यह मेरे लिए एक
आह्लादकारी अनुभव था, जब 2013 के बीतने और 2014 के लगने के बीच तीन-चार
हफ्तों के अंतराल में छत्तीसगढ़ के चार रचनाकारों के नए कहानी संकलन एक के
बाद एक प्रकाशित हुए। यह अतिरिक्त प्रसन्नता का विषय था कि ये सभी लेखक
मेरे सहचर हैं तथा छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन में मेरे साथ
न्यूनाधिक सक्रियता के साथ जुड़े हुए हैं। स्वाभाविक ही इस अंक की
प्रस्तावना में इन पुस्तकों को ही मैंने चर्चा के लिए उठाया है। इसे आप
पक्षपात की संज्ञा दे सकते हैं, लेकिन मेरा विश्वास है कि अगर आप इन कहानी
संकलनों को पढ़ सकें तो पक्षपात का आरोप वापिस ले लेंगे। इन चारों कथाकारों
में अगर कोई साम्य है तो वह यह कि चारों छत्तीसगढ़ के निवासी हैं और सभी
काफी लम्बे समय से साहित्य जगत में अपनी सक्रियता बनाए हुए हैं। ये चारों
अक्षर पर्व के सुपरिचित लेखक भी हैं।
चार
लेखकों में एक महिला हैं- श्रीमती संतोष झांझी। उन्होंने सबसे पहले अपनी
पहचान कवि सम्मेलन के मंच से बनाई थी। पंजाबी मूल की कोलकाता में पली-बढ़ी
संतोष झांझी विवाह के बाद भिलाई आईं और वह उनका घर बनना ही था। अपने शिष्ट
शालीन गीतों व सुमधुर कंठ के चलते संतोष जी ने अच्छी खासी लोकप्रियता
बटोरी। उन्होंने एक छत्तीसगढ़ फिल्म में अभिनय भी किया, लेकिन कालांतर में
वे गद्य लेखन की ओर प्रवृत्त हुई। उन्होंने बहुत प्यारे यात्रा-वृत्तांत
लिखे, जिनमें एक सैलानी की सजग दृष्टि दिखाई देती है। उन्होंने इसके पहले
दो उपन्यास लिखे और चार कहानी संग्रह जो उनकी गहन अंतर्दृष्टि व सामाजिक
सरोकारों का परिचय देते हैं। दूसरे कथाकार विनोद साव पहले व्यंग्य लेखन के
लिए जाने जाते थे और यह अपराध मुझ पर साबित है कि विनोद को व्यंग्य लेखन से
यात्रा-वृत्तांत एवं कहानी लेखन की ओर मैंने ढकेला। मैंने ऐसा शायद यह
सोचकर किया कि आज के जीवन व्यापार में व्यंग्य की धार किसी काम की नहीं है!
जो भी हो, विनोद ने इन नई विधाओं में बखूबी लिखना प्रारंभ किया, जिसका एक
प्रमाण वर्तमान कहानी संकलन है। यह जिक्र कर दूं कि दुर्ग निवासी विनोद
भिलाई इस्पात संयंत्र में प्रशासनिक पद पर हैं।
आयुक्रम
में हमारे तीसरे लेखक रामकुमार तिवारी सिविल इंजीनियर हैं। उन्हें अपनी
कविताओं के लिए देशव्यापी प्रतिष्ठा मिली है। वे एक लम्बे समय से कहानी
लेखन भी कर रहे हैं और इसके लिए एकाधिक बार पुरस्कृत भी हो चुके हैं।
बिलासपुर निवासी रामकुमार ने कथादेश के एक कहानी विशेषांक का अतिथि संपादन
भी किया था जो संभावनाशील लेखक शरद बिल्लौरे की स्मृति को समर्पित था।
रामकुमार ने प्रारंभिक दौर के टीवी सूत्रधार विनोद दुआ को केन्द्र में रखकर
व्यापक सामाजिक संदर्भों पर एक गहरी चोट करने वाली कविता लिखी थी, जो आज
तक मेरी स्मृति में बनी हुई है। एक तरह से उन्होंने समाचार चैनलों की
वर्तमान रीति-नीति का पूर्वाभास उस कविता में दे दिया था। एक शासकीय
विद्यालय में गणित के शिक्षक के रूप में कार्यरत रमेश शर्मा भी पिछले दो
दशक से कहानियां और कविताएं लिख रहे हैं। दोनों विधाओं में वे समगति से
लिखते हैं। रायगढ़ निवासी रमेश शर्मा लगभग चुपचाप और नि:संग रहकर अपना काम
करते रहते हैं। मैं उन्हें जितना जानता हूं उससे लगता है कि इस युवा लेखक
को रचनाकार के रूप में मान्यता या ख्याति मिल जाने की बहुत ज्यादा परवाह नहीं
है। बहरहाल ये चारों लेखक मिलकर एक पूरी पीढ़ी का पुल बनाते हैं। संतोष
झांझी से रमेश शर्मा तक आते हुए हम एक नयी पीढ़ी तक पहुंच जाते हैं।
संतोष
झांझी के ताजे कहानी संग्रह का शीर्षक है- ''पराए घर का दरवाजा''। इसमें
सत्रह कहानियां हैं। कोई भी कहानी बहुत लम्बी नहीं है। संतोष जी की भाषा
सरल है। वे रोजमर्रा के जीवन से घटनाएं उठाकर उनके इर्द-गिर्द अपनी कहानी
बुनती हैं। उनकी पैनी दृष्टि से समाज का कोई भी वर्ग नहीं छूटता। वे अभिजात
वर्ग के संदर्भ को बखूबी पहचानती हैं, मध्य वर्ग के खोखलेपन और आडंबर और
निम्न वर्ग की विवशता, निराशा व मुक्ति की छटपटाहट को भी। भारतीय समाज में
स्त्री के जो हालात हैं उसे तो उन्होंने निकट से देखा ही है। वे
वृध्दावस्था अथवा बढ़ती आयु में उत्पन्न अकेलेपन के अहसास को भी शिद्दत के
साथ अनुभव करती हैं। इक्कीसवीं सदी में सामाजिक, आर्थिक संबंधों में जो
बदलाव आए और जिसमें टेक्नालॉजी की भी भूमिका है उससे भी वे परिचित हैं। कुल
मिलाकर मुझे उनमें एक उदारवादी सामाजिक सोच का परिचय मिलता है। युवा आयोजक
जयप्रकाश ने इस कहानी संकलन का ब्लर्ब लिखा है। उसका अखिरी अनुच्छेद मैं
उध्दृत कर रहा हूं, जिससे इन कहानियों को समझने में हमें सहायता मिलती है-
''यह
भी दिलचस्प है कि इन कहानियों में चित्रित परिवेश स्थिर और इकहरा बिल्कुल
नहीं, बल्कि बहुसांस्कृतिक और विविधवर्णी है- बंगाल, पंजाब और छत्तीसगढ़ की
सांस्कृतिक त्रिधारा का संगम यहां प्रकट होता है। किसी एक लेखक की रचनाओं
का एकाधिक सांस्कृतिक परिवेश का जीवंत चित्रण कम ही संभव हो पाता है। इन
कहानियों में लेखिका के विस्तृत सांस्कृतिक-बोध और पर्यवेक्षण-कुशलता का
पता चलता है।''
'तालाबों ने
उन्हें हंसना सिखाया' विनोद साव का नया कहानी संकलन है। इसी शीर्षक की
कहानी अक्षर पर्व के अंक में छप चुकी है। संयोग से इस संकलन में भी सत्रह
कहानियां है और प्रत्येक पांच-छह पेज से यादा की नहीं है। विनोद की
कहानियां एकदम अलग मिजाज की हैं। पहले तो इनकी भाषा की बात करूं तो उसमें
एक खिलंदड़ापन नज़र आता है। विनोद के भीतर का जो व्यंग्यकार है वह मानो
उन्हें रह-रहकर उकसाता रहता है। मिसाल के लिए 'औरत की जात' कहानी के ये
वाक्य लीजिए-
''... औरत को थोड़ी
सी ओट भी पसंद है... पति भी हर औरत के लिए एक ओट का काम करता है।'' या फिर
यह वाक्य ''आजकल नौकरी देते समय रूपरंग को भी देखते हैं, उसने ऐसे कहा
जैसे नौकरी में भर्ती का यह कोई तकनीकी पक्ष हो।''
विनोद
की इन कहानियों को शायद दो वर्गों में बांटा जा सकता है। एक तो वे हैं
जिनमें छत्तीसगढ़ के गांव, तालाब, बाजार, रिश्ते, गरज यह कि लोक के बहुत से
पक्ष जैसे चलते-चलते सामने आ जाते हों- ''तुम उर्मिला के बेटे हो'',
''तालाबों ने उन्हें हंसना सिखाया'', ''मुट्ठी भर रेत'' आदि कुछ ऐसी ही
कहानियां हैं। दूसरे वर्ग में प्रेम कहानियां हैं- ''चालीस साल की लड़की'',
''घूमती हुई छतरी के नीचे'', ''मोबाइल में चांद'', ''मैं दूसरी नहीं होना
चाहती'' आदि। इन प्रेम कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें
स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर न तो कोई दार्शनिक राग आलापा गया है और न
इनमें कोई कुंठा है। सच कहें तो विनोद की लोक जीवन की कहानियां भी सहज
कुंठामुक्त भाव से लिखी गई हैं। वे अपनी रचनाओं में किसी तरह का पांडित्य
प्रदर्शित नहीं करते, लेकिन वे जिन घटनाओं और प्रसंगों को उठाते हैं उनमें
अपने आप एक तस्वीर बनने लगती है और समाज की कोई न कोई सच्चाई बहुत सहजता के
साथ प्रगट हो जाती है। जैसे इस वाक्य को देखें- ''बच्चों की अंतिम और
थकी-थकी आवाज गूंजी थी। चहुंदिशा छायी पीपल की छांव बनाएंगे हम सपनों का
गांव।'' बच्चों की आवाज थकी होने का संकेत देने मात्र से सपनों की गांव की
सच्चाई उजागर हो जाती है। एक और उदाहरण देखें- ''आपका नाम क्या है?'' मैंने
डोंगी वाले से पूछा। मैं उसे तुम भी कह सकता था लेकिन मैंने उसे आप कहा।
यह अतिशय सौजन्य अंग्रेजी महारानी की देन थी।
''हम लोग केंवट हैं!''
''ओफ्फ़... निषादराज!'' यह एक ऐतिहासिक महत्व का शब्द था जिससे जुड़े व्यक्ति ने कृपासिंधु को पार लगाया था।''
या
फिर यह- ''झरने की गर्जना और बस की घरघराहट के बीच एक महीन स्वर उसे अब भी
बार-बार सुनाई दे रहा था ''मैं दूसरी नहीं होना चाहती विनय।''
रामकुमार
तिवारी के संकलन ''कुतुब एक्सप्रेस'' में यूं तो सिर्फ दस कहानियां हैं,
लेकिन इनमें से कुछ कहानियां सुदीर्घ हैं। छोटे टाइप का इस्तेमाल होने के
कारण पृष्ठ संख्या एक सौ छब्बीस पर सिमट गई है, जबकि कायदे से यह संख्या एक
सौ साठ के आसपास होती। खैर! यह जिक्र प्रसंगवश आ गया। रामकुमार गहन, गंभीर
व्यक्तित्व के धनी हैं और इन कहानियों में भी उनकी यह प्रकृति उभरकर आती
है। मैं रामकुमार को एक ऐसे मित्र के रूप में जानता हूं जिसकी वर्तमान
घटनाचक्र पर सजग दृष्टि है जिसका एक संकेत मैं ऊपर उनकी कविता के संदर्भ
में दे आया हूं, लेकिन इन कहानियों की जहां तक बात है ऐसा लगता है ये
निविड एकांत में रची गई हैं। मैं नहीं जानता कि रामकुमार निर्मल वर्मा से
कितने प्रभावित हैं, लेकिन कहीं-कहीं उनकी कहानियों के साथ इनकी तुलना करने
का मन होता है। मैं अगर इस बात को दूसरी तरह से कहना चाहूं तो मुझे लगता
है कि लेखक के हृदय में छुपा कवि उस पर बार-बार हावी होने की कोशिश करता
है। उदाहरण के लिए ये दो पैराग्राफ देखे जा सकते हैं। ''एकाएक दूर अंधेरे
से स्त्रियों का सामूहिक रुदन सुनाई दिया। कैसा हृदय विदारक रुदन था, जिसने
अंधेरे को चीरकर समय को दुख की ऐसी घड़ी में पहुंचा दिया, जहां सिर्फ दुख
ही सत्य होता है। स्त्रियों का रुदन हमें कैसी वेदना में ले जाता है, जैसे
उसे सहना ही जीवन की कथा हो और हम निरुपाय अपने होने से विस्मृत होते
जाएं।''
''कितना अलौकिक है कि
कुछ ही पलों के लिए उन समस्त छायाओं से मुक्त हो जाऊं जो मुझे घेरे हैं।
विस्मय, रहस्य और रोमांच से भरा किलक उठूं। अजन्मे स्वर अंदर जन्म लें, एक
ऐसी भाषा की संभावना में, जिसमें मेरा शोर धरती के मौन में समा जाए, मेरा
बहरापन दूर हो जाए, मुझे किसी संचार व्यवस्था की जरूरत न रहे। हर जगह से हर
एक को सुन सकूं, हर एक को आवाज दे सकूं। यही सोचते-सोचते जहां हूं,
वहीं से छलांग लगा देता हूं।''
एक
कहानी में काव्यात्मकता हो, गीतात्मकता हो, इसमें किसी को क्या उज्र होने
चला? लेकिन कविता और कहानी दोनों स्वतंत्र विधाएं हैं और मेरा मानना है कि
दोनों का आविष्कार अलग-अलग जरूरतों को पूरा करने के लिए हुआ है। कविता का
आस्वाद लेने के लिए एक खास किस्म के मानसिक अवकाश की जरूरत होती है, जबकि
कहानी सामान्य तौर पर आपके संग-संग चलती है। बहरहाल रामकुमार के सामाजिक
सरोकारों में किसी तरह का द्वंद्व नहीं है। यह इन कहानियों से स्पष्ट होता
है। पहली ही कहानी ''पत्ते की तरह'' में नायक अपने पुराने जिए कस्बे में
बरसों बाद लौटता है और उसे बस स्टैण्ड के होटल में कभी काम करने वाले
नेपाली लड़के की बेसाख्ता याद आती है। एक अन्य कहानी में रोजी-रोटी के लिए
पलायन पर मजबूर किसान के मजदूर बनते जीवन की व्यथा मार्मिकता के साथ उभरी
है। यहां लेखक कहता है- ''मैं नाटक के शो में एक पात्र का अभिनय करता
हुआ-सा ट्रेन से उतर जाता हूं। जीवन के शो में अपने पीपे और गट्ठर के साथ
सुमारू उतर जाता है।''
जिस कहानी
के नाम से पुस्तक का शीर्षक रखा गया है याने ''कुतुब एक्सप्रेस'', उसमें
गांव से कस्बा बनने और नई महत्वाकांक्षाओं के जागने व उससे उत्पन्न त्रासदी
का दारुण वर्णन है। कुछ वही बात ''रात अंधेरे में'' कहानी में भी है। इस
कथा के अंत में लेखक ने एक टिप्पणी जोड़ी है जो उसकी चिंता को दर्शाती है-
''पुनश्च: यह कहानी उस दौर की है, जब समाज में परंपरागत कार्य कौशल, खासकर
खेती में कोई मान-सम्मान नहीं बचा था। उसे जानने, करने वाले जितनी हीनभावना
से ग्रसित होते जा रहे थे, उसकी तुलना में पढ़े-लिखे, नौकरीपेशा लोग कई
गुना यादा उपेक्षा और तिरस्कार से उन्हें देख रहे थे। हां, उस समय किसानों
की आत्महत्या का दौर शुरू नहीं हुआ था।''
इस
संकलन की आखरी कहानी ''ईजा फिर आऊंगा '' खासी लंबी कहानी है। इसमें एक
उपन्यास बनने की संभावना छुपी हुई है। संभव है कि रामकुमार स्वयं इस दिशा
में सोच रहे हों!
रमेश शर्मा का
संभवत: यह पहला कहानी संग्रह है। ''मुक्ति'' में चौदह कहानियां है। इनको
भी दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। कुछ कथाएं ऐसी हैं जो रामकुमार तिवारी
की ही तरह एकाकीपन और निजी अवसाद की कहानियां हैं। दूसरी श्रेणी में वे
हैं जो सामाजिक जीवन की कठोर वास्तविकता से साक्षात्कार करवाती हैं। पहली
कहानी- ''डर'' को ही लें। इसमें एक उम्रदराज अकेले पुरुष और अकेले स्त्री
के बीच प्रेम की संभावना को लेकर रची गई है। चूंकि कई बार सत्य कल्पना से
अधिक विचित्र होता है इसलिए संभव है कि यह कथा किसी वास्तविक प्रसंग पर
आधारित हो, किन्तु सामान्य पाठक को यह रचना अविश्वसनीय ही लगेगी। ''सजा'',
और ''मुझे माफ करना नीलोत्पल'' में भी जो दृश्य विधान खड़ा किया गया है वह
बहुत विश्वसनीय नहीं लगता। जीवन में अकेलेपन और नैराश्य को लेकर लेखक कुछ
ज्यादा ही चिंतित नजर आता है, जिसका साक्ष्य ऐसे उध्दरणों में मिलता है-
''मां कहा करती थी हमें... ''अपूर्णता ही तो जीवन है, कम-से-कम पूर्णता की
लालसा में गतिशील तो रहते हैं हम! हर चीज अगर सुलभ हो जाए तब जीवन तो जड़वत
हो जाएगा न बच्चों!''
''जानबूझकर
कभी जिस अकेलेपन को उसने अपने जीवन में सूरज की रोशनी की तरह उतारा, इन
दिनों उसी अकेलेपन से बचने के रास्ते ढूंढता फिर रहा है वह!''
''वह
पेड़ जो गिरने को है'' कहानी तो मुझे अतार्किक ही प्रतीत हुई। दूसरी तरफ
अन्य कहानियों में लेखक की सामाजिक चिंताएं उभरकर सामने आती हैं। ''शायद
तुम उसे चाहने लगे थे'', ''खाली जगह'', ''तस्वीर पर बैठी उदास चिड़िया'' आदि
इस तरह की कहानियां हैं। शायद तुम उसे... कहानी तो एकबारगी मुझे ''कनफेशन
ऑफ एन इकानॉमिक हिटमेन'' की याद दिलाती है कि नवउदारवाद कैसे-कैसे षडयंत्र
रचता है। संकलन में ''छेरछेरा'' शीर्षक से भी एक कहानी है। संयोग है कि इस
प्रस्तावना के लिखने के दो दिन पहले ही छेरछेरा पर्व बीता है। यह छत्तीसगढ़
का अनूठा लोकोत्सव है, जिसमें पौष पूर्णिमा में घर-घर जाकर मुट्ठी-मुट्ठी
धान संकलित किया जाता है, जो कभी अकाल-दुकाल में सबके काम आ सके। रचना तो
अच्छी है, लेकिन इसे ललित निबंध की श्रेणी में रखना बेहतर होता। बहरहाल
अपने इन चारों मित्रों को बधाई एवं उनकी रचनाशीलता के लिए शुभकामनाएं।
अक्षर पर्व फरवरी 2014 अंक में प्रकाशित