Thursday, 6 September 2012

कोयला घोटाला : कुछ प्रश्न




भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट के आधार पर कोयला खदानों के आबंटन में कथित रूप से हुई बेहिसाब धांधली और भ्रष्टाचार को लेकर जो बावेला मचा हुआ है, उसके बहुत सारे पहलू हैं। एक तो यह दिख ही रहा है कि बिना कोई कामकाज निपटाए संसद का एक और सत्र शोर-शराबे और बहिष्कार की भेंट चढ़ गया है। इसका दूसरा पहलू है कि जिन डॉ. मनमोहन सिंह की सत्यनिष्ठा की उनके विरोधी भी सराहना करते थे आज उन पर गंभीर आरोप लगाकर उनसे त्याग पत्र मांगा जा रहा है। मजे की बात है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता और छत्तीसगढ क़े मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह कहते हैं कि हम प्रधानमंत्री से कोई बड़ी चीज नहीं, सिर्फ उनका इस्तीफा मांग रहे हैं। यह अनुमान तो होता है कि प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगना भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि भारत के राजनीतिक तंत्र में भ्रष्टाचार बेतरह हावी है। उससे कोई भी पार्टी बची नहीं है और ऐसा वातावरण बन गया है कि भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप पर आम जनता आंख मूंदकर विश्वास कर लेती है। इसके आगे सीएजी की अपनी कार्यप्रणाली, मीडिया की भूमिका और इन सबसे बढ़कर देश का राजनैतिक भविष्य इत्यादि आयाम इस प्रकरण से उठते हैं।

हमें शायद सबसे पहले यह देखना चाहिए कि सीएजी की भूमिका क्या है और उसकी लेखा रिपोर्ट पर आगे कार्रवाई करने की क्या प्रक्रिया है? सीएजी की रिपोर्ट संसद की लोक लेखा समिति के सामने रखी जाती है। इस समिति का अध्यक्ष नियमत: विपक्ष का नेता होता है। अभी मुरली मनोहर जोशी याने भाजपा के दूसरे सबसे वरिष्ठ नेता इस पद पर हैं। इसका अर्थ हुआ कि सीएजी द्वारा यदि सरकार के प्रति पक्षपात करने की कोई गुंजाइश हो तो विपक्ष ऐसा नहीं होने देगा। और जब रिपोर्ट सरकार के खिलाफ हो तब तो विपक्ष को सत्तापक्ष पर हमला बोलने के लिए अपने आप ही अवसर मिल जाता है। लोक लेखा समिति की रिपोर्ट भी अंतत: संसद के पटल पर आती है और वहां उस पर व्यापक बहस करने का भरपूर अवसर होता है। प्रश्न उठता है कि भारतीय जनता पार्टी ने इस निर्धारित प्रक्रिया को सम्पन्न होने देने के बजाय सडक़ पर आने का निर्णय क्यों लिया?

अगला प्रश्न सीएजी की रिपोर्ट को लेकर है। सुरजीत भल्ला जैसे आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ ने भी, जो कि यूपीए के कटुतम आलोचक हैं, अपने ताजा लेख में कहा है कि सीएजी का गणित कमजोर है और उसकी जो टिप्पणी है उसे भी ठीक से नहीं समझा गया है। श्री भल्ला सीएजी रिपोर्ट के हवाले से ही कहते हैं कि यदि नीलामी प्रक्रिया उचित समय में पूरी की गई होती तो एक लाख 86 हजार करोड़ रुपए में से सरकार को कुछ आमदनी अवश्य हो जाती। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि इतनी बड़ी रकम का कुछ हिस्सा सरकार के पास आमदनी के रूप में आता, जो नहीं आ पाया। श्री भल्ला ने बहुत सारा गुणा-भाग लगाकर समझाया है कि सरकार को यदि कोई घाटा हुआ है तो वह सत्रह हजार करोड़ के आसपास याने बहुप्रचारित घाटे के साढ़े नौ प्रतिशत से यादा नहीं है। यह तर्क अगर किसी कांग्रेस समर्थन विशेषज्ञ ने दिया होता तो उसे खारिज किया जा सकता था, लेकिन डॉ. भल्ला को यह हिसाब लगाने की क्या जरूरत थी और उसे कैसे खारिज किया जाए?

एक अन्य आरोप सरकार पर बार-बार लगाया जा रहा है कि 2004 में लिए गए एक नीतिगत निर्णय को लागू करने में उसने आठ साल का लंबा समय ले लिया। इसके दो पहलू हैं। एक तो यह ध्यान में रखना होगा कि यूपीए सरकार ने ही लंबे समय से चली आ रही नीति के बदले एक नई नीति लागू करने की पहल की। जो नीति पी.वी. नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल से चली आ रही थी, उसे मनमोहन सिंह यदि बदलने की बात नहीं करते तो क्या होता? अगर किसी कारणवश लंबे समय तक यथास्थिति कायम रही आई और नया कानून नहीं बन आया, तो इसमें घाटा कहां हुआ? और यदि हुआ तो फिर सर्वश्री राव, देवेगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी सबके सब अपराध के भागी माने जाएंगे। 
इसमें दूसरी ध्यान देने योग्य बात है कि एक नए कानून के बनने और अमल में आने में सात-आठ साल का समय लग जाना कोई असामान्य बात नहीं है। ऐसे कितने ही कानून हैं जो बरसों से पारित होने के इंतजार में रुके पड़े हैं। मिसाल के लिए महिलाओं का आरक्षण बिल। इसी तरह शिक्षा का अधिकार कानून की पहल वाजपेयी जी के समय में हुई थी। उसे भी अंतिम रूप मिलते-मिलते सात-आठ साल लग गए। संसद में किसी एक पार्टी का स्पष्ट बहुमत न होना और विभिन्न रायों में विभिन्न पार्टियों की सरकारें होने के कारण इस तरह की स्थिति बनना लाजिमी है।

यह आरोप सरकार पर लग सकता है कि एक तरफ उसने नई नीति लाने की घोषणा की और दूसरी तरफ उसने यथास्थिति को जारी रखा, इसके पीछे कोई चाल रही होगी। हो सकता है कि इस आरोप में सच्चाई का अंश हो, लेकिन फिर क्या इसके लिए डॉ. मनमोहन सिंह, कांग्रेस पार्टी या यूपीए ही दोषी हैं। अभी जिस तरह का खुलासा आए दिन हो रहा है उससे तो पता चलता है कि नई नीति बनाने के बजाय पुरानी नीति को चलने देने में ही तमाम लोगों की दिलचस्पी थी। भारत में राजनीति और व्यापार का जो गठजोड़ पिछले बीस साल में देखने मिला है। वही वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है। जिस व्यवस्था में कारपोरेट घरानों के मालिक किसी पार्टी को करोड़ों रुपए देकर रायसभा की सदस्यता खरीद सकते हैं उसमें ऐसे प्रकरणों का सामने आना कोई अनहोनी नहीं है।

एक व्यापक परिदृश्य में इस घटनाचक्र को देखने से अनुमान होता है कि पिछले आठ साल से विपक्ष में बैठी भाजपा सत्ता में वापिस लौटने के लिए बेताब है। उसे चूंकि कोई नया भावनात्मक मुद्दा फिलहाल नहीं मिल रहा है, इसलिए वह भ्रष्टाचार को केन्द्र में रखकर नई रणनीति बना रही है। उसकी पहली प्राथमिकता नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में तीसरी बार गुजरात चुनाव जीतने की है। अगले साल वह मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में वापिस लौटने के साथ-साथ राजस्थान व दिल्ली में फिर जीतने की कोशिश में लगेगी और अंतत: 2014 में केन्द्र में सरकार बनाने का उसका मंसूबा है। कर्नाटक में उसको जो चोटें लगी हैं उनसे वह काफी हद तक संभल चुकी है, ऐसा अभी नजर आता है। नितिन गडकरी की प्रत्यक्ष अगुवाई में शिबू सोरेन के साथ मिलकर उसने जिस तरह से सरकार बनाई उस पर भी अभी लोगों का ध्यान ज्यादा  नहीं है। लेकिन क्या भाजपा के मंसूबे पूरे होंगे? 

एनडीटीवी पर भले ही मध्यावधि चुनाव के लिए जनमत सर्वेक्षण का प्रपंच रच रहा हो, हमें नहीं लगता कि भाजपा सहित कोई भी पार्टी और कोई भी लोकसभा सदस्य मध्यावधि चुनाव के लिए उत्सुक या तैयार हैं। भाजपा के सामने यह दुविधा भी है कि 2014 में उसकी ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार कौन होगा? भारत का कारपोरेट जगत शायद नरेन्द्र मोदी को आगे लाना चाहेगा, संघ परिवार की पहली पसंद शायद नितिन गडकरी होंगे, लेकिन फिर आडवानी जी का क्या होगा? क्या नरेन्द्र मोदी उन्हें गांधीनगर से जीतने देंगे? भाजपा ही नहीं, अन्य दलों में भी एक असमंजस की स्थिति उभरेगी। एनडीए के संयोजक और गंभीर संसदवेत्ता शरद यादव क्या नीतीश कुमार के लिए अपना दावा छोड़ देंगे? क्या मुलायम सिंह चुपचाप बैठेंगे? ऐसे बहुत से प्रश्न हैं, लेकिन फिलहाल इतना कहकर बात खत्म करना होगी कि कांग्रेस के पास स्पष्ट बहुमत का अभाव, वाणिज्यिक  घरानों की राजनीति में निरंतर बढ़ती दिलचस्पी और अनियंत्रित पूंजीवादी नीतियों के चलते ही यह अवांछनीय और अस्वस्थ वातावरण निर्मित हुआ है। 

देशबंधु में 6 सितम्बर 2012 को प्रकाशित




 

2 comments:

  1. भैया, आज मनमोहन सिंह पर आरोप लगे हैं, जो सही भी हो सकते हैं, लेकिन यदि वे इस्तीफा देते हैं, मध्यावधि चुनाव होता है तो ऐसी कौन सी पार्टी है जो सत्तासीन होने की क्षमता रखती है? कौन हैं वे राजनेता जो भ्रष्टाचारमुक्त सरकार बनाने का दावा कर सकते हैं? तमाम राजनैतिक पार्टियों में लगभग हर सदस्य किसी न किसी रूप में, किसी न किसी घोटाले में लिप्त होगा ही. खुलासे तो धीरे धीरे होते हैं. राजनीतिक पटल पर एकाध को छोड़ दें तो कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं दीखता जो भ्रष्टाचार मुक्त हो.

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