मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह
चौहान के मन में यह बात आई है कि भारतीय जनता पार्टी को अपना एक दैनिक
अखबार निकालना चाहिए। कोई तीन हफ्ते पहले भोपाल में उन्होंने प्रदेश में
पार्टी नेताओं के लिए आयोजित एक प्रीतिभोज में यह सुझाव सामने रखा। इस बारे
में उनका सोचना है कि पार्टी और सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों, सफलताओं व
उपलब्धियों को अखबारों में जैसा महत्व मिलना चाहिए वैसा नहीं मिल पाता।
जैसे कि शून्य ब्याज दर पर किसानों को कर्ज देने की खबर को मीडिया ने कोई
खास तवज्जो नहीं दी। दूसरी तरफ उनको यह शिकायत है कि सरकार विरोधी खबरों
को लपक लेने और उछाल देने में समाचार पत्र बिल्कुल भी समय नहीं गंवाते।
''इंडियन एक्सप्रेस'' के भोपाल संवाददाता का मानना है कि व्यापमं घोटाला
जिस तरह से सुर्खियों में आया संभवत् उससे विचलित होकर श्री चौहान यह
प्रस्ताव लेकर आए। फिलहाल बात सिर्फ विचार के स्तर पर है। आगे चलकर इसका
क्रियान्वयन होता है या नहीं, यह देखना होगा।
श्री चौहान को यदि अखबारों से शिकायत है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। दुनिया में ऐसा कौन सा राजनेता है जो अखबारों को पसंद करता हो? फर्क इतना है कि कुछ नेता आलोचना को सहज भाव से स्वीकार कर लेते हैं, कुछ मन ही मन कुढ़ते रहते हैं और कुछ अपनी नाराजगी खुलकर जाहिर कर देते हैं। मध्यप्रदेश और भाजपा के ही पूर्व मुख्यमंत्रियों की बात करूं तो कैलाश जोशी अखबार में छपी आलोचना से कभी विचलित नहीं होते थे। वीरेन्द्र कुमार सखलेचा को अपनी सरकार के विरुद्ध एक शब्द भी लिखा जाना नागवार गुजरता था। सुन्दरलाल पटवा इसकी कोई परवाह ही नहीं करते थे कि क्या छप रहा है। वे कहते थे- मैं अपना काम कर रहा हूं और अखबार वाले अपना। मध्यप्रदेश में ही कांगे्रस के मुख्यमंत्रियों के इस बारे में अपने-अपने विचार हैं। द्वारिकाप्रसाद मिश्र सामान्य तौर पर आलोचना सहन कर लेते थे, लेकिन एक समय एक अखबार के विज्ञापनों पर उन्होंने कुछ दिन के लिए रोक लगा दी थी। श्यामाचरण शुक्ल संपादकों को सीधे फोन पर नाराजगी जतलाते थे और फिर तुरंत सहज हो जाते थे। अर्जुन सिंह पत्रकारों का कद नापकर तदनुरूप व्यवहार करते थे। दिग्विजय सिंह सखलेचाजी की ही तरह असहिष्णु थे।
ऐसा नहीं कि राजनेताओं को ही अखबारों से शिकायत रहती है। दरअसल, समाचार पत्र एक अनिवार्य और शायद किसी हद तक अवांछित इकाई के रूप में समाज में मौजूद हैं। जो समाज अपने संस्कारों में जितना अधिक जनतांत्रिक है वहां अखबार की उपस्थिति उतनी ही अधिक स्वीकार्य है। एक संकीर्ण और असहिष्णु समाज को अखबार की शायद जरूरत ही नहीं है! एक तरफ कोई मजबूर, मजलूम न्याय की आस लिए राष्ट्रपति से गुहार लगाता है तो उसकी आखिरी प्रतिलिपि अखबार के संपादक को भेजी जाती है; दूसरी तरफ समाज में ऐसे अनेक व्यक्ति और समूह हैं जो अखबार पर येन-केन-प्रकारेण दबाव डालते हैं कि उनके बारे में हमेशा अच्छी-अच्छी बात ही छपें और अगर वे बड़े से बड़ा अपराध भी कर दें तो उसके बारे में एक पंक्ति भी न लिखी जाए। ऐसा हो जाए तो वे अखबार खरीदना बंद कर देते हैं, उसकी होली जलाते हैं, पत्रकारों पर हमले करते हैं और यह सब करने के पहले पत्र और पत्रकारों को खरीदने की कोशिश करते हैं। आजकल इस दिशा में उन्हें काफी सफलता मिल रही है।
पाठक परिचित ही हैं कि अभी हाल में देश के सबसे बड़े धनपति मुकेश अंबानी ने बहुत सारे अखबारों और टीवी चैनलों को खरीद लिया है। यह कोई नई बात नहीं है, उद्योगपति और व्यापारी पहले भी अखबार चलाते रहे हैं। अब जमीन के सौदागर, पी.डब्ल्यू.डी. के ठेकेदार, चिटफंड कंपनियों के ठग, ये सब भी अपने-अपने अखबार निकाल रहे हैं और उनमें ऊंची तनख्वाह देकर संपादकों को रखते हैं। दोनों के मजे हैं, जब तक मन मिला रहे! इन लोगों के समान ही राजनेताओं ने भी समय-समय पर अपने अखबार निकाले हैं। पंडित रविशंकर शुक्ल ने ''नागपुर टाइम्स" को प्रायोजित किया था। आगे चलकर ''महाकौशल" की स्थापना भी उन्होंने की थी। उनके अलावा और भी बहुत से नेताओं ने अपने अखबार निकाले या फिर अखबारों को अपने साथ ले लिया, भले ही इसके लिए राज्यसभा की सदस्यता का झुनझुना देना पड़ा हो।
राजनेताओं द्वारा अखबार निकालने के सबसे बढिय़ा उदाहरण शायद उड़ीसा में है। वहां हरेकृष्ण मेहताब ने अपना अखबार निकाला, नंदनी सत्पथी ने अपना और जे.बी. पटनायक ने अपना। ये सब आगे-पीछे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। राधानाथ रथ मुख्यमंत्री तो नहीं बने लेकिन राज्यसभा में अवश्य गए। तमिलनाडु में डीएमके और अन्ना डीएमके ने भी बहुसंस्करण वाले अखबार प्रकाशित किए। कर्नाटक, केरल, आंध्र में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं और पूर्व में असम और पश्चिम में राजस्थान में भी। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे ने अपना अखबार निकाला ''सामना" तो शरद पवार ने पुणे के ''सकाल" पत्र समूह को हस्तगत कर लिया। गोपाल कृष्ण गोखले की सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी द्वारा स्थापित ''हितवाद" भी आगे चलकर राजनेताओं के हाथ में आ गया। गरज ये है कि शिवराज सिंह चौहान ने कोई नई और चौंकाने वाली बात नहीं की है। अब तक जो होता आया है, वे वहीं से विचार ग्रहण कर रहे हैं।
यह संभव है कि श्री चौहान को अपनी ही पार्टी के अतीत के उदाहरणों से प्रेरणा मिली हो। भाजपा की पितृसंस्था अर्थात् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा हिन्दी में ''पांचजन्य" व अंग्रेजी में ''ऑर्गनाइजर" का प्रकाशन पिछले छह दशक से हो रहा है। संघ द्वारा ''राष्ट्रधर्म" का भी प्रकाशन किया गया था तथा ''हिन्दुस्तान समाचार" नामक समाचार अभिकरण की स्थापना भी संघ ने की थी। वाजपेयीजी और अडवानीजी जैसे बड़े नेताओं ने इनमें लंबे समय तक काम भी किया था। इसके अलावा संघ संचालित संस्थाओं के माध्यम से अनेक स्थानों से दैनिक समाचार पत्रों का प्रकाशन भी प्रारंभ किया गया था। मराठी का ''तरुण भारत" नागपुर और पुणे से निकलता था व हिन्दी ''युगधर्म नागपुर, जबलपुर और रायपुर से। ग्वालियर व भोपाल से ''स्वदेश" भी पार्टी से जुड़े लोगों ने ही निकाला। देश की राजधानी से ''मदरलैंड" नामक दैनिक का प्रकाशन भी संघ ने शुरू किया था। आज भी दिल्ली का ''पायोनियर" भाजपा का ही अखबार माना जाता है।
इस सारे इतिहास को देखते हुए अगर मध्यप्रदेश से भाजपा का अपना एक दैनिक पत्र प्रारंभ होता है तो वह एक सहज घटना होगी। यह प्रस्ताव लाने वाले शिवराज सिंह चौहान एक लोकप्रिय नेता हैं और उनके खाते में अनेक उपलब्धियां दर्ज हैं। इसलिए उनके संरक्षण में अखबार भी ठीक से चल जाएगा, इसमें कोई शंका नहीं दिखती। सवाल सिर्फ इतना है कि किसी राजनीतिक दल द्वारा घोषित तौर पर निकाले गए अखबार की विश्वसनीयता कितनी होगी! समाचार पत्र का पाठक सहज बुद्धि का धनी होता है। वह जो कुछ टीवी पर देखता है उसका प्रमाण अगली सुबह के अखबार में ढूंढता है। इसी तर्ज पर पार्टी या सरकार के दैनिक पत्र में छपी खबर पर वह एकाएक विश्वास नहीं करेगा। श्री चौहान थोड़े से परिश्रम से पता कर सकते हैं कि कांग्रेस, भाजपा या कम्युनिस्ट पार्टी के अखबारों की बिक्री कम क्यों होती है और वे लंबे समय तक क्यों नहीं चल पाते!
भारत का पाठक अपने अखबार में बहुत सी कुछ चीजें एक साथ देखना चाहता है। कुछ-कुछ मसाला पान में जैसे सौंफ, इलायची, गुलकंद, चमन बहार और लौंग के साथ। उसकी रुचि शुष्क शासकीय विज्ञप्ति में नहीं होती। एकपक्षीय अखबार में यह खतरा भी है कि नेता जमीनी सच्चाईयों को कभी न जान पाए और खुद अपनी तस्वीरें देखकर मुग्ध होता रह जाए। हाल के बरसों में लगभग निरपवाद हर मुख्यमंत्री ने अखबारों पर किसी न किसी तरह से नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की है, चाहे राज्यसभा की सदस्यता देकर, चाहे विज्ञापन बढ़ाकर, चाहे विज्ञापन काटकर, चाहे फैक्ट्री का लायसेंस या जमीन का पट्टा देकर; इससे अखबारों का जो भी नुकसान हुआ हो, मुख्यमंत्रियों को कम नुकसान नहीं हुआ। वे एक नहीं, तीन बार चुनाव जीत जाएं लेकिन जनता से उनकी दूरी बढ़ती जा रही है और कुल मिलाकर इससे जनतंत्र कमजोर हो रहा है।
श्री चौहान को यदि अखबारों से शिकायत है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। दुनिया में ऐसा कौन सा राजनेता है जो अखबारों को पसंद करता हो? फर्क इतना है कि कुछ नेता आलोचना को सहज भाव से स्वीकार कर लेते हैं, कुछ मन ही मन कुढ़ते रहते हैं और कुछ अपनी नाराजगी खुलकर जाहिर कर देते हैं। मध्यप्रदेश और भाजपा के ही पूर्व मुख्यमंत्रियों की बात करूं तो कैलाश जोशी अखबार में छपी आलोचना से कभी विचलित नहीं होते थे। वीरेन्द्र कुमार सखलेचा को अपनी सरकार के विरुद्ध एक शब्द भी लिखा जाना नागवार गुजरता था। सुन्दरलाल पटवा इसकी कोई परवाह ही नहीं करते थे कि क्या छप रहा है। वे कहते थे- मैं अपना काम कर रहा हूं और अखबार वाले अपना। मध्यप्रदेश में ही कांगे्रस के मुख्यमंत्रियों के इस बारे में अपने-अपने विचार हैं। द्वारिकाप्रसाद मिश्र सामान्य तौर पर आलोचना सहन कर लेते थे, लेकिन एक समय एक अखबार के विज्ञापनों पर उन्होंने कुछ दिन के लिए रोक लगा दी थी। श्यामाचरण शुक्ल संपादकों को सीधे फोन पर नाराजगी जतलाते थे और फिर तुरंत सहज हो जाते थे। अर्जुन सिंह पत्रकारों का कद नापकर तदनुरूप व्यवहार करते थे। दिग्विजय सिंह सखलेचाजी की ही तरह असहिष्णु थे।
ऐसा नहीं कि राजनेताओं को ही अखबारों से शिकायत रहती है। दरअसल, समाचार पत्र एक अनिवार्य और शायद किसी हद तक अवांछित इकाई के रूप में समाज में मौजूद हैं। जो समाज अपने संस्कारों में जितना अधिक जनतांत्रिक है वहां अखबार की उपस्थिति उतनी ही अधिक स्वीकार्य है। एक संकीर्ण और असहिष्णु समाज को अखबार की शायद जरूरत ही नहीं है! एक तरफ कोई मजबूर, मजलूम न्याय की आस लिए राष्ट्रपति से गुहार लगाता है तो उसकी आखिरी प्रतिलिपि अखबार के संपादक को भेजी जाती है; दूसरी तरफ समाज में ऐसे अनेक व्यक्ति और समूह हैं जो अखबार पर येन-केन-प्रकारेण दबाव डालते हैं कि उनके बारे में हमेशा अच्छी-अच्छी बात ही छपें और अगर वे बड़े से बड़ा अपराध भी कर दें तो उसके बारे में एक पंक्ति भी न लिखी जाए। ऐसा हो जाए तो वे अखबार खरीदना बंद कर देते हैं, उसकी होली जलाते हैं, पत्रकारों पर हमले करते हैं और यह सब करने के पहले पत्र और पत्रकारों को खरीदने की कोशिश करते हैं। आजकल इस दिशा में उन्हें काफी सफलता मिल रही है।
पाठक परिचित ही हैं कि अभी हाल में देश के सबसे बड़े धनपति मुकेश अंबानी ने बहुत सारे अखबारों और टीवी चैनलों को खरीद लिया है। यह कोई नई बात नहीं है, उद्योगपति और व्यापारी पहले भी अखबार चलाते रहे हैं। अब जमीन के सौदागर, पी.डब्ल्यू.डी. के ठेकेदार, चिटफंड कंपनियों के ठग, ये सब भी अपने-अपने अखबार निकाल रहे हैं और उनमें ऊंची तनख्वाह देकर संपादकों को रखते हैं। दोनों के मजे हैं, जब तक मन मिला रहे! इन लोगों के समान ही राजनेताओं ने भी समय-समय पर अपने अखबार निकाले हैं। पंडित रविशंकर शुक्ल ने ''नागपुर टाइम्स" को प्रायोजित किया था। आगे चलकर ''महाकौशल" की स्थापना भी उन्होंने की थी। उनके अलावा और भी बहुत से नेताओं ने अपने अखबार निकाले या फिर अखबारों को अपने साथ ले लिया, भले ही इसके लिए राज्यसभा की सदस्यता का झुनझुना देना पड़ा हो।
राजनेताओं द्वारा अखबार निकालने के सबसे बढिय़ा उदाहरण शायद उड़ीसा में है। वहां हरेकृष्ण मेहताब ने अपना अखबार निकाला, नंदनी सत्पथी ने अपना और जे.बी. पटनायक ने अपना। ये सब आगे-पीछे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। राधानाथ रथ मुख्यमंत्री तो नहीं बने लेकिन राज्यसभा में अवश्य गए। तमिलनाडु में डीएमके और अन्ना डीएमके ने भी बहुसंस्करण वाले अखबार प्रकाशित किए। कर्नाटक, केरल, आंध्र में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं और पूर्व में असम और पश्चिम में राजस्थान में भी। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे ने अपना अखबार निकाला ''सामना" तो शरद पवार ने पुणे के ''सकाल" पत्र समूह को हस्तगत कर लिया। गोपाल कृष्ण गोखले की सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसायटी द्वारा स्थापित ''हितवाद" भी आगे चलकर राजनेताओं के हाथ में आ गया। गरज ये है कि शिवराज सिंह चौहान ने कोई नई और चौंकाने वाली बात नहीं की है। अब तक जो होता आया है, वे वहीं से विचार ग्रहण कर रहे हैं।
यह संभव है कि श्री चौहान को अपनी ही पार्टी के अतीत के उदाहरणों से प्रेरणा मिली हो। भाजपा की पितृसंस्था अर्थात् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा हिन्दी में ''पांचजन्य" व अंग्रेजी में ''ऑर्गनाइजर" का प्रकाशन पिछले छह दशक से हो रहा है। संघ द्वारा ''राष्ट्रधर्म" का भी प्रकाशन किया गया था तथा ''हिन्दुस्तान समाचार" नामक समाचार अभिकरण की स्थापना भी संघ ने की थी। वाजपेयीजी और अडवानीजी जैसे बड़े नेताओं ने इनमें लंबे समय तक काम भी किया था। इसके अलावा संघ संचालित संस्थाओं के माध्यम से अनेक स्थानों से दैनिक समाचार पत्रों का प्रकाशन भी प्रारंभ किया गया था। मराठी का ''तरुण भारत" नागपुर और पुणे से निकलता था व हिन्दी ''युगधर्म नागपुर, जबलपुर और रायपुर से। ग्वालियर व भोपाल से ''स्वदेश" भी पार्टी से जुड़े लोगों ने ही निकाला। देश की राजधानी से ''मदरलैंड" नामक दैनिक का प्रकाशन भी संघ ने शुरू किया था। आज भी दिल्ली का ''पायोनियर" भाजपा का ही अखबार माना जाता है।
इस सारे इतिहास को देखते हुए अगर मध्यप्रदेश से भाजपा का अपना एक दैनिक पत्र प्रारंभ होता है तो वह एक सहज घटना होगी। यह प्रस्ताव लाने वाले शिवराज सिंह चौहान एक लोकप्रिय नेता हैं और उनके खाते में अनेक उपलब्धियां दर्ज हैं। इसलिए उनके संरक्षण में अखबार भी ठीक से चल जाएगा, इसमें कोई शंका नहीं दिखती। सवाल सिर्फ इतना है कि किसी राजनीतिक दल द्वारा घोषित तौर पर निकाले गए अखबार की विश्वसनीयता कितनी होगी! समाचार पत्र का पाठक सहज बुद्धि का धनी होता है। वह जो कुछ टीवी पर देखता है उसका प्रमाण अगली सुबह के अखबार में ढूंढता है। इसी तर्ज पर पार्टी या सरकार के दैनिक पत्र में छपी खबर पर वह एकाएक विश्वास नहीं करेगा। श्री चौहान थोड़े से परिश्रम से पता कर सकते हैं कि कांग्रेस, भाजपा या कम्युनिस्ट पार्टी के अखबारों की बिक्री कम क्यों होती है और वे लंबे समय तक क्यों नहीं चल पाते!
भारत का पाठक अपने अखबार में बहुत सी कुछ चीजें एक साथ देखना चाहता है। कुछ-कुछ मसाला पान में जैसे सौंफ, इलायची, गुलकंद, चमन बहार और लौंग के साथ। उसकी रुचि शुष्क शासकीय विज्ञप्ति में नहीं होती। एकपक्षीय अखबार में यह खतरा भी है कि नेता जमीनी सच्चाईयों को कभी न जान पाए और खुद अपनी तस्वीरें देखकर मुग्ध होता रह जाए। हाल के बरसों में लगभग निरपवाद हर मुख्यमंत्री ने अखबारों पर किसी न किसी तरह से नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की है, चाहे राज्यसभा की सदस्यता देकर, चाहे विज्ञापन बढ़ाकर, चाहे विज्ञापन काटकर, चाहे फैक्ट्री का लायसेंस या जमीन का पट्टा देकर; इससे अखबारों का जो भी नुकसान हुआ हो, मुख्यमंत्रियों को कम नुकसान नहीं हुआ। वे एक नहीं, तीन बार चुनाव जीत जाएं लेकिन जनता से उनकी दूरी बढ़ती जा रही है और कुल मिलाकर इससे जनतंत्र कमजोर हो रहा है।
देशबन्धु में 14 अगस्त 2014 को प्रकाशित
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