मैं 9 दिसम्बर की रात को दिल्ली से शंघाई के लिए रवाना हुआ था। चाइना ईस्टर्न एयरलाइन्स की इस उड़ान में सहसा मेरा ध्यान इस ओर गया कि लगभग आधे यात्री भारतीय और लगभग उतने ही चीनी थे। कुछेक यात्री अन्य देशों के भी थे। एक सप्ताह बाद स्वदेश लौटते हुए भी यही नजारा पेश आया। यूं तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं थी लेकिन इससे दो-एक बातें समझ आईं। भारत और चीन के बीच आज पचास साल बाद भी रिश्ते सामान्य नहीं हैं। 1962 के कड़वे अनुभव के बाद चीन पर एकाएक विश्वास करने का मन नहीं होता। टीवी चैनलों पर बीच-बीच में जो खबरें आती हैं वे आशंकाओं को बढ़ाने का काम भी करती हैं। इसके बावजूद अगर प्रतिदिन बडी संख्या में भारतीय नागरिक चीन आ-जा रहे हैं तो इसका मतलब है कि चीन के साथ हमारे नागरिक संबंधों में गति आई है।
मैं जिस दिन रवाना हो रहा था, उसी दिन एक मित्र ने बताया कि शंघाई में अब बड़ी संख्या में ऐसे रेस्तोरां खुल गए हैं जिनमें भारतीय भोजन मिलता है। अन्य व्यापारिक नगरों में भी यही स्थिति है। लौटते समय मैंने यह भी देखा कि दिल्ली का ही कोई युवा व्यवसायी अपने वृध्द माता-पिता को चीन की सैर करवाकर लौट रहा था। याने स्थितियां इतनी असहज नहीं हैं जितनी कि हमारी धारणा बन गई है। चीनी नागरिकों का भी प्रतिदिन बड़ी संख्या में भारत आना इस बात का प्रमाण है कि देश में उद्योग और तकनीकी के क्षेत्र में चीन की भूमिका बढ़ रही है। एक समय हमारे सार्वजनिक उद्यमों में रूस के इंजीनियर आते थे, अब निजी क्षेत्र के कारखानों में हम चीन के तकनीकी ज्ञान का लाभ ले रहे हैं। यह मजे की बात थी कि दोनों देशों के यात्रियों में ज्यादातर युवा ही थे और लगभग सभी उद्योग व्यापार से जुड़े हुए थे।
इसके पहले लेख में मैंने माओ त्से तुंग की समाधि हटाने पर चल रहे विचार का जिक्र किया था। यह तो तय है कि चीन में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं हुआ और वे ही वहां के राष्ट्रनायक माने जाते हैं, लेकिन हमारे यहां जिस तरह विदेशी अतिथि को राजघाट ले जाना एक तरह से अनिवार्य माना जाता है, वैसा कुछ चीन में नहीं होता। यदि कोई आग्रह करे तभी माओ की समाधि पर जाना हो पाता है अन्यथा चीनी अधिकारी अपनी ओर से कोई उत्सुकता नहीं दिखाते। यह तब जबकि आज भी हजारों की संख्या में चीनी नागरिक प्रतिदिन माओ को श्रध्दांजलि देने के लिए आते हैं। मैंने देखा कि भीषण ठंड और बर्फ जमा होने के बावजूद सुबह नौ बजे से सैकड़ों सामान्यजन समाधि के बाहर दर्शन के लिए कतार लगाए खड़े थे।
चीन के सामाजिक जीवन का एक पहलू यह भी देखने में आया कि साम्यवादी देश होने के बावजूद व्यापार करने के नुस्खे, टोटके और लटके-झटके उन्हें खूब आते हैं। बीजिंग में माओ की समाधि पर ही आप एक प्रवेश द्वार से भीतर जाते हैं और दूसरे द्वार से बाहर निकलते ही आपके सामने उसी परिसर के भीतर बाजार सजा नजर आता है। मुख्य इमारत की सीढ़ियों से नीचे उतरते साथ दोनों तरफ कोई दो दर्जन दूकानें हैं, जिनमें माओ के फोटो वाली सामग्री बिकती हैं। फिर वह चाहे बालों में लगाने की क्लिप हो, चाहे पैन, चाहे अंगूठी या लॉकेट। फोटो तो इस तरह बिकते हैं जैसे मंदिर के बाहर देवी-देवताओं के चित्र।
शंघाई के टीवी टॉवर में बाजार की यह माया और नंफासत के साथ देखने मिली। सबसे ऊपरी मंजिल पर तो दूकानें हैं ही, फिर उसके नीचे की मंजिल पर भी और जब वहां से आप नीचे उतरते हैं तो उस मंजिल पर रुकना ही पड़ता है जहां बच्चों के लिए खिलौना कार, खिलौना रेलगाड़ी आदि की सवारी के आकर्षण स्थापित हैं। इसके बाद लिफ्ट आपको नीचे लाती है तो एक गोलबाजार सा आपके सामने खुल जाता है। अगर छोटे बच्चे साथ हों तो आप बिना खरीदारी किए वहां से निकल ही नहीं सकते। अगर जेब में भरपूर पैसा है तब भी यही होना है। बीजिंग और शंघाई में ऐसे बाजार भी हैं जहां अकल्पनीय ढंग से मोल-भाव होता है। दूकानदार किसी वस्तु का मूल्य बताएगा एक हजार युआन। ग्राहक अनुभवी हुआ तो बीस युआन से सौदेबाजी शुरु कर सकता है और संभव है कि एक सौ पर सौदा पट जाए। जिन्हें मोलभाव करना नहीं आता, वे पांच सौ भी खुशी-खुशी दे देते हैं।
देखा जा सकता है कि चीन ने समाजवाद और पूंजीवाद के बीच अर्थव्यवस्था का एक अलग ही मॉडल विकसित कर लिया है। बड़े शहर तो यही संकेत देते हैं। गांवों की स्थिति क्या है यह मैं नहीं जानता। चीन की राजनीति में धीरे-धीरे कर जो परिवर्तन आ रहे हैं उसका एक प्रभाव मुझे बीजिंग के अपने एक होटल में देखने मिला। इस चार सितारा होटल का संचालन उनके विदेश मंत्रालय द्वारा किया जाता है। यहां भोजन कक्ष में तीनों समय बूफे में मुस्लिम भोजन उसी तरह अलग से मिलता है जिस तरह हमारे यहां बिना लहसुन-प्याज का जैन भोजन। यह शायद इसलिए कि इस बड़े देश में उत्तर-पश्चिम में सिक्यांग नामक मुस्लिम बहुल प्रांत भी है और अन्यत्र कहीं न सही सरकार द्वारा संचालित होटल में तो अल्प संख्यक समुदाय की भावनाओं का आदर देखने मिल ही रहा था।
यह हम लंबे समय से सुनते आए हैं कि चीनियों के लिए कुछ भी अखाद्य नहीं है, वे तैरने वाले, उड़ने वाले, चलने वाले किसी भी जन्तु को अपना आहार बना सकते हैं। यह धारणा सही तो है, लेकिन अधूरी है। चीनी भोजन में मांसाहार अनिवार्य है, लेकिन उनके भोजन में सामिष और निरामिष की मात्रा लगभग बराबर होती है। वे चावल, नूडल्स, तोफू (सोयाबीन का दही) के अलावा हर तरह की साग-सब्जी और फल खाते हैं। यह बात अलग है कि उनकी व्यंजन विधि हमसे बहुत अलग है और इसलिए जो प्रामाणिक चीनी भोजन है वह हमें बहुत नहीं रुचता। मुस्लिम भोजन के नाम पर वे जो व्यंजन परोसते हैं वे लगभग वैसे ही हैं जैसे मध्य एशिया में जिनसे कि हमारी भोजन शैली काफी हद तक प्रभावित है।
चीन में सिगरेट खूब पी जाती है और वे भी देसी ब्रांड की। किंतु मुझे अनुमान हुआ कि वहां मदिरापान बहुत ज्यादा प्रचलित नहीं है या उसे प्रोत्साहित नहीं किया जाता। भोजन की टेबल पर हमसे पूछा जाता था कि आप कौन सा सॉफ्ट ड्रिंक लेना पसंद करेंगे। मेजबान आपकी बीयर का बिल भले ही चुका दे, उसके ऊपर कुछ और पीना है तो अपनी जेब हल्की कीजिए। जिन 3-4 औपचारिक भोजों में हमें आमंत्रित किया गया, वहां भी देसी ''व्हाइट वाइन'' या '' रेड वाइन'' तक मामला सीमित था। वाइन शब्द से फ्रांस या इटली की नफीस अंगूरी मदिरा का चित्र उभरता है, लेकिन चीन की व्हाइट वाइन का स्वाद ठर्रे से बेहतर नहीं था। बाज़ार में भी मदिरा की दूकानें कम ही देखने आईं।
और अंत में एक रोचक प्रसंग! शंघाई में नदी तट के पास नए गगनचुंबी भवन बन रहे हैं। इनमें किनके ऑफिस हैं, यहां कौन काम करते या रहते हैं, पूछने पर उत्तर मिला कि यह ''गोल्डन कॉलर'' वालों का इलाका है। अब तक हमने ''ब्लू कॉलर'' याने श्रमिक वर्ग और ''व्हाइट कॉलर'' अर्थात सफेदपोश लोगों के बारे में सुना था। चीन में वित्तीय प्रबंधक, विश्लेषक, बैंक मैनेजर और मोटी तनख्वाह वाले अन्य जनों को ''गोल्डन कॉलर'' का विशेषण मिल गया है। इनका वेतन दस हजार युआन प्रतिमाह से अधिक होता है जबकि औसत वेतन तीन हजार युआन के आसपास है। यह चीन की बदलती सच्चाई है।
देशबंधु में 04 जनवरी 2013 को प्रकाशित
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