Wednesday 28 August 2013

भारत : बुजुर्गों का ख्याल

सुबह-सुबह फोन की घंटी बजी। 
 ''कहां हैं आप? रायपुर में ही हैं?''
 ''हां यहीं हूं, क्या बात है?''
 ''आज 12 बजे एक कार्यक्रम है। आपको अच्छा लगेगा। आ सकेंगे?''
 ''हां, क्यों नहीं। जरूर आऊंगा।''

यह अच्छा संयोग था कि उस रोज पूर्वान्ह में मैं कोई खास व्यस्त नहीं था और इसलिए मित्र के आदेश को मानते हुए उनके बताए कार्यक्रम में शामिल हो सका। यह कार्यक्रम वृध्दजनों या कि वरिष्ठ नागरिकों के हित में पिछले पैंतीस साल से काम कर रही संस्था  ''हेल्प एज'' ने आयोजित किया था। वह इस प्रदेश में अपनी गतिविधियों को विस्तार देना चाहती है। मेरे लिए इस आयोजन में शरीक होने के दो आकर्षण थे। एक तो मैं स्वयं उसी आयु समूह में हूं जिनकी फिक्र उस जैसी संस्थाएं कर रही हैं और दूसरे इस विषय पर कुछ नई जानकारियां हासिल करने का मौका भी हाथ लग रहा है।

छत्तीसगढ़ के राज्यपाल शेखर दत्त इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे।  उन्होंने अपने विविध अनुभवों के आधार पर कुछ अच्छी बातें सामने रखीं। उनके अलावा आयोजक संस्था की ओर से भी भारत में वृध्दजनों की स्थिति को लेकर आंकड़ों और तथ्यों के साथ काफी सूचनाएं दी गईं। श्री दत्त ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया कि आज भारत की जनसंख्या में आधे के लगभग याने कोई पचपन करोड़ व्यक्ति युवा हैं। अर्थात् आज की तारीख में भारत एक युवा देश है और इतने बड़े परिमाण में युवाशक्ति विश्व के किसी अन्य देश में नहीं है। लेकिन आज से बीस-पच्चीस साल बाद यही युवा प्रौढ़ता को प्राप्त करेंगे तब उनकी देखभाल कैसे होगी और दूसरी तरफ समाज में उनकी उपस्थिति का लाभ किस रूप में उठाया जा सकेगा? उन्होंने इसके बाद इंग्लैंड आदि के उदाहरण दिए कि वहां वृध्दजनों को समाज में सक्रिय बनाए रखने के लिए क्या उपाय किए गए।

छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ मंत्री बृजमोहन अग्रवाल कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने दूसरे सिरे से बात उठाई। श्री अग्रवाल ने भारत में संयुक्त  परिवार प्रथा के बिखरने पर चिंता व्यक्त की और राजनीतिक भाषण के अंदाज में यह कहकर  तालियां बटोरीं कि देश को वृध्दाश्रमों की नहीं, बल्कि घर-परिवार में वृध्दों को सम्मान देने की जरूरत है।  उनकी बात अपील करने वाली थी और एक आदर्शवादी सोच को प्रतिबिंबित कर रही थी। लेकिन क्या आज की जीवन परिस्थितियों में इस सोच को व्यवहारिक धरातल पर उतारना संभव है? यह एक सवाल उन्होंने छोड़ दिया। बहरहाल एक-डेढ़ घंटे के कार्यक्रम में जो चर्चाएं हुईं, उसने मुझे भी इस विषय पर दिमागी घोड़े दौड़ाने के लिए उकसाया।  वहां बैठे-बैठे ही इससे जुड़े बहुत से मुद्दे मन में उमड़ने लगे।

मेरा ध्यान सबसे पहले वृध्दाश्रम की परिकल्पना पर गया। यूरोप-अमेरिका के देशों में नागरिक वृध्दावस्था में एकाकीपन झेलने के लिए अभिशप्त होते हैं, यह मैंने देखा है। वृध्दाश्रम में रहते हुए वे अपनी जमीन से पूरी तरह उखड़ जाते हैं। वे तरसते हैं कि बेटे-बेटी, नाती-पोते उनसे मिलने के लिए आएं। वहां स्काउट और रोटरी क्लब आदि संस्थाएं स्कूल के बच्चों को वृध्दाश्रम ले जाने का कार्यक्रम भी बनाती हैं ताकि उन रहवासियों को कुछ देर के लिए उत्फुल होने का अवसर मिल सके। घंटे दो घंटे के लिए सही उनका सूनापन तो कम हो। अभी चालीस साल पहले तक भारत में ऐसी स्थिति नहीं थी। हम सचमुच अपनी संयुक्त परिवार प्रथा पर अभिमान करते थे, लेकिन वैश्विक  अर्थव्यवस्था में आए बदलावों से हम भी नहीं बच पाए और वह स्थिति आ ही गई जब मां-बाप एक शहर में और बच्चे नौकरी करने के लिए दूसरे शहर में। उन्हें आपस में मिलने के अवसर भी कम होते गए हैं तथा जरूरत पड़े तो बूढ़े लोगों की देखभाल पड़ोसी ही करते हैं। बच्चों को तो काम से छुट्टी ही नहीं मिलती।

ऐसा नहीं कि भारत में वृध्दजनों का शुरू से सम्मान ही होते आया हो। प्रेमचंद ने अपनी 'बेटों वाली विधवा' शीर्षक कहानी में इस कड़वी सच्चाई पर बखूबी प्रकाश डाला है कि पिता की मृत्यु के बाद विधवा मां कैसे उपेक्षित कर दी जाती है। 1961-62 में उषा प्रियंवदा की अत्यन्त प्रसिध्द कथा 'वापसी' में भी यही वर्णन है कि रिटायर्ड पिता को बेटे के घर में सम्मान नहीं है जबकि मां घर के कामकाज में स्वयं को व्यस्त रखकर समझौता कर लेती है। नब्बे के  दशक में रमेश याज्ञिक की मार्मिक कहानी 'दादाजी तुम कब जाओगे' भी ऐसी ही थीम पर है और आज की पीढ़ी को अमिताभ बच्चन और हेमामालिनी की फिल्म 'बागबान' की कहानी याद दिलाने की जरूरत ही नहीं है।

कहना होगा कि वृध्दों का एकाकीपन आज एक अकाटय सत्य है। वृध्दाश्रम एक व्यवहारिक उपाय। देश में जगह-जगह वृध्दाश्रम स्थापित हो गए हैं। पहले तो सरकार ही इन्हें खोलती थी और उसमें शरण लेने वाले ज़्यादातर गरीब या मध्यमवर्गीय व्यक्ति होते थे। उनका संचालन अगर कोई संवेदनशील अधिकारी हुआ तो ठीक वरना आश्रमवासियों को करुण दशा में ही रहना पड़ता था। हाल के बरसों में सुविधा सम्पन्न वृध्दजनों के लिए कुछ ऊंचे स्तर के वृध्दाश्रम बनने लगे हैं, लेकिन जो संस्थाएं इन्हें बनाती और चलाती हैं उनकी सोच रूढ़िवादी और दृष्टि उपकार की भावना से ग्रस्त होती है। यह क्यों जरूरी है कि एक वृध्द को सबेरे-शाम कीर्तन ही करना चाहिए अथवा कि उसका भोजन शाकाहारी और वह भी लौकी-तुरई तक सीमित क्यों होना चाहिए? मतलब यह कि ऐसे आश्रम में वृध्द व्यक्ति आनंदपूर्वक नहीं रह सकता।  इसके अलावा वह अपने खाली समय का उपयोग कैसे करे इसके बारे में भी कोई सोच यहां दिखाई नहीं देती।

मैं समझता हूं कि इस विषय पर हमें नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। यह एक तथ्य है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के चलते औसत आयु में वृध्दि हुई है। आज 70-75 साल की उम्र तक भी नागरिक सक्रियतापूर्वक काम कर सकता है बल्कि 80 और 90 की उम्र में भी सक्रिय रहने वाले व्यक्तियों की समाज में कमी नहीं है। इसे ध्यान में रखकर रिटायरमेंट की वर्तमान आयु 60 से बढ़ाकर 65 कर दी जाए तो इन वयप्राप्त व्यक्तियों को सक्रियता व सम्मान के साथ जीने के कुछ अतिरिक्त वर्ष मिल जाएंगे। डॉ. रमनसिंह ने चुनावी वर्ष में सेवानिवृत्ति की आयु 60 से बढ़ाकर 62 कर दी है, इसका स्वागत है, लेकिन इस बारे में मुकम्मल राष्ट्रीय नीति बनाने की जरूरत है।

साठ पैंसठ की आयु के बाद नागरिकों के समय, अनुभव व शक्ति का उपयोग कैसे हो, यह भी विचारणीय है। उन्हें साक्षर भारत या सर्वशिक्षा अभियान जैसी योजनाओं से जोड़ने में क्या कठिनाई है? भारतीय रेल में स्टेशनों के प्रतीक्षालयों की देखभाल में शारीरिक अशक्तजनों को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसे और क्षेत्र हो सकते हैं जहां इसी तर्ज पर वृध्दजनों की सेवाएं ली जा सकें। पर्यटन स्थलों पर बल्कि बड़े नगरों में भी वृध्दजनों के लिए योजना बनाई जा सकती है कि उनके घर में पर्यटकों के लिए 'ब्रेड एंड ब्रेकफास्ट' या 'पेइंग गेस्ट' रखने का इंतजाम हो जाए।  इससे उनका समय भी कटेगा तथा अर्थलाभ भी होगा। भारत सरकार की एक राष्ट्रीय पुस्तक संवर्ध्दन परिषद है। इसके अंतर्गत देश भर में लाइब्रेरियां संचालित होना है। वरिष्ठ नागरिकों को मानदेय पर इन पुस्तकालयों का संचालक बनाया जा सकता है।

कहने की जरूरत नहीं कि ये वरिष्ठ नागरिक अनुभवों के धनी हैं।  इनमें से कुछ के पास लेखन की क्षमता होगी, लेकिन अधिकतर के पास नहीं। क्या विद्यार्थियों के लिए कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है कि इनके पास जाकर बैठें और इनके अनुभवों को लिपिबध्द करने का काम करें? इस तरह की और बहुत सी योजनाओं के बारे में विचार किया जा सकता है।  इन सबके साथ-साथ यह भी परम आवश्यक है कि इन्हें अपने अधिकारों के प्रति, अपने सम्मान के प्रति सजग किया जाए ताकि कोरी भावनाओं में बहकर इनके जीवन के अंतिम वर्ष नरक में तब्दील न हो जाएं। मुझे वह प्रसंग आज भी बहुत सालता है जब हमारे एक अत्यन्त सम्मानीय बुजुर्ग के लिए उनकी बहू ने दीपावली पर नए कपड़े लाने से इंकार कर दिया क्योंकि वे अपनी संपत्ति की वसीयत इकलौते बेटे के नाम कर चुके थे। दीवाली के दो दिन बाद मेरे दफ्तर में मेरे सामने वे फूट-फूटकर रोए। वह करुण प्रसंग भुलाए नहीं भूलता। भारत सरकार ने बुजुर्गों की सुरक्षा और देखभाल के लिए पर्याप्त कानून प्रावधान कर दिया है। जरूरत पड़ने पर इनका सहारा लेने से बुजुर्गों को हिचकना नहीं चाहिए।

मैं अंत में अपने मित्र को धन्यवाद देता हूं जिनके टेलीफोन पर मिले आमंत्रण के बहाने इस विषय पर सोचने का अवसर मुझे मिला।

देशबंधु में 28 अगस्त 2013 को प्रकाशित 

3 comments:

  1. सचमुच हर घर में आज वृध्दों की स्थिति दयनीय है । कहने में बुरा लगता है पर आश्चर्य होता है कि हम अपने ही माता-पिता के साथ इतने निर्मम कैसे हो सकते हैं ? प्राञ्जल पोस्ट ।

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  2. चाहे जैसी भी स्तिथि है भारत में अच्छी है . बुढ़ापे में व्यस्त रखने से बुढ़ापा आसान हो जाता है . इस लिए व्यस्त करना जरुरी . बनिया की दुकान का बूढ़ा शान जी लेता है क्योकि वे जरुरत बनकर रह रहे हैं

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  3. its true. iaccept it,but it's not good.how can a childs avide their parrents.

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