दीपावली
के साथ धूम-धड़ाका, चकाचौंध और पूजा-पाठ जुड़ा है, उसे थोड़ी देर के लिए
नजरअंदाज कर दें तो फिर समझ में आता है कि यह त्यौहार भारत के सामाजिक जीवन
में भौतिक प्रगति की कामना को, सुख-समृध्दि की आशा को व्यक्त करने का सबसे
महत्वपूर्ण अवसर है। जिनके पास सब कुछ या काफी कुछ है, उनकी कोशिश होती है
कि लक्ष्मी रूठ कर न जाएं और जिनके पास कुछ नहीं अथवा बहुत कम है वे मनाते
हैं कि लक्ष्मी एक बार तो उनकी देहरी लांघ कर भीतर आ जाएं। गरज यह है कि
सब अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार ऐश्वर्य की देवी को रिझाने में लगे रहते
हैं। यह साल का एकमात्र अवसर होता है जब औसत भारतीय उस आडंबर का लबादा उतार
देता है कि भारत भौतिकवादी नहीं, बल्कि आध्यात्मवादी समाज है। यह अलग बात
है कि वह अपनी भौतिक इच्छा को भी कर्मकांड में लपेट कर पेश करता है।
जो भी हो, भौतिक परिलब्धियों की इच्छा किसे नहीं होती और क्यों नहीं होना चाहिए? बस शर्त इतनी है कि अपनी इच्छा पूरी करने के लिए जो कर्म किए जाएं वे ऐसे न हों जिनसे सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन होता हो। यदि बिना ज्यादा हाय-हाय किए, बिना चोरी-डकैती किए, लगन, मेहनत व दिमागी ताकत से धनोपार्जन हो सके तो उसमें किसी को क्या आपत्ति होगी! यह हक तो हर व्यक्ति को है कि वह सीधे रास्ते पर चलते हुए अपने व अपने परिवार के लिए सुख-सुविधाएं जुटा सके। कहना होगा कि अधिकांशजन ऐसा ही करते हैं। जो टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलते हैं, उनकी संख्या कम ही होती है, यद्यपि उनके कारनामे बड़े होते हैं जिसके कारण उनके नाम सुर्खियों में आते हैं। उनके बारे में तो सबेरे-शाम चर्चाएं होती हैं, फिर आज त्यौहार की पूर्व संध्या पर वही बात कर अपना दिमाग खराब क्यों किया जाए?
कहने की आवश्यकता नहीं कि किसी भी समाज में किसान और मजदूर ही आर्थिक प्रगति की रीढ़ होते हैं। वे यदि अपने शरीर को तानकर काम न करें तो न तो खेतों में अनाज पैदा होगा और न कारखानों में उत्पादन ही संभव होगा। आज जब हम साल का सबसे बड़ा त्यौहार मनाने जा रहे हैं तब अपनी डयोढ़ी पर एक दिया इस देश के मेहनतकश लोगों के लिए कृतज्ञतापूर्वक जलाना अच्छा ही होगा। इसके साथ यह याद करना भी मुनासिब होगा कि किसी भी देश की आर्थिक समृध्दि के लिए सही नीतियां बनाने की जरूरत होती है और उन नीतियों को व्यवहारिक धरातल पर उतारने के लिए ऐसे उद्यमियों की जिनमें नई और अनजानी चुनौतियों का सामना करने का माद्दा हो, जिनके दिमाग की खिड़कियां नए विचारों के लिए खुली हों और जो परिश्रम करने से न घबराते हों। इन सबको मिलाकर जो मणि-कांचन योग बनता है उससे ही व्यक्ति, समाज और देश आगे बढ़ने की प्रेरणा पाते हैं।
यह एक संयोग ही था कि पिछले सप्ताह मुझे ऐसे दो प्रकल्प देखने का अवसर मिला जहां कल्पनाशीलता, उद्यमशीलता, श्रमशीलता और संवेदनशीलता के रंग-बिरंगे धागों से देश की आर्थिक समृध्दि का ताना-बाना बुना जा रहा है। ये दोनों प्रकल्प छत्तीसगढ़ में है, दोनों में सरकार व निजी क्षेत्र की भागीदारी है, दोनों की बागडोर उन व्यक्तियों के हाथ में है जो मेरे मित्र हैं। आज उनकी कथा लिखने का मेरा प्रयोजन यही है कि जब हमारे राष्ट्रीय जीवन में निराशा, कुंठा और किसी हद तक झुंझलाहट की भावना बलवती हो रही है तब ये कथाएं हमें थोड़ी देर के लिए सही प्रेरित कर सकती हैं, मन में उत्साह का संचार कर सकती हैं, और उल्लास के साथ दीपावली मनाने का अवसर जुटा सकती हैं।
मैं पहले जिस प्रकल्प की चर्चा करने जा रहा हूं उसके पूरे होने से छत्तीसगढ़ की एक महत्वपूर्ण सड़क पर माल यातायात का बोझ कम हुआ है याने ट्रकों की आवाजाही में कमी आई है। परिवहन में लगने वाले डीजल की खपत में बहुत बड़ी बचत हुई है याने विदेशी मुद्रा की बचत भी हुई है। एक गांव में करीब पांच सौ लोगों को रोजगार के नए अवसर मिले हैं। गांव का आर्थिक स्तर सुधरा है। शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य सामाजिक कामों में भी इस प्रकल्प से आसपास के गांव में भी उल्लेखनीय सेवा हो रही है। आप ही बताइए कि इसकी सराहना किए बिना कैसे रहा जा सकता है! यह प्रकल्प है- रायपुर-भाटापारा रेलमार्ग पर स्थित सिलयारी गांव में भारतीय रेल की सहमति से स्थापित एक निजी मालधक्का याने गुड्स टर्मिनल। ओडिशा की खदानों से लौह अयस्क व कोरबा की खदानों से कोयले का रायपुर के औद्योगिक संकुल के लिए जो परिवहन कुछ समय पूर्व तक सिर्फ ट्रकों से होता था उसका सत्तर प्रतिशत अब मालगाड़ी से होने लगा है। सिलयारी में माल उतार कर ट्रकों से नजदीक स्थित सिलतरा पहुंचा दिया जाता है। हिन्दी के प्रसिध्द कवि-लेखक व रेलवे बोर्ड के पूर्व अतिरिक्त सदस्य महेन्द्र कुमार मिश्र ने रिटायर होने के बारह-तेरह साल बाद 70 वर्ष की आयु में इसकी परिकल्पना की और उसे साकार रूप देने के लिए साधन जुटाए रायपुर के युवा उद्यमी विनय लूनिया ने। सिलयारी के मालधक्के पर रोज औसतन दो मालगाड़ियां याने एक सौ बीस वैगनें आती हैं, जिनमें लगभग बहत्तर सौ टन माल होता है। पहले जब यह माल सड़क से आता था तब इसके लिए प्रतिदिन साढ़े तीन सौ डम्परों की आवश्यकता पड़ती थीं। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस तरह कितनी बड़ी बचत की गई है।
विनय लूनिया की कंपनी विमला इन्फ्राट्रक्चर इंडिया लि. के इस प्रकल्प के बारे में बहुत चर्चा अभी नहीं हुई है क्योंकि वह कोई अलग से दिखने वाला ढांचा नहीं है, लेकिन इसके माध्यम से सिलयारी व आसपास के गांव में बेहतरी के लिए जो बदलाव आया है वह दिखाई देता है। कंपनी ने आसपास के किसानों को अपनी गारंटी पर बैंक ऋण से ट्रक खरीदवाए हैं, जिसका लाभ करीब तीन सौ लोगों ने उठाया है। समाज सेवा के बहुत से छोटे-मोटे कामों के अलावा विनय सिलयारी में एक कॉलेज खोलने जा रहे हैं। इस प्रकल्प से एक तरफ तो ग्रामवासियों के जीवन में परिवर्तन आया है वहीं विदेशी मुद्रा की बचत और सीमित दायरे में पर्यावरण मित्रता का काम भी हुआ है।
दूसरी कथा छत्तीसगढ़ के दूसरे सबसे बड़े नगर बिलासपुर की है। यहां साठ साल पहले कोनी गांव में औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान स्थापित हुआ था। आगे चलकर उसके नजदीक महिला आईटीआई की भी स्थापना की गई थी। जो भी कारण रहे हों, छत्तीसगढ़ सरकार का तकनीकी शिक्षा विभाग अपनी इस महत्वपूर्ण संस्था का सही ढंग से विकास नहीं कर पाया और आईटीआई बंद होने के कगार पर पहुंच गया। इस बीच भारत सरकार ने तय किया कि पीपीपी याने पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत देश के आधे आईटीआई निजी क्षेत्र को संचालन हेतु सौंप दिए जाएं। जिस तरह से सरकार अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है, उसमें यह निर्णय स्वाभाविक ही था।
आज देश में और छत्तीसगढ़ प्रदेश में भी निजी क्षेत्र अनेक आईटीआई का संचालन कर रहा है। यद्यपि उनके हालात आज भी पहले के समान हैं, लेकिन कोनी बिलासपुर की महिला आईटीआई इसका अपवाद है। संस्था की संचालन समिति के अध्यक्ष अपने समय के समाजवादी नेता और बिलासपुर के उद्यमी हरीश केड़िया हैं। कुछ अन्य मित्र भी इसमें उनके साथ हैं। पांच वर्ष पूर्व जब हरीश की समिति ने इस संस्थान को लिया था तब यहां चलने वाले लगभग सारे प्रशिक्षण बंद हो चुके थे। देखते ही देखते तस्वीर बदली और आज नियमित तौर पर यहां तीस-चालीस व्यवसायों में कौशल प्रशिक्षण व कौशल उन्नयन का काम किया जा रहा है। इस वर्ष इस संस्थान से तीन हजार युवतियां प्रशिक्षण प्राप्त कर निकलेंगी।
यहां की प्रशिक्षार्थियों में अधिकतर ग्रामीण पृष्ठभूमि की हैं। वे किसानों और मजदूरों की बेटियां हैं। अनेक कॉलेज की छात्राएं हैं जो अंशकालीन प्रशिक्षण के लिए आती हैं। उनसे कोई फीस नहीं ली जाती। अधिकतर प्रशिक्षिकाएं भी अंशकालीन काम करती हैं। उन्हें प्रति प्रशिक्षार्थी मानदेय दिया जाता है। यहां जो कार्यक्रम चल रहे हैं उनसे प्रशिक्षार्थियों के सामने जीविकोपार्जन के नए अवसर खुले हैं, उनके आत्मविश्वास में भी वृध्दि हुई है। इन्हें भारत सरकार व राय सरकार द्वारा जारी प्रमाण पत्र भी दिए जा रहे हैं। प्रतिदिन करीब हजार लड़कियां अलग-अलग पालियों में आती हैं। उनके लिए आसपास के गांव से बसें भी चलती हैं। संस्थान का वातावरण खुशनुमा है। कुल मिलाकर दिखाई देता है कि लगन के साथ एक अनूठी पहल साकार हो रही है।
सिलयारी, रायपुर व कोनी, बिलासपुर के ये दोनों अलग-अलग तरह के प्रकल्प दिवाली को नए ढंग से मनाने का संदेश देते हैं।
देशबंधु में 31 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित
जो भी हो, भौतिक परिलब्धियों की इच्छा किसे नहीं होती और क्यों नहीं होना चाहिए? बस शर्त इतनी है कि अपनी इच्छा पूरी करने के लिए जो कर्म किए जाएं वे ऐसे न हों जिनसे सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन होता हो। यदि बिना ज्यादा हाय-हाय किए, बिना चोरी-डकैती किए, लगन, मेहनत व दिमागी ताकत से धनोपार्जन हो सके तो उसमें किसी को क्या आपत्ति होगी! यह हक तो हर व्यक्ति को है कि वह सीधे रास्ते पर चलते हुए अपने व अपने परिवार के लिए सुख-सुविधाएं जुटा सके। कहना होगा कि अधिकांशजन ऐसा ही करते हैं। जो टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर चलते हैं, उनकी संख्या कम ही होती है, यद्यपि उनके कारनामे बड़े होते हैं जिसके कारण उनके नाम सुर्खियों में आते हैं। उनके बारे में तो सबेरे-शाम चर्चाएं होती हैं, फिर आज त्यौहार की पूर्व संध्या पर वही बात कर अपना दिमाग खराब क्यों किया जाए?
कहने की आवश्यकता नहीं कि किसी भी समाज में किसान और मजदूर ही आर्थिक प्रगति की रीढ़ होते हैं। वे यदि अपने शरीर को तानकर काम न करें तो न तो खेतों में अनाज पैदा होगा और न कारखानों में उत्पादन ही संभव होगा। आज जब हम साल का सबसे बड़ा त्यौहार मनाने जा रहे हैं तब अपनी डयोढ़ी पर एक दिया इस देश के मेहनतकश लोगों के लिए कृतज्ञतापूर्वक जलाना अच्छा ही होगा। इसके साथ यह याद करना भी मुनासिब होगा कि किसी भी देश की आर्थिक समृध्दि के लिए सही नीतियां बनाने की जरूरत होती है और उन नीतियों को व्यवहारिक धरातल पर उतारने के लिए ऐसे उद्यमियों की जिनमें नई और अनजानी चुनौतियों का सामना करने का माद्दा हो, जिनके दिमाग की खिड़कियां नए विचारों के लिए खुली हों और जो परिश्रम करने से न घबराते हों। इन सबको मिलाकर जो मणि-कांचन योग बनता है उससे ही व्यक्ति, समाज और देश आगे बढ़ने की प्रेरणा पाते हैं।
यह एक संयोग ही था कि पिछले सप्ताह मुझे ऐसे दो प्रकल्प देखने का अवसर मिला जहां कल्पनाशीलता, उद्यमशीलता, श्रमशीलता और संवेदनशीलता के रंग-बिरंगे धागों से देश की आर्थिक समृध्दि का ताना-बाना बुना जा रहा है। ये दोनों प्रकल्प छत्तीसगढ़ में है, दोनों में सरकार व निजी क्षेत्र की भागीदारी है, दोनों की बागडोर उन व्यक्तियों के हाथ में है जो मेरे मित्र हैं। आज उनकी कथा लिखने का मेरा प्रयोजन यही है कि जब हमारे राष्ट्रीय जीवन में निराशा, कुंठा और किसी हद तक झुंझलाहट की भावना बलवती हो रही है तब ये कथाएं हमें थोड़ी देर के लिए सही प्रेरित कर सकती हैं, मन में उत्साह का संचार कर सकती हैं, और उल्लास के साथ दीपावली मनाने का अवसर जुटा सकती हैं।
मैं पहले जिस प्रकल्प की चर्चा करने जा रहा हूं उसके पूरे होने से छत्तीसगढ़ की एक महत्वपूर्ण सड़क पर माल यातायात का बोझ कम हुआ है याने ट्रकों की आवाजाही में कमी आई है। परिवहन में लगने वाले डीजल की खपत में बहुत बड़ी बचत हुई है याने विदेशी मुद्रा की बचत भी हुई है। एक गांव में करीब पांच सौ लोगों को रोजगार के नए अवसर मिले हैं। गांव का आर्थिक स्तर सुधरा है। शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य सामाजिक कामों में भी इस प्रकल्प से आसपास के गांव में भी उल्लेखनीय सेवा हो रही है। आप ही बताइए कि इसकी सराहना किए बिना कैसे रहा जा सकता है! यह प्रकल्प है- रायपुर-भाटापारा रेलमार्ग पर स्थित सिलयारी गांव में भारतीय रेल की सहमति से स्थापित एक निजी मालधक्का याने गुड्स टर्मिनल। ओडिशा की खदानों से लौह अयस्क व कोरबा की खदानों से कोयले का रायपुर के औद्योगिक संकुल के लिए जो परिवहन कुछ समय पूर्व तक सिर्फ ट्रकों से होता था उसका सत्तर प्रतिशत अब मालगाड़ी से होने लगा है। सिलयारी में माल उतार कर ट्रकों से नजदीक स्थित सिलतरा पहुंचा दिया जाता है। हिन्दी के प्रसिध्द कवि-लेखक व रेलवे बोर्ड के पूर्व अतिरिक्त सदस्य महेन्द्र कुमार मिश्र ने रिटायर होने के बारह-तेरह साल बाद 70 वर्ष की आयु में इसकी परिकल्पना की और उसे साकार रूप देने के लिए साधन जुटाए रायपुर के युवा उद्यमी विनय लूनिया ने। सिलयारी के मालधक्के पर रोज औसतन दो मालगाड़ियां याने एक सौ बीस वैगनें आती हैं, जिनमें लगभग बहत्तर सौ टन माल होता है। पहले जब यह माल सड़क से आता था तब इसके लिए प्रतिदिन साढ़े तीन सौ डम्परों की आवश्यकता पड़ती थीं। अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इस तरह कितनी बड़ी बचत की गई है।
विनय लूनिया की कंपनी विमला इन्फ्राट्रक्चर इंडिया लि. के इस प्रकल्प के बारे में बहुत चर्चा अभी नहीं हुई है क्योंकि वह कोई अलग से दिखने वाला ढांचा नहीं है, लेकिन इसके माध्यम से सिलयारी व आसपास के गांव में बेहतरी के लिए जो बदलाव आया है वह दिखाई देता है। कंपनी ने आसपास के किसानों को अपनी गारंटी पर बैंक ऋण से ट्रक खरीदवाए हैं, जिसका लाभ करीब तीन सौ लोगों ने उठाया है। समाज सेवा के बहुत से छोटे-मोटे कामों के अलावा विनय सिलयारी में एक कॉलेज खोलने जा रहे हैं। इस प्रकल्प से एक तरफ तो ग्रामवासियों के जीवन में परिवर्तन आया है वहीं विदेशी मुद्रा की बचत और सीमित दायरे में पर्यावरण मित्रता का काम भी हुआ है।
दूसरी कथा छत्तीसगढ़ के दूसरे सबसे बड़े नगर बिलासपुर की है। यहां साठ साल पहले कोनी गांव में औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान स्थापित हुआ था। आगे चलकर उसके नजदीक महिला आईटीआई की भी स्थापना की गई थी। जो भी कारण रहे हों, छत्तीसगढ़ सरकार का तकनीकी शिक्षा विभाग अपनी इस महत्वपूर्ण संस्था का सही ढंग से विकास नहीं कर पाया और आईटीआई बंद होने के कगार पर पहुंच गया। इस बीच भारत सरकार ने तय किया कि पीपीपी याने पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप के तहत देश के आधे आईटीआई निजी क्षेत्र को संचालन हेतु सौंप दिए जाएं। जिस तरह से सरकार अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दे रही है, उसमें यह निर्णय स्वाभाविक ही था।
आज देश में और छत्तीसगढ़ प्रदेश में भी निजी क्षेत्र अनेक आईटीआई का संचालन कर रहा है। यद्यपि उनके हालात आज भी पहले के समान हैं, लेकिन कोनी बिलासपुर की महिला आईटीआई इसका अपवाद है। संस्था की संचालन समिति के अध्यक्ष अपने समय के समाजवादी नेता और बिलासपुर के उद्यमी हरीश केड़िया हैं। कुछ अन्य मित्र भी इसमें उनके साथ हैं। पांच वर्ष पूर्व जब हरीश की समिति ने इस संस्थान को लिया था तब यहां चलने वाले लगभग सारे प्रशिक्षण बंद हो चुके थे। देखते ही देखते तस्वीर बदली और आज नियमित तौर पर यहां तीस-चालीस व्यवसायों में कौशल प्रशिक्षण व कौशल उन्नयन का काम किया जा रहा है। इस वर्ष इस संस्थान से तीन हजार युवतियां प्रशिक्षण प्राप्त कर निकलेंगी।
यहां की प्रशिक्षार्थियों में अधिकतर ग्रामीण पृष्ठभूमि की हैं। वे किसानों और मजदूरों की बेटियां हैं। अनेक कॉलेज की छात्राएं हैं जो अंशकालीन प्रशिक्षण के लिए आती हैं। उनसे कोई फीस नहीं ली जाती। अधिकतर प्रशिक्षिकाएं भी अंशकालीन काम करती हैं। उन्हें प्रति प्रशिक्षार्थी मानदेय दिया जाता है। यहां जो कार्यक्रम चल रहे हैं उनसे प्रशिक्षार्थियों के सामने जीविकोपार्जन के नए अवसर खुले हैं, उनके आत्मविश्वास में भी वृध्दि हुई है। इन्हें भारत सरकार व राय सरकार द्वारा जारी प्रमाण पत्र भी दिए जा रहे हैं। प्रतिदिन करीब हजार लड़कियां अलग-अलग पालियों में आती हैं। उनके लिए आसपास के गांव से बसें भी चलती हैं। संस्थान का वातावरण खुशनुमा है। कुल मिलाकर दिखाई देता है कि लगन के साथ एक अनूठी पहल साकार हो रही है।
सिलयारी, रायपुर व कोनी, बिलासपुर के ये दोनों अलग-अलग तरह के प्रकल्प दिवाली को नए ढंग से मनाने का संदेश देते हैं।
देशबंधु में 31 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित
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