Tuesday 4 February 2014

शिक्षा का मोल : मोल ली शिक्षा



भारत
में शिक्षा की आवश्यकता व उपादेयता को जिस रूप में लिया जाता है उसे देख-देखकर मैं हैरान हूं। एक समय था जब मंत्रियों तथा बड़े समझे जाने वाले अन्य लोगों के स्वागत के लिए शाला से बच्चों को इकट्ठा कर कभी किसी मैदान में तो कभी किसी सड़क के किनारे खड़े होने के लिए ले आया जाता था। कई बार ऐसे गणमान्य व्यक्ति के आने में देर होती थी तो दस-बारह साल उम्र के बच्चे कई-कई घंटे खड़े रहने पर मजबूर हो जाते थे। भूखे-प्यासे, कभी ठंड में ठिठुरते, तो कभी धूप में झुलसते। गोया बच्चे न हुए रंग-बिरंगा फीता हो गए। किसी शिक्षक, किसी प्रधानाध्यापक की हिम्मत नहीं होती कि तहसीलदार या जिलाधीश की हुक्म हुजूरी कर सकें। आज भी तमाम सरकारी आदेशों के बावजूद यह स्थिति किसी हद तक बरकरार है।  इन विद्यार्थियों के लिए शैक्षणिक कैलेण्डर के मुताबिक साल में विभिन्न अवसरों पर भांति-भांति के उत्सवों और प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। इनमें राष्ट्रीय स्तर के आयोजन भी शामिल हैं। किन्तु उद्धाटन और समापन इन दो अवसरों को छोड़ दें तो दूर पास से आए विद्यार्थियों की खोज-खबर शायद ही कोई लेता हो। उन्हें ऐसी जगह ठहराया जाता है जहां न तो साफ-सफाई होती है और न अन्य उचित व्यवस्थाएं। पीने का पानी भी ऐसे मटकों में भरा जाता है जो शायद कभी धुलते भी नहीं। नाश्ते और भोजन के लिए जो राशि स्वीकृत होती है वह अपने आप में पर्याप्त नहीं होती और आयोजनकर्ताओं को बस्ती के धनी-धोरी लोगों की कृपा से इंतजाम करने पर बाध्य होना पड़ता है। यदा-कदा अखबार का कोई संवाददाता सजग, संवेदनशील हुआ तो वह ऐसी बदहाली की रिपोर्ट छाप देता है, लेकिन तब तक अवसर बीत जाता है।


ऐसा नहीं है कि हमारे कल्याणकारी राज्य को अपनी नई पीढ़ी की बिल्कुल भी चिंता न हो। शिक्षा का अधिकार कानून सारे देश में लागू हो चुका है। यह हमारे नीति निर्माताओं के सदाशय का सबसे ताजा और बड़ा प्रमाण है। स्कूलों में मध्यान्ह भोजन योजना तो पिछले कई साल से चल ही रही है, लेकिन इस योजना पर अमल किस तरह से हो रहा है वह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। उच्च स्तर पर ऐसे मुद्दे को लेकर अब तक आम राय कायम नहीं हो सकी है कि बच्चों को बिस्किट या पहले से तैयार अन्य कोई आहार मध्यान्ह भोजन में परोसा जाए या फिर उन्हें स्कूल में ताजा गर्म सामान्य भोजन उपलब्ध कराया जाए। फिर यह प्रयोग भी चल रहा है कि किसी निजी संस्था की केन्द्रीय रसोई में भोजन तैयार कर आसपास के स्कूलों में वितरित कर दिया जाए। अधिकतर स्थानों पर स्कूल के भीतर ही रसोई की व्यवस्था है, लेकिन उसमें भी मुश्किलें कम नहीं हैं।

मैंने देखा है कि जहां कहीं शिक्षक स्वप्रेरित हैं वहां तो बच्चों को भोजन ठीक से मिल जाता है, लेकिन अधिकतर स्थानों में स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। ऐसी खबरें भी लगातार सुनने में आती हैं कि विशेषकर भोजन के समय बच्चों से जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव किया जाता है। हमारे कुछ जाने माने समाजचिंतक दावा करते हैं कि मध्यान्ह भोजन योजना के चलते स्कूलों में बच्चों की आमद में इजाफा हुआ है। याने सरकारी भाषा में शाला-प्रवेशी बच्चों का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। किन्तु ये उदारमना चिंतक इस सच्चाई पर शायद जानबूझ कर ही गौर नहीं करते कि स्कूल में भोजन कर लेने के बाद कितने बच्चे कक्षा में बैठते हैं और कितने तुरंत घर वापिस चले जाते हैं। वैसे भी उन कक्षाओं में बच्चे बैठकर करेंगे भी क्या जहां या तो शिक्षक हैं ही नहीं और अगर हैं भी तो स्कूल से नदारद हैं। तथापि कुछेक अत्यंत दुर्लभ अवसरों को छोड़कर अभिभावक या आसपास का समाज इन सारी बातों पर गौर नहीं करता।

देश में स्कूल शिक्षा के क्षेत्र में एक राजनैतिक प्रयोग समाजसेवा के आवरण में कुछ सालों से चल रहा है। इसके तहत सुदूर आदिवासी गांव में आदिवासी बच्चों को तीसरी क्लास तक की शिक्षा देने के लिए एकल विद्यालय खोले गए हैं याने एक शिक्षक है जो तीन कक्षाओं को पढ़ाएगा, उसे गांव के ही समर्थ लोग मानदेय देंगे। तीसरी कक्षा के बाद ये बच्चे कहां जाएंगे? पूछने पर जवाब मिलता है कि वे नजदीक के सरकारी स्कूल में जा सकते हैं। ऐसी आधी-अधूरी व्यवस्था करने के बजाय आप पूर्ण सुसज्जित शाला स्थापित क्यों नहीं करते? पूछने पर गोलमाल ढंग से जवाब मिलता है। इस बिन्दु को फिलहाल मैं यहीं छोड़ता हूं। मुख्य बात यह है कि उपरोक्त चर्चा देश में शिक्षा के मौजूदा हालात को समझने में हमारी मदद करती है।

एक तरफ यह स्थिति है, लेकिन दूसरी ओर हमारे समाज की अपनी शिक्षा प्रणाली से याने विद्यालयों, अध्यापकों और विद्यार्थियों से अपेक्षा का कोई अंत नहीं है। समाज चाहता है कि वे बड़े वैज्ञानिक बनें, बड़े खिलाड़ी बनें, वीर योध्दा बनें, देश का नाम रोशन करें इत्यादि। देश के प्रभुताशाली वर्ग ने एक जुमला रट लिया है- ''कैच दैम यंग''। बच्चे न हुए, मछली हो गए। हम अपने बच्चों  को सर्वगुण सम्पन्न बनाना चाहते हैं और उसके लिए एक आसान फार्मूला भी हमने खोज लिया है। देश में पर्यावरण की समस्या विकट हो रही है तो स्कूल के पाठयक्रम में पर्यावरण शिक्षा को अनिवार्य रूप से शामिल कर लिया जाए; देश में मानव अधिकारों के हनन की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं, तो बच्चों को मानवाधिकार के बारे में पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाए; देश में सड़क दुर्घटनाओं में निरंतर बढ़ोतरी हो रही है तो बच्चों को स्कूल से ही यातायात के नियम सिखाना शुरू कर दिया जाए।

गरज यह कि हमसे अब कुछ करते-धरते नहीं बनता और न हम करेंगे। बच्चों को पाठ पढ़ा दो, वे ही बड़े होकर स्थितियां सुधारेंगे। इसमें भी सारा जोर सरकारी स्कूलों पर है। ऊपर हमने मुख्यत: इन सरकारी स्कूलों की ही एक आधी- अधूरी तस्वीर आपके सामने रखी है। डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में बने कोठारी आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हुए पचास साल बीत गए। हमारे नीति निर्माताओं को उस पर अमल नहीं करना था सो नहीं किया। किन्तु उसके बाद राममूर्ति आयोग और फिर न जाने और कितनी-कितनी कमेटियां बनती चली गईं, उन सबकी रिपोर्टें भी पवित्र उद्देश्यों का वक्तव्य बनकर रह गईं। अनिल सद्गोपाल ने किशोर भारती के माध्यम से जो नवाचार प्रस्तुत किया उसे आगे बढ़ाने में न सरकार, न समाज की कोई रुचि दिखी। इसी तरह एकलव्य के सारे प्रयोग भी एक सीमित दायरे में इस तरह सिमट गए क्योंकि प्रभुताशाली वर्ग की उसमें रुचि नहीं थी।

हमारे देश का नाम ही भारत है याने वह देश जो ज्ञान की साधना में रत है। शायद कुछ इस वजह से, शायद कुछ किन्हीं पुरानी स्मृतियों के कारण, शायद कुछ औपचारिकता के चलते यह तो बार-बार कहा जाता है कि शिक्षा से बढ़कर बहुमूल्य मनुष्य के जीवन में कुछ भी नहीं है। लेकिन व्यवहारिक रूप में देखें तो यह कुछ वैसा ही है जैसे हर छोटे-बड़े शैक्षणिक या सांस्कृतिक अवसर पर सरस्वती की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया जाए और उसके बाद कुछ बच्चे मंच पर आकर 'या कुंदेंदु तुषार हार धवला' अथवा 'वर दे वीणावादिनी' का गायन कर दें। ऐसी औपचारिकता से आगे बढ़कर इस बात को कोई नहीं समझाता कि शिक्षा यदि बहुमूल्य है तो क्यों है? आखिरकार शिक्षित होकर हम क्या हासिल करना चाहते हैं।

दरअसल, इस प्रश्न का उत्तर हमें उन शाला परिसरों में नहीं मिलता जो कि जनतांत्रिक देश की कल्याणकारी व्यवस्था के अंतर्गत राय के द्वारा स्थापित किए गए हैं। इन शालाओं में जानबूझ कर अपर्याप्त साधनों के द्वारा जो शिक्षा दी जाती है उसका उद्देश्य आज्ञाकारी सेवकों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जिसकी जरूरत सत्ता-सम्पन्न, साधन-सम्पन्न व अधिकार-सम्पन्न वर्ग को पड़ती है। इस वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने के लिए एक समानांतर व्यवस्था प्रारंभ से चल रही है जिसे बोलचाल की भाषा में पब्लिक स्कूल कहा जाता है। रायपुर का राजकुमार कॉलेज, अजमेर का मेयो स्कूल, देहरादून का दून स्कूल और हाल के बरसों में धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल तथा ऐसी अनेक संस्थाएं इस प्रणाली के अंतर्गत आती हैं। इन्हें पब्लिक स्कूल क्यों कहा जाता है यह भी एक षडयंत्र ही है क्योंकि आम जनता याने कि पब्लिक से इनका कोई लेना देना नहीं है। ये तो सम्पन्न लोगों द्वारा सम्पन्न पाल्यों के लिए स्थापित संस्थाएं हैं। हमारे देश में शिक्षा को लेकर जो द्वैतभाव है यह उसका वलंत उदाहरण है।

अपने सार्वजनिक विमर्श में इस द्वैत को अन्यत्र भी देखा जा सकता है। एक ओर तो शिक्षा में गुणवत्ता, गुणात्मक सुधार, जीवनोपयोगी शिक्षा जैसे नारे प्रयोग किए जाते हैं; वहीं दूसरी ओर शिक्षा से जुड़ी तमाम नीतियों और कार्यक्रम में पूरा जोर रोजगारोन्मुखी शिक्षा पर दिया जाता है। आज स्कूल हो या कॉलेज या फिर विश्वविद्यालय ही क्यों न हो, इनका मूल्यांकन इस आधार पर होता है कि यहां से उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों को किस बड़ी कंपनी में नौकरी मिलती है और उन्हें कितना पैकेज ऑफर किया जाता है। इसका परिणाम है कि तमाम शिक्षण संस्थाओं में भाषा, इतिहास, राजनीतिशास्त्र, भूगोल, गणित आदि पर दुर्लक्ष्य कर कम्प्यूटर शिक्षा, व्यापार प्रबंधन अथवा वाणिय जैसे विषयों पर जोर दिया जाने लगा है। देश में जो अनेक राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय खुल गए हैं उनसे उत्तीर्ण होने वाले बच्चे भी जनहित वकील या न्यायाधीश नहीं, बल्कि किसी कार्पोरेट दफ्तर में मोटा पैकेज पाने वाले मुलाजिम बनना चाहते हैं। ऐसी शिक्षा मिल सके इस हेतु मां-बाप अपने बच्चों पर अपनी हैसियत से बाहर जाकर खर्च कर रहे हैं। खुद के पास साधन नहीं है तो बैंकों से इस तरह की पढ़ाई के लिए आसानी से कर्ज मिलने की व्यवस्था हो गई है। एक बार मछली जाल में फंस गई तो फिर कहां जाएगी? 'कैच दैम यंग' का जुमला यहीं पूरी तरह से आकर चरितार्थ हो जाता है।

 वर्तमान समय में जो पारंपरिक शिक्षा है उसका कोई मूल्य नहीं है। भारतीय मुद्रा की तरह उसका अवमूल्यन हो चुका है। जो शिक्षा एक बेहतर इंसान बनाती हो आज उसकी जरूरत नहीं है। 'सफलता' इस दौर का मूल मंत्र है फिर भले ही इसे हासिल करने के लिए कितनी भी बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। यह ''मोल ली शिक्षा'' है याने इसे हम खरीद रहे हैं और जो हमें सिर्फ जिस मृग- मरीचिका की ओर ले जाती है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि विदेशों में जा बसे या देश में ही देशी विदेशी कारपोरेट घरानों में ऊंची-ऊंची तनख्वाह पाने वालों को भी अब ''कारपोरेट कुली'' की संज्ञा दी जाने लगी है और जिनका काम ''बॉडी शापिंग'' करना रह गया है। 
 
अक्षर पर्व जनवरी 2014 की प्रस्तावना

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