Wednesday, 12 February 2014

मीडिया चौराहे पर



आज
देश में मीडिया की जो स्थिति है उसे देखकर कुछ उपमाएं सूझ रही हैं। मैं अगर कहूं कि मीडिया इस समय चौराहे पर खड़ा है, तो शायद बहुत गलत नहीं होगा। एक बहुत पुरानी फिल्म 'शिकस्त' का वह लोकप्रिय गाना फिर याद आ रहा है-''चौरस्ते पे जैसे मुसाफिर पथ पूछे घबराए, कौन देश किस ओर जाऊं मैं, मन मेरा समझ न पाए।'' इसी बात को कुछ अलग ढंग से इस तरह भी कहा जा सकता है कि मीडिया एक भंवरजाल में फंस गया है। उसकी हाथ-पैर मारने की शक्ति भी खत्म हो चली है। डूबते-उतराते पता नहीं वह किस तरह इससे निकल पाएगा! हो सकता है कि मीडिया के मेरे मित्रों को मेरा ऐसा कहना अतिशयोक्ति लगे। हो सकता है कि कोई-कोई इसका बुरा भी मानें, लेकिन मैं जो देख रहा हूं वह एक निराशाजनक तस्वीर है। दरअसल अभी नहीं, पिछले कुछेक सालों से मैं मीडिया प्रसंग उठने पर बार-बार यही कहता हूं कि अब न तो अखबार में लिखे पर और न टीवी पर देखे-सुने पर जनता को विश्वास करना चाहिए। अगर एतबार करेंगे तो आगे जाकर दु:खी होंगे और यह बात मैं उस भारतीय समाज के बीच करता हूं जिसे टीवी पर न सही, अखबारों पर आज भी बहुत भरोसा है।

मीडिया की यह जो शोचनीय स्थिति मेरे सामने है इसके अनेक आयाम हैं। एक तरफ तो मीडिया का स्वयं अपने द्वारा गढ़ा हुआ मिथक है कि भारत में टीवी के दर्शकों व अखबार के पाठकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। टीवी पर समाचार के नित नए चैनल खुल रहे हैं। दर्शकों की संख्या में आबादी के  अनुपात से वृध्दि हुई है, लेकिन हर नए चैनल को कितने नए दर्शक मिलते होंगे? उन्हें अगर नए दर्शक मिल रहे हैं तो क्या पुराने चैनलों के दर्शक टूटते न होंगे? आखिरकार एक समय में एक व्यक्ति एक ही चैनल देख सकता है? पाठकों को याद होगा कि टीवी चैनलों ने अपनी दर्शक संख्या मापने की जो प्रणाली अपना रखी है उसे लेकर ही उनके बीच गहरे मतभेद हैं। टीआरपी की विश्वसनीयता में निरंतर गिरावट आई है तथा एक सर्वमान्य प्रणाली विकसित करने के लिए उपाय खोजे जा रहे हैं। इस मुद्दे पर कुछेक चैनलों के बीच आपसी लड़ाईयां भी हो चुकी हैं।

अखबारों की पाठक संख्या को लेकर भी इस तरह के मतभेद उभरे हैं। पहले एनआरएस (नेशनल रीडरशिप सर्वे) नाम की एक संस्था होती थी। पत्र प्रकाशक, विज्ञापनदाता व विज्ञापन एजेंसियां तीनों का यह संयुक्त प्रयास था। कुछ समय बाद आईआरएस (इंडियन रीडरशिप सर्वे) नामक संस्था का उदय हुआ। इसकी भी व्यवस्था एनआरएस की तरह ही थी। पहले कुछ साल एनआरएस के आंकड़े खूब चले, फिर प्रकाशकों के बीच इसके नतीजों को लेकर विवाद होना शुरू हो गया। बहुत से पत्रों ने असंतुष्ट होकर इसकी सदस्यता छोड़ दी। यह संस्था अब क्या कर रही है कम से कम मेरी जानकारी में नहीं है। दूसरी संस्था अर्थात् आईआरएस अभी चल तो रही है, लेकिन इसकी कार्यप्रणाली और निष्कर्षों को लेकर भी प्रकाशकों के बीच सार्वजनिक बयानबाजी स्तर तक मतभेद उभर आए। इसे लेकर दो अनुमान लगाए जा सकते हैं। एक- कि अखबारों के अपने दावों में कहीं कोई कमजोरी है और दो- कि आईआरएस की सर्वेक्षण पध्दति में ही खामियां हैं! जो भी हो टीआरपी और आईआरएस दोनों की विश्वसनीयता पर लगा प्रश्नचिन्ह मीडिया की पहुंच के अपने दावों को संदिग्ध बनाता है।

मैं चूंकि स्वयं एक अखबार से पिछले तिरपन साल से जुड़ा हुआ हूं इसलिए समाचारपत्र की प्रसार संख्या और पाठक संख्या को लेकर मेरी अपनी एक राय है। आज सोलह पेज के एक अखबार में सिर्फ कागज की कीमत उसकी क्वालिटी के अनुसार साढ़े तीन से पांच रुपए के बीच बैठती है। बाकी खर्चे अलग। इसके बरक्स अखबार का मूल्य होता है तीन या साढ़े तीन रुपया। वितरण का खर्च काटकर हाथ आता है अधिकतम दो रुपया। इस तरह अखबार की एक प्रति पर अगर दो रुपया या अधिक का घाटा होता है तो सवाल उठता है कि इसकी पूर्ति कहां से होगी? जनता समझती है कि अखबार को विज्ञापन से भारी कमाई होती है। यह एक दूसरा मिथक है।  जब हर रोज नए अखबार निकल रहे हों तो विज्ञापनदाता किसको, कितना विज्ञापन दे देगा? आखिर उसे भी तो एक बजट के भीतर अपना काम करना पड़ता है। यहां पर यह स्पष्ट समझ आ जाना चाहिए कि अखबार हो या टीवी चैनल अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए व्यवसायिक विज्ञापनों पर नहीं, बल्कि किन्हीं अन्य स्रोतों पर निर्भर रहते हैं।

ये अन्य स्रोत क्या हैं? इन्हें हम मुख्यत: तीन श्रेणियों में रख सकते हैं। पहला, मीडिया मालिक के अपने अन्य कोई व्यवसायिक उपक्रम हों जिनकी कमाई से वह घाटे की पूर्ति करता हो और इसकी एवज में मीडिया का इस्तेमाल व्यापार बढ़ाने के लिए करता हो। दूसरे, वह सरकार पर निर्भर रहता हो। देश में राजनीतिक चेतना का क्रमिक विकास हुआ है। राजनीति किसी हद तक विकेन्द्रित हुई है। हर मुख्यमंत्री तथा हर क्षत्रप अपने छवि निर्माण के लिए पहले से कहीं ज्यादा  आत्म सजग है। हरेक की निगाह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है। हरेक चाहता है कि मीडिया में सुबह-शाम उसकी जय-जयकार होती रहे।  मीडिया मालिक अगर इसकी कोई कीमत मांगता है तो उसे देने में क्या हर्ज है? यह कीमत अगर विज्ञापन की शक्ल में चुकाना हो तो उसमें बुराई क्या है? अगर मीडिया मालिक को राज्यसभा में भेजना हो तो वह भी मुनाफे का सौदा है।

जिन दो श्रेणियों का संक्षिप्त वर्णन मैंने ऊपर किया उसका प्रभाव क्षेत्र सीमित है, इसलिए समाज के लिए बहुत ज्यादा  नुकसानदायक नहीं है। लेकिन हाल के वर्षों में एक तीसरी श्रेणी भी बन गई है। अब मीडिया में एक तरफ विदेशी पूंजी लग रही है, तो दूसरी तरफ कारपोरेट पूंजी से उनका पोषण हो रहा है। भारत के सबसे बडे उद्योगपति मुकेश अंबानी आज एक बडे मीडिया साम्राय के भी मालिक हैं। अन्य इजारेदार भी उसी राह पर चल रहे हैं। वे मीडिया को स्वतंत्र व पृथक व्यवसाय की तरह नहीं देखते बल्कि अपने व्यवसायिक साम्राय का विस्तार करने के लिए देश की राजनीति को प्रभावित करने के उद्देश्य से उसका बेहिचक इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्हें इसमें किसी तरह से कोई रोक-टोक पसंद नहीं है।

मैं अपने पाठकों का ध्यान 'आउटलुक' पत्रिका के 3 फरवरी 2014 के अंक की ओर दिलाना चाहता हूं। इसमें पत्रिका ने मीडिया पर कारपोरेट नियंत्रण को लेकर एक लंबा लेख छापकर बताया है कि कारपोरेट भारत नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता से किस तरह खिलवाड़ कर रहा है। इस लेख में पांच पत्रकारों के उदाहरण दिए गए हैं। देश के सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले समाचारपत्र 'द हिन्दू' में प्रबंधन में आंतरिक बदलाव हुए तो पत्र के प्रतिष्ठित संपादक सिध्दार्थ वरदराजन को आनन-फानन में बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अगर 'द हिन्दू' में ऐसा हो सकता है तो फिर बाकी अखबारों के बारे में तो कल्पना ही की जा सकती है।  तमिलनाडु में ही प्रभावशाली सन टीवी के पत्रकार थिरू वीरपाण्डयान को भी इसलिए हटा दिया गया कि उन्होंने एक स्वतंत्र कार्यक्रम में अपनी निजी हैसियत से बोलते हुए नरेन्द्र मोदी की आलोचना कर दी थी।

कुछ समय पहले जब रहील खुर्शीद को 'टि्वटर' का भारत प्रभारी नियुक्त किया गया तो उनको हटाने के लिए भी एक मुहिम चल पड़ी क्योंकि खुर्शीद पूर्व में श्री मोदी की आलोचना कर चुके हैं। 'फोर्ब्स इंडिया' के एक संपादक इंद्रजीत गुप्ता को भी किसी ऐसे ही आधार पर पद त्याग के लिए मजबूर होना पड़ा। आर.पी. गोयनका समूह द्वारा संचालित 'ओपन' पत्रिका से जुझारू पत्रकार हरतोष सिंह बल को इसलिए हटना पड़ा कि वे भी नरेन्द्र मोदी की नीतियों  का विरोध कर रहे थे। उनके आलोचक भूल गए कि श्री बल ने कांग्रेस और राहुल गांधी की भी उसी निष्पक्षता के साथ आलोचना की थी। इस बीच दिल्ली के युवा पत्रकार शिवम विज का एक लेख इंटरनेट पर आया है जिसमें उनका आरोप है कि मुकेश अंबानी के टीवी-18 समूह ने अपने दो जाने माने पत्रकारों निखिल वागले व सागरिका घोष को चेतावनी दी है कि वे निजी तौर पर भी श्री मोदी की आलोचना करना बंद करें।

इस लेख के बाद सीएनएन-आईबीएन के प्रमुख कर्ता-धर्ता राजदीप सरदेसाई ने ऐसी किसी चेतावनी या दबाव की बात का खंडन किया, लेकिन शिवम विज अपनी बात पर कायम हैं। मैं याद करता हूं कि आज से बीस साल पहले राजदीप सरदेसाई ने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में एक युवा पत्रकार के रूप में विकासमूलक पत्रकारिता करते हुए अपनी पहचान बनाई थी, जबकि उसी समय में निखिल वागले अपने सांध्य दैनिक 'महानगर' में शिवसेना और बाल ठाकरे पर तीखे आक्रमण करने के कारण चर्चित हुए थे और उन्हें जानलेवा हमलों का भी सामना करना पड़ा था। क्या ये दोनों उदाहरण इस कड़वी सच्चाई की गवाही नहीं देते कि कारपोरेट नियंत्रित मीडिया ने इस तरह पत्रकारों से उनकी आवाज के तीखे तेवर और कलम की धार छीनकर उन्हें बेबस और अकिंचन बना दिया है.

 
 देशबंधु में 13 फरवरी 2014 को प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी कई वाक्य सही है परन्तु मीडिया अपने जाल में उलझता दीखता है. जन्हा कई भ्रष्टाचार के मामलो को दिखने में मीडिया ने अच्छा काम किया परन्तु TRP की चाह में जनता को भ्रमित करने का भी प्रयास किया है. भारतीय जनता तमाशे को देखना पसंद करती है और मीडिया उससे दिखा भ्रमित हो गया है. एक समय था जब कहा जाता था कि सामान्य ज्ञान बढ़ाना है तो न्यूज़ देखे और पढ़े, परन्तु अब किसी को यह सलाह देना उसका दिमाग भ्रष्ट करना है. आपके वाक्य "दरअसल अभी नहीं, पिछले कुछेक सालों से मैं मीडिया प्रसंग उठने पर बार-बार यही कहता हूं कि अब न तो अखबार में लिखे पर और न टीवी पर देखे-सुने पर जनता को विश्वास करना चाहिए। " को मैं पिछले एक साल से मानता आया हूँ.

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