Thursday 6 September 2012

विदेशी मीडिया बनाम प्रधानमंत्री




कुछ हफ्ते पहले ही अमेरिका की बहुप्रसारित 'टाइम' पत्रिका ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की काबिलियत पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए एक मुख्य लेख (कवर स्टोरी) छापा था। अब अमेरिका के ही एक बड़े अखबार 'वाशिंगटन पोस्ट' ने भी लगभग उन्हीं विचारों को अनुमोदित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री की जमकर आलोचना की है। इस बीच इंग्लैण्ड और अमेरिका के कुछ और पत्रों ने इसी के अनुसरण में अनेक लेख छापे हैं। यह विचारणीय है कि विदेशी मीडिया की भारत की राजनीतिक सेहत के बारे में चिंता एकाएक कैसे बढ़ गई है और इसके पीछे क्या प्रयोजन है। खासकर जबकि यह मीडिया कुछ समय पहले तक यूपीए सरकार और विशेषकर डॉ. सिंह की तारीफ के पुलिंदे बांध रहा था।

इसका एक सरल कारण शायद यह है कि आर्थिक नवउदारवाद के इस दौर में विदेशी मीडिया प्रतिष्ठान भारत में अपने लिए मुनाफे की ठोस जमीन तलाश रहे हैं। अमेरिका, इंग्लैण्ड में अखबारों की प्रसार संख्या निरंतर गिर रही है। वे घाटे में भी चल रहे हैं। कितने सारे अखबार तो बंद हो चुके हैं। ऐसे में अनेक अखबारों ने विभिन्न देशों के लिए अपने विशेष संस्करण निकालना प्रारंभ कर दिया है। भारत तो इस दृष्टि से उर्वर प्रदेश तो है ही। फिर केन्द्र सरकार की आलोचना करने से कोई भी बाहरी अखबार यहां अपनी बिक्री और छवि में इजाफा कर सकता है। 'टाइम' और 'वाशिंगटन पोस्ट' ने भी यही किया हो, तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 
यह भी सबको पता है कि विदेशी पूंजी निवेशकों और कारपोरेट घरानों को भारत का वर्तमान राजनीतिक माहौल पसंद नहीं आ रहा है। वे चाहते हैं कि भारत रातोंरात उनके मनोनुकूल आर्थिक नीतियां लागू कर दे- जैसे बैंक व बीमा क्षेत्र का पूर्ण निजीकरण, खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी प्रवेश, पेंशन का जिम्मा निजी क्षेत्र को देना आदि। डॉ. सिंह यह सब नहीं कर पा रहे हैं या नहीं कर रहे हैं, इससे विदेशी पूंजीपतियों का कुंठित होना स्वाभाविक है। संभव है कि वे अपनी भड़ास को पूंजी-आश्रित मीडिया के माध्यम से निकाल रहे हों। 

यूं तो भारत में विदेशी मीडिया के अनेक पत्रकार कार्यरत हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर का भारत के बारे में ज्ञान उथला और एकतरफा है। ऐसे कम ही लोग हैं, जो दूरदराज के इलाकों में जाकर भारत की समग्र तस्वीर देखने की कोशिश कर रहे हों, वरना यादातर तो भारत के महानगरों के अभिजात वर्ग की कॉकटेल पार्टियों या व्यक्तिगत चर्चाओं से ही अपनी कलम के लिए मसाला जुटाते हैं। मुझे तो यह देखकर हैरानी होती है कि मार्क टली जैसे नामीगिरामी पत्रकार जो भारत में ही बस गए हैं, भी कई बार एकतरफा कांग्रेस विरोध और अक्सर हिन्दुत्ववादी ताकतों के पक्ष में खड़े नजर आते हैं।

इन दिनों भाजपा जिस आक्रामक मूड में है उसमें उसे वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट से प्रधानमंत्री पर वार करने का एक और अच्छा मौका लग गया है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी को बहुत यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। उसके नेताओं को नहीं भूलना चाहिए कि इसी विदेशी मीडिया ने एक समय के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई पर गंभीर आरोप लगाए थे और इसके बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का भी सुरुचिहीन उपहास 'टाइम' पत्रिका में देखने मिला था। दुश्मन का दुश्मन आपका दोस्त हो, यह बात हमेशा लागू नहीं होती। भाजपा यह भी याद रखे कि जिस अमेरिका के पत्रों ने डॉ. सिंह की आलोचना की है, उसी अमेरिका ने भाजपा के महान नेता नरेन्द्र मोदी को आज तक वीजा नहीं दिया है और उसी देश में एनडीए के रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस के कपड़े विमानतल की सुरक्षा जांच में उतरवा लिए गए थे।

'वाशिंगटन पोस्ट' प्रसंग में कांग्रेस पार्टी ने भी अपेक्षित संयम नहीं बरता। अखबारों में सरकार के खिलाफ सामग्री छपते ही रहती है। उसको लेकर हाय-तौबा मचाने की जरूरत नहीं थी। भारत के पत्र सूचना कार्यालय से एक उत्तर अखबार को भेज दिया जाता, इतना पर्याप्त होता। कांग्रेस के प्रवक्ताओं को भी इस बारे में टीवी बहस में भाग लेने से इंकार कर देना चाहिए था। हर क्रिया की प्रतिक्रिया- न्यूटन का यह सिध्दांत भौतिकशास्त्र तक सीमित रहे तो बेहतर। 

 देशबंधु में 7 सितम्बर 2012 को प्रकाशित सम्पादकीय 

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