Wednesday 18 December 2013

ये नतीजे क्या कहते हैं?





पांच
राज्यों से आए विधानसभा चुनावों के नतीजे स्पष्ट हैं।  दिल्ली और राजस्थान में कांग्रेस को शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा है, मध्यप्रदेश में लगभग पिछले चुनावों जैसी स्थिति है, छत्तीसगढ़ में पार्टी निश्चित विजय के दरवाजे जाकर लौट आई है तथा मिजोरम में उसे एक बार फिर दो तिहाई से ज्यादा बहुमत मिला है। भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान में प्रचंड विजय हासिल की है, मध्यप्रदेश में वह कुछ अतिरिक्त सीटों के साथ तीसरी बार सत्ता में लौटी है, छत्तीसगढ़ में भाजपा को हार की संभावना के बीच तीसरी बार जीत मिली है, दिल्ली में स्पष्ट बहुमत न मिल पाने के कारण उसकी जीत अधूरी है और मिजोरम में पार्टी कहीं है ही नहीं। इन नतीजों के कारणों और भावी संकेतों को लेकर 8 दिसंबर की शाम से ही चर्चाएं प्रारंभ हो गई हैं। मेरा मानना है कि तात्कालिक प्रतिक्रियाओं का यह दौर थमने और सभी राज्यों  से विस्तारपूर्वक आंकड़े मिलने के बाद ही इन पर कोई सुनिश्चित राज्य बनाना संभव हो पाएगा।

फिलहाल ऐसे कुछ कारणों की चर्चा की जा सकती है जिन्होंने इन चुनावों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, वास्तविक या आभासी भूमिका निभाई। सबसे पहले 'आप' याने आम आदमी पार्टी की चर्चा करना उचित होगा। मतगणना के कुछ दिन पूर्व पार्टी के प्रमुख प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने अड़तालीस सीट जीतने का दावा अपने सर्वेक्षण के आधार पर किया था। दूसरी ओर भाजपा प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हन ने 7 तारीख की रात को कहा था कि 'आप' को दो से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी। जाहिर है कि दोनों के अनुमान गलत निकले, फिर भी 'आप' को मिली 28 सीटों से देश का एक वर्ग खासा उत्साहित नजर आ रहा है। उसे लग रहा है कि भारतीय राजनीति में एक नए युग का पदार्पण हो चुका है। 'आप' के एजेंडा में कुछ अच्छी बातें हैं जैसे सादगी का संकल्प, प्रतिभागी जनतंत्र का वायदा व भ्रष्टाचार से मुक्ति आदि। लेकिन एक राष्ट्रीय विकल्प बनने के लिए 'आप' के पास कौन सी नीतियां, सिध्दांत या दृष्टि है इस बारे में हम अभी कुछ नहीं जानते। इनके नेता अरविंद केजरीवाल जिस लहजे में बात करते हैं उससे ममता बनर्जी की याद आती है। कहने का मतलब यह कि अभी बहुत खुश होने का कोई ठोस कारण नजर नहीं आता।

ऐसा माना जा रहा है कि महंगाई भी इन चुनावों में कांग्रेस की पराजय का एक बड़ा कारण है। आम आदमी पार्टी ने जहां सस्ते दर पर प्याज बेचने का नाटक  किया, वहीं उसने अपने घोषणा पत्र में बिजली, पानी आदि की दरें कम करने का वायदा भी किया। यह संभव है कि दिल्ली के मतदाताओं पर महंगाई का असर पड़ा है। आखिरकार देश की राजधानी में सिर्फ वे ही नहीं रहते जिन्हें छठवें वेतन आयोग का लाभ मिल रहा है। लेकिन अन्य राज्यों में महंगाई चुनावी मुद्दा नहीं था। यदि 'आप' पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलता और उसकी सरकार बनती तब शायद हमें यह देखने का अवसर मिलता कि यह पार्टी महंगाई कम करने के अपने वायदे पर कितना अमल कर पाती है!

बदलाव की चाहत याने एंटी इंकम्बेंसी का मुद्दा इस बार काफी हावी रहा। राजस्थान के बारे में तो कहा ही गया कि वहां हर पांच साल में सरकार बदल जाती है, लेकिन कांग्रेस की ऐसी दुर्दशा की कल्पना किसी ने न की होगी। ऐसा लगता है कि वहां बदलाव की चाहत के अलावा कुछ और भी कारण रहे होंगे जिनकी अनदेखी कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने कर दी। यही बात दिल्ली के बारे में कही जा सकती है। पंद्रह साल एक लंबा समय होता है और हर मुख्यमंत्री ज्योति बसु नहीं होता। राष्ट्रमंडल खेलों के समय से शीला दीक्षित की छवि धूमिल होने लगी थी। लेकिन दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने से पार्टी कतराती रही। सवाल उठता है कि जो बदलाव की चाहत दिल्ली या राजस्थान में थी या इसके पहले कर्नाटक, हिमाचल व उत्तराखण्ड में देखने मिली थी वह मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में क्या बिल्कुल नदारत थी? यह बात भी समझ आई कि इस बार वर्तमान विधायकों के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा मुखर थी।

हर चुनाव की तरह इस बार भी बड़ी संख्या में युवाओं को पहली बार वोट देने का अवसर मिला। उन्होंने किसका साथ दिया इसके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन स्पष्ट है कि कांग्रेस ने इन चुनावों में युवाशक्ति का पर्याप्त लाभ नहीं उठाया। छत्तीसगढ़ में उसने पहले दौर में नए चेहरों को विशेषकर युवाओं को टिकट देकर उम्मीद जगाई थी कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अपने आपको एक युवा पार्टी के रूप में ढालने जा रही है। लेकिन इसके तुरंत बाद पार्टी अपने स्थापित नेताओं को खारिज करने का साहस नहीं दिखा पाई और चारों प्रदेशों में फिर वही ढाक के तीन पात वाली स्थिति कमोबेश निर्मित हो गई। इतना ही नहीं, एक ज्योतिरादित्य सिंधिया को छोड़कर अन्य किसी युवा नेता को चुनावों के दौरान कोई प्रभावी भूमिका नहीं दी गई। छत्तीसगढ़ में तो खैर पार्टी के पास कोई युवा नेता है ही नहीं, राजस्थान और दिल्ली में सचिन पायलट और अजय माकन को आगे लाया जाता और मध्यप्रदेश में
ज्योतिरादित्य सिंधिया को खुलकर काम करने का मौका दिया जाता तो ऐसी बदहाली की नौबत नहीं आती।

इस दौर में नरेन्द्र मोदी का खूब गुणगान हुआ। नतीजे आने के बाद तो भाजपा नेताओं की जबान मोदी का नाम लेते थक नहीं रही है, लेकिन क्या सचमुच यह मोदी के नेतृत्व का चमत्कार है? छत्तीसगढ़ में सरगुजा से नरेन्द्र मोदी ने लालकिले की अनुकृति वाले मंच से चुनाव अभियान की शुरूआत की थी। वहां भाजपा को आठ में से सिर्फ एक सीट पर विजय मिली। बस्तर में मोदी की सभाओं के बावजूद भाजपा की सीटें ग्यारह से घटकर चार रह गईं और दुर्ग में तीन बार के हारे हुए कांग्रेसी अरुण वोरा चुनाव जीत गए। दिल्ली में भाजपा को स्पष्ट बहुमत न मिलना मोदी मिथक को पूरी तरह खारिज करता है और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने न ही उनका नाम लिया और पोस्टर लगाए तो बेमन से। अब तक मोदी तीन बार का विजेता होने के गर्व से भरे थे। सरल सौम्य रमन सिंह और सरल हंसमुख शिवराज सिंह को भी यह गौरव हासिल हो गया है। बहरहाल हम जानते हैं कि कारपोरेट भारत मोदी के साथ है।

छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में माओवाद भी एक मुद्दा रहा है। 2003 और 2008 के चुनावों में नक्सलियों ने भाजपा को बस्तर में जीतने में प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष सहयोग किया था। इस बार अनुमान था कि कुछ कारणों से वे कांग्रेस का समर्थन करेंगे और वैसा हुआ भी। बस्तर में नोटा का बटन जितना दबाया गया उतना अन्यत्र कहीं नहीं। क्या यह भविष्य के लिए माओवादियों का कोई प्रयोग था? कहना मुश्किल है। यह एक अलग मुद्दा है। यदि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बन पाती तो माओवादियों के साथ बातचीत का रास्ता खुलता, लेकिन वैसा नहीं हो पाया। अब वही भाजपा सरकार है और वही माओवादी। 'देशबन्धु' के पत्रकार साई रेड्डी की निर्ममतापूर्वक हत्या कर नक्सलियों ने संदेश दिया है कि उनके तौर-तरीके वही रहेंगे। अगर भाजपा की भी रीति-नीति पूर्ववत् रही तो विशेषकर बस्तर में कठिन परिस्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

इस समय चुनावी सर्वेक्षण करने वाले अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि उनके अनुमान सही निकले। चारों राज्यों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। यहां तक तो उनका दावा ठीक है किन्तु अगर सर्वेक्षणों के आंकड़े सामने देखकर बात की जाए तो स्पष्ट पता चल जाता है कि एक भी सर्वेक्षण सही नहीं निकला। किसी ने भी न तो राजस्थान में और न दिल्ली में कांग्रेस के इस तरह हारने का अनुमान लगाया था। सच यह है कि इन सर्वेक्षणों के पीछे मुख्य मकसद चैनलों की रेटिंग बढ़ाना होता है और उसमें कुछ दिनों के लिए दर्शकों को चटपटी चाट का स्वाद मिल जाता है। बहरहाल, सभी जीतने वालों को मुबारकबाद। इस उम्मीद के साथ कि आने वाले दिनों में लोकतंत्र और मजबूत होगा।

देशबंधु में 12 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित


 

 
 
 

 

 
 
 
 

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