जब
भावनाएं उफान पर हों तब सहज बुद्धि और तर्क किनारे धरे रह जाते हैं। जब भावनाएं
खुद होकर उमड़ती हैं तब उनमें आगे का रास्ता बना लेने की क्षमता भी अन्तर्निहित
होती है, लेकिन जहां उफान का स्रोत बाहरी हो तब बहाव के बीच भंवर पैदा होने का
खतरा भी विद्यमान होता है। दिल्ली के सामूहिक बलात्कार कांड की प्रतिक्रिया में जो
वातावरण बना उसमें ऐसी ही कुछ स्थिति देखने में आई। यदि इस पाशविक अपराध की खबर
मिलने के बाद दिल्ली के युवा अपने गुस्से का इजहार करने के लिए खुद-ब-खुद सड़कों
पर उतर आए तो छद्म विद्रोहियों व देश को दुर्दशा से उबारने का संकल्प लिए बैठे
पेशेवर समूहों ने उस जायज गुस्से को एक तमाशे में तब्दील करने में कोई देरी नहीं
की।
बहरहाल
अब पूरे देश में इस त्रासद वाकये को लेकर जो क्रोध है वह लोगों के हृदय में भीतर
ही भीतर भले ही सुलग रहा हो, उसके साथ-साथ एक संकल्प भी सामूहिक रूप से बन रहा है
कि दुबारा ऐसा न हो इसके लिए विवेकपूर्ण ढंग से सारी स्थितियों पर विचार करके आगे
का रास्ता तलाशा जाए। इस बीच में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब, पश्चिम बंगाल व
अन्य प्रदेश में भी बलात्कार व स्त्रियों पर हो रहे अन्य अत्याचारों की जो खबरें
सामने आई हैं उन्होंने भी जनसंकल्प को दृढ़ करने का काम किया है। यह तथ्य भी अब
सबकी नजर में है कि स्त्रियों के प्रति हो रहे अपराधों के लिए यदि न्याय व्यवस्था
की एजेंसियां बड़ी हद तक जिम्मेदार हैं तो देश की रूढि़वादी सामाजिक व्यवस्था और
इसके अलावा अर्थनीति का कारपोरेटीकरण भी उतने ही जिम्मेदार हैं।
इस
पृष्ठभूमि में हम विचार कर सकते हैं कि ऐसे कौन से कदम उठाए जाएं जिनसे भारत में
स्त्रियों का सम्मान व गरिमा सुनिश्चित की जा सके। न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा कमेटी
के सामने इस बीच सैकड़ों सुझाव विभिन्न व्यक्तियों, दलों व समूहों द्वारा पेश किए गए हैं। उनके आधार पर
निश्चित ही कुछ ठोस कदम उठाने की पहल आने वाले दिनों में होगी, किंतु जितना मैं
देख सका हूं उससे लगता है कि वर्मा कमेटी के सामने रखे गए ज्यादातर सुझाव कानून
व्यवस्था से संबंधित है तथा अन्य पहलू काफी हद तक अलक्षित रह गए हैं। अनेक समाज
विज्ञानियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दूसरे पहलुओं पर अपने विचार प्रकाशित किए
हैं, तथापि एक नया वातावरण बनाने के लिए क्या-क्या कदम अपनाए जाएं इस बारे में कुछ
और स्पष्टता के साथ बात करना अभीष्ट है।
मेरा
मानना है कि भारत में औरत के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव आज नहीं, अनादिकाल से होते
आया है। उसे जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी न किसी रूप में पुरुष के संरक्षण में
रहना चाहिए, यह भारतीय समाज की मान्यता है। स्त्री-पुरुष संबंधों में जब सामाजिक
रूढिय़ों के अनुसार कुछ भी अवांछनीय घटता है तब उसमें हमेशा स्त्री को ही दोषी
ठहरा दिया जाता है। ऐसे में पहला प्रश्न तो यही है कि समाज में नई सोच कैसे पैदा
हो। दूसरे- भारत में ही नहीं लगभग सारी दुनिया में स्त्री को भोग्या ही माना जाता
रहा है और पूंजीवादी शक्तियां इसी मानसिकता का लाभ उठाकर बाजार के एक बड़े हिस्से
को संचालित करते आई हंै। अत: इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि बाजार को किस रूप
में नियंत्रित किया जाए। तीसरे- वर्तमान दौर में तकनीकी विकास के चलते जनसंचार
माध्यम जिस तरह से पनपे हैं उसमें भी स्त्री की उस रुढिग़्रस्त छवि को ही पुष्ट
किया जा रहा है याने यहां भी नई सोच की जरूरत है। अंतिमत: इन सबके अलावा न्याय व्यवस्था के तंत्र को भी
संवेदनशील बनाने और उसमें नवाचार लाने के प्रयत्न करना भी बेहद आवश्यक है। मैं कुछ
बिन्दुवार और बेतरतीब सुझाव सामने रखने की हिमाकत करना चाहता हूं-
1. मेरी
राय में सबसे बड़ी जिम्मेदारी हमारे लेखकों, अध्यापकों और अन्य बुद्धिजीवियों पर
है। आज का बच्चा जो, कुछ घर में सीखता है उससे कहीं ज्यादा वह बाह्य परिवेश याने
स्कूल, कॉलेज, मित्रमण्डली, सिनेमा और टीवी से ग्रहण करता है। इसे ध्यान में रखकर
देखना चाहिए कि हमारी पाठ्यपुस्तकें उसे क्या सिखा रही हंै। जरूरी होगा कि पुरुष
वर्चस्व को स्थापित करने वाले पाठ हटाए जाएं और उसकी जगह वह सामग्री दी जाए जो
आदमी और औरत की समानता को प्रतिष्ठित करती हैं।
2. टीवी
सीरियल, सिनेमा व अखबारों में भी उस सामग्री पर रोक लगना लाजिमी है जो पुरुषवादी
मानसिकता को बढ़ावा देती व स्त्री को दोयम दर्जे पर खड़ा करती हंै। अभिव्यक्ति की
आज़ादी के नाम पर आप कुछ भी लिखें और कुछ भी दिखाएं इस तर्क को बहुत लंबा नहीं
खींचना चाहिए। एक पत्रकार होने के नाते मुझे सेंसरशिप की वकालत नहीं करना चाहिए, लेकिन
जो सामग्री इन दिनों परोसी जा रही है, उससे स्पष्ट है कि हमारे भीतर स्वविवेक से
निर्णय लेने की क्षमता का अभाव हो चला है।
3. यह
जाहिर है कि अधिकतर साहित्य पुरुषों द्वारा रचा गया है। भारत के जिस मूर्तिशिल्प
का इतना बखान होता है वह भी पुरुषों ने ही उकेरा है। हमें यह सच्चाई स्वीकार कर
लेना चाहिए कि अतीत में विलासी राजाओं के आदेश से ये रचनाएं हुई थीं। हरिमोहन झा
के खट्टर काका श्रृंखला के निबंधों में इसका प्रमाण मिलता है। जो है उसे मिटाने की
बात तो नहीं है, लेकिन यह तो हम मानें कि देहराग की ये कृतियां सृजन क्षमता का
नहीं, बल्कि भोगवादी मानसिकता का उत्स हंै।
4. जो भी
पाठ्यपुस्तकें लिखी जाएं, जो सीरियल व फिल्में बनें उनका परीक्षण करने के लिए बनी
कमेटियों में स्त्रियों का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
5.
एडवरटाइजिंग स्टैण्डर्स कौंसिल ऑफ इंडिया जैसी संस्थाओं में विज्ञापनों के परीक्षण
के लिए बनी समितियों में महिलाओं को समुचित स्थान दिया जाए। ये समितियां शिकायत
मिलने पर नहीं, बल्कि खुद संज्ञान लेकर परीक्षण करें।
6. यदि
सीरियल लेखक, गीतकार, संवाद लेखक, विज्ञापन लेखक, हास्य कवि और पत्रकार तय कर लें
कि उन्हें स्त्री का अपमान करने वाली बातें नहीं लिखना है और इसके लिए अपनी कलम
नहीं बेचेेंगे तो वे भूखे नहीं मर जाएंगे।
7. भारत
में साल में 365 दिन औरतों के लिए किसी न किसी उपवास का प्रावधान रहता है। यह
पिता, पति और पुत्र का दायित्व है कि वह इसके खिलाफ आवाज उठाए। जिस समाज में औरत के लिए एक जन्म भारी पड़ता
है वहां सात जन्मों तक वही पति पाने की मनौती क्यों मानी जाए? मेरी राय में करवा
चौथ, तीज, छठ जैसे पर्वों का स्वरूप बदल देना चाहिए।
8. जहां
तक कानून व्यवस्था की बात है, सिपाहियों को उनकी ट्रेनिंग के दौरान सबसे पहले यही
सिखाया जाना चाहिए कि वे स्त्री जाति व वंचित समूहों का सम्मान करना सीखें व उसके
साथ अदब के साथ पेश आए। उन्हें संवेदनशील बनाने के लिए तत्काल बड़े पैमाने पर
विशेष प्रशिक्षण आयोजित किए जाएं।
9. जिस
तरह मायावती ने घोषणा की है कि वे किसी बलात्कारी को आगे टिकट नहीं देंगी उसी तरह
सारे राजनीतिक दल शपथ लें कि स्त्रियों के अपमान के किसी भी आरोपियों को कोई भी पद
नहीं दिया जाएगा।
10.
राजनीतिक दलों को अपने संसद सदस्यों से लेकर ग्राम स्तर तक के कार्यकर्ताओं तक के
लिए प्रशिक्षण आयोजन करना चाहिए जहां उन्हें रुढि़वादी, ओछी, पूर्वाग्रह से ग्रस्त
मानसिकता से मुक्त होने का पाठ पढ़ाने के साथ तमीज़ से बात करना भी सिखाया जाए।
देशबंधु में 17 जनवरी 2013 को प्रकाशित
सोच और हालात बदले बिना नहीं हो सकती निर्भया निर्भय.
ReplyDeleteकाश ऐसा हो.
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