Wednesday 7 August 2013

तेलंगाना : सही निर्णय



आंध्र को विभाजित कर पृथक तेलंगाना राज्य गठित करने का निर्णय क्यों लिया गया! यह स्वाधीनता के बाद देश की राजनीति में उभरी एक और विडम्बना है, इसलिए कि हमारा राजनैतिक तंत्र (बॉडी पॉलिटिक) इतिहास से सबक लेने से इंकार करता है। मैं छोटे राज्यों की स्थापना का प्रबल पक्षधर हूं तथा आगे इस पर अपने तर्क रखूंगा, लेकिन पहले इस विडम्बना को समझ लिया जाए। पिछले साठ सालों के दौरान आधा दर्जन बड़े प्रांतों का विभाजन होकर नए प्रांत बने। इसकी सबसे बड़ी वजह यही समझ में आई थी कि सत्ता का विकेन्द्रीकरण न होने से कई स्तरों पर विषमता पैदा हो रही थी तथा सत्ता केन्द्र से दूर बसे जनपद अपने आपको छला गया व किसी हद तक तिरस्कृत अनुभव करते थे। पंजाब, असम, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश- इन सबमें यही भावना व्याप्त थी। अगर समय रहते सब को साथ लेकर चलने की मंशा से विकेन्द्रीकरण की दिशा में जरूरी कदम उठाए गए होते तो इन राज्यों के  विभाजन की जरूरत शायद नहीं पड़ती। आंध्र और उसके एक हिस्से के रूप में तेलंगाना में भी यही स्थिति बनी हुई थी, जिसका निराकरण करने के ईमानदार प्रयत्न नहीं किए गए।

आज तेलंगाना नया राज्य बनने की राह पर अग्रसर है, किन्तु देश के बहुत से हिस्सों में भीतर ही भीतर इसी तरह की भावनाएं उबल रही हैं। अलग विदर्भ प्रांत बनाने की मांग पिछले पचास साल से चली आ रही है। एक समय जामवंत राव धोटे के नेतृत्व में वहां प्रखर आंदोलन चला था। आज कांग्रेस के ही वरिष्ठ सांसद व कांग्रेस कार्यसमिति के स्थायी आमंत्रित विलासराव मुत्तेमवार सोनिया गांधी को पत्र लिखकर विदर्भ पर आगाह कर रहे हैं। इस परिदृश्य में मुझे दोहरी विडम्बना नज़र आती है इसलिए कि राजीव गांधी की पहल पर ही जनतंत्र के तीसरे स्तर याने पंचायती राज व स्थानीय स्वशासन की अवधारणा को वैधानिक स्वरूप दिया गया था। एक तरफ विकेन्द्रीकरण के लिए सैध्दांतिक सहमति, दूसरी तरफ व्यवहारिक रूप में केन्द्रीकृत सत्ता का वर्चस्व! यह संभवत: राजनीति का स्वभावगत चरित्र है कि जिसके पास सत्ता है वह उसमें किसी तरह भागीदारी नहीं करना चाहता। अधिकतर प्रदेशों में पंचायती राज संस्थाएं शक्तिशाली नहीं हो पाई हैं तो उसका कारण यही है।

खैर! अब तो एक नया राज्य बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। इसके पीछे-पीछे अनेक क्षेत्रों से नए राज्य गठन करने की मांगें भी सहज ही उठने लगी हैं। मेरा मानना है कि सरकार को बिना ज्यादा वक्त गंवाए द्वितीय राज्य पुर्नगठन आयोग की स्थापना कर देना चाहिए। जिस दिन तेलंगाना की खबर आई थी उसी दिन मैंने सोशल मीडिया के माध्यम से यह बात कही थी तथा मुझे यह जानकर आश्चर्य नहीं हुआ है कि अनेक राजनैतिक अध्येता यही बात कह रहे हैं। केन्द्र सरकार इस प्रस्ताव को मान ले तो इस मुद्दे पर व्यर्थ की राजनीतिक उठापटक से बचा जा सकेगा। जहां कहीं भी नए राज्य की मांग है वहां के निवासियों का अपना पक्ष तैयार व प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त समय मिल जाएगा और अंतत: जो भी निर्णय होंगे वे उद्दाम भावनाओं के बजाय ठोस तर्कों पर आधारित होंगे।

छोटे राज्यों की स्थापना के पीछे मेरा सबसे पहला तर्क है कि जनसंख्या बहुल प्रदेशों का सुचारु प्रशासन करना किसी भी प्रादेशिक सरकार की क्षमता के परे है। मसलन बीस करोड़ की आबादी वाले उप्र में यह संभव ही नहीं है कि मुख्यमंत्री जनता के साथ जीवंत संपर्क रख सके। 1956 में जब नए मध्यप्रदेश का गठन हुआ था तब प्रदेश की आबादी दो करोड़ थी जो सन् 2000 में बढ़कर आठ करोड़ पर पहुंच गई थी। ऐसे में मुख्यमंत्री के लिए यह नामुमकिन था कि वह देश के सारे हिस्सों पर बराबरी और सही ढंग से ध्यान दे सके। छत्तीसगढ़ नया राज्य बनने के बाद यहां के निवासियों के लिए शासन निश्चित रूप से करीब आ गया है। उसमें जो विकृतियां हैं वह एक अलग बहस का मुद्दा है।

छोटे राज्यों के विरोधी तर्क देते हैं कि इससे देश में अलगाववाद को बढ़ावा मिलेगा। वे आशंका जतलाते हैं कि ऐसे में भारत किसी दिन टूट जाएगा। वे छोटे  राज्यों पर कारपोरेट नियंत्रण होने के खतरे के प्रति भी चेतावनी देते हैं। मेरा कहना है कि अलगाववाद तो उपेक्षा, अन्याय और अपमान से पैदा होता है। विकास में असंतुलन होगा तब भी असंतोष बढ़ेगा, लेकिन अगर इन बुराइयों को मिटाने का रास्ता बन जाए तो फिर अलगाव की भावना बढ़ने के बजाय अपने आप शांत हो जाएगी। वे अगर सीमांत प्रदेशों को लेकर बात कर रहे हैं तब भी यह आशंका निर्मूल है। मिजोरम, अरुणाचल, मेघालय, इनमें आज अलगाव की भावना कहीं दिखाई  नहीं देती। नगालैण्ड, मणिपुर की समस्या एकदम भिन्न है और उसे छोटे राज्यों से जोड़कर नहीं देखना चाहिए। यही बात जम्मू-काश्मीर के बारे में भी कही जा सकती है। जहां तक कारपोरेट नियंत्रण का सवाल है तो उसका संबंध राज्य के छोटे-बड़े होने से नहीं हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां हों या देश के भीतर टाटा, बिड़ला, अंबानी, यह तो राजनीतिक इच्छाशक्ति  पर निर्भर करता है कि आप उनसे दबावमुक्त रह सकते हैं या नहीं।

एक और तर्क विरोध में दिया गया है कि तेलंगाना का गठन भाषावाद प्रांत के सिध्दांत के विपरीत है। सच है कि 1930 में कांग्रेस ने भाषावाद प्रांतों की रचना का संकल्प लिया था, लेकिन इस पर पूरी तरह अमल कभी नहीं हुआ। क्योंकि यह व्यवहारिक नहीं था। हिन्दी के मूर्धन्य विद्वान डॉ. रामविलास शर्मा आदि विशाल हिन्दी प्रदेश की बात करते रहे, लेकिन वैसा नहीं हो सका। यही नहीं, गुजरात और महाराष्ट्र को मिलाकर द्विभाषी बंबई प्रांत बनाया गया था व मद्रास प्रांत में वर्तमान आंध्र व तमिलनाडु दोनों शामिल किए गए थे। आज भी कर्नाटक का बेलगाम क्षेत्र मुख्यरूप से मराठी भाषी है। ओडिशा के गंजाम इलाके में तेलगू का ही प्राधान्य है। भाषा किसी समाज को गढ़ने में एक कारक तो हो सकती है, लेकिन इतिहास और भूगोल की भूमिका को अनदेखा करना अक्सर संभव नहीं होता।

अभी तेलंगाना के विरोध में शेष आंध्र से आवाजें  उठ रहीं हैं। यह शुरुआती दौर की प्रतिक्रिया है। अनुमान होता है कि धीरे-धीरे जनभावनाओं का शमन होगा और आंध्र की जनता आंदोलन छोड़कर एक नई इकाई के रूप में अपने विकास की नई संभावनाएं तलाश करने लगेगी। नए प्रदेश में एक नई राजधानी विकसित होगी ही। कई दृष्टियों से विजयवाड़ा इसके लिए उपयुक्त प्रतीत होता है यद्यपि कुरनुल व विशाखापट्टनम भी दावा पेश कर सकते  हैं। जो भी हो, नई राजधानी के अलावा एक नई राजधानी ट्रेन, एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी, एम्स, नवोदय विद्यालय, केन्द्रीय विद्यालय आदि भी  राज्य को मिलेंगे। दोनों राज्यों के बीच संसाधनों के बंटवारे आदि को लेकर प्रश्न जरूर खड़े होंगे, लेकिन समय के साथ उनका भी समाधान होगा। आंध्र को शायद इस बात से खुश होना चाहिए कि नक्सलवाद तेलंगाना में छूट जाएगा।

मेरा लंबे समय से मानना है कि एक प्रदेश के सुचारु प्रशासन के लिए उसकी आबादी दो करोड़ के आसपास होना चाहिए। दुर्गम प्रदेशों में आबादी और भी कम हो सकती है। इस लिहाज से भारत में अभी कम से कम बीस नए प्रांतों का गठन हो सकता है। सुश्री मायावती ने अपने मुख्यमंत्री काल में उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने का संकल्प किया था। वहां पूर्वांचल, अवध, बुंदेलखंड, बृज व हरित प्रदेश बनने की परिस्थितियां निश्चित रूप से मौजूद हैं। यही बात कुछ अंतर के साथ राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र मध्यप्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु, बिहार, पश्चिम बंगाल व जम्मू-काश्मीर के बारे में कही जा सकती है। जहां भी सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा वह परिधि के निवासियों के लिए नए अवसर लेकर आएगा। उन्हें स्वयं को पराए समझे जाने के क्षोभ से भी मुक्ति मिलेगी तथा सरकारी दफ्तरों व कोर्ट कचहरी के चक्कर काटने में जो समय बर्बाद होता है व जितनी रकम खर्च करना पड़ती है उसमें भी बचत होगी।

कुल मिलाकर नए तेलंगाना का स्वागत है और द्वितीय राज्य पुर्नगठन आयोग का इंतजार!

देशबंधु में 8 अगस्त 2013 को प्रकाशित 

1 comment:

  1. सार्थक, संतुलित और मननीय विश्लेषण।

    आभार

    डॉ .चन्द्रकुमार जैन

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