जे.एम. कोइत्जी वर्तमान समय के एक अत्यंत महत्वपूर्ण रचनाकार हैं। उन्हें नोबल पुरस्कार तो प्राप्त हुआ ही है, वे संभवत: एकमात्र लेखक हैं, जिन्हें दो बार बुकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यूं तो कोइत्जी दक्षिण अफ्रीका के हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों से उन्होंने ऑस्ट्रेलिया को अपना घर बना लिया है। अपने नाम से लिखने के अलावा एलिजाबेथ कॉस्टेलो के छद्मनाम से भी उन्होंने रचनाएं की हैं। कोइत्जी की ख्याति मुख्य रूप से उपन्यासकार अथवा गल्प लेखक के रूप में है, लेकिन उन्होंने अनेक निबंध भी लिखे हैं। उनके तीन निबंध संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। मैं अपनी बात उनके एक निबंध संग्रह ''इनर वर्किंग्स-2000-2005'' को केन्द्र में रखकर कर रहा हूं। इस पुस्तक ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया है तथा साहित्य के मर्म को नए सिरे से समझने का रास्ता दिखाया है। वे लोग जो साहित्य का ज्ञान मुझसे ज्यादा रखते हैं उन्हें यह अतिशयोक्ति लग सकती है कि इस पुस्तक का एक-एक लेख अनूठा है।
इन निबंधों में क्या है? संडे टाइम्स लंदन के पुस्तक समीक्षक हावर्ड जैकबसन के अनुसार ''कोइत्जी इन निबंधों के माध्यम से बार-बार उन लेखकों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं जिन्हें आपने अब तक नहीं पढ़ा है और जिन्हें आप अब तक पढ़ चुके हैं उन्हें दुबारा पढ़ने के लिए उकसाते हैं। इस पुस्तक में कोइत्जी ने इक्कीस प्रमुख लेखकों के व्यक्तित्व व कृतित्व पर निबंध लिखे हैं। पुस्तक के संपादक डेरेक आल्ट्रिज की यह टिप्पणी दृष्टव्य है- ''ऐसा भान होता है कि लेखक ने अपने विषय से जुड़े हर प्रासंगिक पहलू का अध्ययन कर लिया है। यहां तक कि प्रतिपाद्य लेखक के रचना संचार की मामूली, गैर जरूरी और भूलने योग्य कृतियों को भी। वे रचना के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों से भी भली-भांति परिचित होते हैं। वे हर शैली एवं हर विषय पर लिखे साहित्य के एक उदार पाठक हैं किन्तु निर्णय देने में संकोच नहीं बरतते। कुल मिलाकर वे एक आदर्श समालोचक हैं।''
''इनर वर्किंग्स'' में कोइत्जी ने इक्कीस लेखकों के कृतित्व पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियां की हैं। इनमें यूरोप, अमेरिका, लेटिन अमेरिका, अफ्रीका व एशियाई मूल के लेखक शामिल हैं। भारतीय पाठकों के लिए कुछ नाम अधिक परिचित हैं जैसे- वॉल्टर बेंजामिन, वॉल्ट ह्विटमेन, सेमुएल बैकेट, ग्रेब्रिएल गार्सिया मार्क्वेज, वी.एस. नॉयपाल, गुंटर ग्रास, ग्राहम ग्रीन व विलियम फॉकनर। अन्य लेखक भी अपने देश व अपनी भाषा के महत्वपूर्ण लेखक हैं, लेकिन हिन्दी के पाठकों का उनके साथ बहुत यादा परिचय नहीं है। कम से कम मैंने तो रॉबर्ट वाल्सर, इतालो स्वेवो जैसे लेखकों को बिल्कुल भी नहीं पढ़ा है। इनमें कुछ लेखक अंग्रेजी से इतर भाषाओं के हैं, लेकिन इनके काम अंग्रेजी में उपलब्ध हैं। यद्यपि कोइत्जी स्वयं मूलत: अफ्रीकान भाषी (दक्षिण अफ्रीका के डच वंशजों की भाषा) हैं, लेकिन अंग्रेजी उनकी प्रथम भाषा है तथा यादातर निबंध अंग्रेजी लेखकों पर ही हैं।
मुझे इस पुस्तक ने मुख्यत: इसलिए आकर्षित किया कि इसके निबंधों में मुझे समालोचना के नए आयाम देखने मिले। हिन्दी में समीक्षाएं अमूमन यांत्रिक तरीके से लिखी जाती हैं। इनमें मित्र लेखक या प्रकाशक के साथ मधुर संबंध निभाने की भावना हावी होती है। नतीजतन विवेच्य पुस्तक या लेखक के बारे में तटस्थता के साथ विचार कम ही किया जाता है। अनेक बार पुस्तक समीक्षा में हमारा राजनैतिक मत भी पुस्तक के गुण-दोष पर भारी पड़ जाता है। यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है। एक तो हिन्दी में वैसे ही पुस्तकों के खरीदने और पढ़ने का चलन अनेकानेक कारणों से कम होते जा रहा है। ऐसे में किसी रचना की समीक्षा उस रचना को पढ़ने के लिए पाठक को प्रेरित न कर पाए तो फिर ऐसी समीक्षा लिखने और छापने का क्या अर्थ रह जाता है?
ऐसा नहीं कि इसके अपवाद न हों। रामविलास शर्मा द्वारा लिखित 'निराला की जीवनी', अमृत राय का 'कलम का सिपाही', विष्णु प्रभाकर का 'आवारा मसीहा' जैसे विशद ग्रंथ भी हिन्दी में लिखे गए हैं जो महान साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों से पाठक का मुकम्मल परिचय कराते हैं। दूसरी तरफ चुनिंदा कृतियों को लेकर भी बेहतरीन समीक्षाएं लिखी गई हैं। राजेश जोशी ने निराला की किसी कविता पर 'नया पथ' में बेहद सटीक समीक्षात्मक लेख कुछ बरस पहले लिखा था। हाल-हाल में एकांत श्रीवास्तव ने अज्ञेय की 'असाध्य वीणा' व रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ''सोनार तरी' पर अक्षर पर्व में लिखे लेखों में इन रचनाओं की आंतरिक शक्ति को बहुत समर्थ रूप से पाठक के सामने उद्धाटित किया है। जाहिर है कि ऐसे कार्य में समीक्षक को पूरी तरह से अपने आपको विषय में डुबाना पड़ता है।
मैं कोइत्जी की इनर वर्किंग्स के सामने हिन्दी के इन श्रेष्ठ उदाहरणों को सामने रखता हूं तो एक दूसरी बात प्रकट होती है कि उन्होंने अपने एक-एक निबंध में गागर में सागर भरने का काम किया है। उनके लेखों में न तो कहीं असावधानी है और न कहीं शब्द स्फीति और न ही भाषा की दुरूहता। जिस खूबसूरती के साथ इतालो कालविनो ने क्लासिकी साहित्य को परिभाषित किया वैसी ही समझ में आने वाली व बांध लेने वाली भाषा कोइत्जी के निबंधों में है। जैसा कि कहा जाता है कि सरल भाषा में लिखना सबसे ज्यादा कठिन होता है तो कठिनाई पर विजय पाने की शक्ति उनका लेखनी में भरपूर है। कोइत्जी के इन इक्कीस समीक्षात्मक लेखकों में से हरेक के लेख की शुरुआत एक नए ढंग से होती है, वे फिर रचना का मर्म खोजते हुए उसे विस्तार देते हैं और एक सटीक टिप्पणी के साथ लेख का समापन करते हैं। उनकी इस शैली की तुलना किस तरह करुं इसका कोई खाका मैं तैयार नहीं कर पाया हूं। विवेच्य लेखक के जीवन के किसी एक पहलू को उठाकर फिर उसे एक नदी समान विस्तार देना और अंत में सैकड़ों धाराओं में डेल्टा की तरह बिखर जाने के बजाय वापिस उस प्रवाह को समेट लेना इसमें ही लेखक का सामर्थ्य प्रगट होता है।
वे वॉल्टर बेंजामिन पर अपने निबंध की शुरूआत उस दारुण प्रसंग के साथ करते हैं जब बेंजामिन 1940 के हिटलरकालीन फ्रांस छोड़कर स्पेन की ओर भाग रहे हैं, उन्हें सीमा पर रोक दिया जाता है, कागजात अधूरे हैं, अवसाद में बेंजामिन नींद की गोलियां खाकर आत्महत्या कर लेते हैं। वे जो महत्वपूर्ण पांडुलिपि अपने साथ लेकर भाग रहे हैं वह गुम हो जाती है। बरसों-बरस बाद 1982 में उस पांडुलिपि की दूसरी प्रति मिलती है और तब प्रकाशन होता है पेरिस के चंदोबे वाले बाज़ारों (आर्केड) को आधार बनाकर लिखी उनकी पुस्तक का।
इस सुदीर्घ निबंध में कोइत्जी, वॉल्टर बेंजामिन की राजनीति पर मार्क्सवाद का प्रभाव, फासीवाद, इतिहास दृष्टि, बाजार का प्रभाव इन सबकी विवेचना करते हैं। बेंजामिन बढ़ते हुए शहरीकरण के दुष्प्रभावों से चिंतित थे, यहां वे बॉदलेयर से प्रभावित हैं, लेकिन कोइत्जी इंगित करते हैं कि बेंजामिन ने बॉदलेयर से पचास साल पहले हुए वर्ड्सवर्थ को शायद नहीं पढ़ा जिनकी कविताओं में लंदन के बाजारीकरण के चित्र अंकित हैं। बहरहाल, इन सबसे होते हुए अंत पर पहुंचकर कोइत्जी सवाल उठाते हैं- ''वॉल्टर बेंजामिन आखिरकार क्या था : दार्शनिक? समीक्षक? इतिहासवेत्ता? या महज लेखक? इसका सर्वोत्तम उत्तर हन्ना अरेंड्ट ने दिया है। उन्हें आप किसी श्रेणी में नहीं बांध सकते। वे न तो पहले के बने ढांचे में फिट होते हैं और न उन्होंने कोई नई विधा प्रारंभ की है।''
अपने हर निबंध को कोइत्जी ने प्रारंभ से अंत तक इसी साफ नजर और सुघड़ता के साथ बांधा है। उनके कुछ अन्य निबंधों का प्रारंभ हम देखें। ग्राह्म ग्रीन पर लिखते हुए वे 1930 में ब्राइटन नामक समुद्र तट पर बसे एक आकर्षक स्थान की चर्चा करते हैं, जो ग्रीन को बेहद पसंद था। वे लिखते हैं कि- ''ब्राइटन सैलानियों के लिए तो आकर्षक था, लेकिन उसका एक कुरूप चेहरा भी था जहां उद्योगों की धुएं से भरी थकान में भी परस्पर अविश्वास था, अपराध था और ग्रीन वहां बार-बार अपनी रचनाओं के लिए विषय खोजने अथवा प्रेरणा पाने आते थे।'' वॉल्ट ह्विटमेन के लेख की शुरूआत उस पत्र से होती है जो ह्विटमेन अगस्त 1863 में वाशिंगटन के एक अस्पताल में मृत सिपाही के परिवार को शोक संवेदना के नाते भेजते हैं: उस समय ह्विटमेन सिपाहियों के बीच एक पादरी की तरह काम कर रहे थे। बी.एस. नॉयपाल वाले लेख के प्रारंभ में सुप्रसिध्द लेखक सॉमरसेट मॉम की भारत यात्रा का वर्णन है कि वे 1930 की दशक में यहां आए व मद्रास के निकट महर्षि रमण के आश्रम में उनसे मिलने गए। वे वहां गर्मी के कारण कुछ देर के लिए बेहोश भी हो गए। इसके आगे कोइत्जी वर्णन करते हैं कि इस घटना ने परवर्ती काल में नायपाल की लेखनी को किस तरह प्रभावित किया।
जब कोइत्जी विलियम फॉकनर पर लिखते हैं तो सबसे पहले उनकी एक महिला मित्र को लिखे उस पत्र को उध्दृत करते हैं जिसमें उन्होंने कहा कि मैं बिल्कुल अनपढ़ हूं, लेकिन इसके बाद भी न जाने कैसे मैं लेखक बन गया। संकलन में शामिल अकेली लेखिका नदीन गोर्डिमार के लेखन की शुरूआत उनकी एक कहानी से होती है, जिसे आगे चलकर 'द पिकअप' नामक उपन्यास का रूप मिला। एक अन्य लेख में वे बताते हैं कि 1956 में क्रिसमस के दिन स्विट्जरलैण्ड में बच्चों को बर्फ में दबा एक शव दिखाई देता है। छानबीन से पता चलता है कि वह शव लेखक राबर्ट वाल्सर का था, जो विक्षिप्तावस्था में अस्पताल से कुछ दिन पहले गायब हो गया था।
अब हम कुछ चर्चा इन लेखों की विस्तृत भावभूमि पर भी करें। ऑर्थर मिलर के एक नाटक पर बनी फिल्म 'द मिसफिट्स' में उनकी पूर्व पत्नी मर्लिन मुनरो नायिका की भूमिका में थी। इस कथा में नायिका नेवादा में ग्वालों (काऊ ब्वॉयों) के एक समूह से मिलती है और उनके साथ जंगली घोड़ों को पकड़ने के अभियान में शामिल हो जाती है, फिर उसे पता चलता है कि उसके साथी घोड़ों का उपयोग पालतू पशु के रूप में नहीं बल्कि पशु आहार के रूप में करने वाले हैं तो उसका मन उचट जाता है। यहां कोइत्जी टिप्पणी करते हैं- ''ये लोग मिलर के मिसफिट हैं जो न तो वर्तमान से समझौता कर पा रहे हैं और न इससे बाहर निकलने का कोई सम्मानजनक रास्ता खोज पा रहे हैं।'' कोइत्जी इसकी एक और व्याख्या करते हैं कि ''ये काऊब्वॉय आइजनहोवर के अमेरिका में तो मिसफिट हैं ही, नेवादा के जंगली घोड़ों का भी वही हाल है क्योंकि उनकी संख्या कई हजार से हटकर कुछ सौ तक सिमट गई है।'' मार्क्वेज् के बारे में वे कहते हैं- उनका लेखन जादुई यथार्थवाद नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद है जिसकी परंपरा सर्वांतीस से चली आ रही है। ऐसी सटीक टिप्पणियां अन्य लेखों में भी हैं।
जब हम निष्कर्षों की ओर जाते हैं तो वहां भी पाते हैं कि कितने बेहतरीन ढंग से लेखक ने अपने निबंध का समापन किया है। मसलन वे कहते हैं कि वॉल्ट ह्विटमेन किसी एक ग्रंथ के लिए नहीं बल्कि उनकी कुछ चुनिंदा कविताओं के लिए जाने जाएंगे। अन्यत्र उनकी टिप्पणी है कि विलियम फॉकनर की मयनोशी को समझने में उनके जीवनीकार अब तक असफल रहे हैं, लेकिन किसी भी तरह की लत को समझ पाना हमेशा ही एक निष्फल उद्यम होगा। कोइत्जी की राय नॉयपाल के बारे में है कि वे सूक्ष्म सांस्कृतिक स्तर पर अमेरिकी और भारतीय प्रभावों को सम्मिश्रित करने के प्रयास में असफल रहे हैं। सेमुअल बैकेट के बारे में कोइत्जी कहते हैं कि उनका अपना जैसा मिजाज था उसके चलते उन्होंने एक दार्शनिक भाव अपनी रचनाओं में अपनाया जिसका परिचय ''वेटिंग फॉर द गोडो'' में मिलता है।
ये थोड़े से चुने हुए अंश मैंने जे.एम. कोइत्जी की लेखनी से परिचित कराने के उद्देश्य से दिए हैं। साहित्य के एक सामान्य पाठक के लिए ये सारे लेख उपयोगी हैं; ये हमारे समीक्षकों से भी ध्यानाकर्षण की अपेक्षा रखते हैं।
अक्षर पर्व सितम्बर 2013 में प्रकाशित
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