Wednesday, 28 August 2013

नवसाम्राज्यवाद, विदेश मोह और लेखक



ऐसा याद पड़ता है कि वह कहानी भीष्म साहनी की ही थी। शीर्षक क्या था, ध्यान नहीं है। कहानी में एक भारतीय महिला पर्यटक का चित्रण है, जो विदेश यात्रा के दौरान इटली में एक खूबसूरत सा पर्स इस लालच में खरीद लेती है कि देश में इम्पोर्टेड  पर्स का रौब जमाया जा सकेगा। दुर्भाग्य कि वापिस आने पर पर्स के भीतर लगा लेबल देखने से पता चलता है कि वह तो मेड इन इंडिया है। यह कहानी लगभग पांच दशक पहले लिखी गई होगी। यह वह दौर था जब भारतवासियों के लिए विदेश यात्रा सहज सुलभ नहीं थी तथा विदेश यात्रा कर लेना अपने आपमें प्रतिष्ठा का पर्याय था। भारत से बाहर जाने पर विदेशी मुद्रा भी सीमित मात्रा में मिलती थी तथा खर्च करते समय एक-एक पाई, पेन्स या सेंट का हिसाब लगाना पड़ता था। इस वजह से विदेशों में भारतीय पर्यटकों को किसी हद तक हिकारत की नजर से भी देखा जाता था। यद्यपि इसके पीछे कुछ दूसरे कारण भी होते थे। 

भीष्म साहनी उन गिने-चुने लेखकों में थे जिन्हें उस दौर में विदेश यात्रा के ही नहीं बल्कि वहां लम्बे समय तक रहने का अवसर भी मिला था। उनके समकालीन दूसरे लेखक निर्मल वर्मा थे जिन्होंने विदेश में लम्बा वक्त गुजारा। निर्मल जी ने तो अपने सुदीर्घ प्रवास की पृष्ठभूमि पर बहुत-सी रचनाएं भी लिखी हैं, लेकिन भीष्म जी की यह उपरोक्त कहानी एक नई भावभूमि को उद्धाटित करती है, जिसके सूत्र मुक्तिबोध की सुप्रसिध्द कहानी ''क्लॉड इथरली'' में पाए जा सकते हैं। दो सौ साल की गुलामी से उबरा देश, एक नए सत्तासम्पन्न, सुविधा सम्पन्न वर्ग का उदय, विदेश और विदेशी वस्तुओं के प्रति आकर्षण, अपने देशज परिवेश के प्रति भर्त्सना का भाव, एक नए किस्म की श्रेष्ठता का दंभ- इनका बयान मुक्तिबोध की कहानी में विस्तार से है और भीष्म जी की कहानी का आधार भी वही है। 

यदि देश में एक नया विदेशोन्मुखी अथवा मुख्यत: पश्चिम से प्रभाव ग्रहण करने वाला वर्ग तैयार हो रहा था, तो लेखक समुदाय भी सात समंदर पार के आकर्षण से अछूता नहीं बचा था। एक बार किसी तरह विदेश यात्रा का मौका मिल जाए, फॉरेन रिटर्न कहला सकें, यह लालसा काफी बलवती थी और इसके लिए कितने सारे लेखक, चाहे जितने पापड़ बेलना पड़े, तैयार रहते थे। यह एक समय विशेष का प्रभाव था कि दबाव जिसके लिए लेखक की ही आलोचना करना न्यायसंगत नहीं होगा। सो उस दौर में कुछ ऐसे ईवेन्ट मैनेजरनुमा लेखक भी हुए जिन्होंने अपने बिरादरी के लोगों की बलवती आकांक्षा को तुष्ट करने के लिए कल्पनाशील प्रयोग किए और किसी न किसी बैनर के तले लेखकों का विदेश यात्रा करना प्रारंभ हुआ। जब वे लौटकर आते तो पता चलता था कि उन्होंने मास्को या वाशिंगटन, न्यूयार्क या लंदन, पेरिस या वारसा में किस तरह से हिन्दी भाषा के झंडे गाड़ दिए हैं। 

सच पूछिए तो यह सिलसिला आज भी चल रहा है। सत्तर के दशक में ईवेन्ट मैनेजमेंट नामक विधा से लोग अपरिचित थे तथा इस तरह की सेवा देने वाले लोगों की प्रशंसा इंतजाम अली कहकर की जाती थी। इधर नई सदी में ईवेन्ट मैनेजमेंट व्यापार प्रबंधन की एक सर्व स्वीकार्य विधा बन चुकी है तथा अब जो इंतजामात होते हैं वे पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा सलीके से। ऐसा पता चलता है कि दुनिया के तमाम देश हिन्दी साहित्य का रसास्वाद करने के लिए मानो तड़प रहे हों। अब छोटे-मोटे कार्यक्रम नहीं होते, सीधे-सीधे विश्व सम्मेलन या अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होते हैं। हमारे मित्र विदेश से लौटकर आते हैं और फिर अपनी यात्रा का जिस भावोच्छ्वास के साथ वर्णन करते हैं वह देखते ही बनता है। प्रकारांतर से वे यह सिध्द करते हैं कि भारत कितना दरिद्र देश है और विदेश में तो स्वर्ग ही स्वर्ग है। 

हमारे ये लेखक मित्र चूंकि अपनी गाढ़ी कमाई में से रकम निकालकर विदेश यात्रा करते हैं इसलिए उन्हें पूरा हक बनता है कि विदेश में व्याप्त स्वर्ग का पूरा आनंद उठाएं। कुछेक अधिक बुध्दिमान लोग सरकारी डेलिगेशनों के सदस्य बनकर यात्राएं करते हैं तो उनके लिए भी कहा जा सकता है कि आखिर पैसा तो अपना ही है। बहरहाल मैंने बात तो एक कहानी से शुरू की थी और उसका सूत्र कहीं और मिलाने जा रहा था कि बीच की इतनी सारी बात अवांतर ही आ गई, जिसे समेटते हुए इतना कह लेने में शायद कोई बुराई नहीं है कि हमारे ''फॉरेन रिटर्न'' लेखकों की रचनाओं से वह अंतर्द्वंद्व लगभग नदारद है जिसका बहुत ही सशक्त चित्रण भीष्म जी की कहानी में देखने मिला था। 

उपरोक्त कहानी के सहसा याद आ जाने के पीछे एक छोटा-सा समाचार है जो अभी दो-तीन दिन पहले किसी अंग्रेजी अखबार में पढ़ने मिला था। इस खबर में बताया गया था कि अब विदेश यात्रा करने वाले भारतीय उदारता के साथ टिप देने लगे हैं ताकि उनके ऊपर लगा कंजूसी का लेबल हट जाए और उन्हें विदेश प्रवास के दौरान हिकारत से न देखा जाए। यह एक दिलचस्प खबर है और कुछेक सवाल उठाती है- आजकल विदेश यात्रा करने वाले भारतीय किस तबके से आते हैं, उनकी आय का स्तर क्या है, देश में रहते हुए उनके लेनदेन का व्यवहार कैसा है, वे विदेश यात्रा पर क्यों जाते हैं और क्या देखते हैं, विदेशी धरती पर उनका आचरण कैसा होता है और वापिस आने के बाद वे समाज में कैसा आचरण करते हैं? इन सबसे बढ़कर यह है कि उदारता से टिप देने के पीछे उनकी मनोभावना क्या होती है। 

एक छोटी सी खबर से उठते इन सवालों को मैं यहां इसलिए सामने रख रहा हूं कि इनसे हमें भारत की एक बदलती हुई तस्वीर देखने में मदद मिलती है और यदि आज भी हमारे बीच कहीं भीष्म साहनी जैसे प्रतिभाशाली लेखक हैं तो उन्हें इन सवालों से अपनी रचनाओं के लिए नए विषय मिल सकते हैं। ऐसे नए विषयों पर रचना की बात इसलिए कि थैचर और रीगन के जमाने से बढ़ते-बढ़ते नवसाम्राज्यवादी ताकतों ने जिस तरह से भारत सहित लगभग समूचे विश्व को अपनी जकड़ में ले लिया है, उस पर हिन्दी जगत में सैध्दांतिक चर्चा तो बहुत हुई है, लेकिन रचनात्मक साहित्य के रूप में उसका प्रकाशन लगभग नहीं के बराबर हुआ है। यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो यह कहने की जरूरत नहीं पड़ना चाहिए कि हिन्दी के कवि और कथाकार आज के दौर में अपनी जिम्मेदारी को अपेक्षित गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। 

साफ-साफ दिखाई देता है कि पिछले तीस वर्षों के दौरान भारत के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक ढांचे में बहुत बड़ा बदलाव आया है। एक समय मुंबई की दलाल स्ट्रीट और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का हमारे दैनंदिन जीवन में सामान्यत: कोई स्थान नहीं था। आज पूंजी बाजार का सट्टा आर्थिक गतिविधि का एक अहम् हिस्सा बन चुका है। जो बैंगलुरु और हैदराबाद सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों के लिए ख्याति प्राप्त थे, वे आज सिलिकॉन वैली के भारतीय संस्करण में बदल चुके हैं। आईआईटी और आईआईएम की स्थापना इसलिए हुई थी कि इनसे देश के भीतर काम करने के लिए दक्ष इंजीनियर और कुशल व्यापार प्रबंधक तैयार होंगे। यह तब  अनुमान नहीं था कि कैम्पस सिलेक्शन के नाम पर उत्कृष्ट शिक्षा के केन्द्रों को मंदी में बदल दिया जाएगा जहां विदेशी और देशी कंपनियां बोली लगाकर नौजवानों को खरीदेंगी। 

यह भी हम कहां जानते थे कि हॉकी को अपदस्थ कर क्रिकेट भारत का राष्ट्रीय खेल बन जाएगा कि उसमें खिलाड़ियों की खरीद-बिक्री होगी, खिलाड़ी सहर्ष बिकने को तैयार होंगे और यह इसलिए कि अन्य खेलों के बनिस्बत क्रिकेट में विज्ञापन और प्रचार के बेहतर अवसर उपलब्ध हैं। यही क्यों, एक तरफ देश में स्त्री के अधिकारों की बात उठती है, दूसरी तरफ विश्व के टेनिस कोर्टों में महिला खिलाड़ियों का मूल्यांकन उनकी देहयष्टि से किया जाने लगा है और अब तो भारत में बैडमिंटन को भी क्रिकेट की तर्ज पर बाजार के हवाले कर दिया गया है। उधर क्रिकेट व अन्य खेलों में सट्टे को वैध करने की आवाज पुरजोर तरीके से उठाई जा रही है। देश की राजनीति पर गौर करें तो बहुत महीन तरीके से कोशिश चल रही है कि यहां अमेरिकी तर्ज पर राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू कर दी जाए। कार्पोरेट जगत के लिए यह सुविधाजनक है कि एक आदमी पर दांव लगा दे, बजाय इसके कि बड़ी संख्या में चुने गए संसद सदस्यों के साथ सौदेबाजी करना पड़े। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस तरह से आए परिवर्तनों के प्रमाण देखे जा सकते हैं- लेकिन जो बात नहीं बदली है वह यह कि नेता, अफसर, व्यापारी का जो गठबंधन पहले होता था वह आज भी कायम है। पहले यदा-कदा इस तिकड़ी के खिलाफ आवाज् उठाई जा सकती थी, लेकिन आज तो वह भी संभव नहीं है। मीडिया भी उनका है और गुंडे भी उनके। भारत में अगर सबसे सुरक्षित, सबसे अच्छा व्यवसाय कोई है तो वह है गवर्नमेंट सप्लाई का। यह पहले भी था, लेकिन अब इसका अनुपात कई गुना बढ़ चुका है। 

भारत से जो लोग विदेश यात्रा पर जाते हैं उनमें से ज्यादातर इसी वर्ग के लोग होते हैं। सुविधा के लिए इसे हम नवधनाढ्य वर्ग कह सकते हैं, यद्यपि उनके लिए यह संज्ञा अधूरी ही मानी जाएगी। इस वर्ग ने अपनी पहुंच, पहचान और प्रभाव का उपयोग कर अपार संपत्ति बटोरी है। इनके कारखानों, प्रतिष्ठानों में काम कर रहे काबिल लोगों को ऐसे आकर्षक पैकेज मिलते हैं कि वे उनमें बंधकर रह जाते हैं। एक नई आर्थिक संस्कृति विकसित हो गई है जो अंधाधुंध गैर जरूरी सामानों के उत्पादन में लगी है और जिसे खपाने के लिए नए-नए उपाय किए जा रहे हैं। विदेश यात्रा भी इस संस्कृति का ही एक हिस्सा है। यूं तो मनुष्य सृष्टि के प्रारंभ से ही यात्राएं करते रहा है, लेकिन आज का पर्यटन उद्योग एक अलग ही विषय है। मुक्तिबोध की कहानी में स्वतंत्रता के बाद उभरे जिस नए वर्ग का जिक्र हुआ है वही वर्ग अब एक नए तेवर के साथ सामने आ रहा है। इस वर्ग के लोग विदेशों में जाकर वहां के अनुकूल आचरण करते हैं, लेकिन अपनी धरती पर वापिस कदम रखते साथ उनके तौर तरीके बदल जाते हैं। ये विदेशों की बहुत-सी अच्छी बातों की तारीफ तो करते हैं, लेकिन इनके अपने आचरण में उसका लेशमात्र भी नहीं है। ये जब विदेश में उदारतापूर्वक टिप देते हैं तो अपने अहंकार की तुष्टि के लिए कि इन्हें कोई कंजूस न समझ ले। इनके लिए विदेश वैसा ही स्वर्ग है जैसा भीष्म जी की नायिका के लिए था। ये जितना बटोर सके उतना सामान लाने की कोशिश करते हैं। फिर इनकी कोशिश होती है कि कस्टम में घूस देकर सामान निकाल लिया जाए और बाद में फिर यही लोग देश में भ्रष्टाचार को लेकर शिकायत करते हैं। 

नवसाम्राज्यवाद के दौर में यह जो नया समाज तैयार हुआ है इसके वर्गचरित्र का बारीकी से अध्ययन करना समय की आवश्यकता है। हर समर्थ लेखक अपने देशकाल की प्रवृत्तियों का लेखा-जोखा अपनी रचनाओं में करता है। यही उम्मीद आज के लेखक से करना गलत न होगा।

अक्षर पर्व अगस्त 2013 की प्रस्तावना 

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