जैसा कि हम जानते हैं 1949 में चीन में माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट शासन स्थापित हुआ, लेकिन इसके पहले के कुछ दशकों में भी देश राजनीतिक अस्थिरता भोगने के लिए बाध्य रहा। चीन के प्रमुख व्यवसायिक नगर शंघाई को विभिन्न विदेशी ताकतों ने अपने-अपने हिस्से में बांट लिया था। एक हिस्से में अंग्रेज, दूसरे में अमेरिकन, तीसरे में जापानी आदि। उन्नीसवीं सदी के अंत में जापान ने चीन पर आक्रमण कर एक तरह से उसे कुछ समय के लिए अपने अधीनस्थ कर लिया था। 1931-32 में चीन की राजनैतिक अस्थिरता को देखते हुए साम्राज्यवादी जापान ने एक बार फिर चीन पर कब्जा करने का मंसूबा बनाया। सन यात-सेन की मृत्यु हो चुकी थी व देश में अमेरिकापरस्त राष्ट्रवादी च्यांग काई शेक और माओ के नेतृत्व में उभरती साम्यवादी ताकत के बीच घमासान चल रहा था।
इस परिस्थिति का लाभ उठाते हुए जापान ने शंघाई के आगे अपने पैर फैलाना शुरू किया और फिर आया 13 दिसम्बर 1937 का काला दिन। देश की तत्कालीन राजधानी दक्षिण में अवस्थित नानजिंग पर जापान की साम्राज्यवादी फौज ने उस रोज भयानक हमला किया और करीब-करीब दो महीने तक भीषण लड़ाई चलती रही। इस लड़ाई में चीन के तीन लाख से ज्यादा निर्दोष नागरिक मार डाले गए। इनमें बड़े, बूढ़े, औरत, बच्चे किसी को भी नहीं बख्शा गया। औरतों के साथ बलात्कार की भी अनगिन वारदातें हुर्इं। जापानी सैनिकों में इस बात की होड़ लग रही थी कि कौन कितने यादा लोगों को मार सकता है। इसके लिए घरों में घुस-घुसकर लोगों को मारा गया। किसी को सोते में मार डाला गया, तो किसी औरत को खाना बनाते हुए, तो किसी बच्चे को पढ़ाई करते हुए।
यह विश्व के सामरिक इतिहास की इतनी बड़ी त्रासद कथा है, जिसकी मिसाल ढूंढ पाना मुश्किल है। सामान्य तौर पर लड़ाई सेनाओं के बीच होती है और सैनिक ही युध्दबंदी बनाए जाते हैं। पराजित सैनिक को मारा नहीं जाता, लेकिन यहां तो निर्दोष आबादी को ही मार डालने का पैशाचिक खेल चल रहा था। अगर छोटे पैमाने पर भारत में इसकी कोई मिसाल देखना हो तो नादिरशाह द्वारा दिल्ली में किए गए कत्लेआम या जनरल डायर द्वारा 1919 में बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग में किए गए नरसंहार में देखी जा सकती है। इस साल नानजिंग नरसंहार की 75वीं बरसी थी, जिसके लिए नानजिंग नरसंहार स्मृति एवं संग्रहालय के निमंत्रण पर विश्व शांति परिषद ने अपना एक प्रतिनिधि मंडल नानजिंग भेजा था। विश्व शांति परिषद के इस पांच सदस्यीय दल में मैं अखिल भारतीय शांति एकता परिषद के उपाध्यक्ष के रूप में शामिल था। अन्य साथी थे पुर्तगाल के शांति संगठन की अध्यक्ष एवं योरोपियन संसद की पूर्व सदस्य इल्डा, ग्रीक शांति संगठन के अध्यक्ष प्रोफेसर स्टॉवरोस, नेपाल शांति संगठन के महासचिव रवीन्द्र अधिकारी व विश्व शांति परिषद के सचिव इराक्लीज। हमारे दल की इस छह दिवसीय चीन यात्रा में तीन दिन के कार्यक्रम नानजिंग में ही थे। 12 दिसम्बर की शाम को नानजिंग नरसंहार स्मृतिस्थल पर एक प्रार्थना सभा का आयोजन किया गया था। 13 की सुबह वहीं एक सार्वजनिक सभा का आयोजन था और उसी अपरान्ह नानजिंग पर एक अन्तरराष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया गया था। इसके अलावा नानजिंग के महापौर के साथ तथा अन्य भेंट मुलाकातों के कार्यक्रम भी थे।
12 दिसम्बर की शाम जब हम स्मृतिस्थल पर प्रार्थना सभा व दीप प्रज्ज्वलन के लिए पहुंचे तब तक वहां अंधेरा छा चुका था। चीन में इस वक्त भारी ठंड का मौसम है। तापमान शून्य के आसपास पहुंच गया था, कुछ बारिश भी हो रही थी और तीखी ठंडी हवा चल रही थी। प्रार्थना सभा का प्रारंभ बौध्द भिक्षुओं द्वारा समवेत प्रार्थना से हुआ उसके बाद एक-एक कर सब लोगों ने वहां दीपदान किया और वापिस लौट आए। अगली सुबह मुख्य कार्यक्रम के समय उस परिसर को कंपकंपाती धूप के बीच देखने का मौका मिला। परिसर के बाहर स्थापित वह प्रस्तर प्रतिमा अनायास ही मन में करुणा जगाती है जिसमें एक मां अपने बच्चे की मृत देह को बांहों में उठाए हुए है। दो सौ एकड़ से अधिक क्षेत्र में फैले इस परिसर की संरचना ही अपने आप में अद्भुत है।
एक सिरे पर खुला हुआ प्रार्थनास्थल है जहां दस-ग्यारह हजार लोग समा सकते हैं। बीच में संग्रहालय और शोध केन्द्र है, जिसके चारों तरफ जलाशय, जगह-जगह पर उस त्रासदी की याद दिलाते भावपूर्ण प्रस्तर शिल्प हैं। एक कोने पर श्वेत वस्त्रधारी शांति की देवी की विशालकाय प्रतिमा स्थापित है और जगह-जगह पर दीवार पर या पृथक फलकों पर अंकों में तीन लाख की संख्या उत्कीर्ण है जो दर्शाती है कि 1937 के दिसम्बर और 1938 के जनवरी में इस नगर ने अपनी तीन लाख संतानों को खो दिया था। 75वीं बरसी पर आयोजित कार्यक्रम में नौ अन्य देशों के प्रतिनिधियों सहित नौ हजार से अधिक लोग उपस्थित थे। अन्य देशों से आए लोगों में जापान का भी एक बड़ा जत्था था: ये वे लोग थे जिन्हें साम्राज्यवादी दौर में अपने देश द्वारा किए गए इस अमानुषिक अत्याचार की ग्लानि थी और वर्तमान में विश्वशांति के लिए काम कर रहे हैं।
एक सिरे पर खुला हुआ प्रार्थनास्थल है जहां दस-ग्यारह हजार लोग समा सकते हैं। बीच में संग्रहालय और शोध केन्द्र है, जिसके चारों तरफ जलाशय, जगह-जगह पर उस त्रासदी की याद दिलाते भावपूर्ण प्रस्तर शिल्प हैं। एक कोने पर श्वेत वस्त्रधारी शांति की देवी की विशालकाय प्रतिमा स्थापित है और जगह-जगह पर दीवार पर या पृथक फलकों पर अंकों में तीन लाख की संख्या उत्कीर्ण है जो दर्शाती है कि 1937 के दिसम्बर और 1938 के जनवरी में इस नगर ने अपनी तीन लाख संतानों को खो दिया था। 75वीं बरसी पर आयोजित कार्यक्रम में नौ अन्य देशों के प्रतिनिधियों सहित नौ हजार से अधिक लोग उपस्थित थे। अन्य देशों से आए लोगों में जापान का भी एक बड़ा जत्था था: ये वे लोग थे जिन्हें साम्राज्यवादी दौर में अपने देश द्वारा किए गए इस अमानुषिक अत्याचार की ग्लानि थी और वर्तमान में विश्वशांति के लिए काम कर रहे हैं।
13 दिसम्बर की सुबह दस बजे आयोजित सार्वजनिक कार्यक्रम कुल मिलाकर एक घंटे का था। नानजिंग के महापौर, नानजिंग में कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव के संक्षिप्त भाषण मुख्य थे। इनके अलावा इस नरसंहार के साक्षी नब्बे वर्षीय एक वृध्द के संस्मरण व एक स्कूली बच्चे द्वारा विश्व शांति के लिए संकल्प पाठ भी कार्यक्रम के हिस्सा थे। ठीक दस बजे तीन बार सायरन बजा और कार्यक्रम प्रारंभ हो गया था। कार्यक्रम के अंत में शोक के प्रतीक सफेद फूल चढ़ाकर नानजिंग के शहीदों को अपनी श्रध्दांजलि दी। यह एक व्यवस्थित कार्यक्रम था, लेकिन मुझे इस बात की हैरानी हुई कि 75वीं बरसी जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर चीन के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या अन्य कोई बड़ा राष्ट्रीय नेता शामिल क्यों नहीं हुए। इसके बाद ही हम लोगों ने संग्रहालय का अवलोकन किया। जापान की सरकार आज तक यह नरसंहार होने से ही इंकार करती रही है, लेकिन संग्रहालय में चीनी, जापानी, अमेरिकी, ब्रिटिश अखबारों के पुराने अंकों सहित ऐसे अनेक साक्ष्य मौजूद थे, जो इसकी पुष्टि करते हैं। इस भीषण समय में चीनी जनता ने अपना आत्मबल कैसे बचाए रखा, नानजिंग में मौजूद विदेशी नागरिकों ने लोगों की मदद करने के लिए क्या कदम उठाए और क्या-क्या उस दौरान हुआ- इस सबके विवरण, साक्ष्य व दस्तावेज संग्रहालय में प्रदर्शित है।
मुझे देश-विदेश में अनेक तरह के संग्रहालयों को देखने का अवसर मिला है, लेकिन नानजिंग का यह संग्रहालय कई तरह से अनूठा था। उसकी भावभूमि तो स्पष्ट है, लेकिन प्रादर्शों को संयोजित करने में व घटनाओं को पुन: सृजित करने में जिस कल्पनाशीलता का परिचय दिया गया व वास्तुशिल्प का जैसा प्रयोग किया गया वह मैंने अन्यत्र कहीं नहीं पाया। संग्रहालय के कक्षों से गुजरते हुए पहले मन में दहशत होती है, ऐसी क्रूरता भी संभव है यह विचार मन को दहलाता है, हिंसा व युध्द के खिलाफ वितृष्णा उपजती है और अंत में यही लगता है कि अब ऐसा नहीं होना चाहिए।
देशबंधु में 20 दिसम्बर 2012 को प्रकाशित
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