Wednesday 23 January 2013

राहुल गांधी : बदलाव की अपेक्षा





राहुल गांधी औपचारिक तौर पर कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष निर्वाचित कर लिए गए: इस घटना को कमतर आंकना भूल होगी। राहुल गांधी पहले से ही कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे में दूसरे नंबर पर थे, 2014 के चुनाव में उनकी क्या भूमिका होगी, वे प्रधानमंत्री बन पाएंगे या नहीं, एक युवा पार्टी नेता के रूप में वे अब तक किस हद तक सफल रहे हैं- ऐसे तमाम मुद्दों पर भारतीय जनता पार्टी, पूंजीवादी मीडिया व लोहियावादी सोच से अनुप्राणित पत्रकारों आदि ने जो ढेरों टिप्पणियां की हैं, वे जल्दबाजी में की गई प्रतीत होती हैं। दरअसल, सवाल यह नहीं है कि अब तक राहुल गांधी का भारतीय राजनीति में क्या स्थान या योगदान रहा है, बल्कि यह कि उनके विधिवत उपाध्यक्ष बन जाने से किन बदलावों की अपेक्षा की जा सकती है। इसके बरक्स यह देखना भी मौजूँ होगा कि भारतीय जनता पार्टी में शीर्ष नेतृत्व को लेकर किस तरह से असमंजस बना हुआ है।

यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि आज का भारत एक युवा देश है। देश की जनसंख्या का लगभग आधा हिस्सा अठारह से तीस वर्ष के आयु समूह का है। इस नाते तय है कि 2014 के आम चुनावों में पहली बार वोट डालने वाले युवजन बहुत बड़ी संख्या में होंगे। इन नौजवानों की पहली पसंद कौन हो सकता है? मनमोहन सिंह अस्सी के हैं, सोनिया गांधी पैंसठ की। अडवानीजी अस्सी पार कर चुके हैं, सुषमा स्वराज आदि भी साठ के पेटे में हैं। प्रकाश और वृन्दा करात, सीताराम येचुरी, नवीन पटनायक, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव, नीतिश कुमार, जयललिता- ये सब भी या तो साठ पार कर चुके हैं या उसके आसपास हैं। एक ममता बनर्जी हैं जो अपेक्षाकृत युवा हैं। इन सबके मुकाबले बयालिस वर्ष के राहुल गांधी युवा मतदाता के लिए एक बेहतर पसंद हो सकते हैं।

इसी तर्क को आगे बढ़ाया जाए तो यह तथ्य भी सामने आता है कि कांग्रेस की युवतर पीढी में राहुल अकेले नहीं, उनका साथ देने के लिए सचिन पायलट, मीनाक्षी नटराजन, योतिरादित्य सिंधिया, जतिन प्रसाद, मिलिन्द देवड़ा, प्रिया दत्त जैसे अनेकानेक युवा सहयोगी हैं, जिन्होंने अपना-अपना प्रभा मंडल निर्मित करने में सफलता पाई है। इनके मुकाबले दूसरी पार्टियों में युवा पीढी क़हां है? भाजपा में प्रेमकुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर अथवा माकपा से निकाले गए प्रसेनजीत बसु जैसे कम्युनिस्ट- ऐसे कुछ नाम लिए जा सकते हैं, लेकिन उनका प्रभाव क्षेत्र फिलहाल सीमित ही दिखाई दे रहा है। जिन वरुण गांधी को भाजपा ने बहुत जोर-शोर से आगे बढ़ाया था, वे भी पिछले कुछ समय से हाशिए पर चले गए नजर आते हैं। समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव हैं, लेकिन मुख्यमंत्री बन जाने के बावजूद उनमें वह चमक दिखाई नहीं दी जो राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित कर सके।

राहुल गांधी को लेकर वंशवाद का मुद्दा बार-बार उठाया जाता रहा है: यह एक सच्चाई तो है, लेकिन इसे पूर्वाग्रह मुक्त होकर परखने की आवश्यकता है। ऐसा कोई भी एशियाई देश नहीं है जहां जनतांत्रिक राजनीति में वंश परम्परा से पूरी तरह मुक्ति पा ली गई हो। भारत में भी वामदलों के अलावा कोई ऐसा दल नहीं है, जिसने वंशवाद को प्रश्रय न दिया हो। अगर भाजपा कहती है कि उसके यहां साधारण कार्यकर्ता भी आगे बढ़ सकते हैं तो कांग्रेस में भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं है। ए.के. एंटनी, मोतीलाल वोरा, अशोक गहलोत, वीरप्पा मोइली, किरण कुमार जैसे तमाम नेता आज भी हैं जिन्होंने अपनी कूवत से राजनीति में स्थान बनाया है। दूसरी ओर स्वयं को सामान्य कार्यकर्ताओं की पार्टी मानने वाली भाजपा में वसुंधरा राजे, अनुराग ठाकुर, दुष्यंत सिंह, मानवेन्द्र सिंह, यहां तक कि मेनका गांधी के नाम गिनाए जा सकते हैं, जिन्हें राजनीति में अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण वरीयता मिली। अन्य पार्टियों में भी यही हाल है। अत: इस बिन्दु पर टिप्पणी करना अपना खीज मिटाने से अधिक कुछ नहीं मानना चाहिए।

बहरहाल, राहुल गांधी के पार्टी उपाध्यक्ष बन जाने से एक बड़ी बात तो यह हुई है कि उनके बारे में जो अटकलबाजियां लगाई जा रही थीं, वे अब समाप्त हो जाएगी। राहुल ने यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि राजनीति भले ही जहर का प्याला हो, उसे पीने के लिए वे अपना मन दृढ़ कर चुके हैं। उनके इस निर्णय से कांग्रेस पार्टी में नए सिरे से उत्साह का संचार होना स्वाभाविक है। उम्मीद करना चाहिए कि वे यथाशीघ्र एक नई टीम भी बनाएंगे ताकि कांग्रेस सचमुच नए भारत की नई पीढ़ी की पार्टी बन सके। इस पीढ़ी की आशाएं, आकांक्षाएं पिछली पीढ़ी से बहुत अलग है तथा यह मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि राजनेताओं की पुरानी पीढ़ी नौजवान भारत के सपनों को समझने में बड़ी हद तक नाकाम ही रही है।

ऐसी उम्मीद राजीव गांधी के राजनीति में आने पर भी की गई थी, लेकिन दोनों के बीच एक बड़ा फर्क है। राजीव गांधी को सत्ता और संगठन दोनों स्तर पर जिस अनुभव और प्रशिक्षण की आवश्यकता थी, वह उन्हें बिलकुल नहीं मिला था और न ही उनके निकट मित्रों में ऐसा था जो राजनीतिक समझ का धनी रहा हो। अरुण नेहरू, अरुण सिंह, अमिताभ बच्चन इत्यादि राजनीति के लिए बिलकुल नए थे। इसीलिए राजीव गांधी से अपने तमाम नेक इरादों के बावजूद गलतियां हुईं जिसका खामियाजा 1989 की हार में उन्हें भुगतना पड़ा। इसके बाद उन्होंने विपक्ष में रहते हुए जो कुछ सीखा-समझा, उसके आधार पर दुबारा जीतने के बाद वे देश को नई दिशा देते, उसके पहले ही उनकी हत्या कर दी गई। इस लिहाज से राहुल गांधी बेहतर स्थिति में हैं। वे नौ साल से संसद सदस्य हैं, पार्टी में विभिन्न मोर्चों पर लगातार सक्रिय हैं और अपनी मां की तरह उन्हें भी सत्ता का मोह नहीं है। इस नाते उनमें पार्टी का सफल नेतृत्व करने के लिए आवश्यक गुण हैं। अपनी इन क्षमताओं का उपयोग वे कितना कर पाते हैं यह आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा।

राहुल गांधी 2014 के चुनावों के बाद प्रधानमंत्री बन पाएंगे या नहीं, यह बहस अर्थहीन है। भाजपा में उनके सामने मुकाबले के लिए कौन होगा- नरेन्द्र मोदी या कोई और, यह भी बैठे-ठाले की बहस का ही विषय हो सकता है। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी तो प्रधानमंत्री बनने का सपना देख ही रहे हैं व  देशी-विदेशी कारपोरेट घराने उनके समर्थन में थैलियों का मुंह खोले बैठे हुए हैं। किंतु राहुल गांधी से मुकाबला होने से पहले उन्हें पार्टी के भीतर अपना वर्चस्व सिध्द करना होगा। संघ प्रमुख न जाने क्यों, नितिन गडकरी को ही दोबारा भाजपा अध्यक्ष बनाने पर अड़े हैं। क्या इसलिए कि वे गडकरी को लाल किले की प्राचीर से भाषण देते सुनना चाहते हैं! खैर! भाजपा में जो भी हो, कांग्रेस में यह कहां जरूरी है कि राहुल ही प्रधानमंत्री बनेंगे! अगर सोनिया गांधी के अध्यक्षकाल में मनमोहन सिंह दस साल प्रधानमंत्री रह सकते हैं तो राहुल गांधी भी तो स्वयं को पार्टी तक सीमित रख सरकार चलाने का जिम्मा ए.के. एंटनी, सुशील कुमार शिंदे या अन्य किसी को दे सकते हैं। 

मेरा प्रारंभ से मानना रहा है कि राहुल गांधी को पार्टी अथवा सरकार में बड़ी जिम्मेदारी निभाने के लिए आगे आना चाहिए। मेरा तर्क है कि ऐसा करने से पार्टी की विचार प्रक्रिया और कार्यप्रणाली में एक जरूरी स्पष्टता आएगी। इसी सोच के अनुसार मैं राहुल गांधी के कांग्रेस उपाध्यक्ष बनने का स्वागत करता हूं।

 देशबंधु में 24 जनवरी 2013 को प्रकाशित 

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