सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ए.आर.
दवे ने पिछले हफ्ते एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि वे अगर तानाशाह होते
तो पहली कक्षा से रामायण, महाभारत, गीता का अध्ययन अनिवार्य कर देते। हो
सकता है कि यह बात उन्होंने भावावेश में कह दी हो। किन्तु इससे अनुमान होता
है कि न्यायमूर्ति दवे भारतीय संस्कृति की व्याख्या एक खास नजरिए से करते
हैं। उनका यह बयान काफी चौंकाने वाला है; अब देश में जनता को ऐसे उद्गार
सुनने का अभ्यास कर लेना चाहिए। हमारे यहां ऊंचे स्थानों पर बैठे बड़े लोग
कब कौन सी बात कर जाएं इसका कोई ठिकाना नहीं है। न्यायधीशों के बारे में
जनता आमतौर पर मानती है कि वे अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना जानते हैं,
किन्तु यह जनमान्यता भी धीरे-धीरे झूठी साबित हो रही है। न्यायमूर्ति
मार्कण्डेय काटजू को तो जैसे विवाद खड़े करने में आनंद ही आता है जैसा कि
अभी हमने हाल में देखा। मज़े की बात है कि काटजू साहब ने जस्टिस दवे के
उक्त विचार का विरोध किया है।
बहरहाल, श्री दवे के विचारों को आसानी से नहीं झुठलाया जा सकता। उन्होंने जो बात कही है वह दो-तीन दृष्टियों से बेचैन करने वाली है। जैसे कि उन्होंने खुद के तानाशाह होने की एक असंभव कल्पना प्रस्तुत की। सवाल उठता है कि एक ऐसे देश में जहां गत सड़सठ वर्षों में जनतांत्रिक व्यवस्था को बार-बार कसौटी पर कसा जा चुका है जिम्मेदारी के पद पर बैठे एक शीर्ष व्यक्ति के मन में तानाशाही का विचार आना ही क्यों चाहिए था? क्या श्री दवे उन लोगों से सहमत हैं जो कहते हैं कि इससे तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था या फिर उनसे जिन्हें गत सड़सठ वर्षों में हुई हर बात गलत ही प्रतीत होती है? श्री दवे का जन्म तो देश को आज़ादी मिलने के बाद हुआ है, तब भी उन्होंने भारत के राजनीतिक इतिहास का अध्ययन तो किया ही होगा और वे अवश्य जानते होंगे कि स्वतंत्रता के क्या मायने हैं, कि तानाशाही में मनुष्य की स्वतंत्रता एक दूभर कल्पना ही है। न्यायमूर्ति दवे को यह भी अवश्य पता होगा कि हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको, सालाजार जैसे तानाशाहों का हश्र क्या हुआ।
श्री दवे पहली कक्षा से ही बच्चों को गीता और रामायण पढ़ा देना चाहते हैं। यह विचार भी कुछ अटपटा लगता है। मात्र पांच-छह वर्ष की आयु में किसी बालक या बालिका को क्या पढऩा चाहिए, इस गंभीर बिन्दु पर शायद उन्होंने विचार नहीं किया। गो कि शिक्षा के बारे में इतने ऊपरी ढंग से सोचने वाले वे पहले न्यायवेत्ता नहीं हैं। हमारे नीति-निर्माता एवं निर्णयकर्ता समाज की सारी विसंगतियों का दोष शिक्षा व्यवस्था पर मढ़कर खुद को अपराधमुक्त कर लेते हैं। वे नहीं सोचते कि यह शिक्षा व्यवस्था भी उनके द्वारा बनाई गई नीतियों का ही परिणाम है। वे बेहद शुष्क और मशीनी तरीके से नौनिहालों के मस्तिष्क में वेद-पुराण से लेकर पर्यावरण, सड़क सुरक्षा, लैगिंक समानता जैसे तमाम विषय ठूंस देना चाहते हैं। उन्हें इस बात का ख्याल नहीं होता कि इन नन्हे-मुन्ने बच्चों को पढ़ाना एक अलग तरह का अनुशासन है जो सिर्फ प्रशिक्षित अध्यापक ही समझ सकते हैं। दुर्भाग्य से भारत के कुलीनतंत्र में शिक्षकों का जो अपमान हो रहा है श्री दवे उससे अनभिज्ञ नज़र आते हैं।
अब बात आती है नई पीढ़ी को गीता, रामायण, महाभारत पढ़ाने की। कौन नहीं जानता कि ये हमारे क्लासिक ग्रंथ हैं और इस नाते इन्हेंं पढऩा याने बौद्धिक तृप्ति हासिल करना है, किन्तु इस ग्रंथों का पठन अनिवार्य क्यों होना चाहिए? यह तो हर व्यक्ति की अपनी रुचि का मसला है कि वह क्या पढ़े और क्या न पढ़े। हां, हम इतना जरूर जानते हैं कि इन तीनों ग्रंथों को देशव्यापी मान्यता मिली हुई है इसलिए इनको पढऩे के लिए कोई आदेश देना जरूरी नहीं है। न्यायमूर्ति दवे को स्मरण होगा कि तीस साल पहले जब दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के सीरियल प्रसारित हुए तो उन्हें देखने के लिए मानो पूरा देश थम जाता था। मुझे याद है कि कटनी से बिलासपुर आते हुए एक रविवार के दिन उत्कल एक्सपे्रस न्यू कटनी जंक्शन के आगे इसलिए रुक गई थी क्योंकि ड्राइवर और गार्ड को महाभारत देखने जाना था।
भारत को अपनी प्राचीन सभ्यता पर बहुत गर्व है। इसमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया में और देश भी हैं जिनकी सभ्यता हमारी जितनी या उससे भी ज्यादा पुरानी हैं। इन देशों में भी महाकाव्य और महागाथाएं रची गई हैं। प्रबुद्धजन अपने इन क्लासिक ग्रंथों का पाठ उसी तरह करते हैं जैसे कि हम अपने ग्रंथों का। ये क्लासिक ग्रंथ इसलिए ही हैं क्योंकि इनमें गहरा जीवन दर्शन छिपा हुआ है। होमर के इलियड और ओडेसी जैसे महाकाव्य भी तीन हजार साल पुराने हैं और उन्हें अनमोल साहित्यिक कृति के रूप में पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने अपने महान ग्रंथों को संकीर्ण हदों में बांध कर रख दिया है। हम इनको पढ़े भले ही न, लेकिन माथे पर पोथी धारण कर जुलूस निकालने में हमें मुक्ति का मार्ग दिखाई देता है। श्री दवे का आशय अगर यह था कि आडंबर छोड़कर इन ग्रंथों के मर्म तक पहुंचा जाए तो फिर मैं उनसे सहमत हूं!
मैं एक बार फिर यहां जस्टिस काटजू का उल्लेख करना चाहता हूं। उन्होंने नौजवानों के पढऩे योग्य किताबों की एक सूची जारी की है। श्री दवे भी इन तीन किताबों के अलावा कुछ और पठनीय ग्रंथों की सिफारिश करते तो बात बन जाती। उन्हें ऐसी सूची धार्मिक आग्रहों से अलग हटकर बनाना चाहिए थी। अगर इन तीन ग्रंथों से बच्चों का चरित्र विकास होता है तो क्या ऐसे और ग्रंथ नहीं हैं। वे अगर रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचंद और सुब्रह्मण्यम भारती का नाम लेते तो कितना अच्छा होता। वे दक्षिण के तिरूवल्लुवर, असम के शंकरदेव, कश्मीर की ललदेद, पंजाब के गुरुनानक देव, गुजरात के नरसिंह मेहता, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर और तुकाराम, राजस्थान की मीरा, उत्तर भारत के कबीर और रैदास, और नजीर अकबराबादी, दिल्ली के अमीर खुसरो और मिर्जा गालिब जैसे नाम जोड़ लेते तो भारतीय संस्कृति की एक मुकम्मल तस्वीर समाज के सामने आ जाती जो कहीं से भी अधूरी और संकीर्ण न लगती।
श्री दवे अगर मानते हैं कि उनके सुझाए तीन ग्रंथ ही पर्याप्त हैं तो मैं उनके ध्यान में एक तथ्य तो यह लाना चाहता हूं कि हमारे परंपरावादी समाज में महाभारत की प्रति घर में रखने की मनाही है। ऐसा माना जाता है कि जिस घर में महाभारत की पोथी होगी वहां कलह मचेगी। देश की दीवानी अदालतों में पचास-पचास साल तक भाई-भाई के बीच जो मुकदमे चलते हैं वह कहीं इसलिए तो नहीं कि उन घरों में महाभारत विराजमान है! खैर! यह तो यूं ही मन में आ गई बात थी, लेकिन श्री दवे का ध्यान मैं बहुचर्चित अर्थशास्त्री और राजनैतिक विश्लेषक लॉर्ड मेघनाद देसाई की हाल में प्रकाशित पुस्तक ''हू रोट द श्रीमदभागवत" की ओर दिलाना चाहता हूं। इसमें विद्वान लेखक ने बड़ी बेबाकी के साथ स्थापना की है कि 'गीता आज की जनतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है। हम देखना चाहेंगे कि श्री दवे श्री देसाई के तर्कों को किस तरह काटते हैं।
रामायण और महाभारत में भी जो कथाएं और अन्तर्कथाएं हैं वे भी बहुत सारे ऐसे प्रश्न खड़े करती हैं जो आधुनिक समाज की न्याय की अवधारणा से टकराते हैं। ऐसे कुछ सवाल हम बिना किसी प्राथमिकता क्रम के सामने रख रहे हैं:-
1. युधिष्ठिर को धर्मराज की पदवी दी गई है, लेकिन क्या द्यूत क्रीड़ा धर्मसम्मत है और अगर है तो कौरव सभा में द्रौपदी को दांव पर लगाना धर्म है या अधर्म?
2. इसी तरह युद्ध क्षेत्र में युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य को मारने के लिए असत्य का आश्रय क्यों लिया?
3. द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म पितामह सहित किसी भी सभासद ने विरोध क्यों नहीं किया?
4. रामायण में शूर्पणखा के साथ परिहास कहां तक उचित था?
5. बालीवध को कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है?
6. सीता की अग्निपरीक्षा और बाद में सीता का परित्याग आज की स्थितियों में क्या न्यायपूर्ण माना जाएगा?
7. शंबूक वध का औचित्य कैसे सिद्ध किया जा सकता है?
ऐसे बहुत से उदाहरण ढूंढे जा सकते हैं। संभव है कि विद्वतजनों के पास इनका कोई तात्विक समाधान हो, लेकिन औसत पाठक इतने गहरे नहीं जा सकता। हम श्री दवे के कथन पर वापिस लौटते हुए कहना चाहते हैं कि उनकी मंशा तो निश्चित ही ठीक रही होगी, लेकिन बिना तानाशाह बने भी अच्छी किताब पढऩे के लिए वातावरण बनाया जा सकता है। उसके लिए सरकार को प्राथमिक शिक्षा पर वांछित ध्यान देना चाहिए और गांव-गांव में सार्वजनिक पुस्तकालय खोलना चाहिए।
बहरहाल, श्री दवे के विचारों को आसानी से नहीं झुठलाया जा सकता। उन्होंने जो बात कही है वह दो-तीन दृष्टियों से बेचैन करने वाली है। जैसे कि उन्होंने खुद के तानाशाह होने की एक असंभव कल्पना प्रस्तुत की। सवाल उठता है कि एक ऐसे देश में जहां गत सड़सठ वर्षों में जनतांत्रिक व्यवस्था को बार-बार कसौटी पर कसा जा चुका है जिम्मेदारी के पद पर बैठे एक शीर्ष व्यक्ति के मन में तानाशाही का विचार आना ही क्यों चाहिए था? क्या श्री दवे उन लोगों से सहमत हैं जो कहते हैं कि इससे तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था या फिर उनसे जिन्हें गत सड़सठ वर्षों में हुई हर बात गलत ही प्रतीत होती है? श्री दवे का जन्म तो देश को आज़ादी मिलने के बाद हुआ है, तब भी उन्होंने भारत के राजनीतिक इतिहास का अध्ययन तो किया ही होगा और वे अवश्य जानते होंगे कि स्वतंत्रता के क्या मायने हैं, कि तानाशाही में मनुष्य की स्वतंत्रता एक दूभर कल्पना ही है। न्यायमूर्ति दवे को यह भी अवश्य पता होगा कि हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको, सालाजार जैसे तानाशाहों का हश्र क्या हुआ।
श्री दवे पहली कक्षा से ही बच्चों को गीता और रामायण पढ़ा देना चाहते हैं। यह विचार भी कुछ अटपटा लगता है। मात्र पांच-छह वर्ष की आयु में किसी बालक या बालिका को क्या पढऩा चाहिए, इस गंभीर बिन्दु पर शायद उन्होंने विचार नहीं किया। गो कि शिक्षा के बारे में इतने ऊपरी ढंग से सोचने वाले वे पहले न्यायवेत्ता नहीं हैं। हमारे नीति-निर्माता एवं निर्णयकर्ता समाज की सारी विसंगतियों का दोष शिक्षा व्यवस्था पर मढ़कर खुद को अपराधमुक्त कर लेते हैं। वे नहीं सोचते कि यह शिक्षा व्यवस्था भी उनके द्वारा बनाई गई नीतियों का ही परिणाम है। वे बेहद शुष्क और मशीनी तरीके से नौनिहालों के मस्तिष्क में वेद-पुराण से लेकर पर्यावरण, सड़क सुरक्षा, लैगिंक समानता जैसे तमाम विषय ठूंस देना चाहते हैं। उन्हें इस बात का ख्याल नहीं होता कि इन नन्हे-मुन्ने बच्चों को पढ़ाना एक अलग तरह का अनुशासन है जो सिर्फ प्रशिक्षित अध्यापक ही समझ सकते हैं। दुर्भाग्य से भारत के कुलीनतंत्र में शिक्षकों का जो अपमान हो रहा है श्री दवे उससे अनभिज्ञ नज़र आते हैं।
अब बात आती है नई पीढ़ी को गीता, रामायण, महाभारत पढ़ाने की। कौन नहीं जानता कि ये हमारे क्लासिक ग्रंथ हैं और इस नाते इन्हेंं पढऩा याने बौद्धिक तृप्ति हासिल करना है, किन्तु इस ग्रंथों का पठन अनिवार्य क्यों होना चाहिए? यह तो हर व्यक्ति की अपनी रुचि का मसला है कि वह क्या पढ़े और क्या न पढ़े। हां, हम इतना जरूर जानते हैं कि इन तीनों ग्रंथों को देशव्यापी मान्यता मिली हुई है इसलिए इनको पढऩे के लिए कोई आदेश देना जरूरी नहीं है। न्यायमूर्ति दवे को स्मरण होगा कि तीस साल पहले जब दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत के सीरियल प्रसारित हुए तो उन्हें देखने के लिए मानो पूरा देश थम जाता था। मुझे याद है कि कटनी से बिलासपुर आते हुए एक रविवार के दिन उत्कल एक्सपे्रस न्यू कटनी जंक्शन के आगे इसलिए रुक गई थी क्योंकि ड्राइवर और गार्ड को महाभारत देखने जाना था।
भारत को अपनी प्राचीन सभ्यता पर बहुत गर्व है। इसमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया में और देश भी हैं जिनकी सभ्यता हमारी जितनी या उससे भी ज्यादा पुरानी हैं। इन देशों में भी महाकाव्य और महागाथाएं रची गई हैं। प्रबुद्धजन अपने इन क्लासिक ग्रंथों का पाठ उसी तरह करते हैं जैसे कि हम अपने ग्रंथों का। ये क्लासिक ग्रंथ इसलिए ही हैं क्योंकि इनमें गहरा जीवन दर्शन छिपा हुआ है। होमर के इलियड और ओडेसी जैसे महाकाव्य भी तीन हजार साल पुराने हैं और उन्हें अनमोल साहित्यिक कृति के रूप में पूरी दुनिया में पढ़ा जाता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने अपने महान ग्रंथों को संकीर्ण हदों में बांध कर रख दिया है। हम इनको पढ़े भले ही न, लेकिन माथे पर पोथी धारण कर जुलूस निकालने में हमें मुक्ति का मार्ग दिखाई देता है। श्री दवे का आशय अगर यह था कि आडंबर छोड़कर इन ग्रंथों के मर्म तक पहुंचा जाए तो फिर मैं उनसे सहमत हूं!
मैं एक बार फिर यहां जस्टिस काटजू का उल्लेख करना चाहता हूं। उन्होंने नौजवानों के पढऩे योग्य किताबों की एक सूची जारी की है। श्री दवे भी इन तीन किताबों के अलावा कुछ और पठनीय ग्रंथों की सिफारिश करते तो बात बन जाती। उन्हें ऐसी सूची धार्मिक आग्रहों से अलग हटकर बनाना चाहिए थी। अगर इन तीन ग्रंथों से बच्चों का चरित्र विकास होता है तो क्या ऐसे और ग्रंथ नहीं हैं। वे अगर रवीन्द्रनाथ ठाकुर, प्रेमचंद और सुब्रह्मण्यम भारती का नाम लेते तो कितना अच्छा होता। वे दक्षिण के तिरूवल्लुवर, असम के शंकरदेव, कश्मीर की ललदेद, पंजाब के गुरुनानक देव, गुजरात के नरसिंह मेहता, महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर और तुकाराम, राजस्थान की मीरा, उत्तर भारत के कबीर और रैदास, और नजीर अकबराबादी, दिल्ली के अमीर खुसरो और मिर्जा गालिब जैसे नाम जोड़ लेते तो भारतीय संस्कृति की एक मुकम्मल तस्वीर समाज के सामने आ जाती जो कहीं से भी अधूरी और संकीर्ण न लगती।
श्री दवे अगर मानते हैं कि उनके सुझाए तीन ग्रंथ ही पर्याप्त हैं तो मैं उनके ध्यान में एक तथ्य तो यह लाना चाहता हूं कि हमारे परंपरावादी समाज में महाभारत की प्रति घर में रखने की मनाही है। ऐसा माना जाता है कि जिस घर में महाभारत की पोथी होगी वहां कलह मचेगी। देश की दीवानी अदालतों में पचास-पचास साल तक भाई-भाई के बीच जो मुकदमे चलते हैं वह कहीं इसलिए तो नहीं कि उन घरों में महाभारत विराजमान है! खैर! यह तो यूं ही मन में आ गई बात थी, लेकिन श्री दवे का ध्यान मैं बहुचर्चित अर्थशास्त्री और राजनैतिक विश्लेषक लॉर्ड मेघनाद देसाई की हाल में प्रकाशित पुस्तक ''हू रोट द श्रीमदभागवत" की ओर दिलाना चाहता हूं। इसमें विद्वान लेखक ने बड़ी बेबाकी के साथ स्थापना की है कि 'गीता आज की जनतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है। हम देखना चाहेंगे कि श्री दवे श्री देसाई के तर्कों को किस तरह काटते हैं।
रामायण और महाभारत में भी जो कथाएं और अन्तर्कथाएं हैं वे भी बहुत सारे ऐसे प्रश्न खड़े करती हैं जो आधुनिक समाज की न्याय की अवधारणा से टकराते हैं। ऐसे कुछ सवाल हम बिना किसी प्राथमिकता क्रम के सामने रख रहे हैं:-
1. युधिष्ठिर को धर्मराज की पदवी दी गई है, लेकिन क्या द्यूत क्रीड़ा धर्मसम्मत है और अगर है तो कौरव सभा में द्रौपदी को दांव पर लगाना धर्म है या अधर्म?
2. इसी तरह युद्ध क्षेत्र में युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य को मारने के लिए असत्य का आश्रय क्यों लिया?
3. द्रौपदी के चीरहरण के समय भीष्म पितामह सहित किसी भी सभासद ने विरोध क्यों नहीं किया?
4. रामायण में शूर्पणखा के साथ परिहास कहां तक उचित था?
5. बालीवध को कैसे न्यायोचित ठहराया जा सकता है?
6. सीता की अग्निपरीक्षा और बाद में सीता का परित्याग आज की स्थितियों में क्या न्यायपूर्ण माना जाएगा?
7. शंबूक वध का औचित्य कैसे सिद्ध किया जा सकता है?
ऐसे बहुत से उदाहरण ढूंढे जा सकते हैं। संभव है कि विद्वतजनों के पास इनका कोई तात्विक समाधान हो, लेकिन औसत पाठक इतने गहरे नहीं जा सकता। हम श्री दवे के कथन पर वापिस लौटते हुए कहना चाहते हैं कि उनकी मंशा तो निश्चित ही ठीक रही होगी, लेकिन बिना तानाशाह बने भी अच्छी किताब पढऩे के लिए वातावरण बनाया जा सकता है। उसके लिए सरकार को प्राथमिक शिक्षा पर वांछित ध्यान देना चाहिए और गांव-गांव में सार्वजनिक पुस्तकालय खोलना चाहिए।
देशबन्धु में 07 अगस्त 2014 को प्रकाशित
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