Wednesday 17 October 2012

खुर्शीद, खेमका, वाड्रा, मीडिया




मेरे एक मित्र का कहना है कि उन्होंने अब टीवी पर समाचार देखना बंद कर दिया है। वे कहते हैं कि तुम पत्रकार हो, समाचार सुनना तुम्हारी मजबूरी हो सकती है लेकिन मैं क्यों अपना समय और दिमाग व्यर्थ की बातों में बर्बाद करूं।  एक और मित्र झल्लाकर कहते हैं कि वे फिज़ूल की बहसों से ऊबकर अब सन्यास ले लेना चाहते हैं। सचमुच, सुबह-शाम अखबार देखो या टीवी पर समाचार सुनो, ऐसा लगता है मानो भ्रष्टाचार के सिवाय अब इस देश में कोई और मुद्दा बचा ही नहीं है। गोया हमने अपनी बाकी तमाम समस्याओं के समाधान खोज निकाले हैं! यह सच है और उचित भी कि सार्वजनिक जीवन में  शुचिता एक  जरूरी और महत्वपूर्ण मुद्दा है, लेकिन बाकी तमाम जरूरी सवालात की अनदेखी करने में कौन सी समझदारी है? जो लोग सिर्फ इसी एक काम में जुटे हुए हैं, उनका मकसद आखिरकार क्या है? वे देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं?  और क्या वे सचमुच नहीं जानते कि एक संकीर्ण बिंदु पर चलाये जा रहे आन्दोलन से क्या नफा-नुकसान हो सकता है? इस परिदृश्य में मीडिया की क्या भूमिका है, इस पर भी गौर किये जाने की आवश्यकता है।

सलमान खुर्शीद का मामला ही लें। मेरा मानना है कि देश के कानून मंत्री जैसे बड़े व महत्वपूर्ण  पद पर रहते हुए उन्हें सार्वजनिक जीवन में अन्य कोई  जिम्मेदारी  लेने से बचना चाहिए था। क्या जरूरी था कि वे जाकिर साहब के नाम पर बने ट्रस्ट के अध्यक्ष बनते? इस जगह पर वे अपने किसी विश्वस्त को बैठा सकते थे। लेकिन इस मोहग्रस्तता के वे अकेले उदाहरण नहीं हैं। सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष रहते हुए शान्ति निकेतन-श्रीनिकेतन विकास न्यास के अध्यक्ष बने रहे और प्रणब मुखर्जी ने सरकार में तारनहार मंत्री रहते हुए भी कितने ही छोटे-मोटे अन्य दायित्व किसी अन्य को नहीं सौंपे। इसी तरह अनेक अन्य मंत्री- मुख्यमंत्री क्रिकेट संघ और ओलिंपिक संघ आदि की अध्यक्षता का मोह नहीं छोड़ पाते। आश्चर्य है कि इसका जो नैतिक पहलू है उस पर किसी सुधारक ने आज तक एक शब्द नहीं कहा। बहरहाल, यह तो मानना होगा कि अपनी भाषा व भावों पर संयम न रख पाने के बावजूद श्री खुर्शीद ने विदेश यात्रा से लौटने के कुछ ही घंटों के बाद पत्रवार्ता कर न सिर्फ अपना पक्ष रखा, बल्कि स्वयं होकर जांच करने की मांग भी रख दी। उन्होंने तो एक मीडिया समूह के खिलाफ केस भी दाखिल कर दिया है। इसके बाद क्या अब हमें कानूनी प्रक्रिया के जरिए सच्चाई सामने आने की प्रतीक्षा नहीं करना चाहिए? 

अनेक टीकाकार कानूनी प्रक्रिया की प्रभावशीलता को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। वे तर्क देते हैं कि कानून के रास्ते चलें तो सच्चाई सामने आने में दस-बीस साल लग सकते हैं और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि दोषी को अंतत: सजा मिल पाएगी या नहीं। यह तर्क अपनी जगह पर सही है, लेकिन अगर कोई अपराध हुआ है या अपराध का आरोप है तो आखिरकार उसकी जांच कानून के दायरे के भीतर ही हो सकती है। जनता की अदालत में फैसला करने की बात अक्सर आकर्षित करती है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसा करने में तथ्यों की अनदेखी कर भावावेश के चलते गलत फैसले लिए जा सकते हैं। आश्चर्य तब होता है जब टीवी चर्चाओं में बैठने वाले कानून के बड़े-बड़े जानकार भी निर्धारित प्रक्रिया के बजाय जनभावना के अनुरूप आनन-फानन में फैसला सुना देना चाहते हैं। क्या ऐसा करने के पीछे उनका अपना कोई गोपन एजेंडा है?

इधर हरियाणा के अधिकारी अशोक खेमका के तबादले ने एक बार फिर कांग्रेस विरोधियों की तोपों का मुंह सलमान खुर्शीद से हटाकर राबर्ट वाड्रा की ओर कर दिया है। वाड्रा से हमारी कोई सहानुभूति नहीं है। उनके बारे में अपनी राय मैं 11 अक्टूबर के कॉलम 'रॉबर्ट वाड्रा का तो बहाना है' में व्यक्त कर चुका हूं, किंतु श्री खेमका के तबादले की सच्चाई क्या है? वे एक चैनल पर प्रदेश सरकार के फैसले की तारीफ कर रहे थे तो दूसरे पर अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर चिंतित नजर आ रहे थे, तीसरे चैनल पर उनके वकील उन्हें मिली हत्या की धमकी का मुद्दा उठा रहे थे, तो चौथे चैनल पर वे रोने-रोने को हो गए थे। सारे चैनल उनकी बहादुरी की तारीफ कर रहे थे। उन्हें आश्वस्त कर रहे थे कि देश उनके साथ है परन्तु किसी ने भी यह नहीं कहा कि श्री खेमका को तत्काल कडी सुरक्षा उपलब्ध कराई जाए और टेलीफोन पर मिल रही धमकियों की अविलंब जांच की जाए।

श्री खेमका के मुताबिक बीस साल में उनके चालीस बार तबादले हो चुके हैं। इसका अर्थ यह है कि सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या गैर-कांग्रेसी, उनकी पटरी अपने आला-अफसरों अथवा मंत्रियों के साथ कभी नहीं बैठी। इतने वर्षों की सेवा के आधार पर वे सचिव पद के अधिकारी हैं, लेकिन उन्हें वर्तमान सरकार ने विशेष जिलाधीश जैसा नया पद सृजित कर उस पर बैठा दिया था। याने वाड्रा प्रकरण के पहले से ही सरकार उनसे नाखुश चली आ रही थी। फिर उन्होंने किसी मामले में फैसला नहीं लिया, इस पर हाईकोर्ट ने उन्हें अवमानना का आरोपी माना, अपनी सफाई में उन्होंने कहा कि उन्हें मंजूर नहीं कि उनके लिए फैसले की अपील कनिष्ठ अधिकारी करें; इस तर्क को उचित मानते हुए हाईकोर्ट ने उनका तबादला करने का आदेश दिया। अब सवाल उठता है कि जब वे तबादले की प्रतीक्षा में थे, तब एक विवादग्रस्त मामले में उन्हें फैसला क्यों लेना चाहिए था। यही नहीं, तबादला आदेश मिल जाने के बाद भी उन्हें एक और नई जांच का आदेश क्यों  देना चाहिए था। क्या यह बेहतर नहीं होता कि हाईकोर्ट के अनुकूल निर्णय के बाद वे हफ्ते दस दिन की छुट्टी पर चले जाते और वे अपनी वरिष्ठता के आधार पर नई पदस्थापना की प्रतीक्षा करते! सब जानते हैं कि सरकार अधिकारियों के तबादले अपनी खुशी-नाखुशी से करती है। उसमें न हरियाणा अपवाद है, न मुख्यमंत्री हुड्डा, न अधिकारी खेमका। इस पृष्ठभूमि में पाठक तय कर सकते हैं कि श्री खेमका ने साहस का परिचय दिया या सुविचारित किंतु अनावश्यक दुस्साहस का।

इस बीच लोकसभा के दो उपचुनाव सम्पन्न हो गए। इन दोनों सीटों पर कांग्रेस की ओर से पुरखों के पुण्य प्रताप पर भरोसा करने वाले उम्मीदवार थे। एक बमुश्किल तमाम जीते और दूसरे बुरी तरह हारे। इसमें उत्तराखंड का मामला कुछ विचित्र है। वहां विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ले देकर जीत हुई, लेकिन मुख्यमंत्री तय करने की बात हुई तो हरीश रावत की स्वाभाविक प्रबल दावेदारी को दरकिनार कर विजय बहुगुणा को पद सौंप दिया गया। इतने पर भी बात रुक जाती तो गनीमत थी। उनके बेटे को लोकसभा का टिकट देने में कौन सी समझदारी थी? बहुगुणा परिवार ने कांग्रेस की बहुत सेवा की होगी, लेकिन क्या हाईकमान को यह याद नहीं कि विजय और रीता बहुगुणा के पिता हेमवतीनंदन बहुगुणा ने इंदिरा गांधी का साथ छोड़ दिया था! इसी तरह राष्ट्रपति के बेटे अभिजीत मुखर्जी यदि लोकसभा का मोह छोड़ विधानसभा में बने रहते तो मुट्ठी खुलने की नौबत नहीं आती।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अरविंद केजरीवाल का नया खुलासा सामने नहीं आया है। सुनते हैं कि वह नितिन गडकरी के बारे में होगा। इसके पूर्व श्री केजरीवाल ने दिल्ली में अपना अनशन समाप्त कर फरुर्खाबाद कूच करने का ऐलान कर दिया है। यह समझना मुश्किल हो रहा है कि उनका लक्ष्य अंतत: क्या है। जो भी हो, इस सारे माहौल में मीडिया की जो भूमिका है वह लगातार प्रश्नों के घेरे में आ रही है। कल तक मीडिया अपने आपको संसद के विकल्प के रूप में पेश कर रहा था, अब लगता है कि उसने अपने ऊपर न्यायालय का रोल भी ले लिया है। यह व्यस्त स्वार्थों और पूंजीप्रेरित उद्दण्डता भारतीय जनतंत्र के लिए एक नई चुनौती है, जिस पर आज नहीं तो कल प्रबुध्द समाज को पुनर्विचार करना ही होगा।

देशबंधु में 18 अक्टूबर 2012 को प्रकाशित 

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