सितम्बर 2012 को प्रकाशित 


Thursday, 6 September 2012

विदेशी मीडिया बनाम प्रधानमंत्री




कुछ हफ्ते पहले ही अमेरिका की बहुप्रसारित 'टाइम' पत्रिका ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की काबिलियत पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए एक मुख्य लेख (कवर स्टोरी) छापा था। अब अमेरिका के ही एक बड़े अखबार 'वाशिंगटन पोस्ट' ने भी लगभग उन्हीं विचारों को अनुमोदित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री की जमकर आलोचना की है। इस बीच इंग्लैण्ड और अमेरिका के कुछ और पत्रों ने इसी के अनुसरण में अनेक लेख छापे हैं। यह विचारणीय है कि विदेशी मीडिया की भारत की राजनीतिक सेहत के बारे में चिंता एकाएक कैसे बढ़ गई है और इसके पीछे क्या प्रयोजन है। खासकर जबकि यह मीडिया कुछ समय पहले तक यूपीए सरकार और विशेषकर डॉ. सिंह की तारीफ के पुलिंदे बांध रहा था।

इसका एक सरल कारण शायद यह है कि आर्थिक नवउदारवाद के इस दौर में विदेशी मीडिया प्रतिष्ठान भारत में अपने लिए मुनाफे की ठोस जमीन तलाश रहे हैं। अमेरिका, इंग्लैण्ड में अखबारों की प्रसार संख्या निरंतर गिर रही है। वे घाटे में भी चल रहे हैं। कितने सारे अखबार तो बंद हो चुके हैं। ऐसे में अनेक अखबारों ने विभिन्न देशों के लिए अपने विशेष संस्करण निकालना प्रारंभ कर दिया है। भारत तो इस दृष्टि से उर्वर प्रदेश तो है ही। फिर केन्द्र सरकार की आलोचना करने से कोई भी बाहरी अखबार यहां अपनी बिक्री और छवि में इजाफा कर सकता है। 'टाइम' और 'वाशिंगटन पोस्ट' ने भी यही किया हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 
यह भी सबको पता है कि विदेशी पूंजी निवेशकों और कारपोरेट घरानों को भारत का वर्तमान राजनीतिक माहौल पसंद नहीं आ रहा है। वे चाहते हैं कि भारत रातोंरात उनके मनोनुकूल आर्थिक नीतियां लागू कर दे- जैसे बैंक व बीमा क्षेत्र का पूर्ण निजीकरण, खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी प्रवेश, पेंशन का जिम्मा निजी क्षेत्र को देना आदि। डॉ. सिंह यह सब नहीं कर पा रहे हैं या नहीं कर रहे हैं, इससे विदेशी पूंजीपतियों का कुंठित होना स्वाभाविक है। संभव है कि वे अपनी भड़ास को पूंजी-आश्रित मीडिया के माध्यम से निकाल रहे हों। 

यूं तो भारत में विदेशी मीडिया के अनेक पत्रकार कार्यरत हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर का भारत के बारे में ज्ञान उथला और एकतरफा है। ऐसे कम ही लोग हैं, जो दूरदराज के इलाकों में जाकर भारत की समग्र तस्वीर देखने की कोशिश कर रहे हों, वरना यादातर तो भारत के महानगरों के अभिजात वर्ग की कॉकटेल पार्टियों या व्यक्तिगत चर्चाओं से ही अपनी कलम के लिए मसाला जुटाते हैं। मुझे तो यह देखकर हैरानी होती है कि मार्क टली जैसे नामीगिरामी पत्रकार जो भारत में ही बस गए हैं, भी कई बार एकतरफा कांग्रेस विरोध और अक्सर हिन्दुत्ववादी ताकतों के पक्ष में खड़े नजर आते हैं।

इन दिनों भाजपा जिस आक्रामक मूड में है उसमें उसे वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट से प्रधानमंत्री पर वार करने का एक और अच्छा मौका लग गया है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी को बहुत यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। उसके नेताओं को नहीं भूलना चाहिए कि इसी विदेशी मीडिया ने एक समय के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई पर गंभीर आरोप लगाए थे और इसके बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का भी सुरुचिहीन उपहास 'टाइम' पत्रिका में देखने मिला था। दुश्मन का दुश्मन आपका दोस्त हो, यह बात हमेशा लागू नहीं होती। भाजपा यह भी याद रखे कि जिस अमेरिका के पत्रों ने डॉ. सिंह की आलोचना की है, उसी अमेरिका ने भाजपा के महान नेता नरेन्द्र मोदी को आज तक वीजा नहीं दिया है और उसी देश में एनडीए के रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस के कपड़े विमानतल की सुरक्षा जांच में उतरवा लिए गए थे।

'वाशिंगटन पोस्ट' प्रसंग में कांग्रेस पार्टी ने भी अपेक्षित संयम नहीं बरता। अखबारों में सरकार के खिलाफ सामग्री छपते ही रहती है। उसको लेकर हाय-तौबा मचाने की जरूरत नहीं थी। भारत के पत्र सूचना कार्यालय से एक उत्तर अखबार को भेज दिया जाता, इतना पर्याप्त होता। कांग्रेस के प्रवक्ताओं को भी इस बारे में टीवी बहस में भाग लेने से इंकार कर देना चाहिए था। हर क्रिया की प्रतिक्रिया- न्यूटन का यह सिध्दांत भौतिकशास्त्र तक सीमित रहे तो बेहतर। 

 देशबंधु में 7 सितम्बर 2012 को प्रकाशित सम्पादकीय 

कोयला घोटाला : कुछ प्रश्न




भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के आधार पर कोयला खदानों के आबंटन में कथित रूप से हुई बेहिसाब धांधली और भ्रष्टाचार को लेकर जो बावेला मचा हुआ है, उसके बहुत सारे पहलू हैं। एक तो यह दिख ही रहा है कि बिना कोई कामकाज निपटाए संसद का एक और सत्र शोर-शराबे और बहिष्कार की भेंट चढ़ गया है। इसका दूसरा पहलू है कि जिन डॉ. मनमोहन सिंह की सत्यनिष्ठा की उनके विरोधी भी सराहना करते थे आज उन पर गंभीर आरोप लगाकर उनसे त्याग पत्र मांगा जा रहा है। मजे की बात है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता और छत्तीसगढ क़े मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह कहते हैं कि हम प्रधानमंत्री से कोई बड़ी चीज नहीं, सिर्फ उनका इस्तीफा मांग रहे हैं। यह अनुमान तो होता है कि प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगना भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि भारत के राजनीतिक तंत्र में भ्रष्टाचार बेतरह हावी है। उससे कोई भी पार्टी बची नहीं है और ऐसा वातावरण बन गया है कि भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप पर आम जनता आंख मूंदकर विश्वास कर लेती है। इसके आगे सीएजी की अपनी कार्यप्रणाली, मीडिया की भूमिका और इन सबसे बढ़कर देश का राजनैतिक भविष्य इत्यादि आयाम इस प्रकरण से उठते हैं।

हमें शायद सबसे पहले यह देखना चाहिए कि सीएजी की भूमिका क्या है और उसकी लेखा रिपोर्ट पर आगे कार्रवाई करने की क्या प्रक्रिया है? सीएजी की रिपोर्ट संसद की लोक लेखा समिति के सामने रखी जाती है। इस समिति का अध्यक्ष नियमत: विपक्ष का नेता होता है। अभी मुरली मनोहर जोशी याने भाजपा के दूसरे सबसे वरिष्ठ नेता इस पद पर हैं। इसका अर्थ हुआ कि सीएजी द्वारा यदि सरकार के प्रति पक्षपात करने की कोई गुंजाइश हो तो विपक्ष ऐसा नहीं होने देगा। और जब रिपोर्ट सरकार के खिलाफ हो तब तो विपक्ष को सत्तापक्ष पर हमला बोलने के लिए अपने आप ही अवसर मिल जाता है। लोक लेखा समिति की रिपोर्ट भी अंतत: संसद के पटल पर आती है और वहां उस पर व्यापक बहस करने का भरपूर अवसर होता है। प्रश्न उठता है कि भारतीय जनता पार्टी ने इस निर्धारित प्रक्रिया को सम्पन्न होने देने के बजाय सडक़ पर आने का निर्णय क्यों लिया?

अगला प्रश्न सीएजी की रिपोर्ट को लेकर है। सुरजीत भल्ला जैसे आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ ने भी, जो कि यूपीए के कटुतम आलोचक हैं, अपने ताजा लेख में कहा है कि सीएजी का गणित कमजोर है और उसकी जो टिप्पणी है उसे भी ठीक से नहीं समझा गया है। श्री भल्ला सीएजी रिपोर्ट के हवाले से ही कहते हैं कि यदि नीलामी प्रक्रिया उचित समय में पूरी की गई होती तो एक लाख 86 हजार करोड़ रुपए में से सरकार को कुछ आमदनी अवश्य हो जाती। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि इतनी बड़ी रकम का कुछ हिस्सा सरकार के पास आमदनी के रूप में आता, जो नहीं आ पाया। श्री भल्ला ने बहुत सारा गुणा-भाग लगाकर समझाया है कि सरकार को यदि कोई घाटा हुआ है तो वह सत्रह हजार करोड़ के आसपास याने बहुप्रचारित घाटे के साढ़े नौ प्रतिशत से यादा नहीं है। यह तर्क अगर किसी कांग्रेस समर्थन विशेषज्ञ ने दिया होता तो उसे खारिज किया जा सकता था, लेकिन डॉ. भल्ला को यह हिसाब लगाने की क्या जरूरत थी और उसे कैसे खारिज किया जाए?

एक अन्य आरोप सरकार पर बार-बार लगाया जा रहा है कि 2004 में लिए गए एक नीतिगत निर्णय को लागू करने में उसने आठ साल का लंबा समय ले लिया। इसके दो पहलू हैं। एक तो यह ध्यान में रखना होगा कि यूपीए सरकार ने ही लंबे समय से चली आ रही नीति के बदले एक नई नीति लागू करने की पहल की। जो नीति पी.वी. नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल से चली आ रही थी, उसे मनमोहन सिंह यदि बदलने की बात नहीं करते तो क्या होता? अगर किसी कारणवश लंबे समय तक यथास्थिति कायम रही आई और नया कानून नहीं बन आया, तो इसमें घाटा कहां हुआ? और यदि हुआ तो फिर सर्वश्री राव, देवेगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी सबके सब अपराध के भागी माने जाएंगे। 
इसमें दूसरी ध्यान देने योग्य बात है कि एक नए कानून के बनने और अमल में आने में सात-आठ साल का समय लग जाना कोई असामान्य बात नहीं है। ऐसे कितने ही कानून हैं जो बरसों से पारित होने के इंतजार में रुके पड़े हैं। मिसाल के लिए महिलाओं का आरक्षण बिल। इसी तरह शिक्षा का अधिकार कानून की पहल वाजपेयी जी के समय में हुई थी। उसे भी अंतिम रूप मिलते-मिलते सात-आठ साल लग गए। संसद में किसी एक पार्टी का स्पष्ट बहुमत न होना और विभिन्न रायों में विभिन्न पार्टियों की सरकारें होने के कारण इस तरह की स्थिति बनना लाजिमी है।

यह आरोप सरकार पर लग सकता है कि एक तरफ उसने नई नीति लाने की घोषणा की और दूसरी तरफ उसने यथास्थिति को जारी रखा, इसके पीछे कोई चाल रही होगी। हो सकता है कि इस आरोप में सच्चाई का अंश हो, लेकिन फिर क्या इसके लिए डॉ. मनमोहन सिंह, कांग्रेस पार्टी या यूपीए ही दोषी हैं। अभी जिस तरह का खुलासा आए दिन हो रहा है उससे तो पता चलता है कि नई नीति बनाने के बजाय पुरानी नीति को चलने देने में ही तमाम लोगों की दिलचस्पी थी। भारत में राजनीति और व्यापार का जो गठजोड़ पिछले बीस साल में देखने मिला है। वही वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है। जिस व्यवस्था में कारपोरेट घरानों के मालिक किसी पार्टी को करोड़ों रुपए देकर रायसभा की सदस्यता खरीद सकते हैं उसमें ऐसे प्रकरणों का सामने आना कोई अनहोनी नहीं है।

एक व्यापक परिदृश्य में इस घटनाचक्र को देखने से अनुमान होता है कि पिछले आठ साल से विपक्ष में बैठी भाजपा सत्ता में वापिस लौटने के लिए बेताब है। उसे चूंकि कोई नया भावनात्मक मुद्दा फिलहाल नहीं मिल रहा है, इसलिए वह भ्रष्टाचार को केन्द्र में रखकर नई रणनीति बना रही है। उसकी पहली प्राथमिकता नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में तीसरी बार गुजरात चुनाव जीतने की है। अगले साल वह मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में वापिस लौटने के साथ-साथ राजस्थान व दिल्ली में फिर जीतने की कोशिश में लगेगी और अंतत: 2014 में केन्द्र में सरकार बनाने का उसका मंसूबा है। कर्नाटक में उसको जो चोटें लगी हैं उनसे वह काफी हद तक संभल चुकी है, ऐसा अभी नजर आता है। नितिन गडकरी की प्रत्यक्ष अगुवाई में शिबू सोरेन के साथ मिलकर उसने जिस तरह से सरकार बनाई उस पर भी अभी लोगों का ध्यान ज्यादा  नहीं है। लेकिन क्या भाजपा के मंसूबे पूरे होंगे? 

एनडीटीवी पर भले ही मध्यावधि चुनाव के लिए जनमत सर्वेक्षण का प्रपंच रच रहा हो, हमें नहीं लगता कि भाजपा सहित कोई भी पार्टी और कोई भी लोकसभा सदस्य मध्यावधि चुनाव के लिए उत्सुक या तैयार हैं। भाजपा के सामने यह दुविधा भी है कि 2014 में उसकी ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा? भारत का कारपोरेट जगत शायद नरेन्द्र मोदी को आगे लाना चाहेगा, संघ परिवार की पहली पसंद शायद नितिन गडकरी होंगे, लेकिन फिर आडवानी जी का क्या होगा? क्या नरेन्द्र मोदी उन्हें गांधीनगर से जीतने देंगे? भाजपा ही नहीं, अन्य दलों में भी एक असमंजस की स्थिति उभरेगी। एनडीए के संयोजक और गंभीर संसदवेत्ता शरद यादव क्या नीतीश कुमार के लिए अपना दावा छोड़ देंगे? क्या मुलायम सिंह चुपचाप बैठेंगे? ऐसे बहुत से प्रश्न हैं, लेकिन फिलहाल इतना कहकर बात खत्म करना होगी कि कांग्रेस के पास स्पष्ट बहुमत का अभाव, वाणिज्यिक  घरानों की राजनीति में निरंतर बढ़ती दिलचस्पी और अनियंत्रित पूंजीवादी नीतियों के चलते ही यह अवांछनीय और अस्वस्थ वातावरण निर्मित हुआ है। 

देशबंधु में 6 सितम्बर 2012 को प्रकाशित