Sunday, 28 October 2012

यात्रा वृत्तांत: पांडिचेरी नहीं, पुडुचेरी



पुडुचेरी का समुद्र तट पथरीला है, याने वहां बैठकर आप रेत के घरौंदे नहीं बना सकते। प्रकृति की यह लीला अद्भुत है कि मात्र डेढ़ सौ किलोमीटर ऊपर चेन्नई का मीलों तक फैला मैरीना बीच पूरी तरह से रेतीला है।  

भारत में ऐसे अनेक स्थान हैं जिनके नाम विदेशी शासन के दौरान इसलिए बिगड़ गए क्योंकि अंग्रेज और फ्रांसीसी उनका सही उच्चारण नहीं कर पाते थे। स्वतंत्र भारत में इनके मूल नाम पुर्नस्थापित करने का काम किया गया। त्रिचि अब वापिस तिरुचिरापल्ली है और त्रिवेन्द्रम तिरुअनंतपुरम। अनेक शहरों के अंग्रेजी हिज्जे  भी सुधारे गए हैं। इसके साथ-साथ जातीय अभिमान उमड़ा तो बहुत से नामों को स्थानीय भाषाओं में ढाल दिया गया। इसमें यह भी हुआ कि विदेशियों द्वारा दिए गए मूल नाम भी स्थानीकृत हो गए। कुल मिलाकर नतीजा यह हुआ कि अनेक प्रसिध्द स्थानों को स्थानीय पहचान मिल गई। इसी प्रक्रिया में जिसे हम कल तक पांडिचेरी कहते थे वह अब तमिल भाषा के अनुकूल पुडुचेरी कहलाने लगा है।

यूं तो भारत पर अंग्रेजों ने एक सौ नब्बे साल राज किया, लेकिन यूरोप के कुछ अन्य देश यथा पुर्तगाल, हालैण्ड और फ्रांस ने भी भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी सामरिक और सामुद्रिक शक्ति के बल पर भारत में अपने छोटे-छोटे उपनिवेश स्थापित किए। यह तो इंग्लैण्ड से लड़ाई में फ्रांस हार गया अन्यथा भारत ब्रिटिश राज के बदले फ्रांसीसी राज का हिस्सा बनता! बहरहाल फ्रांसीसी राज के अवशेष अब पांडिचेरी याने पुडुचेरी और उसकी दो अन्य बसाहटों यनम (आंध्र में काकीनाडा के निकट) और माहे (केरल में कोचिन के निकट) तक सीमित हैं। इन तीनों से मिलकर पुडुचेरी का केन्द्रशासित प्रदेश बनता है।  यद्यपि यनम और माहे दोनों का दैनंदिन प्रशासन समीपवर्ती जिला मुख्यालय से देखा जाता है।

हम भारतीयों के हृदय में पुडुचेरी के लिए विशेष स्थान है। यह इसलिए कि अपने समय के प्रखर क्रांतिकारी और साहित्यकार अरविन्द घोष ने ब्रिटिश राज से बचने के लिए पुडुचेरी में ही राजनीतिक शरण ली थी। यहीं आकर क्रांतिकारी अरविन्द का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर हुआ और वे कालांतर में महर्षि अरविन्द के नाम से प्रतिष्ठित हुए। श्री अरविन्द के आध्यात्म दर्शन के जो बौध्दिक शिखर हैं उन तक पहुंचना सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं है, लेकिन भारत की धर्मपरायण जनता देश की स्वाधीनता व भारत की चिंतन परम्परा में उनके अनुपम योगदान को स्वीकार करती है और इसीलिए वे जनता के श्रध्दापात्र हैं।

पुडुचेरी में समुद्रतट से कोई सौ मीटर की दूरी पर रयू डी ला मैरीन नामक सड़क पर वह भवन है जिसमें अरविन्द ने अपने जीवन का उत्तरार्ध्द बिताया, उसी को आज अरविन्द आश्रम के नाम से जाना जाता है।अरविन्द आश्रम आजकल के महात्माओं के भव्य आश्रमों से बिलकुल अलग है। जो आश्रम के नाम हरिद्वार और अन्यत्र विकसित, विशाल भवनों की कल्पना करते हैं उन्हें अरविन्द आश्रम पहुंचकर शायद निराशा ही होगी। वह एक बड़े बंगले जैसा दुमंजिला भवन है, जिसमें प्रवेश करने के लिए कोई सिंहद्वार नहीं बल्कि एक साधारण दरवाजा है। इसी परिसर में एक वृक्ष के नीचे श्री अरविन्द की समाधि है। यहां पूरे समय मौन धारण करना पड़ता है, बात करने की बिलकुल मनाही है। एक जगह अंग्रेजी में लिखा हुआ है- '' जब तुम्हारे पास बात करने के लिए कोई मुद्दा न हो तब चुप रहना ही उचित होता है।'' महर्षि की समाधि में एक सादगी है, यद्यपि स्फटिक शिला के ऊपर आश्रमवासी सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रतिदिन पुष्प सज्जा करते हैं। बहुत से श्रध्दालु समाधि पर माथा टेककर बैठते हैं, लेकिन उनके लिए भी निर्देश है कि ''वहां ज्यादा न बैठें।''

पुडुचेरी के साथ भारतीय प्रज्ञा के दो और बड़े नाम जुड़े हैं। एक तमिल महाकवि भारतीदासन और दूसरे स्वाधीनता सेनानी, नवजागरण के नायक महाकवि सुब्रमण्य भारती। हमारी इच्छा सुब्रमण्य भारती का निवास देखने की थी। पुराने शहर के बीच में ईश्वरन् सेल्वी स्ट्रीट पर उनका छोटा सा घर है, जिसे महाकवि भारती अनुसंधान केन्द्र एवं संग्रहालय का स्वरूप दे दिया गया है। इस भवन का संरक्षण भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के पुडुचेरी अध्याय ने किया था, लेकिन जर्जर घर एक बार फिर मरम्मत के लिए बंद है। हमारे संतोष के लिए यह काफी था कि हम अपनी श्रध्दांजलि निवेदित करने के लिए महाकवि के घर तक पहुंच पाए। दिलचस्प बात तो तब हुई जब हमारे ऑटो रिक्शा वाले ने उलाहना दिया कि आप सुब्रमण्य भारती का घर क्यों कह रहे थे। आपको सीधे कहना था कि महाकवि के घर जाना है।

मैं 1988 में पांडिचेरी आया था, लेकिन नाम बदलने के बाद पुडुचेरी की मेरी यह पहली यात्रा थी। अब इस बात को कहने का कोई मतलब नहीं है कि शहर पूरी तरह बदल गया है। सड़कों पर पहले के मुकाबले कई गुना यादा रेलमपेल है। वाहनों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जिसके चलते प्रदूषण बढ़ना भी स्वाभाविक है। फ्रांसीसी स्थापत्य में बने पुराने घर एक के बाद एक कर टूट रहे हैं, उनकी जगह नई भव्य इमारतें खड़ी हो रही हैं। पुरानी सड़कों के नाम भी बदल गए हैं। अब वहां कामराज सलाई है, अन्ना सलाई है और है राजीव गांधी के नाम पर बना विशाल औरतों और बच्चों का अस्पताल। 

पुडुचेरी की सड़कों पर घूमते हुए इस बात पर ध्यान जाए बिना नहीं रहता कि यहां कदम-कदम पर शराब की दुकानें हैं। मुझे लगता है कि पूरे देश में मदिरालयों की प्रति वर्ग किलोमीटर सघनता में यह नन्हा प्रदेश शायद अव्वल नम्बर पर होगा। शायद इसीलिए बस स्टैण्ड पर तथा फुटपाथ पर मदहोश पड़े शराबियों की ओर कोई ध्यान नहीं देता।

नगर में अब एक से बढ़कर एक आलीशान होटल खुल गए हैं। लेकिन हम एक मझोले दर्जे के होटल में ठहरे थे। जयराम होटल के मालिक श्री लक्ष्मीनारायण हैं। मैंने देखा कि सुबह-शाम वे रेस्तरां में आकर ग्राहकों के साथ बैठकर बातचीत करते हैं और कभी उनके साथ ही वहां अपना भोजन भी कर लेते हैं। इससे निश्चित ही भोजन की गुणवत्ता बनी रहती है, और स्टाफ भी मुस्तैद रहता है। मैं सैकड़ों होटलों में ठहरा होऊंगा और वहां खाना भी खाया होगा, लेकिन होटल का मालिक इस तरह ग्राहकों की फिक्र करे, यह पहली बार देखा। रेस्तरां से लगी हुई रसोई में भी जो साफ-सफाई देखने में आई वह पांच सितारा होटलों में भी कभी-कभी दुर्लभ होती है।  बस एक ही बात समझ में नहीं आई कि पीने का पानी प्लास्टिक के गिलास में क्यों देते हैं।

हमारा होटल भले ही साफ-सुथरा था, लेकिन चेन्नई और पुडुचेरी दोनों जगह सार्वजनिक स्थानों पर उस साफ-सफाई का अभाव मैंने देखा जिसके लिए साधारणत: दक्षिण भारत की प्रशंसा होती है। चेन्नई और पुडुचेरी के बीच लगातार बसें चलती हैं और समय पर चलती हैं। लेकिन बस के भीतर सफाई पर कोई ध्यान नहीं। शायद इसलिए कि बस आकर रुकी नहीं कि यात्री चढ़ने के लिए बेताब हो उठते हैं। नतीजा गाड़ी के भीतर प्लास्टिक की खाली बोतलें और चिप्स के पैकेट। दोनों नगरों के बस स्टैण्ड नए हैं, लेकिन उनके रखरखाव की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। और तो और चेन्नई के कामराज अन्तरराष्ट्रीय विमानतल के रिटायरिंग रूम की हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी।

मैं अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता सम्मेलन के राष्ट्रीय अधिवेशन में भाग लेने के लिए पुडुचेरी गया था। चेन्नई से पुडुचेरी की यात्रा के लिए बस ही सर्वोत्तम विकल्प है। टैक्सी किराया साढ़े तीन हजार रुपए, जबकि एसी वोल्वो बस का किराया मात्र एक सौ नब्बे रुपया, इसमें बस स्टैण्ड तक आने-जाने के लिए ऑटो का किराया और जोड़ लें। लौटते वक्त मैं चेन्नई में एयरपोर्ट के रास्ते पर गिंडी नामक जगह पर उतर गया। वहां खडे ऑटो वाले ने मेरी शक्ल देखकर साफ हिन्दी में कहा, ''एयरपोर्ट के दो सौ रुपए।'' उसकी अनसुनी कर मैं आगे बढ़ लिया। एक दूसरा ऑटो रुका। इस ड्रायवर ने भी साफ हिन्दी में कहा, ''सौ रुपया''। मैं ऑटो पर सवार हो गया। चालक से पूछा- ''तुमने हिन्दी में बात की।'' उसका जवाब था- ''आपका चेहरा देखकर समझ में आ गया कि आप हिन्दी वाले हैं।'' भाषा और रोजगार के बीच कितना गहरा संबंध है, इस वाकये से जान लीजिए।


देशबंधु में 28 अक्टूबर 2012 को प्रकाशित 

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