Wednesday, 31 October 2012

दा याने राजनारायण मिश्र




दा चले गए हैं और मेरे मन का एक कोना सूना हो गया है। दा याने राजनारायण मिश्र। छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार राजनारायण मिश्र इस प्यार भरे संबोधन से ही जाने जाते थे। दा को प्यार करने वालों की कमी नहीं थी और न उनके साथ महफिल सजाने वालों की। ऐसे लोग भी बड़ी संख्या में हैं, जो या तो दा को अपना गुरु मानते हैं या जिन्हें दा ने अपना शिष्य होने का गौरव प्रदान किया था। किन्तु दा के साथ मेरा रिश्ता कुछ अलग ही था। वे 1959 में देशबन्धु (तब नई दुनिया रायपुर) में काम करने आए थे। इस नाते वे मेरे वरिष्ठ सहयोगी थे। 1988 में उन्होंने देशबन्धु से विदा ले ली थी। इसके बाद वे मेरे लिए एक भूतपूर्व सहयोगी मात्र रह जाते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और वे मेरे लिए अंत तक दा ही बने रहे, संबोधन की पूरी गहराई से। उन्होंने जब देशबन्धु में काम करना प्रारंभ किया तब मैं ग्वालियर में हाईस्कूल का विद्यार्थी था। छुट्टियों में घर आते-जाते उनके साथ परिचय तो हो चुका था, लेकिन वह एक रस्मी परिचय था। 1961-62 में जब उन्होंने पत्र के साहित्य पृष्ठ पर मेरी रचनाएं छापना प्रारंभ किया तथा जबलपुर की साहित्यिक संस्था संगम का रायपुर अध्याय प्रारंभ किया तब यह परिचय कुछ और बढ़ा, लेकिन उनके साथ मेरे आत्मीय संबंधों की शुरुआत 1963 में उस वक्त हुई जब वे नवस्थापित जबलपुर समाचार में काम करने के लिए रायपुर से जबलपुर आए।  ममता भाभी संभवत: अपने मायके में थीं और अगस्त 1963 के अंत में एक माह की बेटी रिमझिम को लेकर जबलपुर आ गई थीं। उन दिनों दा के साथ मैंने एक साल तक लगातार संपादकीय विभाग में काम किया और उनसे बहुत कुछ सीखा- रेडियो से समाचार लेना, शीर्षक बनाना, पेज मेकअप करना इत्यादि। उन्हीं दिनों मेरी एक कविता ''जेल का गुलमोहर'' को भी उन्होंने संशोधित किया।

एक साल बाद याने 1964 में हम लोग लगभग साथ-साथ रायपुर लौटे। दा पहले प्रेस के पास सदर बाजार में हरि तिवारी के घर में रहे, फिर क्रमश: कंकालीपारा, बैरनबाजार, डीके अस्पताल के पीछे एक पुराने क्वार्टर में और बाद में चौबे कालोनी में। वे पत्रकारिता में तो मेरे वरिष्ठ थे ही, निजी जीवन में कब, कैसे वे मेरे बड़े भाई बन गए, यह कहना मुश्किल है। इतना जरूर कहूंगा कि दा और भाभी दोनों से मुझे निश्छल स्नेह मिला। दा की आवारगी के बारे में ढेरों किस्से प्रचलित हुए, लेकिन मेरे प्रति उन्होंने वही अनुशासन दिखाया, जिसकी अपेक्षा एक बड़े भाई से की जा सकती है। मैं उन दिनों सिगरेट पीता था, यह बात दा को नागवार गुजरती थी, फिर भी इस पर उन्होंने समझौता कर लिया था। इसके आगे बढ़ने की इजाजत उन्होंने मुझे नहीं दी और हमेशा इस बात का ख्याल रखा कि मैं कहीं बिगड़ न जाऊं !

दा नि:संदेह एक गुणी पत्रकार थे और मुझे इस बात को लेकर उनसे शिकायत बनी रही कि उन्होंने खुद होकर अपने लिए जो सीमा बना रखी थी उसे लांघ कर आगे जाने के बारे में कभी नहीं सोचा। उनकी भाषा सीधी-सपाट न होकर उसमें वह विदग्धता थी, जो एक अच्छे रिपोर्टर या कॉलम लेखक का गुण होता है। उनमें अनजान से अनजान व्यक्ति से भी तुरंत संवाद स्थापित कर लेने की क्षमता थी, जिसके बिना कोई भी अच्छा रिपोर्टर नहीं बन सकता। वे समाजवादी विचारों के थे और उनमें एक प्रतिबध्द पत्रकार के लिए स्वाभाविक, वंचितों के प्रति गहरी हमदर्दी थी। और वे दिन हो या रात जंगल हो या पहाड़ खतरे उठाकर भी काम करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। इतने सारे गुण एक साथ मुश्किल से ही मिलते हैं।

अपनी इन्हीं खूबियों के चलते वे अपनी पहचान कायम कर सके। सन् 1979 में स्टेटमैन ने ग्रामीण पत्रकारिता में उत्कृष्टता के लिए पुरस्कार स्थापित किया था। यह दा की पत्रकारिता का ही कमाल था कि साढ़े तीन सौ से भी ज्यादा प्रविष्टियों के बीच पहले ही वर्ष उन्हें प्रथम पुरस्कार मिला, जबकि हिन्दी ही नहीं, अंग्रेजी और अनेक भारतीय भाषाओं के पत्रकार स्पर्धा में शामिल थे। 16 सितम्बर 1980 को उन्हें कोलकाता में आयोजित एक भव्य समारोह में यह पुरस्कार मिला और इसके बाद देशबन्धु में एक दर्जन साथियों ने उनका अनुकरण कर एक रिकॉर्ड बनाया। दा की यह रिपोर्ट गरियाबंद इलाके में अवस्थित कुल्हाड़ीघाट के आदिवासियों के शोचनीय हालत पर थी। इस तरह की कितनी ही रिपोर्टें  उन्होंने आगे-पीछे तैयार कीं।

मैं दा के द्वारा की गई कुछ रिपोर्टों का विशेष कर उल्लेख करना चाहता हूं। 1970 के दशक में ही उन्होंने देशबन्धु के कांकेर स्थित संवाददाता बंशीलाल शर्मा के साथ पन्द्रह दिन तक अबूझमाड़ के वर्जित क्षेत्र की पैदल व साइकिल से यात्रा की। ऐसा दु:साहस उनके जैसा पत्रकार ही कर सकता था। अबूझमाड़ का बीहड़ इलाका, दूर-दूर तक बसे गांव, सड़कों का सवाल ही नहीं, पीने का पानी मिलना भी मुश्किल, भोजन की तो कौन कहे और रात में सोने के लिए किसी आदिवासी की झोपड़ी। इसी तरह एक दफे दा ने अचानकमार में जंगल के किनारे बसे गांव की लगातार बारह दिन तक यात्रा की। उस इलाके में कोई डकैती हुई थी और जिसके विवरण लेने दा उस गांव पहुंचे। वहां उन्होंने आगे किसी गांव मे डाका पड़ने की खबर मिली और ऐसा कुछ हुआ कि डाकू आगे-आगे और दा पीछे-पीछे।

कहने का आशय यह कि दा धुन के पक्के थे और खबर जुटाते वक्त अपने आपको भूल जाते थे। 1977 में वे विधानसभा चुनावों की रिपोर्टिंग करने के लिए दुर्ग जिले के खेरथा बाजार विधानसभा क्षेत्र में थे। वहीं उन्हें दल्लीराजहरा में उग्र आंदोलन और पुलिस गोलीबारी की खबर मिली तो वे चुनाव छोड़कर दल्लीराजहरा निकल गए और अगले दिन गोलीकांड की आंखों देखी रिपोर्ट लेकर रायपुर आए। 1979 में बस्तर में  आदिवासी किशोरी यशोदा की हत्या हुई थी, उसमें कानून और प्रशासन से जुड़े बड़े लोगों का हाथ होने का संदेह था। दा उसकी सच्चाई जानने जगदलपुर गए। इसी बीच उन्हें खबर मिली कि किरंदुल में कुछ गड़बड़ है। वे आनन-फानन में बस्तर जिला प्रतिनिधि भरत अग्रवाल को लेकर किरंदुल के लिए चल पड़े। किरंदुल में पुलिस फायरिंग हुई थी, जिसमें ग्यारह मजदूर मारे गए थे। कर्फ्यू लगा दिया गया था। किरंदुल में घुसना आसान नहीं था, लेकिन दा और भरत जुगाड़ लगाकर वहां पहुंचे, तथ्य एकत्र किए और छुपते-छुपाते जगदलपुर पहुंचे। जगदलपुर तारघर से प्रेस को तार भेजना भी मना कर दिया गया था। तब दा किसी ट्रक में बैठकर रायपुर आए और सकलेचा सरकार में हुए इस गोलीकांड की रिपोर्ट छापने वाला देशबन्धु पहला अखबार बन गया।

ये रिपोर्टें अपने आप में पत्रकारिता का बेहतरीन नमूना थीं, लेकिन दा प्रसिध्द हुए ''घूमता हुआ आईना'' के कारण। यूं तो यह कॉलम लिखना मैंने शुरु किया था, लेकिन चार-छह अंकों के बाद ही दा ने इसका जिम्मा अपने ऊपर ले लिया था और इस तरह चमकाया  कि देशबन्धु की ही पहचान बन गया। पाठक उत्सुकता के साथ सोमवार का इंतजार करते थे, जिस दिन यह कॉलम छपता था। दा चुटीले अंदाज में इस स्तंभ में बड़े-बड़े लोगों की ऐसी खबर लेते थे कि वे आह भी नहीं भर सकते थे। दा स्वयं अजातशत्रु थे और अपने कॉलम में भी उन्होंने किसी के साथ निजी हिसाब बराबर नहीं किया, बल्कि जो लिखा वह व्यापक जनहित में।

दा एक अच्छे कहानीकार थे और एक अच्छे कवि। हम लोगों ने साथ-साथ न जाने कितने साहित्यिक कार्यक्रमों में शिरकत की, लेकिन दा का मन इसमें ज्यादा समय नहीं रमा। वे स्वभाव से मनमौजी और उदार थे। उनके पास जो गया भोलेनाथ की तरह उसे आशीर्वाद दे देते थे। उनकी जीवन यात्रा में ममता भाभी चट्टान की तरह उनके साथ रहीं और ध्रुवतारा बनकर उन्हें बार-बार घर की दिशा दिखाती रहीं। इन्हीं स्मृतियों के साथ में दा को अपनी श्रध्दांजलि अर्पित करता हूं।

देशबंधु में 1 नवम्बर 2012 को प्रकाशित 




Sunday, 28 October 2012

यात्रा वृत्तांत: पांडिचेरी नहीं, पुडुचेरी



पुडुचेरी का समुद्र तट पथरीला है, याने वहां बैठकर आप रेत के घरौंदे नहीं बना सकते। प्रकृति की यह लीला अद्भुत है कि मात्र डेढ़ सौ किलोमीटर ऊपर चेन्नई का मीलों तक फैला मैरीना बीच पूरी तरह से रेतीला है।  

भारत में ऐसे अनेक स्थान हैं जिनके नाम विदेशी शासन के दौरान इसलिए बिगड़ गए क्योंकि अंग्रेज और फ्रांसीसी उनका सही उच्चारण नहीं कर पाते थे। स्वतंत्र भारत में इनके मूल नाम पुर्नस्थापित करने का काम किया गया। त्रिचि अब वापिस तिरुचिरापल्ली है और त्रिवेन्द्रम तिरुअनंतपुरम। अनेक शहरों के अंग्रेजी हिज्जे  भी सुधारे गए हैं। इसके साथ-साथ जातीय अभिमान उमड़ा तो बहुत से नामों को स्थानीय भाषाओं में ढाल दिया गया। इसमें यह भी हुआ कि विदेशियों द्वारा दिए गए मूल नाम भी स्थानीकृत हो गए। कुल मिलाकर नतीजा यह हुआ कि अनेक प्रसिध्द स्थानों को स्थानीय पहचान मिल गई। इसी प्रक्रिया में जिसे हम कल तक पांडिचेरी कहते थे वह अब तमिल भाषा के अनुकूल पुडुचेरी कहलाने लगा है।

यूं तो भारत पर अंग्रेजों ने एक सौ नब्बे साल राज किया, लेकिन यूरोप के कुछ अन्य देश यथा पुर्तगाल, हालैण्ड और फ्रांस ने भी भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी सामरिक और सामुद्रिक शक्ति के बल पर भारत में अपने छोटे-छोटे उपनिवेश स्थापित किए। यह तो इंग्लैण्ड से लड़ाई में फ्रांस हार गया अन्यथा भारत ब्रिटिश राज के बदले फ्रांसीसी राज का हिस्सा बनता! बहरहाल फ्रांसीसी राज के अवशेष अब पांडिचेरी याने पुडुचेरी और उसकी दो अन्य बसाहटों यनम (आंध्र में काकीनाडा के निकट) और माहे (केरल में कोचिन के निकट) तक सीमित हैं। इन तीनों से मिलकर पुडुचेरी का केन्द्रशासित प्रदेश बनता है।  यद्यपि यनम और माहे दोनों का दैनंदिन प्रशासन समीपवर्ती जिला मुख्यालय से देखा जाता है।

हम भारतीयों के हृदय में पुडुचेरी के लिए विशेष स्थान है। यह इसलिए कि अपने समय के प्रखर क्रांतिकारी और साहित्यकार अरविन्द घोष ने ब्रिटिश राज से बचने के लिए पुडुचेरी में ही राजनीतिक शरण ली थी। यहीं आकर क्रांतिकारी अरविन्द का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर हुआ और वे कालांतर में महर्षि अरविन्द के नाम से प्रतिष्ठित हुए। श्री अरविन्द के आध्यात्म दर्शन के जो बौध्दिक शिखर हैं उन तक पहुंचना सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं है, लेकिन भारत की धर्मपरायण जनता देश की स्वाधीनता व भारत की चिंतन परम्परा में उनके अनुपम योगदान को स्वीकार करती है और इसीलिए वे जनता के श्रध्दापात्र हैं।

पुडुचेरी में समुद्रतट से कोई सौ मीटर की दूरी पर रयू डी ला मैरीन नामक सड़क पर वह भवन है जिसमें अरविन्द ने अपने जीवन का उत्तरार्ध्द बिताया, उसी को आज अरविन्द आश्रम के नाम से जाना जाता है।अरविन्द आश्रम आजकल के महात्माओं के भव्य आश्रमों से बिलकुल अलग है। जो आश्रम के नाम हरिद्वार और अन्यत्र विकसित, विशाल भवनों की कल्पना करते हैं उन्हें अरविन्द आश्रम पहुंचकर शायद निराशा ही होगी। वह एक बड़े बंगले जैसा दुमंजिला भवन है, जिसमें प्रवेश करने के लिए कोई सिंहद्वार नहीं बल्कि एक साधारण दरवाजा है। इसी परिसर में एक वृक्ष के नीचे श्री अरविन्द की समाधि है। यहां पूरे समय मौन धारण करना पड़ता है, बात करने की बिलकुल मनाही है। एक जगह अंग्रेजी में लिखा हुआ है- '' जब तुम्हारे पास बात करने के लिए कोई मुद्दा न हो तब चुप रहना ही उचित होता है।'' महर्षि की समाधि में एक सादगी है, यद्यपि स्फटिक शिला के ऊपर आश्रमवासी सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रतिदिन पुष्प सज्जा करते हैं। बहुत से श्रध्दालु समाधि पर माथा टेककर बैठते हैं, लेकिन उनके लिए भी निर्देश है कि ''वहां ज्यादा न बैठें।''

पुडुचेरी के साथ भारतीय प्रज्ञा के दो और बड़े नाम जुड़े हैं। एक तमिल महाकवि भारतीदासन और दूसरे स्वाधीनता सेनानी, नवजागरण के नायक महाकवि सुब्रमण्य भारती। हमारी इच्छा सुब्रमण्य भारती का निवास देखने की थी। पुराने शहर के बीच में ईश्वरन् सेल्वी स्ट्रीट पर उनका छोटा सा घर है, जिसे महाकवि भारती अनुसंधान केन्द्र एवं संग्रहालय का स्वरूप दे दिया गया है। इस भवन का संरक्षण भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के पुडुचेरी अध्याय ने किया था, लेकिन जर्जर घर एक बार फिर मरम्मत के लिए बंद है। हमारे संतोष के लिए यह काफी था कि हम अपनी श्रध्दांजलि निवेदित करने के लिए महाकवि के घर तक पहुंच पाए। दिलचस्प बात तो तब हुई जब हमारे ऑटो रिक्शा वाले ने उलाहना दिया कि आप सुब्रमण्य भारती का घर क्यों कह रहे थे। आपको सीधे कहना था कि महाकवि के घर जाना है।

मैं 1988 में पांडिचेरी आया था, लेकिन नाम बदलने के बाद पुडुचेरी की मेरी यह पहली यात्रा थी। अब इस बात को कहने का कोई मतलब नहीं है कि शहर पूरी तरह बदल गया है। सड़कों पर पहले के मुकाबले कई गुना यादा रेलमपेल है। वाहनों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिसके चलते प्रदूषण बढ़ना भी स्वाभाविक है। फ्रांसीसी स्थापत्य में बने पुराने घर एक के बाद एक कर टूट रहे हैं, उनकी जगह नई भव्य इमारतें खड़ी हो रही हैं। पुरानी सड़कों के नाम भी बदल गए हैं। अब वहां कामराज सलाई है, अन्ना सलाई है और है राजीव गांधी के नाम पर बना विशाल औरतों और बच्चों का अस्पताल। 

पुडुचेरी की सड़कों पर घूमते हुए इस बात पर ध्यान जाए बिना नहीं रहता कि यहां कदम-कदम पर शराब की दुकानें हैं। मुझे लगता है कि पूरे देश में मदिरालयों की प्रति वर्ग किलोमीटर सघनता में यह नन्हा प्रदेश शायद अव्वल नम्बर पर होगा। शायद इसीलिए बस स्टैण्ड पर तथा फुटपाथ पर मदहोश पड़े शराबियों की ओर कोई ध्यान नहीं देता।

नगर में अब एक से बढ़कर एक आलीशान होटल खुल गए हैं। लेकिन हम एक मझोले दर्जे के होटल में ठहरे थे। जयराम होटल के मालिक श्री लक्ष्मीनारायण हैं। मैंने देखा कि सुबह-शाम वे रेस्तरां में आकर ग्राहकों के साथ बैठकर बातचीत करते हैं और कभी उनके साथ ही वहां अपना भोजन भी कर लेते हैं। इससे निश्चित ही भोजन की गुणवत्ता बनी रहती है, और स्टाफ भी मुस्तैद रहता है। मैं सैकड़ों होटलों में ठहरा होऊंगा और वहां खाना भी खाया होगा, लेकिन होटल का मालिक इस तरह ग्राहकों की फिक्र करे, यह पहली बार देखा। रेस्तरां से लगी हुई रसोई में भी जो साफ-सफाई देखने में आई वह पांच सितारा होटलों में भी कभी-कभी दुर्लभ होती है।  बस एक ही बात समझ में नहीं आई कि पीने का पानी प्लास्टिक के गिलास में क्यों देते हैं।

हमारा होटल भले ही साफ-सुथरा था, लेकिन चेन्नई और पुडुचेरी दोनों जगह सार्वजनिक स्थानों पर उस साफ-सफाई का अभाव मैंने देखा जिसके लिए साधारणत: दक्षिण भारत की प्रशंसा होती है। चेन्नई और पुडुचेरी के बीच लगातार बसें चलती हैं और समय पर चलती हैं। लेकिन बस के भीतर सफाई पर कोई ध्यान नहीं। शायद इसलिए कि बस आकर रुकी नहीं कि यात्री चढ़ने के लिए बेताब हो उठते हैं। नतीजा गाड़ी के भीतर प्लास्टिक की खाली बोतलें और चिप्स के पैकेट। दोनों नगरों के बस स्टैण्ड नए हैं, लेकिन उनके रखरखाव की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। और तो और चेन्नई के कामराज अन्तरराष्ट्रीय विमानतल के रिटायरिंग रूम की हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी।

मैं अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता सम्मेलन के राष्ट्रीय अधिवेशन में भाग लेने के लिए पुडुचेरी गया था। चेन्नई से पुडुचेरी की यात्रा के लिए बस ही सर्वोत्तम विकल्प है। टैक्सी किराया साढ़े तीन हजार रुपए, जबकि एसी वोल्वो बस का किराया मात्र एक सौ नब्बे रुपया, इसमें बस स्टैण्ड तक आने-जाने के लिए ऑटो का किराया और जोड़ लें। लौटते वक्त मैं चेन्नई में एयरपोर्ट के रास्ते पर गिंडी नामक जगह पर उतर गया। वहां खडे ऑटो वाले ने मेरी शक्ल देखकर साफ हिन्दी में कहा, ''एयरपोर्ट के दो सौ रुपए।'' उसकी अनसुनी कर मैं आगे बढ़ लिया। एक दूसरा ऑटो रुका। इस ड्रायवर ने भी साफ हिन्दी में कहा, ''सौ रुपया''। मैं ऑटो पर सवार हो गया। चालक से पूछा- ''तुमने हिन्दी में बात की।'' उसका जवाब था- ''आपका चेहरा देखकर समझ में आ गया कि आप हिन्दी वाले हैं।'' भाषा और रोजगार के बीच कितना गहरा संबंध है, इस वाकये से जान लीजिए।


देशबंधु में 28 अक्टूबर 2012 को प्रकाशित 

Wednesday, 17 October 2012

खुर्शीद, खेमका, वाड्रा, मीडिया




मेरे एक मित्र का कहना है कि उन्होंने अब टीवी पर समाचार देखना बंद कर दिया है। वे कहते हैं कि तुम पत्रकार हो, समाचार सुनना तुम्हारी मजबूरी हो सकती है लेकिन मैं क्यों अपना समय और दिमाग व्यर्थ की बातों में बर्बाद करूं।  एक और मित्र झल्लाकर कहते हैं कि वे फिज़ूल की बहसों से ऊबकर अब सन्यास ले लेना चाहते हैं। सचमुच, सुबह-शाम अखबार देखो या टीवी पर समाचार सुनो, ऐसा लगता है मानो भ्रष्टाचार के सिवाय अब इस देश में कोई और मुद्दा बचा ही नहीं है। गोया हमने अपनी बाकी तमाम समस्याओं के समाधान खोज निकाले हैं! यह सच है और उचित भी कि सार्वजनिक जीवन में  शुचिता एक  जरूरी और महत्वपूर्ण मुद्दा है, लेकिन बाकी तमाम जरूरी सवालात की अनदेखी करने में कौन सी समझदारी है? जो लोग सिर्फ इसी एक काम में जुटे हुए हैं, उनका मकसद आखिरकार क्या है? वे देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं?  और क्या वे सचमुच नहीं जानते कि एक संकीर्ण बिंदु पर चलाये जा रहे आन्दोलन से क्या नफा-नुकसान हो सकता है? इस परिदृश्य में मीडिया की क्या भूमिका है, इस पर भी गौर किये जाने की आवश्यकता है।

सलमान खुर्शीद का मामला ही लें। मेरा मानना है कि देश के कानून मंत्री जैसे बड़े व महत्वपूर्ण  पद पर रहते हुए उन्हें सार्वजनिक जीवन में अन्य कोई  जिम्मेदारी  लेने से बचना चाहिए था। क्या जरूरी था कि वे जाकिर साहब के नाम पर बने ट्रस्ट के अध्यक्ष बनते? इस जगह पर वे अपने किसी विश्वस्त को बैठा सकते थे। लेकिन इस मोहग्रस्तता के वे अकेले उदाहरण नहीं हैं। सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष रहते हुए शान्ति निकेतन-श्रीनिकेतन विकास न्यास के अध्यक्ष बने रहे और प्रणब मुखर्जी ने सरकार में तारनहार मंत्री रहते हुए भी कितने ही छोटे-मोटे अन्य दायित्व किसी अन्य को नहीं सौंपे। इसी तरह अनेक अन्य मंत्री- मुख्यमंत्री क्रिकेट संघ और ओलिंपिक संघ आदि की अध्यक्षता का मोह नहीं छोड़ पाते। आश्चर्य है कि इसका जो नैतिक पहलू है उस पर किसी सुधारक ने आज तक एक शब्द नहीं कहा। बहरहाल, यह तो मानना होगा कि अपनी भाषा व भावों पर संयम न रख पाने के बावजूद श्री खुर्शीद ने विदेश यात्रा से लौटने के कुछ ही घंटों के बाद पत्रवार्ता कर न सिर्फ अपना पक्ष रखा, बल्कि स्वयं होकर जांच करने की मांग भी रख दी। उन्होंने तो एक मीडिया समूह के खिलाफ केस भी दाखिल कर दिया है। इसके बाद क्या अब हमें कानूनी प्रक्रिया के जरिए सच्चाई सामने आने की प्रतीक्षा नहीं करना चाहिए? 

अनेक टीकाकार कानूनी प्रक्रिया की प्रभावशीलता को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। वे तर्क देते हैं कि कानून के रास्ते चलें तो सच्चाई सामने आने में दस-बीस साल लग सकते हैं और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि दोषी को अंतत: सजा मिल पाएगी या नहीं। यह तर्क अपनी जगह पर सही है, लेकिन अगर कोई अपराध हुआ है या अपराध का आरोप है तो आखिरकार उसकी जांच कानून के दायरे के भीतर ही हो सकती है। जनता की अदालत में फैसला करने की बात अक्सर आकर्षित करती है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसा करने में तथ्यों की अनदेखी कर भावावेश के चलते गलत फैसले लिए जा सकते हैं। आश्चर्य तब होता है जब टीवी चर्चाओं में बैठने वाले कानून के बड़े-बड़े जानकार भी निर्धारित प्रक्रिया के बजाय जनभावना के अनुरूप आनन-फानन में फैसला सुना देना चाहते हैं। क्या ऐसा करने के पीछे उनका अपना कोई गोपन एजेंडा है?

इधर हरियाणा के अधिकारी अशोक खेमका के तबादले ने एक बार फिर कांग्रेस विरोधियों की तोपों का मुंह सलमान खुर्शीद से हटाकर राबर्ट वाड्रा की ओर कर दिया है। वाड्रा से हमारी कोई सहानुभूति नहीं है। उनके बारे में अपनी राय मैं 11 अक्टूबर के कॉलम 'रॉबर्ट वाड्रा का तो बहाना है' में व्यक्त कर चुका हूं, किंतु श्री खेमका के तबादले की सच्चाई क्या है? वे एक चैनल पर प्रदेश सरकार के फैसले की तारीफ कर रहे थे तो दूसरे पर अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर चिंतित नजर आ रहे थे, तीसरे चैनल पर उनके वकील उन्हें मिली हत्या की धमकी का मुद्दा उठा रहे थे, तो चौथे चैनल पर वे रोने-रोने को हो गए थे। सारे चैनल उनकी बहादुरी की तारीफ कर रहे थे। उन्हें आश्वस्त कर रहे थे कि देश उनके साथ है परन्तु किसी ने भी यह नहीं कहा कि श्री खेमका को तत्काल कडी सुरक्षा उपलब्ध कराई जाए और टेलीफोन पर मिल रही धमकियों की अविलंब जांच की जाए।

श्री खेमका के मुताबिक बीस साल में उनके चालीस बार तबादले हो चुके हैं। इसका अर्थ यह है कि सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या गैर-कांग्रेसी, उनकी पटरी अपने आला-अफसरों अथवा मंत्रियों के साथ कभी नहीं बैठी। इतने वर्षों की सेवा के आधार पर वे सचिव पद के अधिकारी हैं, लेकिन उन्हें वर्तमान सरकार ने विशेष जिलाधीश जैसा नया पद सृजित कर उस पर बैठा दिया था। याने वाड्रा प्रकरण के पहले से ही सरकार उनसे नाखुश चली आ रही थी। फिर उन्होंने किसी मामले में फैसला नहीं लिया, इस पर हाईकोर्ट ने उन्हें अवमानना का आरोपी माना, अपनी सफाई में उन्होंने कहा कि उन्हें मंजूर नहीं कि उनके लिए फैसले की अपील कनिष्ठ अधिकारी करें; इस तर्क को उचित मानते हुए हाईकोर्ट ने उनका तबादला करने का आदेश दिया। अब सवाल उठता है कि जब वे तबादले की प्रतीक्षा में थे, तब एक विवादग्रस्त मामले में उन्हें फैसला क्यों लेना चाहिए था। यही नहीं, तबादला आदेश मिल जाने के बाद भी उन्हें एक और नई जांच का आदेश क्यों  देना चाहिए था। क्या यह बेहतर नहीं होता कि हाईकोर्ट के अनुकूल निर्णय के बाद वे हफ्ते दस दिन की छुट्टी पर चले जाते और वे अपनी वरिष्ठता के आधार पर नई पदस्थापना की प्रतीक्षा करते! सब जानते हैं कि सरकार अधिकारियों के तबादले अपनी खुशी-नाखुशी से करती है। उसमें न हरियाणा अपवाद है, न मुख्यमंत्री हुड्डा, न अधिकारी खेमका। इस पृष्ठभूमि में पाठक तय कर सकते हैं कि श्री खेमका ने साहस का परिचय दिया या सुविचारित किंतु अनावश्यक दुस्साहस का।

इस बीच लोकसभा के दो उपचुनाव सम्पन्न हो गए। इन दोनों सीटों पर कांग्रेस की ओर से पुरखों के पुण्य प्रताप पर भरोसा करने वाले उम्मीदवार थे। एक बमुश्किल तमाम जीते और दूसरे बुरी तरह हारे। इसमें उत्तराखंड का मामला कुछ विचित्र है। वहां विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ले देकर जीत हुई, लेकिन मुख्यमंत्री तय करने की बात हुई तो हरीश रावत की स्वाभाविक प्रबल दावेदारी को दरकिनार कर विजय बहुगुणा को पद सौंप दिया गया। इतने पर भी बात रुक जाती तो गनीमत थी। उनके बेटे को लोकसभा का टिकट देने में कौन सी समझदारी थी? बहुगुणा परिवार ने कांग्रेस की बहुत सेवा की होगी, लेकिन क्या हाईकमान को यह याद नहीं कि विजय और रीता बहुगुणा के पिता हेमवतीनंदन बहुगुणा ने इंदिरा गांधी का साथ छोड़ दिया था! इसी तरह राष्ट्रपति के बेटे अभिजीत मुखर्जी यदि लोकसभा का मोह छोड़ विधानसभा में बने रहते तो मुट्ठी खुलने की नौबत नहीं आती।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अरविंद केजरीवाल का नया खुलासा सामने नहीं आया है। सुनते हैं कि वह नितिन गडकरी के बारे में होगा। इसके पूर्व श्री केजरीवाल ने दिल्ली में अपना अनशन समाप्त कर फरुर्खाबाद कूच करने का ऐलान कर दिया है। यह समझना मुश्किल हो रहा है कि उनका लक्ष्य अंतत: क्या है। जो भी हो, इस सारे माहौल में मीडिया की जो भूमिका है वह लगातार प्रश्नों के घेरे में आ रही है। कल तक मीडिया अपने आपको संसद के विकल्प के रूप में पेश कर रहा था, अब लगता है कि उसने अपने ऊपर न्यायालय का रोल भी ले लिया है। यह व्यस्त स्वार्थों और पूंजीप्रेरित उद्दण्डता भारतीय जनतंत्र के लिए एक नई चुनौती है, जिस पर आज नहीं तो कल प्रबुध्द समाज को पुनर्विचार करना ही होगा।

देशबंधु में 18 अक्टूबर 2012 को प्रकाशित 

Thursday, 11 October 2012

रॉबर्ट वाड्रा का तो बहाना है



सवाल बहुत सारे हैं व उनका कोई अंत नहीं है। अन्ना हजारे का आंदोलन क्यों टूटा। अरविंद केजरीवाल ने राजनीतिक दल क्यों बनाया। अन्ना और केजरीवाल के बीच संवाद की क्या स्थिति है। केजरीवाल और भाजपा का क्या संबंध है। क्या वे सचमुच भाजपा की बी टीम हैं। जो अफवाह पिछले साल दो साल से हवा में तैर रही थी उसे आज मुद्दा बनाकर सामने रखने का क्या प्रयोजन है। क्या गुजरात और हिमाचल के चुनावों को ध्यान में रखकर आरोप उछाले गए हैं। भाजपा की अपनी क्या स्थिति है। उसके नेता जो बयान दे रहे हैं क्या उनके पीछे गुजरात का चुनावी हिसाब है। राजनेताओं के बीच चल रहे ऐसे आरोप-प्रत्यारोप देश को कहां ले जाकर खड़ा करेंगे। क्या भ्रष्टाचार ही हमारे राष्ट्रीय जीवन का एकमात्र मुद्दा बच गया है। अगर ऐसा है तो सार्वजनिक जीवन में शुचिता कायम करने के नाम पर हाल-हाल में जो आंदोलन हुए वे क्यों असफल हो गए।

कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए केन्द्रीय सत्ता पर काबिज है। स्वाभाविक है कि जनता उससे सुशासन की अपेक्षा करती है और उसके नेताओं से मर्यादापूर्ण आचरण की। अगर इसमें कोई कमी होती है तो जनता में असंतोष तो होगा ही, सरकार के कर्ता-धर्ताओं पर आरोप भी लगेंगे। जब ऐसा हो तो नेताओं से आरोपों के उत्तर देने की अपेक्षा की जाती है। आरोप गलत भी हो सकते हैं, लेकिन उन्हें झेलना ऊंचे पद पर बैठे लोगों के लिए विवशता है। अभी हम नहीं जानते कि सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा पर लगे आरोपों में कोई सच्चाई है या नहीं, लेकिन इस प्रसंग को समझने की एक कोशिश जरूर की जा सकती है।

अब तक जितनी खबरें मिली हैं उनके अनुसार देश में रीयल एस्टेट के सबसे बड़े कारोबारी डीएलएफ ने राबर्ट वाड्रा को संपत्ति अर्जित करने में अनेक तरह से सहायता की, लेकिन यह कॉलम लिखे जाने तक इस बात का कोई सबूत नहीं मिला है कि इसके एवज में वाड्रा ने भी डीएलएफ को कोई फायदा पहुंचाया हो। अगर यह सच है तो डीएलएफ और वाड्रा के आपसी संबंध क्या हैं? यह जानी-मानी बात है कि अपने-अपने स्वार्थों के चलते बहुत से लोग सत्ताधीशों के करीबी लोगों के साथ संबंध विकसित कर लेते हैं। आज नहीं तो कल, जरूरत पड़ने पर ये संबंध काम आएंगे, ऐसी भावना उनके मन में होती है। संभव है कि डीएलएफ ने भी ऐसा ही किया हो। यहां वाड्रा के बुध्दि-विवेक का प्रश्न उठता है। क्या उन्हें ऐसे लोगों से दूरी बनाकर नहीं रखनी चाहिए थी?

इस बारे में हमारी जितनी जानकारी है उसके मुताबिक कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने बेटे और बेटी दोनों की निजी जिंदगी से एक उचित दूरी बनाकर रखी है। राहुल गांधी को वे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहती हैं, लेकिन राहुल अपनी माँ के साथ याने 10 जनपथ पर नहीं रहते और उनकी राजनीतिक व निजी गतिविधियां स्वतंत्र रूप से संचालित होती हैं। यही स्थिति प्रियंका गांधी और राबर्ट वाड्रा की भी है। ऐसा अभी तक सुनने में नहीं आया कि सोनिया गांधी ने वाड्रा को कोई राजनैतिक या गैर-राजनीतिक दायित्व सौंपा हो। याने पारिवारिक रिश्ते अपनी जगह पर और सार्वजनिक जीवन अपनी जगह पर। 

इस साल फीरोज गांधी की जन्मशती है। कुछेक टीकाकार फीरोज गांधी और राबर्ट वाड्रा के बीच तुलना करने का लोभ संवरण नहीं कर सके। वे याद दिलाते हैं कि हरिदास मूंधड़ा कांड उजागर करने में फीरोज गांधी ने कितनी महती भूमिका निभाई थी। हम नहीं समझते कि तब और अब में और इन दोनों किरदारों के बीच कोई तुलना की जाना चाहिए। फीरोज गांधी स्वाधीनता सेनानी थे और आज़ादी के बाद वे न सिर्फ संसद सदस्य चुने गए, बल्कि नेहरूजी ने उन्हें नेशनल हेराल्ड का जिम्मा भी सौंप रखा था। जबकि राबर्ट वाड्रा आज के उन लाखों नौजवानों से अलग नहीं हैं जो रातोंरात सफलता के शिखर छूना और तो-रफ्तार जिंदगी जीना चाहते हैं। 

वाड्रा की तुलना यदि करना ही है तो देश के दूसरे दामाद याने पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की दत्तक पुत्री के पति रंजन भट्टाचार्य से शायद की जा सकती है जिनका नाम कुछ वर्ष पूर्व इसी तरह चटखारों के साथ लिया जाता था। वाड्रा की तुलना शायद पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के बेटों के साथ भी की जा सकती है। सच तो यह है कि देश में न सिर्फ राजनेता बल्कि आला अफसर, जज, पत्रकार और अन्य उच्च पदों पर बैठे ऐसे कितने ही सम्मानित जन हैं जिनके बेटे-बेटी, बहू और दामाद, भाई और भतीजे या तो राजनीति में आए हैं या फिर देखते ही देखते सफल, सम्पन्न उद्यमी बन गए हैं। इसके क्या कारण हैं, यह राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय विश्लेषण का विषय है।

इस लेख के प्रारंभ में मैंने बहुत से सवाल सामने रखे हैं। यह देखना कठिन नहीं है कि आरोप लगाने के लिए जो वक्त चुना गया है उसके दो अलग-अलग कारण हैं। अरविंद केजरीवाल अपनी राजनीतिक पहचान बनाने के लिए व्यग्र हैं। राबर्ट वाड्रा के बहाने सोनिया गांधी पर हमला करने से उन्हें मीडिया में प्रचार और सस्ती लोकप्रियता मिल सकती है। शायद इसीलिए उन्होंने कानूनी कार्रवाई के बजाय मीडिया ट्रायल का रास्ता चुना। दूसरे गुजरात चुनाव आसन्न हैं। नरेन्द्र मोदी के लिए यह चुनाव जीतना परम आवश्यक है। अगर नहीं जीते तो प्रधानमंत्री बनने का सपना बिखर जाएगा। इसलिए उन्होंने भी पहले राहुल गांधी पर एक भद्दा कटाक्ष किया और फिर सीधे सोनिया गांधी पर एक अनर्गल आरोप मढ़ दिया। वह आरोप झूठा सिध्द हुआ तो नरेन्द्र मोदी ने खुले दिल से माफी मांगने की बजाय मुंह में दही जमा लिया है। इस तरह भाजपा और केजरीवाल दोनों का एजेंडा कहीं न कहीं जाकर एक हो जाता है। सामान्य स्थिति में कांग्रेस को वाड्रा के बचाव में आगे आने की जरूरत नहीं थी, लेकिन सब जानते हैं कि असली निशाने पर तो सोनिया गांधी हैं। जनता इस बात को खूब समझती है। 

हम उल्लेख करना चाहेंगे कि भगवान राम ने अपनी न्यायप्रियता का परिचय देने के लिए भले ही धोबी के कहने से सीता का परित्याग कर दिया था,  लेकिन यह एक ऐसा प्रसंग है जिसके लिए हर युग में जनता ने रामजी को ही दोषी ठहराया। इस आख्यान को भूलकर आज जिसे देखो वही अयोध्या के उस धोबी की भूमिका निभाने आतुर नजर आ रहा है।

 देशबंधु में 11 अक्टूबर 2012 को प्रकाशित 

Thursday, 4 October 2012

क्षेत्रीय दलों की सीमायें





इन  दिनों मीडिया का पूरा ध्यान यूपीए सरकार के आर्थिक निर्णयों पर लगा हुआ है। कोयला घोटाला जो कल तक जलता हुआ अंगारा प्रतीत होता था अब बुझे हुए कोयले की तरह कहीं कोने में डाल दिया गया है। विदेशी मीडिया के लिए डॉ. मनमोहन सिंह एक बार फिर नायक बन गए हैं। उनके साहस, सूझबूझ और निर्णय क्षमता की फिर से तारीफ होने लगी है। देशी चैनलों में अब उद्योगपतियों से साक्षात्कार लिए जा रहे हैं। देश का आर्थिक विकास आने वाले दिनों में कैसे होगा, खुदरा व्यापार में एफडीआई के आने से रोजगार के कितने नए अवसर सृजित होंगे, गांव-गांव तक आधारभूत सुविधाएं कैसे पहुंचेंगी, किसानों को उनकी फसल का बेहतर मूल्य कैसे मिलेगा, उपभोक्ताओं को सस्ता और खरा माल कैसे उपलब्ध होगा आदि तमाम बिन्दुओं पर हम अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। देशी अखबारों में भी एक तरफ सरकार की प्रशंसा हो रही है तो दूसरी तरफ भाजपा की भर्त्सना कि वह देश को आगे बढ़ने से रोकना चाहती है।

इस बीच प्राकृतिक संसाधनों की नीलामी के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने राष्ट्रपति को जो सम्मति दी है उसके कारण कांग्रेस के हौसले और बुलंद हो गए हैं। पी.चिदम्बरम, कपिल सिब्बल, सलमान खुर्शीद आदि मंत्रियों ने सीएजी को नसीहत दी है कि वह सुप्रीम कोर्ट की राय की अनदेखी न करें। मंत्रीगण आने वाले दिनों में आर्थिक सुधार के लिए और भी कड़े कदम उठाने के संकेत देने लगे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री भी अपने विरोधियों से दो-दो हाथ करने के लिए प्रस्तुत नजर आ रहे हैं। यह जो नया माहौल बना है इसमें ऐसे अनेक प्रसंगों और मुद्दों से जनता का ध्यान हट गया प्रतीत होता है जिन पर कुछ दिन पहले शायद जोरदार चर्चा होने की संभावना होती।

मिसाल के लिए अन्ना हजारे की ही बात करें। एक साल में अन्ना कहां से कहां पहुंच गए। एक दिन ऐसा लग रहा था कि वे हुंकार भरेंगे तो सरकार गिर जाएगी। आज वे अरण्यरोदन कर रहे हैं कि सरकार लाख कोशिशों के बावजूद उनकी टीम को नहीं तोड़ पाई, लेकिन टीम के सदस्यों ने ही अपनी महत्वाकांक्षा के चलते आन्दोलन को बिखेर दिया। सामान्य स्थिति में इस बारे में जनचर्चा होना चाहिए कि अन्ना के आन्दोलन से देश ने क्या पाया और क्या खोया। इस पर भी बहस होना चाहिए थी कि उनके सबसे विश्वस्त और सर्वाधिक सक्रिय शिष्य अरविंद केजरीवाल द्वारा आंदोलन को राजनीतिक दल में तब्दील करने व चुनाव लड़ने की मंशा व्यक्त करने में क्या बुध्दिमानी है, लेकिन ऐसा लगता है कि अन्ना और उनके साथी लोकस्मृति से उसी तरह उतर गए हैं जैसे सिनेमा घर में कोई फिल्म उतर जाने के बाद उसके पोस्टर भी उतार दिए जाते हैं।

इस समय प्रदेशों की राजनीति जिस तरह से करवटें बदल रही हैं उसकी भी सटीक विवेचना अभी देखने नहीं मिली है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अभी हाल में प्रदेशव्यापी अधिकार यात्रा निकाली। इस यात्रा के दौरान उन्हें जगह-जगह उग्र विरोध का सामना करना पड़ा। कई जगह पर उन्हें काले झंडे दिखाए गए और जैसी कि खबर है पुलिस ने कोई छह-सात सौ लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है। मुझे याद आता है कि अभी चार माह पूर्व रणबीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर सिंह की हत्या के बाद बिहार में जगह-जगह उपद्रव हुए थे। यह स्थिति हैरान करने वाली है। ऐसा सामान्य तौर पर माना जाता है कि नीतीश कुमार ने अपने पहले कार्यकाल में प्रदेश में सुशासन देने के लिए माकूल कदम उठाए थे जिसका पुरस्कार उन्हें दुबारा विजय के रूप में मिला। मीडिया में उन्हें एक लोकप्रिय नेता के रूप में चित्रित किया जाता है, फिर ऐसा क्या हुआ कि उनके खिलाफ लोग सडक़ों पर आ गए। क्या इसके पीछे जदयू की आपसी गुटबाजी है या फिर भाजपा और जदयू के बीच दरार आ गई है या कहीं ऐसा तो नहीं है कि नीतीश विरोधी आंदोलन खड़ाकर उनके प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न भंग किया जा रहा हो।

यह भी विचारणीय है कि यूपीए से तृणमूल के अलग हो जाने के बाद पश्चिम बंगाल की राजनीति में क्या परिवर्तन आते हैं। विगत एक वर्ष के दौरान प्रदेश की जनता ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के उग्र तेवरों और हठीलेपन को खूब देखा है। ममता बनर्जी अपनी जरा सी भी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पातीं; यह बात उन सबको नागवार गुजर रही है जो कल तक सीपीआईएम विरोध के चलते उनके पक्ष में खड़े थे। महाश्वेता देवी ने तो अपनी अप्रसन्नता खुलकर जाहिर की है। अब यह सवाल उठाया जा रहा है कि कहीं पश्चिम बंगाल को केन्द्र से मिलने वाली मदद में कटौती तो नहीं होगी। शायद इसीलिए ममता बनर्जी अब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का सहारा लेने की इच्छुक दिखती हैं। श्री मुखर्जी द्वारा रिक्त सीट पर उनके बेटे के खिलाफ तृणमूल का कोई उम्मीदवार न खड़ा कर मुख्यमंत्री अपनी स्थिति सुधारने में लगी हैं, ऐसा मानना गलत नहीं होगा।

इधर महाराष्ट्र एक बार फिर चर्चा में है। किसी समय देश के सर्वश्रेष्ठ रायों में से एक महाराष्ट्र पिछले कुछ सालों से एक के बाद एक घोटालों के कारण चर्चा में है। प्रदेश की सिंचाई परियोजनाओं में हुए कथित घोटालों में तो उपमुख्यमंत्री की ही बलि ले ली है। शरद पवार के भतीजे व मराठा लॉबी के सशक्त नेता अजित पवार को अपना पद छोड़ना पड़ा है। ऐसी चर्चाएं हैं कि शरद पवार अपना उत्तराधिकार अपनी बेटी सुप्रिया सुले को सौंपना चाहते हैं, जिसके कारण काका-भतीजे में भीतर ही भीतर अनकही लड़ाई चल रही थी जिसकी परिणति पवार जूनियर के इस्तीफे से हुई है। यह स्थिति हमें तमिलनाडु की याद दिलाती है। करुणानिधि के सामने विकट समस्या है कि अपनी तीन संतानों में से वे किसे युवराज या युवराज्ञी बनाएं।

ये तमाम प्रसंग प्रकारान्तर से क्षेत्रीय दलों की सीमाओं को प्रकट करते हैं। यह स्पष्ट होता है कि इन दलों के राजनीतिक हित सीमित और संकीर्ण हैं। ये अपनी शक्ति प्रादेशिक और क्षेत्रीय भावनाओं के उभार से पाते हैं और इनका समूचा तंत्र उस एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसे स्वयं को सुप्रीमो कहे जाने में आनंद प्राप्त होता है और इनमें उस राजनैतिक प्रतिभा का अभाव है जो राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को समझने व उनमें हस्तक्षेप करने में कारगर हो सकेंगे।मैंने ऊपर सिर्फ तीन प्रांतों के उदाहरण दिए हैं, लेकिन अन्य प्रांतों में भी स्थिति बहुत अलग नहीं है। भारतीय जनता पार्टी जो स्वयं को कांग्रेस का विकल्प मानती है, में भी एक व्यापक सोच का अभाव परिलक्षित हो रहा है। देश की भावी राजनीति निर्धारित करने के लिए यह आवश्यक है कि छुटपुट घटनाओं पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाय बुनियादी प्रश्नों पर विचार किया जाए। खोखले भाषणों और कोरी नारेबाजी से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।

देशबंधु में 4 अक्टूबर 2012 को प्रकाशित