Wednesday, 26 February 2014

छोटे राज्य व अन्य इकाईयां



भारत
के तेलगु भाषा-भाषियों के लिए आंध्रप्रदेश का विभाजन व तेलंगाना का निर्माण स्वाभाविक ही एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा है, किन्तु अब जबकि फैसला हो चुका है, अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख इस मुद्दे के व्यवहारिक पक्ष पर ध्यान देना न सिर्फ तेलगु समाज बल्कि पूरे देश के लिए हितकर होगा। 15 अगस्त 1947 को एक स्वतंत्र राष्ट्र की उदय-वेला में भारत की आबादी बत्तीस करोड़ के आसपास थी। गत सड़सठ वर्षों में यह आंकड़ा एक अरब बीस करोड़ के पार चला गया है। ध्यान आता है कि 1956 में राज्य पुनर्गठन के समय मध्यप्रदेश की आबादी मात्र दो करोड़ थी, जबकि सन् 2000 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय सिर्फ छत्तीसगढ क़ी ही आबादी इतनी थी। ऐसे ही आंकड़े अन्य प्रदेशों के होंगे। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि देश के लगभग हर प्रांत पर बढ़ती आबादी का दबाव लगातार बढ़ रहा है। यह एक व्यवहारिक तथ्य है जिसके आधार पर हम लंबे समय से छोटे राज्यों की वकालत करते आए हैं।

सन् 2000 में जो तीन नए प्रांत बने उनके पीछे भी कुछ भावनात्मक और कुछ राजनीतिक कारण थे। एनडीए सरकार ने व्यवहारिक आधारों पर नए प्रांतों के गठन का फैसला नहीं लिया था, किन्तु आज तेरह साल से कुछ अधिक समय बीत जाने के बाद यह स्पष्ट है कि तीन राज्यों के विभाजन से किसी भी राज्य  को न कोई नुकसान पहुंचा और न कोई असुविधा हुई, बल्कि पुनर्गठन से जो नए राय बने उनमें बेहतर प्रशासन की संभावनाएं विकसित हुईं। यह अलग विवेचन का विषय है कि ये संभावनाएं फलीभूत हुईं या नहीं। अगर उसमें कोई कमी रही है तो उसके कारण अलग हैं। इस तरह विचार करने से हमें लगता है कि तेलंगाना राज्य गठित करने का निर्णय गलत नहीं था।

आंध्र विभाजन के विरोधी पक्ष को इस बात पर एतराज है कि दो तेलगुभाषी प्रांत बन जाने से भाषावार प्रांतों की रचना का सिध्दांत खंडित होता है। यह तर्क आधारजनित नहीं है। 1956 या उसके पहले ऐसा मानने वालों की कमी नहीं थी जो सारे हिन्दी भाषी क्षेत्र को एक प्रदेश के रूप में आबध्द देखना चाहते थे। इनमें डॉ. रामविलास शर्मा जैसे प्रकाण्ड बुध्दिजीवी भी शामिल थे। इस तर्क को उस समय भी स्वीकार नहीं किया गया। 1956 में देश में कुल चार हिन्दी भाषी प्रदेश थे - उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश व राजस्थान। आज यह संख्या बढ़कर नौ हो गई है। जो नए पांच प्रांत जुड़े हैं वे हैं- हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड। अगर आजादी के समय से ही हिन्दीभाषी प्रांतों की संख्या एक से ज्यादा रही है तो अन्य भाषा-भाषी प्रांतों की संख्या भी एकाधिक होने में कौन सी बुराई है?

आंध्र और तेलंगाना के सिलसिले में एक ऐतिहासिक तथ्य का स्मरण कर लेना चाहिए। 1953 तक तेलंगाना एक अलग प्रदेश ही था, जबकि शेष आंध्र तत्कालीन मद्रास प्रांत का हिस्सा था। पृथक तेलगुभाषी प्रांत की उग्र मांग उठने पर 1953 में आंध्रप्रदेश का गठन किया गया, जिसमें तेलंगाना को जोड़ दिया गया। यह संभव है कि इस तेलगुभाषी प्रांत का अस्तित्व बने रहता ठीक वैसे ही जैसे नए मध्यप्रदेश के एक सुगठित प्रांत के रूप में बने रहने की कल्पना की गई थी। ऐसा नहीं हुआ और नए प्रांत बनने की नौबत इसलिए आई क्योंकि आंध्र में तेलंगाना, बिहार में झारखंड या कि मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ क़ी इन प्रदेशों के वर्चस्ववादी व राजनीतिक दृष्टि से मजबूत समूहों ने लगातार उपेक्षा ही नहीं बल्कि उनका तिरस्कार भी किया।

खैर! अब तेलंगाना देश के उन्तीसवें राज्य  के रूप में नक्शे पर आ ही गया है। क्षेत्रफल व जनसंख्या दोनों आधारों पर एक छोटा राज्य  होने का एक स्वाभाविक असर होगा कि यहां की सरकार व समाज के बीच में जो दूरी है उसमें कमी आएगी। राजनेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों के सामने अवसर होगा कि वे त्वरित गति से निर्णय लेते हुए बेहतर प्रशासन दे सकें। यह बात आंध्रप्रदेश पर भी उसी तरह लागू होगी। आंध्रप्रदेश को अब वे सारे केन्द्रीय संस्थान व सुविधाएं मिल जाएंगी, जो तेलंगाना में छूट जाएंगी। विजयवाड़ा, विशाखापट्टनम, तिरुपति, अनंतपुर आदि स्थानों पर आने वाले समय में हाईकोर्ट, एम्स, आईआईटी, एनआईटी, आईआईएम, केन्द्रीय विश्वविद्यालय जैसी तमाम संस्थाएं स्थापित होंगी। इनसे प्रदेश की युवा पीढ़ी को आगे बढ़ने के बेहतर अवसर भी मिलेंगे।

दरअसल, छोटे प्रांतों का गठन वर्तमान समय की एक बड़ी जरूरत है। यदि यूपीए सरकार ने द्वितीय राय पुनर्गठन आयोग स्थापित कर देश में कुछ और नए राज्य निर्मित करने का फैसला लिया होता तो वह कहीं बेहतर होता। एनडीए व यूपीए दोनों ने इस बारे में अपनी कमजोरी प्रकट की है। बसपा की एकमात्र नेता सुश्री मायावती ने उत्तरप्रदेश को चार राज्यों में विभाजित करने का फैसला अपने कार्यकाल में लिया था। उन्होंने इस मांग को फिर दोहराया है। हम उनकी राय से इत्तफाक रखते हैं। देश में आज अगर पचास प्रांत भी बनते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। दो या तीन करोड़ की आबादी के प्रदेश का प्रशासन बेहतर तरीके से संभाला जा सकता है। इसी आधार पर कुछ और उपायों पर भी विचार करना उपयुक्त होगा।

छत्तीसगढ़ का उदाहरण हमारे सामने है। आज यहां जिलों की संख्या 16 से बढ़कर 27 हो गई है। तहसीलों को अनुविभाग का दर्जा दिया जा रहा है और विकासखंडों का उन्नयन कर तहसीलें बन रही हैं। यही स्थिति अन्य प्रदेशों में भी है। इसका मकसद एक ही है कि जनता व प्रशासन के बीच की भौगोलिक दूरी को हर संभव कम किया जाए। ऐसा करने से कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन व कानून व्यवस्था का पालन बेहतर तरीके से होगा शायद इसके पीछे यही भावना है। राज्य  सरकारों को इससे आगे बढ़कर जिला पंचायतों व स्थानीय स्वशासी इकाईयों को भी सही अर्थों में स्वायत्तता देना चाहिए। मुख्यमंत्रियों या सत्तारूढ़ दल को इस अहंकार से मुक्त होना चाहिए कि वे जिला पंचायत अध्यक्ष या महापौर को अंगूठे के नीचे दबाकर रखें।

इसी बात को आगे बढाते हुए हमारा ध्यान इस ओर भी जाता है कि देश में निर्वाचित सांसदों और विधायकों के ऊपर भी जनप्रतिनिधि का भार लगातार बढ़ रहा है। किसी समय दस लाख की आबादी पर एक लोकसभा सदस्य और एक लाख की आबादी पर एक विधानसभा सदस्य का चुनाव होता था। आज यह औसत दुगुने से ज्यादा बढ़ गया है। ऐसे में यह लगभग असंभव है कि कोई निर्वाचित प्रतिनिधि अपने निर्वाचन क्षेत्र का पर्याप्त ध्यान दे सके। हमारा सुझाव है कि सभी राजनीतिक दल इस बारे में मिल-बैठकर तय करें कि लोकसभा क्षेत्र में दस लाख व विधानसभा क्षेत्र में एक लाख आबादी की सामान्य सीमा हो। ऐसा होने से सत्ता का विकेंद्रीकरण सही मायनों में हो सकेगा व जनप्रतिनिधियों व मतदाताओं के बीच की दूरी भी कम होगी।
देशबंधु में 27 फरवरी 2014 को प्रकाशित
 

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