हमें बचपन में जब सौदा-सुलफ लाने के लिए दूकान में जाना होता था तब घर से यह हिदायत मिलती थी कि नए साल का कैलेण्डर मांगना मत भूलना। उन दिनों मर्फी रेडियो का कैलेण्डर बहुत लोकप्रिय हो गया था, उसमें गाल पर उंगली रखे एक सलोने से बच्चे की तस्वीर सहज ही मन मोह लेती थी। एक अन्य कैलेण्डर जिसकी मुझे याद है वह भोपाल की एक दूकान अमर अलाइड एजेंसी ने छपवाया था, जिस पर तीन बिल्लियों की तस्वीर थी। इन सामान्य कैलेण्डरों के अलावा कंपनियां विशिष्ट ग्राहकों व विशिष्टजनों को देने के लिए महंगे व खूबसूरत छह पन्ने या बारह पन्ने वाले कैलेण्डर भी छपवाती थीं: जिसे ऐसा कैलेण्डर मिल जाए मानो उसने कोई किला फतह कर लिया। उन दिनों जब अपनी हैसियत जतलाने के लिए बहुत अधिक साधन उपलब्ध नहीं थे तब बैठक की दीवार पर टंगा कैलेण्डर ही विशिष्ट होने के गर्व से भर देता था।
किसी साल एयर इंडिया ने विभिन्न नृत्य मुद्राओं के छायाचित्रों वाला एक बेहद खूबसूरत कैलेण्डर निकाला था। ऐसे और भी सुन्दर कैलेण्डर समय-समय पर देखने मिले, जिनकी तस्वीरों को मढ़वाकर सुरक्षित रखने का मन हो जाता था। इस बीच डायरियों का चलन भी बढ़ा। इन डायरियों में भी कल्पनाशीलता और कलाप्रियता के एक से बढ़कर एक नमूने देखने मिले। अखबार का दफ्तर होने के कारण मेरे टेबल पर हर साल दर्जनों डायरी अब भी आती हैं, लेकिन यह समझ नहीं आता कि इन सबका एक साथ उपयोग कैसे किया जाए! बहुत सी डायरियां तो सहकर्मियों और मित्रों के बीच बांटने के काम आ जाती हैं, लेकिन जिसके आवरण पर अपना नाम छपकर आया है वह किसे दूं!
बाबूजी भेंट में डायरी मिलने का इंतजार करने के बजाय नया साल शुरू होने के पहले ही गांधी डायरी खरीदकर ले आया करते थे। इस तीन सौ पैंसठ पृष्ठों की दैनंदिनी में तीज-त्यौहार, उत्सव, पर्व, विक्रम, शक, हिजरी तिथि और अंग्रेजी संवत की तिथि-मिति के अलावा गांधीजी के वचन भी प्रकाशित होते हैं। बाबूजी नियमत: रात को सोने से पहले डायरी लिखा करते थे और उन्हें गांधी डायरी ही सबसे अच्छी जान पड़ती थी। देशबन्धु के संपादकीय विभाग में भी गांधी डायरी का इस्तेमाल लंबे समय से हो रहा है। उससे पता चल जाता है कि कब किस महापुरुष की जयंती अथवा कौन सा पर्व आने वाला है। मैं स्वयं अपने लिए दुर्ग निवासी मित्र इंदर जोतवानी द्वारा भेंट की गई चौबीस पृष्ठ की बेहद पतली सी डायरी का इस्तेमाल करता हूं, जिसमें यात्रा और बैठकों के कार्यक्रम नोट हो सकें।
कैलेण्डर और डायरी के अलावा नए साल पर एक और चलन लंबे समय से रहा है- शुभकामना पत्र या ग्रीटिंग्स कार्ड भेजने का। यूं दीपावली पर कार्ड भेजना कहीं ज्यादा प्रचलित था। अब धीरे-धीरे दीपावली और नववर्ष दोनों पर ही कार्ड भेजने में कमी आ रही है। पहले जब डाकघर से दिन में तीन बार डाक बंटती थी तब कार्ड अवसर के दो चार दिन आगे-पीछे मिल ही जाते थे। फिलहाल स्थिति यह है कि दीवाली तो नवम्बर में मन गई, कार्ड जनवरी में लोगों को मिल रहे हैं। मैं इसमें डाकघर को दोषी नहीं मानता। जब विभाग में पर्याप्त संख्या में कर्मचारी नहीं होंगे, चलती डाकगाड़ी में छंटाई का काम बंद होगा तब यह होना ही है। डाकघर वाले भी जानते हैं कि अब संदेशों के आदान-प्रदान के लिए उनकी भूमिका गौण हो चली है।
ठीक भी है। किसी युग में कबूतरों से चिट्ठियां भेजी जाती थीं। तकनीकी के विकास के साथ-साथ व्यवस्था में परिवर्तन आना ही थे। अब एसएमएस, एमएमएस, ई-मेल, फेसबुक वगैरह-वगैरह का जमाना है, लेकिन मेरे जैसे व्यक्ति के लिए इसमें भी तकलीफ का सामान है। 31 दिसम्बर की सुबह से जो एसएमएस आना शुरू हुए तो अगले छत्तीस घंटों तक तो अबाध गति से और फिर रुक-रुककर न जाने कितने संदेसे आए होंगे। यूं तो खुश होने की बात है कि आपका भला चाहने वाले इतने सारे लोग दुनिया में हैं, लेकिन मैं उन्हें कैसे बताऊं कि मैं भी उनका उतना ही भला चाहता हूं! संदेश तैयार करो, फिर फोनबुक में जाकर एक-एक को या समूह में भेजो, यह भारी तवालत का काम है। यही स्थिति ई-मेल से प्राप्त संदेशों की भी है।
ऐसे में लगता है कि कार्ड भेजना ही बेहतर उपाय था। मैं महंगे कार्ड का इस्तेमाल नहीं करता और बीसेक सालों से दीपावली अथवा जनवरी के बजाय फरवरी में एक साधारण से पन्ने पर छपी हिन्दी और अंग्रेजी की एक-एक कविता शुभकामना संदेश के रूप में प्रेषित करते रहा हूं। इसमें पैसे की बचत भी है, सामने वाले को एक अच्छी रचना भी पढ़ने मिलती है और आराम से पढ़ने का समय भी मिलता है। मुझे देखकर अच्छा लगता है कि इन दिनों बहुत से मित्र नववर्ष पर अपने शुभकामना पत्रों में हिन्दी कविता छापने लगे हैं। मेरे अग्रज बंधु रायपुर के वरिष्ठ वकील जे.एन. ठाकुर ने तो इस साल अपने कार्ड में शिवरीनारायण मठ के माखन कटोरी वृक्ष (फाइकस कृष्णी) की खूबसूरत पत्ती का चित्र छापा है।
मुझे यह देखकर भी अच्छा लग रहा है कि देश का जनसामान्य नववर्ष का स्वागत अकुंठित मन से करने लगता है। पिछले साल एक जनवरी को रविवार था और उस दिन रायगढ़ से लौटते हुए महानदी तट पर चन्द्रहासिनी के मंदिर में नववर्ष पर प्रार्थना करने के लिए उमड़े भारी हुजूम को मैंने देखा था। इस बार भी मालूम हुआ कि सुबह-सुबह लोग मंदिर-मस्जिद में नववर्ष पर प्रार्थना करने गए। इसमें उस भारतीय परम्परा का विकास दिखाई देता है, जो उदारवादी, बहुलतावादी है और जो अच्छा लगता है, उसे अपनाने में संकोच नहीं है। यह उन धार्मिक पुनरुत्थानवादियों के लिए एक माकूल जवाब भी है जो नववर्ष को विदेशी संस्कृति कहकर उसका बहिष्कार करने का आह्वान करते हैं।
बहुत से लोग नववर्ष को खास तरीके से मनाने के लिए सैरगाहों पर जाते हैं। जब वीआईपी ऐसा करते हैं तो खबर बनती है। राजीव गांधी का नववर्ष इसीलिए हमेशा चर्चा में रहता था। इस वर्ष राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ के रायपाल जैसे विशिष्टजनों ने दिल्ली के जघन्य सामूहिक बलात्कार कांड की परछांई में नववर्ष नहीं मनाया। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि भारतीय संस्कृति के अनेक रक्षकों ने इस बारे में कोई परहेज नहीं किया।
देशबंधु में 10 जनवरी 2013 को प्रकाशित
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