सवाल बहुत सारे हैं व उनका कोई अंत नहीं है। अन्ना हजारे का आंदोलन क्यों टूटा। अरविंद केजरीवाल ने राजनीतिक दल क्यों बनाया। अन्ना और केजरीवाल के बीच संवाद की क्या स्थिति है। केजरीवाल और भाजपा का क्या संबंध है। क्या वे सचमुच भाजपा की बी टीम हैं। जो अफवाह पिछले साल दो साल से हवा में तैर रही थी उसे आज मुद्दा बनाकर सामने रखने का क्या प्रयोजन है। क्या गुजरात और हिमाचल के चुनावों को ध्यान में रखकर आरोप उछाले गए हैं। भाजपा की अपनी क्या स्थिति है। उसके नेता जो बयान दे रहे हैं क्या उनके पीछे गुजरात का चुनावी हिसाब है। राजनेताओं के बीच चल रहे ऐसे आरोप-प्रत्यारोप देश को कहां ले जाकर खड़ा करेंगे। क्या भ्रष्टाचार ही हमारे राष्ट्रीय जीवन का एकमात्र मुद्दा बच गया है। अगर ऐसा है तो सार्वजनिक जीवन में शुचिता कायम करने के नाम पर हाल-हाल में जो आंदोलन हुए वे क्यों असफल हो गए।
कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए केन्द्रीय सत्ता पर काबिज है। स्वाभाविक है कि जनता उससे सुशासन की अपेक्षा करती है और उसके नेताओं से मर्यादापूर्ण आचरण की। अगर इसमें कोई कमी होती है तो जनता में असंतोष तो होगा ही, सरकार के कर्ता-धर्ताओं पर आरोप भी लगेंगे। जब ऐसा हो तो नेताओं से आरोपों के उत्तर देने की अपेक्षा की जाती है। आरोप गलत भी हो सकते हैं, लेकिन उन्हें झेलना ऊंचे पद पर बैठे लोगों के लिए विवशता है। अभी हम नहीं जानते कि सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा पर लगे आरोपों में कोई सच्चाई है या नहीं, लेकिन इस प्रसंग को समझने की एक कोशिश जरूर की जा सकती है।
अब तक जितनी खबरें मिली हैं उनके अनुसार देश में रीयल एस्टेट के सबसे बड़े कारोबारी डीएलएफ ने राबर्ट वाड्रा को संपत्ति अर्जित करने में अनेक तरह से सहायता की, लेकिन यह कॉलम लिखे जाने तक इस बात का कोई सबूत नहीं मिला है कि इसके एवज में वाड्रा ने भी डीएलएफ को कोई फायदा पहुंचाया हो। अगर यह सच है तो डीएलएफ और वाड्रा के आपसी संबंध क्या हैं? यह जानी-मानी बात है कि अपने-अपने स्वार्थों के चलते बहुत से लोग सत्ताधीशों के करीबी लोगों के साथ संबंध विकसित कर लेते हैं। आज नहीं तो कल, जरूरत पड़ने पर ये संबंध काम आएंगे, ऐसी भावना उनके मन में होती है। संभव है कि डीएलएफ ने भी ऐसा ही किया हो। यहां वाड्रा के बुध्दि-विवेक का प्रश्न उठता है। क्या उन्हें ऐसे लोगों से दूरी बनाकर नहीं रखनी चाहिए थी?
इस बारे में हमारी जितनी जानकारी है उसके मुताबिक कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने बेटे और बेटी दोनों की निजी जिंदगी से एक उचित दूरी बनाकर रखी है। राहुल गांधी को वे अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहती हैं, लेकिन राहुल अपनी माँ के साथ याने 10 जनपथ पर नहीं रहते और उनकी राजनीतिक व निजी गतिविधियां स्वतंत्र रूप से संचालित होती हैं। यही स्थिति प्रियंका गांधी और राबर्ट वाड्रा की भी है। ऐसा अभी तक सुनने में नहीं आया कि सोनिया गांधी ने वाड्रा को कोई राजनैतिक या गैर-राजनीतिक दायित्व सौंपा हो। याने पारिवारिक रिश्ते अपनी जगह पर और सार्वजनिक जीवन अपनी जगह पर।
इस साल फीरोज गांधी की जन्मशती है। कुछेक टीकाकार फीरोज गांधी और राबर्ट वाड्रा के बीच तुलना करने का लोभ संवरण नहीं कर सके। वे याद दिलाते हैं कि हरिदास मूंधड़ा कांड उजागर करने में फीरोज गांधी ने कितनी महती भूमिका निभाई थी। हम नहीं समझते कि तब और अब में और इन दोनों किरदारों के बीच कोई तुलना की जाना चाहिए। फीरोज गांधी स्वाधीनता सेनानी थे और आज़ादी के बाद वे न सिर्फ संसद सदस्य चुने गए, बल्कि नेहरूजी ने उन्हें नेशनल हेराल्ड का जिम्मा भी सौंप रखा था। जबकि राबर्ट वाड्रा आज के उन लाखों नौजवानों से अलग नहीं हैं जो रातोंरात सफलता के शिखर छूना और तो-रफ्तार जिंदगी जीना चाहते हैं।
वाड्रा की तुलना यदि करना ही है तो देश के दूसरे दामाद याने पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की दत्तक पुत्री के पति रंजन भट्टाचार्य से शायद की जा सकती है जिनका नाम कुछ वर्ष पूर्व इसी तरह चटखारों के साथ लिया जाता था। वाड्रा की तुलना शायद पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के बेटों के साथ भी की जा सकती है। सच तो यह है कि देश में न सिर्फ राजनेता बल्कि आला अफसर, जज, पत्रकार और अन्य उच्च पदों पर बैठे ऐसे कितने ही सम्मानित जन हैं जिनके बेटे-बेटी, बहू और दामाद, भाई और भतीजे या तो राजनीति में आए हैं या फिर देखते ही देखते सफल, सम्पन्न उद्यमी बन गए हैं। इसके क्या कारण हैं, यह राजनैतिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय विश्लेषण का विषय है।
इस लेख के प्रारंभ में मैंने बहुत से सवाल सामने रखे हैं। यह देखना कठिन नहीं है कि आरोप लगाने के लिए जो वक्त चुना गया है उसके दो अलग-अलग कारण हैं। अरविंद केजरीवाल अपनी राजनीतिक पहचान बनाने के लिए व्यग्र हैं। राबर्ट वाड्रा के बहाने सोनिया गांधी पर हमला करने से उन्हें मीडिया में प्रचार और सस्ती लोकप्रियता मिल सकती है। शायद इसीलिए उन्होंने कानूनी कार्रवाई के बजाय मीडिया ट्रायल का रास्ता चुना। दूसरे गुजरात चुनाव आसन्न हैं। नरेन्द्र मोदी के लिए यह चुनाव जीतना परम आवश्यक है। अगर नहीं जीते तो प्रधानमंत्री बनने का सपना बिखर जाएगा। इसलिए उन्होंने भी पहले राहुल गांधी पर एक भद्दा कटाक्ष किया और फिर सीधे सोनिया गांधी पर एक अनर्गल आरोप मढ़ दिया। वह आरोप झूठा सिध्द हुआ तो नरेन्द्र मोदी ने खुले दिल से माफी मांगने की बजाय मुंह में दही जमा लिया है। इस तरह भाजपा और केजरीवाल दोनों का एजेंडा कहीं न कहीं जाकर एक हो जाता है। सामान्य स्थिति में कांग्रेस को वाड्रा के बचाव में आगे आने की जरूरत नहीं थी, लेकिन सब जानते हैं कि असली निशाने पर तो सोनिया गांधी हैं। जनता इस बात को खूब समझती है।
हम उल्लेख करना चाहेंगे कि भगवान राम ने अपनी न्यायप्रियता का परिचय देने के लिए भले ही धोबी के कहने से सीता का परित्याग कर दिया था, लेकिन यह एक ऐसा प्रसंग है जिसके लिए हर युग में जनता ने रामजी को ही दोषी ठहराया। इस आख्यान को भूलकर आज जिसे देखो वही अयोध्या के उस धोबी की भूमिका निभाने आतुर नजर आ रहा है।
यहाँ एक अच्छा सवाल उभरा है....''क्या भ्रष्टाचार ही हमारे राष्ट्रीय जीवन का एकमात्र मुद्दा बच गया है। अगर ऐसा है तो सार्वजनिक जीवन में शुचिता कायम करने के नाम पर हाल-हाल में जो आंदोलन हुए वे क्यों असफल हो गए?......विचारणीय।
ReplyDelete