Wednesday 5 February 2014

21 वीं सदी में जनतंत्र!




ऑल
इंडिया प्रोग्रेसिव फोरम द्वारा बीते सप्ताह ''सामाजिक रूपांतरण में जनतंत्र एवं जनतांत्रिक संस्थाएं; इक्कीसवीं सदी की संभावनाएं'' विषय पर एक राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन किया गया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में आयोजित इस कार्यक्रम में देश के सोलह-सत्रह प्रांतों ने भागीदारी की। प्रतिनिधियों में राजनीतिक चिंतक, समाजशास्त्री, पत्रकार, अध्यापक, शोधार्थी, विद्यार्थी, श्रम संगठनों के कार्यकर्ता आदि शामिल थे। वर्तमान समय में एक बड़ी चुनौती हमारे सामने इस रूप में मौजूद है कि देश का सामाजिक, राजनीतिक विमर्श त्वरित लाभालाभ पर केन्द्रित हो गया है एवं  गंभीर वैचारिक विमर्श की जगह धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। एक हड़बड़ी चारों तरफ दिखाई देती है कि जितनी जल्दी जितना अधिक मिल सके उसे बटोर लिया जाए। यह प्रवृत्ति समाज के हर क्षेत्र में दिखाई दे रही है। ऐसे में भविष्य की कल्पना कर दूरगामी हित करने वाली नीतियां कैसे बनें इस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा है।

इस पृष्ठभूमि में यह एक संतोषदायी अनुभव था कि दिल्ली की कड़कड़ाती ठंड में देश के चारों कोनों से आए विभिन्न अनुभवों और विभिन्न आयु वाले बहुत सारे लोग तीन दिन तक एक साथ बैठें और माथापच्ची करें कि भारत के लिए जनतंत्र तथा जनतांत्रिक संस्थाओं का क्या मूल्य है और यह कि आने वाले समय में समाज का बेहतरी के लिए  रूपांतरण करने में इनकी क्या भूमिका हो सकती है। यहां यह रेखांकित करना भी उचित होगा कि इस तीन दिवसीय कार्यक्रम में किसी भी तरह का तामझाम नहीं बरता गया। विभिन्न सत्रों में कुछेक विद्वान अतिथि वक्ता आए लेकिन हमारे यहां स्वागत- सत्कार की जो अनावश्यक औपचारिकताएं निभाई जाती हैं उनकी यहां कोई आवश्यकता नहीं समझी गई। कुल मिलाकर एक खुला वातावरण था, जिसमें कुछ अच्छे आलेख पढ़े गए और फिर उन पर जमकर बहसें हुईं। सारे सत्रों का संचालन भी उन विद्यार्थियों ने किया, जो स्वयं को आने वाले दिनों में सक्रिय सामाजिक भूमिका निभाने के लिए तैयार कर रहे हैं।

पहले दिन परिसंवाद की शुरूआत नागपुर के प्रोफेसर युगल रायलु के बीच वक्तव्य के साथ हुई। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय जनता के लिए जनतंत्र सिर्फ एक राजनैतिक व्यवस्था ही नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि भारत व्यापक विविधताओं का देश है तथा इस विविधता का संरक्षण जनतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव है। किसी भी तरह की तानाशाही अथवा अधिनायकवाद में विविधता का निषेध ही होता है। प्रोफेसर रायलु ने इस खतरे की ओर आगाह किया कि देश में जनतांत्रिक प्रक्रिया को भीतर ही भीतर नष्ट करने का महीन षड़यंत्र चल रहा है। एक तरफ अतिदक्षिणपंथी हैं जो भारत के संविधान को बदल देना चाहते हैं, तो दूसरी ओर अतिवामपंथी हैं जो संविधान में विश्वास ही नहीं रखते। इन दोनों से ही सावधान रहने की आवश्यकता है। एक अन्य वक्ता डॉ. अजय पटनायक ने इस बात पर चिंता जताई कि जनता और मीडिया में कथित विकास को लेकर तो बहसें हो रही हैं, किंतु गैरबराबरी और नाइंसाफी को लेकर जिस गंभीरता के साथ बहस होना चाहिए वह दूर-दूर तक नहीं दिखती। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि धर्मनिरपेक्षता हमारे जनतंत्र का प्रमुख आधार है और इसे बचाना बेहद जरूरी है।

ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव फोरम के कार्यकारी अध्यक्ष अनिल राजिमवाले ने इस अवसर पर एक विस्तृत आधार पत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने बतलाया कि अंग्रेजी राज के दौरान भी हमारे स्वाधीनता सेनानियों ने किस तरह से समाज के बीच जनतांत्रिक चेतना फैलाने का काम किया। उन्होंने विभिन्न कालखंडों का जिक्र करते हुए 1937 के आम चुनावों की चर्चा की जब ग्यारह में से नौ प्रांतों में कांग्रेस ने भूमिहीनों व गरीब जनता के भारी समर्थन से विजय हासिल की। इसके बाद उन्होंने ध्यान आकर्षित किया कि भारत के पड़ोसी देशों में जनतंत्र को जडें ज़माने का पर्याप्त अवसर नहीं मिला जबकि हमें संविधान सभा के माध्यम से ऐसी जनतांत्रिक व्यवस्था प्राप्त हुई जो अब तक चली आ रही है। श्री राजिमवाले ने श्रमिक संगठन, सार्वजनिक उद्यम, मीडिया आदि अनेक अभिकरणों का उल्लेख किया, जिन्होंने जनतंत्र को पुष्ट करने में भूमिका निभाई। इसके बाद उन्होंने प्रश्न उछाला कि क्या हम इस व्यवस्था का संपूर्ण लाभ उठा सके हैं? इसमें देश को रूपांतरित करने की जो क्षमता है क्या उसका दोहन पूरी तरह से किया गया है? उन्होंने यह मंतव्य भी प्रकट किया कि जनतंत्र सिर्फ एक राजनीतिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि वह मनुष्य संस्कृति का एक नया रूप है। श्री राजिमवाले ने अपने उद्बोधन का एक बड़ा हिस्सा इस बात पर केंद्रित किया कि विज्ञान व टेक्नालॉजी में खासकर सूचना प्रौद्योगिकी में जो नए आविष्कार हुए हैं उनसे समाज में जनतंत्रीकरण की प्रक्रिया मजबूत होने की संभावना बढ़ी है। इस बारे में कुछ अन्य वक्ताओं के साथ मैंने भी आंशिक असहमति दर्ज की।

एक सत्र में राज्यसभा के संयुक्त सचिव सत्यनारायण साहू अतिथि वक्ता थे। उन्होंने अपने रोचक वक्तव्य में अनेक दृष्टांत देते हुए यह स्थापित किया कि सामाजिक रूपांतरण के लिए जनतंत्र से बेहतर अन्य कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। श्री साहू ने महात्मा गांधी को याद करते हुए प्रतिपादित किया कि भारत में यदि जनतंत्र मजबूत हुआ है तो उसका मूल आधार अहिंसा है। उन्होंने वर्तमान की चर्चा करते हुए विश्वास व्यक्त किया कि आम चुनावों में इलेक्ट्रानिक प्रक्रिया अपनाने से बेहतर ढंग से चुनाव संचालन संभव हो रहा है। इसी सत्र में हैदराबाद के तकनीकीविद्  एम. विजय कुमार ने तर्क रखा कि विकेंद्रीकरण और जनतंत्रीकरण दो अलग-अलग बातें हैं। विकेंद्रीकरण एक सीमित प्रक्रिया है जबकि जनतंत्रीकरण का दायरा व्यापक है। उन्होंने यह आशंका भी व्यक्त की कि आज की प्रौद्योगिकी कहीं अधिनायकवादी प्रवृत्ति को बढ़ावा देने का काम तो नहीं कर रही? गोवा के डॉ. ईश्वर सिंह दोस्त का भी प्रश्न था कि- विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास से होने वाला लाभ अंतत: कौन उठा रहा है। दिल्ली के वैज्ञानिक डॉ. सोमा एस. मार्ला ने नवउदार पूंजीवाद की चर्चा करते हुए कुछ मौजूं प्रश्न सामने रखे जैसे कि टेक्नालॉजी के विकास से श्रमिकों को क्या लाभ मिला है? क्या इससे अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ी है? क्या इससे श्रमिक समुदाय का जीवनस्तर बेहतर हुआ है? उन्होंने यह भी बताया कि आज दुनिया के दो तिहाई से यादा वैज्ञानिक बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए काम कर रहे हैं।

परिसंवाद में एक सत्र ''मीडिया एवं सामाजिक परिवर्तन'' पर हुआ। इस सत्र में सुप्रसिद्ध पत्रकार हरतोष सिंह बल अतिथि वक्ता के तौर पर मौजूद थे उन्होंने अपने वक्तव्य में कुछ बहुत ही चुभते हुए प्रश्न उठाए। उन्होंने पूछा कि भारत में मीडिया की वृद्धि की जो बात की जा रही है वह किस हद तक सही है? उन्होंने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि मीडिया का स्वामित्व धीरे-धीरे कुछेक पूंजीपतियों के हाथों सिमटता जा रहा है। उन्होंने बतलाया कि कितने ही मीडिया समूह भारी घाटे में चल रहे हैं और इस घाटे की पूर्ति मीडिया मालिक अपने दूसरे व्यवसाय में मुनाफा उठाकर करते हैं। श्री बल ने मीडिया, कारपोरेट और राजनेताओं के गठबंधन पर भी चिंता जाहिर की तथा मीडिया को स्वतंत्र व निष्पक्ष बनाने के लिए दो महत्वपूर्ण सुझाव दिए। एक- मीडिया के क्रियाकलाप भी जनता के पड़ताल के लिए खुले होना चाहिए, जिस तरह आईटीआई के अंतर्गत सरकार के कार्यकलाप। दो- देश की संसद और जनप्रतिनिधियों को मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। इस सत्र में सोशल मीडिया व न्यू मीडिया पर भी बहुत बातें हुईं। अधिकतर वक्ताओं का मानना था कि सोशल मीडिया अपने आप में परिवर्तन का वाहक नहीं, बल्कि एक सुलभ माध्यम मात्र है। असली परिवर्तन तो जनता ही करती है। भारत के संदर्भ में रेखांकित किया गया कि सोशल मीडिया यहां अभी प्रारंभिक अवस्था में है। वह मुख्यत: शहरी क्षेत्र तक केंद्रित है और उसकी पहुंच सीमित है। जनता के हक में इसका बेहतर और अधिकतम इस्तेमाल कैसे हो सकता है इस पर अभी और विचार करना होगा।

परिसंवाद के एक सत्र में ''जनतंत्र और वर्चस्ववाद'' पर चर्चा हुई तो एक में ''भारतीय जनतंत्र व धर्मनिरपेक्षता'' पर। समापन दिवस पर एक सत्र में हाशिए का समाज और 'जेंडर जस्टिस' (लैंगिक न्याय) पर चर्चा हुई तथा दूसरे सत्र में संस्थाओं के जनतंत्रीकरण पर। स्थानाभाव के कारण उन पर चर्चा फिर कभी। कुल मिलाकर यह एक विचारोत्तेजक कार्यक्रम था। शास्त्रार्थ के लिए प्रसिद्ध इस देश में आवश्यक है कि ऐसी चर्चाएं निरंतर होती रहें, अन्यथा भावनाओं में बहकर हम किसी भी दिन किसी तानाशाह को गद्दी सौंपकर जनतंत्र को खो देंगे।


देशबंधु में 06 फरवरी 2014 को प्रकाशित
 

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