प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने
कुछ सप्ताह पूर्व अपनी पत्रकार वार्ता (संभवत: अंतिम) में कहा था कि आज
उनकी चाहे जितनी आलोचना की जाए उन्हें विश्वास है कि इतिहास उनका बेहतर
मूल्यांकन करेगा। प्रधानमंत्री की यही भावना सोमवार को वित्तमंत्री पी.
चिदम्बरम के अंतरिम बजट भाषण में प्रतिध्वनित हुई जब उन्होंने कहा कि यूपीए
के कामकाज का निर्णय इतिहास करेगा। उनकी सोच अपनी जगह पर सही है। यूपीए ने
डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस वर्ष इस देश का शासन संभाला है। एक
जनतांत्रिक व्यवस्था में इतना समय कम नहीं होता। अमेरिका में तो एफडीआर के
राष्ट्रपतिकाल में ही यह नियम बन गया था कि उनके बाद किसी भी राष्ट्रपति को
दो से ज्यादा मौके नहीं मिलेंगे याने कुल मिलाकर आठ वर्ष। इंग्लैण्ड में
मार्गरेट थैचर ने ग्यारह साल तक सरकार चलाई। उनके बाद इतना लंबा अवसर और
किसी को नहीं मिला। अभी शायद जर्मनी की एंजेला मर्केल ही एकमात्र अपवाद
हैं। उस पृष्ठभूमि में देखें तो संभावना बनती है कि जनतांत्रिक राजनीति के
वर्तमान दौर के अंतर्गत भारत में यूपीए के दससाला शासन का मूल्यांकन इतिहास
अवश्य करेगा।
डॉ. सिंह और श्री चिदम्बरम का आत्मविश्वास उनके अपने आकलन
से उपजा है, किन्तु हमें लगता है कि मौजूदा हालात में जबकि विश्व के
राजनीतिक पटल पर अनवरत परिवर्तन हो रहे हैं तब इतिहास में बेहतर स्थान दर्ज
कराने की आशा शायद समय-सम्मत नहीं है। हम जितना कुछ इतिहास जानते हैं उस
पर एक नज़र दौड़ाने से ज्ञात होता है कि उसमें या तो महान नायकों का वर्णन
होता है, या फिर अभूतपूर्व घटनाचक्रों का। उसमें सामान्यजनों तथा सामान्य
घटनाओं के लिए अमूमन स्थान नहीं होता। घटनाओं और नायकों के इस संचयन में कई
बार चूक भी होती है और ऐसे तथ्य चुनने से छूट जाते हैं, जिनकी एक अंतर्भूत
भू्मिका इतिहास को बनाने में होती है। पिछले कुछ दशकों से सबल्टर्न (सतह
के नीचे) का इतिहास लिखने की एक धारा चल निकली है जिसका उद्देश्य ही ऐसी
कथित भूलों को सुधारना है। अब देखना यह है कि यूपीए का शासनकाल इतिहास की
इन दो धाराओं में से किसी एक में भी विवेचनाधीन होता है या नहीं!
इसी
क्रम में यह ध्यान आता है कि इतिहास में व्याख्या तो जब होगी तब होगी,
फिलहाल तो मीडिया में लगभग हर घंटे ही, जो भी सरकार हो उसके कामकाज की
विवेचना हो रही है; भले कोई उससे सहमत हो, न हो। मीडिया द्वारा विवेचना और
टिप्पणी के नैतिक आधार क्या हैं, इसे एक पल के लिए भूल जाएं और यह देखें कि
मीडिया किस तरह अतिउत्साहित व अतिसक्रिय होकर सरकार के कामकाज की समीक्षा
कर रहा है। इसलिए इतिहास से प्रमाणपत्र हासिल करने के पहले इस चुनौती का
सामना कैसे किया जाए, यह किसी भी सरकार के लिए ज्यादा अहम् प्रश्न होना
चाहिए। इसी के साथ उन्हें यह सोचना भी आवश्यक है कि एक निश्चित अंतराल पर
मतदाता भी उनके कामकाज का मूल्यांकन करता है तथा अपनी राजनीतिक सार्थकता
सिध्द करने के लिए इस कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती भी उनके सामने होती है।
भारतीय
जनता पार्टी के वरिष्ठ प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने श्री चिदम्बरम के
वक्तव्य पर चुटकी लेते हुए यह ठीक ही कहा कि इतिहास छोड़िए, उसके पहले तो
यूपीए को कुछ ही दिनों में मतदाताओं के फैसले का सामना करना पड़ेगा। दरअसल
ऐसी टिप्पणी करने वाले श्री प्रसाद अकेले व्यक्ति नहीं हैं। यह भी नहीं कि
कांग्रेस के विरोधी ही ऐसी बात कर रहे हैं। कांग्रेस पार्टी के भीतर भी इस
बारे में गहरा आत्ममंथन चल रहा है कि 2014 के आम चुनावों में मतदाताओं का
विश्वास हासिल करने के लिए कांग्रेस की रीति-नीति क्या होगी? डॉ. मनमोहन
सिंह तो अवकाश लेने की घोषणा तो कर ही चुके हैं। उन्हें शायद इस बात का भी
इत्मीनान होगा कि उन्होंने अपनी निजी छवि को कलंकित होने नहीं दिया। उनके
सामने न तो खुद अगला चुनाव लड़ने की चिंता है और न शायद अपनी पार्टी को
चुनाव जिताने की! इसलिए वे निर्द्वन्द्व व निश्चिंत होकर राजनीति से विदा
ले सकते हैं कि वे इतिहास में अपनी जगह सुरक्षित कर चुके हैं।
समस्या तो
कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी के सामने
है। हम यहां स्मरण करना चाहेंगे कि श्रीमती गांधी ने सात साल लंबा समय बीत
जाने के बाद और भारी अनिच्छा से कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय होने का
फैसला लिया था। जो लोग कांग्रेस में वंशवाद होने की आलोचना करते हैं, वे
भूल जाते हैं कि 1991 और 1998 के बीच सोनिया गांधी राजनीति से कोसों दूर
थीं तथा 1998 से 2004 तक उन्होंने विपक्ष की राजनीति की थी। वंशवाद तो तब
होता जब 1991 में प्रधानमंत्री बनी होतीं। खैर! यह आश्चर्य की बात है कि
2004 में उन्होंने डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद क्यों सौंपा? वे
स्वयं अनिच्छुक थीं यहां तक तो ठीक है लेकिन प्रणब मुखर्जी व अर्जुन सिंह
ऐसे दो अनुभवी राजनेता उनके साथ थे, जिन्हें प्रधानमंत्री बनाया जा सकता
था। संभव है कि श्रीमती गांधी को डॉ. सिंह पर सबसे यादा एतबार रहा हो। शायद
इसलिए कि वे प्रचलित अर्थ में राजनेता नहीं थे! जो भी कारण रहे हों, इतना
स्पष्ट है कि यूपीए के पहले कार्यकाल में सोनिया गांधी का यह निर्णय सही
सिध्द हुआ तथा बड़ी हद तक इसी बिना पर यूपीए पर मतदाताओं ने 2009 में दोबारा
विश्वास जताया।
ऐसा फिर क्या हुआ कि डॉ. सिंह दूसरे कार्यकाल में अपनी
सरकार की साख बचाने में असफल हो गए? हमें लगता है कि इसके बीज यूपीए-1 के
समय ही पड़ना शुरु हो गए थे। 2004 में कांग्रेस ने वाममोर्चा और तेलंगाना
राज्य समिति जैसे सहयोगियों को लेकर चुनाव जीते थे। तेलंगाना बनाने का वायदा
कांग्रेस के घोषणा पत्र में था, लेकिन उस पर कांग्रेस ने अमल नहीं किया और
दस साल निकाल दिए। इसी तरह वाममोर्चे और अन्य घटक दलों के साथ मिलकर जो
न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना था, डॉ. सिंह ने प्रारंभ से ही उसकी अनदेखी
करना शुरू कर दी। 2005 में तो वाममोर्चे के शुभचिंतक कहने लगे थे कि उसे
सरकार से समर्थन वापिस ले लेना चाहिए। अगर ऐसा होता तो सरकार उसी समय गिर
गई होती। 2008 में सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम की बड़ी अवहेलना करते
हुए अमेरिका के साथ आण्विक समझौता किया जिसके चलते वाममोर्चे ने अंतत:
समर्थन वापिस ले लिया।
कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने साझेदारी का धर्म
नहीं निभाया। 2009 में कांग्रेस कुछ और मजबूत होकर सत्ता में लौटी तो इसके
बाद उसके अहंकार की जैसे कोई सीमा ही नहीं रही। नटवर सिंह, मणिशंकर अय्यर व
अर्जुनसिंह जैसे पुराने, नेहरूवादी नेता एक-एक कर हटा दिए गए थे।
वाममोर्चा अलग हो ही चुका था। ऐसे में कांग्रेस का वैचारिक आधार बुरी तरह
से क्षीण हो चुका था। सोनिया गांधी जिस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष
हैं उसमें मुख्यरूप से कुछ पूर्व नौकरशाहों का बोलबाला रहा। उन्होंने
जनहितैषी कार्यक्रम तो तजवीज़ किए किन्तु उन्हें लागू करने के लिए जिस
राजनीतिक आधार की जरूरत थी उसमें कोई मदद करने की क्षमता उनमें नहीं थी।
ऐसे ही कुछ नौकरशाहों ने सूचना का अधिकार कानून लागू करवाया जिसकी कि हमारी
राय में कोई जरूरत नहीं थी। मैंने इसका उस समय भी विरोध किया था।
मेरे
विचार में श्रीमती गांधी इस बात को नहीं समझ पाईं कि सिर्फ लोक-लुभावन
कार्यक्रमों से राजनीति नहीं चलती। नीतियों और कार्यक्रमों को जनता के बीच
पहुंचाने के लिए कांग्रेस पार्टी को निष्ठावान व समर्पित कार्यकर्ताओं की
बेहद जरूरत थी। इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। ऐसे में जब भ्रष्टाचार
के आरोप लगना शुरू हुए तो कांग्रेस अपना बचाव भी ठीक से नहीं कर पाई।
कांग्रेस अध्यक्ष को चाहिए था कि 2011 में एक के बाद एक घोटालों की खबर आने
के बाद वे डॉ. मनमोहन सिंह से इस्तीफा देने का अनुरोध करतीं और उनके स्थान
पर ए.के. एंटोनी या प्रणब मुखर्जी को प्रधानमंत्री बनाया जाता। डॉ. सिंह
को भी दीवार पर लिखी इबारत पढ़ना चाहिए थी। वे खुद इस्तीफे की पेशकश करते तो
इससे बेहतर कुछ नहीं होता। लेकिन वे तो जैसे कसम खाकर बैठे थे कि पांच साल
पूरा करके ही हटेंगे। सत्ता का या इतिहास बनाने का ऐसा मोह कोई नई बात
नहीं है, लेकिन यह जनतांत्रिक परंपराओं के विपरीत है।
कांग्रेस ने अपने
लंबे इतिहास में कई बार गलतियां की हैं, लेकिन उन्हें समय रहते सुधार भी
लिया है। इस बार समय रहते गलती सुधारी क्यों नहीं गई? क्या इसीलिए कि
सोनिया गांधी स्वास्थ्य संबंधी कारणों से राजनीति से विमुख हो गई हैं? क्या
इसीलिए कि राहुल गांधी की दिलचस्पी सत्तामोह की राजनीति में नहीं है? क्या
इसीलिए कि कांग्रेस के भीतर ही कांग्रेस को समाप्त करने का कोई षड़यंत्र चल
रहा है? इन सवालों का जवाब मिले तभी पता चलेगा कि इतिहास यूपीए का आकलन
किस तरह करता है।
देशबंधु में 20 फरवरी 2014 को प्रकाशित
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आपकी मूल भावना से मैं सहमत हूं, मगर मेरे आंकलन कुछ भिन्न हैं ! डॉ. मनमोहन सिंह ने सत्ता की राजनीति से हटने की घोषणा तब की जब उनके पक्ष में केवल चिदंबरम, वीरप्पा मोईली, आनंद शर्मा जैसे घोषित पूंजीवादी ही बाक़ी रह गए थे ! मनमोहन सिंह की भूमिका का मूल्यांकन यदि इतिहास करेगा भी तो उन्हें भारतीय अर्थ-व्यवस्था के शातिर शत्रु के रूप में, उनके रिज़र्व बैंक में थोपे जाने के समय से ही करेगा ! मनमोहन सिंह संसार के अकेले ऐसे व्यक्ति/प्रधानमंत्री के रूप में जाने जाएंगे जिसने हमेशा अपने ही देश के हितों के विपरीत काम किया ! जब वे मात्र रिज़र्व बैंक के उप-गवर्नर थे, तब उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र की दो महत्वपूर्ण कम्पनियों 'स्कूटर इंडिया' और 'इंडियन ड्रग्स एंड फ़ार्मास्युटिकल्स लि.' को लॉबीइंग करके बंद करवा दिया था और प्रधानमंत्री बनते ही सार्वजनिक क्षेत्र की सभी कम्पनियों को ठिकाने लगाना शुरू कर दिया था...बहरहाल, मेरा अभी भी यही मानना है कि हो सकता है कि लोकसभा चुनाव के बाद कॉंग्रेस-भाजपा तथाकथित 'संवैधानिक संकट' की दुहाई दे कर मिल कर तथाकथित 'राष्ट्रीय सरकार' बनाने और अमेरिका के दबाव में फिर से मनमोहन सिंह को ही प्रधानमंत्री बनाने पर राज़ी हो जाएं, क्योंकि भाजपा भले ही यूपीए-1 या यूपीए-2 के विरुद्ध कुछ भी कहती रहे, संघ ने मनमोहन सिंह की कभी कोई कड़ी आलोचना नहीं की क्योंकि संघ के लिए मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियां भाजपा की अपेक्षा अधिक अनुकूल थीं ! मेरी बात हो सकता है, इस समय केवल मज़ाक़ ही समझी जाए, मगर यह नितांत संभव है !
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