जैसे ही केन्द्र सरकार ने खुदरा व्यापार में एफडीआई की अनुमति सहित अन्य आर्थिक कदम उठाए, वैसे ही चर्चा निकल पडी क़ि यूपीए सरकार अब सुरक्षित नहीं है। कुछ ऐसा माहौल बना मानो कि सरकार अब गिरी कि तब गिरी। टीवी पर वार्ताकारों की टीकाएं सुनो तो लगता था कि मनमोहन सिंह की कुर्सी खिसकने में ज्यादा देर नहीं है, लेकिन सारी अटकलबाजियां निर्मूल साबित हुईं। जिस दिन ममता बनर्जी के मंत्री इस्तीफा सौंपने वाले थे, उसके एक दिन पहले ही सरकार ने एफडीआई के संबंध में औपचारिक अधिघोषणा भी कर दी। संदेश साफ था- हम तो वही करेंगे जो तय कर चुके हैं, अब तुमसे जो बने सो कर लो।
इस समूचे घटनाचक्र में सबसे पहले तो यह वास्तविकता प्रगट हुई कि ममता बनर्जी अपराजेय नहीं हैं। कांग्रेस ने पिछले तीन सालों में लगातार उनकी धौंस सही, लेकिन अंतत: उसे तय करना पड़ा कि सरकार चलाना है, तो कठोर निर्णय लेना ही पडेंग़े और राजनीतिक ब्लैकमेल एक सीमा से आगे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। सच कहें तो इसमें एक व्यापक संदेश छुपा हुआ है कि गठबंधन की राजनीति की भी अपनी सीमाएं होती हैं और हर वक्त बहला-फुसला कर मान-मनोव्वल कर काम चला लेना उचित नहीं है। इस सच्चाई को दोनों बड़े दल याने कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ सारे क्षेत्रीय दलों को भी समझ लेना चाहिए।
अभी यह कहना मुश्किल है कि 2014 के आमचुनाव के बाद राजनीति का गणित क्या होगा, किंतु यह मान लिया जाए कि अगली सरकार भी गठबंधन से ही बनेगी तब उस स्थिति के लिए अभी से खेल के नियम तय कर लिए जाना चाहिए। दोनों बड़ी पार्टियों को यह दृढ़ता दिखाने की आवश्यकता है कि वे किसी भी छोटे दल के साथ सिध्दांतविहीन एवं कार्यक्रमविहीन गठजोड़ नहीं करेंगे। इस लिहाज से कांग्रेस व भाजपा दोनों को चाहिए कि वे शीघ्र ही अपने चुनावी घोषणापत्र का प्रारूप तैयार करें; जिन दलों को वे समझते हैं कि साथ आएंगे, उनसे इस प्रारूप पर चर्चा करें और चुनाव के पहले अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम की घोषणा कर दें। इसमें परिस्थिति के अनुसार छोटे-मोटे संशोधन तो शायद होंगे, लेकिन बुनियादी मुद्दों पर कोई हीला-हवाला नहीं होना चाहिए।
अगर ऐसी प्रक्रिया अपनाई जाती है तो उसमें दो शर्ते और होना चाहिए। एक- जो दल नेतृत्व कर रहा है उसे आवश्यकता के अनुसार निर्णय लेने की स्वतंत्रता हो, यद्यपि ऐसा अपवादस्वरूप ही होगा। दो- मंत्रिमण्डल में विभागों का वितरण प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है और किसी भी सहयोगी दल को यह छूट नहीं होना चाहिए कि वह इस मामले में प्रधानमंत्री पर दबाव डाले। यह सचमुच अफसोस की बात है कि पिछले पन्द्रह सालों में गठबंधन के छोटे दलों ने अपने सहयोग की कीमत मनचाहा विभाग हासिल करने में वसूली तथा ऐसा करते हुए व्यापक देशहित को ध्यान में नहीं रखा। ममता बनर्जी ने जिस तरह से दिनेश त्रिवेदी को रेल मंत्री पद से हटवाया और अनुभवहीन मुकुल रॉय को उस पद पर आसीन किया, ऐसे उदाहरण अब और नहीं दोहराए जाना चाहिए।
पिछले एक सप्ताह के घटनाचक्र के दौरान पाठकों का ध्यान भारतीय जनता पार्टी के उस बयान की ओर भी गया होगा जिसमें उसने खुदरा बाजार के एफडीआई के मामले पर संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की। यह एक हास्यास्पद, अतार्किक और अवास्तविक मांग थी। जिस भाजपा ने संसद का पूरा का पूरा मानसून सत्र नहीं चलने दिया वह एक खास मुद्दे पर विशेष सत्र बुलाने की मांग करे तो इसे और क्या कहा जाए? इसी तरह कुछ एक नेताओं ने मनमोहन सिंह को चुनौती दी है कि वे विश्वास मत हासिल करके दिखाएं। यह मांग भी उतनी ही बेढब है। विपक्ष के सामने पर्याप्त अवसर था कि वह कोयला घोटाले पर संसद में खुली बहस कर सरकार की नाक में दम कर देता। उस अवसर को गंवा दिया, तो अब शीतकालीन सत्र तक इंतजार कर लेने में ही बुध्दिमानी होगी।
इस घटनाक्रम में विरोधी दलों द्वारा बीस सितम्बर को भारत बंद रखने के आह्वान पर भी गौर करने की जरूरत है। भाजपा के एक प्रवक्ता ने टीवी बहस के दौरान कहा कि विरोध दर्ज कराने के लिए इस चरम-सीमा तक जाना आवश्यक था। कुछ समय पूर्व संसद न चलने देने पर भी भाजपा का तर्क बिलकुल यही था। इन बयानों से क्या अर्थ निकाला जाए। एक तरफ तो आप संसद से किनाराकशी कर रहे हैं और दूसरी तरफ बंद के आह्वान से आम जनता को जो तकलीफें होती हैं उसे स्वीकार करने को भी आप तैयार नहीं हैं। बहरहाल जैसा कि मैं समझ पाया यह भारत महाबंद सफल नहीं रहा। जिन किराना व्यापारियों को विशेषकर तकलीफ होने की बात कही जा रही है, उन्होंने ही दिल्ली जैसे शहर में अपना व्यापार जारी रखा। बाकी की तो बात ही क्या। मतलब यह कि आज की परिस्थिति में बंद एक निष्प्रभावी अस्त्र हो गया है। पहले जब बंद का आह्वान होता था, तो साल में कभी एकाध बार। उस समय राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता पहले से वातावरण बनाते थे तथा दुकानदारों का सहयोग लेने में सफल हो जाते थे। अब बंद की रणनीति ही बदल चुकी है। उच्छृंखल युवाओं को आगे कर धमकी-चमकी से दुकानें बंद करवाने को स्वस्थ राजनीति नहीं माना जा सकता।
कुल मिलाकर पिछले कुछ सप्ताहों में देश के राजनीतिक फलक पर जो दृश्य देखने मिले हैं वे जागरूक समाज को गंभीर विचार मंथन का अवसर देते हैं। सरकार ने जो ताबड़तोड़ निर्णय लिए, वे प्रत्यक्ष तौर पर अर्थनीति से संबंधित है, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि और भविष्य दोनों घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ सामाजिक परिदृश्य से भी ताल्लुक रखते हैं और सरकार गिरने-टिकने के आगे जहां और भी है, की हकीकत की ओर नागरिकों का ध्यान आकृष्ट करते हैं।
देशबंधु में 27 सितम्बर 2012 को प्रकाशित
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