Wednesday, 30 January 2013

राजनाथ की चुनौतियाँ



भारतीय जनता पार्टी के हक़ में यह अच्छा ही हुआ कि नितिन गडकरी दुबारा पार्टी अध्यक्ष नहीं बन पाए। अगर तटस्थ भाव से विवेचन किया जाए तो श्री गडकरी इस महत्वपूर्ण पद के लिए कभी भी योग्य प्रत्याशी नहीं थे। वे विदर्भ में पार्टी के एक स्थानीय नेता मात्र थे। शिवसेना-भाजपा गठबंधन सरकार में लोक निर्माण मंत्री रहते हुए उन्होंने फ्लाईओवर जैसी खर्चीली व महत्वाकांक्षी योजनाएं हाथ में लेकर शहरी मध्यवर्ग की प्रशंसा बटोरने में अवश्य सफलता हासिल की थी तथा इसी कारण से व्यापारियों एवं ठेकेदारों के एक वर्ग विशेष का समर्थन हासिल कर लिया था। उनकी नेतृत्व क्षमता पर यदि किसी को थोड़ा विश्वास भी था तो वह स्वयं उन्होंने उस वक्त तोड़ दिया जब उन्होंने आयकर अधिकारियों को भाजपा राज आने पर देख लेने की धमकी दे डाली। यह तो ज्ञात है ही कि उनके ऊपर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व का वरदहस्त भी था। उन्हें ऐसे समय पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था जब लालकृष्ण अडवानी जैसे वरिष्ठ नेता पर भी संघ शंका करने लगा था और उसे पार्टी में अन्य कोई विश्वसनीय व्यक्ति नज़र नहीं आ रहा था। संघ नेतृत्व की यह सीमा ही कहना चाहिए कि वह अक्सर राजनीतिक आदर्श व व्यावहारिक राजनीति के बीच के अंतर को समझ नहीं पाता। इस कारण से अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में संघ उनसे कभी पूरी तरह खुश नहीं रहा। 

बहरहाल गडकरी की विदाई के बाद राजनाथ सिंह के हाथों एक बार फिर पार्टी की कमान सौंप दी गई है। श्री सिंह राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और वर्तमान में उत्तरप्रदेश की ही गाजियाबाद जैसी  शहरी सीट से लोकसभा के सदस्य हैं। अडवानी-वाजपेयी-जोशी के बाद एक तरह से वे भाजपा के सर्वाधिक वरिष्ठ नेता हैं। इस लिहाज से वे अध्यक्ष पद के लिए एक बेहतर उम्मीदवार थे  इसी लिए   जब उनका नाम सामने किया गया तो इस पद की उम्मीद लगाए बैठे अन्य प्रत्याशियों ने अपनी दावेदारी बिना ना-नुकुर के छोड़ दी। श्री सिंह आयु, अनुभव और पार्टी आदर्शों के प्रति प्रतिबध्दता के पैमानों पर खरे उतरते हैं, लेकिन अपने दूसरे कार्यकाल में उन्हें कुछ पुरानी एवं कुछ नई चुनौतियों से जूझना पड़ेगा। इसमें वे कहां तक सफल हो पाएंगे इसका अंदाज लगा पाना फिलहाल मुश्किल है। 

श्री सिंह जब 2005 में पहली बार भाजपा के अध्यक्ष बने थे तब मेरी दृष्टि में उनकी सबसे बड़ी कमजोरी अंतरराष्ट्रीय राजनीति एवं विदेश नीति की सीमित जानकारी की थी। विगत चार वर्षों में संसद सदस्य रहते हुए वे इस सीमा को तोड़ पाए हैं या नहीं, यह हम नहीं जान पाए हैं। ऐसे समय जब भारतीय जनता पार्टी 2014 में अपनी सरकार बनाने का सिर्फ सपना ही नहीं देख रही है, बल्कि दावा भी ठोक रही है तब पार्टी प्रमुख से यह अपेक्षा करना स्वाभाविक है कि वह वैश्वीकरण के इस दौर की राजनीतिक बुनावट से भली-भांति परिचित हो। यह भी ध्यान देने योग्य है कि 2005 के मुकाबले आज वैश्विक अर्थव्यवस्था राजनीति पर कहीं ज्यादा हावी हो चुकी है। यह कहना ज्यादा सटीक होगा कि आज अंतरराष्ट्रीय धरातल पर राजनीति और अर्थनीति दोनों एकाकार हो चुके हैं। प्रश्न उठता है कि क्या राजनाथ सिंह इस चुनौती का सामना कर पाएंगे।

भाजपा के नए अध्यक्ष के सामने एक नई चुनौती युवा पीढ़ी का विश्वास जीतने की है। उन्हें यह सिध्द करना होगा कि वे अपने वक्तव्यों और कार्यक्रमों से युवा मतदाताओं को लुभा सकते हैं। इसके लिए उन्हें पार्टी की पारंपरिक रीति-नीति में आमूल-चूल बदलाव लाने की जरूरत होगी। यह हम देख रहे हैं कि आज नई पीढ़ी के सामने कोई आदर्श, कोई आईकॉन नहीं है। उसकी राजनीतिक समझ भी तात्कालिक भावनाओं से संचालित होती है, क्योंकि युवा पीढ़ी की राजनैतिक समझ विकसित करने के दायित्व से सभी पार्टियों ने हाथ धो लिए हैं। यह पीढ़ी नई तकनीकी, नए औजारों और नए संसाधनों से व्यवस्था को बदल डालने का स्वप्न देख रही है। इसको आप कैसे समझाएंगे कि भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस के मुकाबले न सिर्फ एक बेहतर विकल्प है, बल्कि यह भी कि उसमें युवजनों की आशाओं, आकांक्षाओं को फलीभूत करने की सामर्थ्य है!

राजनाथ सिंह के सामने एक और नई चुनौती नरेन्द्र मोदी के रूप में सामने है। यह सबको पता है कि भाजपा का पितृसंगठन याने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मोदी को कोई खास पसंद नहीं करता है। पार्टी में भी जो लोग शीर्ष स्थानों पर बैठे हैं वे भी मोदी को प्रधानमंत्री बनते नहीं देखना चाहते। एक अरुण जेटली ही हैं जिनके बारे में अनुमान होता है कि उन्होंने नरेन्द्र मोदी के साथ तालमेल बना रखा है, वह भी शायद इसलिए कि जेटली गुजरात सेराज्यसभा सदस्य हैं। अन्यथा सुषमा स्वराज, यशवन्त सिन्हा, जसवंत सिंह - इनमें से प्रत्येक संगठन में वरिष्ठता और सरकार चलाने का अनुभव इन दोनों आधारों पर प्रधानमंत्री पद के अभिलाषी है, लेकिन यह ऐसा मामला नहीं है जिसका निपटारा पार्टी के भीतर हो जाए। कारपोरेट भारत ने तो नरेन्द्र मोदी पर दांव लगाया हुआ है। इसलिए आज गडकरी के हटने से जो खुश हैं, कल उन्हें इस प्रश्न से जूझना होगा कि श्री मोदी को गुजरात में ही कैसे बांधकर रखा जाए। 

इस पृष्ठभूमि के मद्देनजर एक और अहम् सवाल उभरता है कि क्या भारतीय जनता पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव के लिए तैयार है। पार्टी अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य होगी, लेकिन वह अपने आप में पर्याप्त नहीं है। भाजपा के सामने असली सवाल तो स्वयं को नए सांचे में ढालने का है। जैसा कि हम जानते हैं कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों में अब कोई ज्यादा मतभिन्नता नहीं है। संघ परिवार के पुराने निष्ठावान लोग भले ही स्वदेशी की बात करते रहें, भाजपा की व्यापक सोच में उसके लिए कोई स्थान नहीं है। अब जो फर्क कांग्रेस व भाजपा में है वह मुख्यत: धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता का है। इस मुद्दे पर भाजपा को संघ के निर्देशों पर ही चलना होता है। 

पिछले एक दशक के दौरान अनेक राजनैतिक अध्येताओं ने यह उम्मीद जाहिर की है कि भाजपा संकीर्णता का परित्याग कर एक समावेशी पार्टी बन जाएगी, लेकिन यह उम्मीद निकट भविष्य में तो पूरी होती नार नहीं आती। अटल बिहारी वाजपेयी के क्षेत्रसन्यास के बाद पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं है जो संघ परिवार की रूढ़िवादी सोच को चुनौती दे पार्टी को आगे ले जाने के लिए एक नया रास्ता तलाश कर सके। हमें यहां 1959 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा स्थापित स्वतंत्र पार्टी का ध्यान आता है। उन दिनों जब कांग्रेस समाजवाद की बात कर रही थी तब स्वतंत्र पार्टी उन्मुक्त पूंजीवाद के प्रवक्ता के रूप में उभरी थी, लेकिन उसमें धार्मिक संकीर्णता के लिए जगह नहीं थी। इसी की बदौलत 1962 के आम चुनाव में स्वतंत्र पार्टी संसद में दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। यदि भाजपा चाहे तो देश के संसदीय इतिहास के इस अध्याय से आज कुछ प्रेरणा ले सकती है, अन्यथा भावना की राजनीति करते रहने से वह आज जहां है, उससे आगे नहीं जा पाएगी।
 
देशबंधु में 31 जनवरी 2013 को प्रकाशित 

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