Wednesday, 18 December 2013

सोनिया गांधी: नई चुनौतियां




श्रीमती सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति में ऐसे वक्त प्रवेश किया जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नौका एक तरह से मंझधार में डूब रही थी। उन्होंने न सिर्फ डूबती नाव को किनारे लगाया बल्कि एक सफल कप्तान की भूमिका इस खूबी के साथ निभाई कि आज दस साल से कांग्रेस यूपीए के प्रमुख दल के रूप में देश पर काबिज हैं। वे चाहतीं तो 1991 में राजीव गांधी की शहादत के तुरंत बाद देश की प्रधानमंत्री बन सकती थीं किन्तु उन्होंने अपने आपको राजनीति से दूर कर लिया। पी.वी. नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रीकाल में उन्हें जिस तरह से उपेक्षित किया गया उसे भी सोनिया गांधी ने बर्दाश्त किया और कांग्रेस का नेतृत्व ऐसी घड़ी में संभाला जब पार्टी के सत्ता में लौटने के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं थे। इसके बाद 2004 व 2009 में न तो स्वयं सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद और न उनके पुत्र राहुल गांधी ने मंत्री पद स्वीकार किया। 2004 में उनके प्रधानमंत्री न बनने को लेकर बहुत सारी अफवाहें फैलाई गईं। लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी आत्मकथा में खुलासा कर दिया है कि सोनिया उस वक्त प्रधानमंत्री पद के लिए कतई इच्छुक नहीं थीं।

इन तथ्यों के आधार पर सोनिया गांधी की संघर्षशीलता, नेतृत्वक्षमता व सत्तामोह से ऊपर उठने की भावना की मैंने अपने लेखों में यथावसर प्रशंसा की है। उनके और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के बीच जो आपसी समझदारी व सामंजस्य है उसे भी मैं सराहनीय मानता हूं। राहुल गांधी के लिए भी यह मुश्किल नहीं था कि वे किसी भी दिन केन्द्रीय मंत्री बन जाते बल्कि एक मौके पर हमने भी वकालत की थी कि उन्हें प्रधानमंत्री पद संभाल लेना चाहिए। फिर भी यदि वे सत्तामोह से दूर रहना चाहते हैं तो उनकी इस भावना का सम्मान किया जाना चाहिए। ये सारी बातें अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जो दुर्दशा हुई है वह इस बात का प्रबल संकेत है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी को अपने रवैये में सिर से पैर तक बदलाव लाना चाहिए। जिस ढर्रे पर पार्टी का कामकाज चल रहा है वह आज के जमीनी हालात के अनुकूल नहीं है।

सोनिया गांधी ने 8 दिसम्बर की शाम मीडिया के सामने आकर बहुत सहजता व विनम्रता के साथ विधानसभा चुनावों में पार्टी की हार स्वीकार की। इस दृश्य को देखकर मुझे 1977 की याद आई जब इंदिरा गांधी ने ऐसी ही विनम्रता के साथ अपनी पराजय स्वीकार की थी। उनका वक्तव्य मैंने सुदूर इंग्लैण्ड में रेडियो पर सुना था और मुझे लगा था कि जनतंत्र की खूबसूरती इसी में है। 2013 में सोनिया गांधी के साथ राहुल गांधी भी थे। उन्होंने जब अपनी बात कही तो उसमें किसी हद तक अनावश्यक आक्रामकता थी। जिस तरह कुछ समय पूर्व उन्होंने सांसदों की अपात्रता संबंधी अध्यादेश को लेकर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी, कुछ उसी लहजे में राहुल गांधी ने इस अवसर पर भी टिप्पणी की कि वे संगठन के भीतर बहुत कड़े कदम उठाने जा रहे हैं। यह भावावेश गैरज़रूरी था। यह संभव है कि राहुल प्रधानमंत्री न बनना चाहते हों लेकिन वे अपनी पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष तो बन ही चुके हैं। उन्हें अपने वर्तमान पद के अनुसार अपेक्षित आचरण करना चाहिए।

बात यहीं समाप्त नहीं होती। इस प्रसंग के दो-तीन दिन बाद मुझे यह पढ़कर बहुत आश्चर्य हुआ कि विदेश मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने यहां तक कह दिया कि सोनिया गांधी देश की मां हैं। मैं नहीं जानता कि उन्हें इस तरह की संतुलनहीन टिप्पणी करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? कांग्रेस पार्टी की मुखिया होने के नाते सोनिया गांधी पार्टी के लिए मातृतुल्य हो सकती हैं, लेकिन इस अतिशयोक्ति को तो वे स्वयं भी स्वीकार नहीं करेंगी कि वे देश की मां हैं। चूंकि भाजपा इस समय विजयगर्व में डूबी हुई है इसलिए उसने इस टिप्पणी पर बहुत हो हल्ला नहीं मचाया तथापि अभी भी ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें याद है कि आपातकाल के दौरान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ''इंडिया इज़ इंदिरा'', ''इंदिरा
इज़ इंडिया'' जैसी अनर्गल टिप्पणी कर न सिर्फ पार्टी के लिए बल्कि अपनी सर्वोच्च नेता के लिए भी बेवजह परेशानी खड़ी कर दी थी। कांग्रेस में वंशवाद व चाटुकारिता की संस्कृति पनपने की बात जब-तब होती है और ऐसे समय श्री बरुआ की टिप्पणी को नजीर की तरह पेश किया जाता है। आज जब कांग्रेस उन दिनों के मुकाबले कमजोर स्थिति में है तब पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को इस बारे में अधिक संयम बरतने की जरूरत है।

विधानसभा चुनावों के नतीजे देखने से कुछ और बातों का खुलासा हुआ है। मैंने छत्तीसगढ़ में प्रथम चरण की अठारह सीटों पर अधिकतर नए उम्मीदवार उतारने का स्वागत करते हुए उम्मीद की थी कि पांच राज्यों की छह सौ सीटों पर कांग्रेस अगर पांच सौ नए उम्मीदवार उतारती है तो इससे पार्टी में नए खून का संचार होगा। कांग्रेस के भीतर इसे राहुल फार्मूला कहा गया था। किन्तु बाद में जब टिकट बंटे तो पता चला कि राहुल फार्मूला दरकिनार कर दिया गया। बहुत से ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दे दिए गए जिनकी हार निश्चित थी। इसके अलावा संदिग्ध चरित्र वाले अनेक उम्मीदवारों को ले आया गया जिससे जनता के बीच ठीक संदेश नहीं गया। कांग्रेस जैसी पार्टी के भीतर आपसी खींचातानी चलते रहना स्वाभाविक है, लेकिन उस पर वक्त रहते काबू पा लेना भी जरूरी है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व इस मोर्चे पर कठोर व सामयिक निर्णय नहीं ले पा रहा है।

मध्यप्रदेश में हमने सुन रखा था कि कांग्रेस के भीतर चार-पांच गुट चल रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव प्रभारी बनाकर स्थिति को नियंत्रित करने की कोशिश की गई। श्री सिंधिया की नियुक्ति का स्वागत भी हुआ। लेकिन फिर पता चला कि सारे गुट अपने-अपने हिसाब से बदस्तूर चल रहे हैं बल्कि खबरें तो यहां तक भी आईं कि श्री सिंधिया के खिलाफ बाकी सारे नेता एकजुट हो गए। कुछ ऐसी ही स्थिति राजस्थान में देखने मिली जहां बेहतर छवि वाले जमीनी नेता मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की लगातार उपेक्षा की गई व राहुल गांधी उन लोगों पर भरोसा किए बैठे रहे जिनका अपना जनाधार बहुत सीमित था। यहां जातिगत समीकरणों का आकलन करने में भी कांग्रेस नेतृत्व सफल नहीं हुआ। कुल मिलाकर ऐसी धारणा बन गई कि कांग्रेस नेतृत्व न तो जमीनी सच्चाईयों से वाकिफ है और न वह पार्टी की भीतरी गुटबाजी पर अंकुश लगाने में सक्षम है।

कारपोरेट भारत, मीडिया व भाजपा का वश चलता तो 2011 या 12 में ही मध्यावधि चुनाव हो गए होते। गनीमत है कि आम चुनाव अब यथासमय ही होंगे। उसके लिए चार माह ही बचे हैं। एक सवाल सहज उठता है कि क्या कांग्रेस पार्टी 2014 की चुनौती का सफलतापूर्वक सामना कर पाएगी? आज जैसी कठिन परिस्थिति कांग्रेस के सामने पहले शायद ही कभी रही होगी। वह इस समय चौतरफा दबावों से घिरी है। एक तरफ भाजपा व हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतें, दूसरी तरफ भारत के कारपोरेट घराने, तीसरी तरफ अमेरिका व बहुराष्ट्रीय कंपनियां, और इन सबसे बढ़कर चौथी तरफ देश का वह तबका जिसे सामान्य तौर पर उदारवादी की संज्ञा दी जाती है। मुझे कई बार यह सोचकर हैरानी होती है कि ये कथित उदारवादी बुध्दिजीवी अंतत: किसके साथ हैं! अपनी बौध्दिकता के अहंकार में कहीं वे जाने-अनजाने देश के भीतर पनप रही फासिस्ट ताकतों को तो बढ़ावा नहीं दे रहे! एक पक्ष वामपंथ का भी है। उनकी कांग्रेस से शिकायत वाजिब है कि उसने 2004 के राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम का उल्लंघन कर अमेरिका के साथ आण्विक करार किया और एक बड़ी वादाखिलाफी की। लेकिन आज जब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर ममता बनर्जी के साथ हाथ मिलाने की बात उठती है तो अपना सिर पीटने की इच्छा होती है। यदि भारत को अपने संविधान में निहित शाश्वत मूल्यों को कायम रखना है तो आज सभी उदारवादी मध्यमार्गी शक्तियों को एकजुट होना पड़ेगा और इसकी ईमानदार पहल कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी को ही करना पड़ेगी।

देशबंधु में 19 दिसम्बर 2013 को प्रकाशित

No comments:

Post a Comment