Thursday 21 August 2014

विदेशों में कालाधन?

 



"जब
1977 में केन्द्र में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो उसने ''रॉ'' के तमाम दस्तावेजों की छानबीन इस उम्मीद से करवाई कि इंदिरा-गांधी और संजय गांधी ने इस गुप्तचर संगठन का दुरुपयोग अपने निजी लाभ के लिए किस तरह किया होगा। यूं तो इस जांच से कुछ भी हासिल नहीं हुआ, लेकिन वित्त मंत्रालय व रिजर्व बैंक की फाइलों में एक ऐसा प्रकरण सामने आया जिससे सरकार ने यह समझा कि ''रॉ'', उसके प्रमुख आर.एन. काव, उपप्रमुख शंकरन नायर को कटघरे में खड़ा करना मुमकिन होगा। यह प्रकरण आपातकाल का था जिसमें श्री नायर को जिनेवा के एक बैंक खाते में छह मिलियन डॉलर जमा करने भेजा गया था। मोरारजी देसाई को संदेह हुआ कि हो न हो, यह खाता संजय गांधी का है।

जब छानबीन पूरी हुई तो मामला कुछ और ही निकला। 1974 के पोखरण आण्विक प्रयोग के बाद अमेरिकी सरकार ने भारत को दी जाने वाली सहायता में भारी कटौती कर दी थी। देश में गंभीर आर्थिक संकट था। तब भारत सरकार ने ईरान के शाह से दो सौ पचास मिलियन डॉलर का कर्ज आसान शर्तों पर मांगा था। इसके लिए इंदिरा सरकार ने हिन्दूजा बंधुओं की सेवाएं लीं (जिनके बहुत अच्छे संबंध शाह के साथ थे)। उन्होंने शाह की बहन अशरफ पहलवी के माध्यम से ऋण हेतु आवेदन करवाया और शाह ने भारत को सहायता देना स्वीकार कर लिया। इस राशि का एक हिस्सा कर्नाटक की कुदुर्मुख लौहअयस्क परियोजना में लगना था और दूसरे भाग का उपयोग देश की आवश्यक वस्तुओं की आयात करने के लिए होना था। शाह की बहन अशरफ पहलवी ने इस ऋण पर छह मिलियन डॉलर का कमीशन एक ईरानी नागरिक रशीदयान को देने के लिए कहा। यह व्यक्ति अशरफ का घनिष्ठ मित्र था। हिन्दूजा के माध्यम से भारत सरकार को संदेश मिलने पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने जिनेवा के एक बैंक को टेलेक्स पर इस राशि का ड्राफ्ट बनाकर श्री नायर को सौंपने का निर्देश दिया। इसके बाद वित्त मंत्रालय ने श्री काव से आग्रह किया कि नायर जिनेवा जाकर बैंक ड्राफ्ट हासिल कर लें और उसे रशीदयान के खाते में जमा कर दें। बात यहां खत्म हो गई।

ये सारे तथ्य प्रकाश में आए तो मोरारजी देसाई ने बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा तथा बिना किसी अगली कार्रवाई के फाइल बंद कर दी। हिन्दूजा संजय गांधी के जितने करीब थे उससे कहीं ज्यादा उनकी घनिष्टता मोरारजी देसाई, अटलबिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवानी से थी। जब उन्हें समझ में आया कि कमीशन हिन्दूजा की सिफारिश पर दिया गया है। तब फिर स्वाभाविक ही बात आगे बढ़ाने की उन्हें इच्छा नहीं रही।"

यह सुदीर्घ उद्धरण मैंने बी. रामन की पुस्तक ''द काव बॉयज़ ऑफ आर. एण्ड ए.डब्ल्यू: डाउन मेमौरी लेन" से लिया है। पुस्तक 2007 में प्रकाशित हुई थी और मैं इसे प्राप्त नहीं कर सका था।  कुछ दिन पहले अपने मित्र डॉ. परिवेश मिश्र की निजी लाइब्रेरी से पुस्तक मिली तो उसे पढ़ते हुए यह प्रसंग सामने आया। बी. रामन का निधन पिछले साल ही हआ है। वे मध्यप्रदेश कैडर के 1961 बैच के आईपीएस अधिकारी थे तथा 1965-66 में दुर्ग में जिला पुलिस अधीक्षक के पद पर भी कुछ समय रहे थे। वहां कुछ लोगों को शायद अब भी श्री रामन की याद हो! बहरहाल, ऊपर मैंने जिस प्रसंग का वर्णन किया है उसे मैं वर्तमान संदर्भों से जोड़कर पाठकों के सामने रखना चाहता हूं, लेकिन इसके पहले श्री रामन की किताब के पहले अध्याय का एक अंश का ज़िक्र करने की अनुमति कृपया मुझे दें।

यह कुछ लोगों को आश्चर्यजनक लग सकता है कि अपनी आत्मकथा के पहले पन्ने पर ही श्री रामन ने अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रति क्रोध और नफरत का इजहार किया है। संक्षेप में इतना कहना पर्याप्त होगा कि अमेरिका किस तरह से भारत की बाँहें मरोडऩे में लगा रहता था इसका ही वर्णन लेखक ने किया है। श्री रामन ने छब्बीस साल ''रॉ" में बिताए। वे देश के एक आला गुप्तचर थे। उन्होंने सेवानिवृत होने के बाद मिले तमाम ऑफरों को ठुकरा दिया था। ऐसे व्यक्ति की बात पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं बनता।

खैर, बी. रामन ने जनता सरकार के समय के जिस किस्से का वर्णन किया है वह भारत में पिछले कुछ समय से काले धन को लेकर चल रही बहस की ओर हमें ले जाता है। देश में कितना काला धन है या वह अर्थव्यवस्था का कितना प्रतिशत है जैसे तकनीकी विवरणों में पैठने की क्षमता मेरे पास नहीं है, किन्तु इतना अवश्य समझ में आता है कि काले धन के बारे में हो रही बड़ी-बड़ी बातें सच्चाई को पूरी तरह से बयान नहीं करती। जो लोग मोदी सरकार बनने के अगले दिन विदेशों में जमा काले धन को वापिस लाने का वायदा कर रहे थे, वे अब पूरी तरह से चुप हैं। इस विषय को जोर-शोर से उठाने वाले बाबा रामदेव न सिर्फ रहस्यमय तरीके से मौन हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि वे अंर्तध्यान हो गए हैं! वे मोदीजी के शपथ ग्रहण से लेकर आज तक कहां हैं, यह वेदप्रताप वैदिक आदि  उनके निकट सहयोगियों को ही पता होगा!

हमें एक सीधी बात समझ में आती है कि सरकार चलाने के लिए बहुत से प्रपंच करना पड़ते हैं। इंदिराजी के समय विदेशी मुद्रा की दरकार थी तो ईरान के शाह से उस तरह से सहायता नहीं मांगी जा सकती थी, जैसे कि आप या हम आवश्यकता पडऩे पर किसी दोस्त या रिश्तेदार से पैसे मांग लेते। इसलिए इंदिराजी को हिन्दूजा बंधुओं से बात करना पड़ी, उन्होंने शाह की बहन से बात की जिसने अपने भाई से कहकर काम तो करवा दिया, लेकिन साथ-साथ अपने दोस्त का भी भला कर दिया। जनता पार्टी सरकार आई तो उसे भी अपने दोस्त हिन्दूजा का लिहाज करना पड़ा। मतलब यह कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बहुत से दरवाजों से गुजरना पड़ता है। उस दौर में विदेश नीति और अर्थनीति के बीच तब भी एक दूरी थी, लेकिन आज तो माहौल पूरी तरह बदल चुका है। आपके वैदेशिक संबंध बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करते हैं कि किसी देश के साथ आपका खरीद बिक्री का क्या रिश्ता है।

जो भी व्यक्ति व्यापार व्यवसाय की थोड़ी सी समझ रखता है वह जानता है कि कोई भी सौदा बिना भाव-ताव के तय नहीं होता। जब सौदे का आकार बड़ा होता है तो कमीशन की रकम भी बढ़ जाती है। निजी कंपनियों में तो यह होता ही है, सरकारी कंपनियों को भी इसके लिए एजेंट नियुक्त करना पड़ते हैं क्योंकि वे सीधे-सीधे कमीशन का लेन-देन नहीं कर सकते। इस दृष्टि से देखें तो पहले या आज जब भी सरकार या सरकारी उपक्रमों ने बड़े-बड़े सौदे किए हैं तो उसमें मध्यस्थों की भूमिका होना ही थी। शायद यही वजह है कि चाहे बोफोर्स का मामला हो, चाहे आगुस्ता वेस्टलैण्ड का, चाहे कुछ और। इस सबमें विपक्ष को हल्ला मचाने के लिए और सत्ता पक्ष पर आक्रमण करने के लिए अवसर जरूर मिल जाता है, लेकिन वे स्वयं जब सत्ता में आते हैं तो चुप रहने में ही भलाई समझते हैं। अमेरिका से लेकर जापान तक सब जगह यही दस्तूर है। भारत में यदि हल्ला मचता है तो वह हमारी राजनीति की अपरिपक्वता को दर्शाता है।

यह तस्वीर का एक पहलू है। ऐसे सौदों के मार्फत यदि कोई राजनीतिक दल पार्टी फंड इकट्ठा करें तो उसे कैसे अपराध माना जाए, मैं नहीं जानता। हां! यदि पार्टी फंड का इस्तेमाल निजी संपत्ति बढ़ाने के लिए किया गया हो तो वह क्षमा योग्य नहीं है। तस्वीर का दूसरा पहलू वह कालाधन है जो निजी क्षेत्र द्वारा टैक्स चोरी आदि से उत्पन्न होता है और विदेश भेजकर मॉरिशस, दुबई या सिंगापुर जैसे रास्तों से वापस आ जाता है। इस तरह का धन संचय जहां अपराधों को बढ़ावा देता है वहीं इससे समाज में गैरबराबरी और असंतोष भी बढ़ता है। जो व्यक्ति इस तरह से पैसा कमाते हैं उनके मन में न तो देशप्रेम का भाव होता है और न देश की जनता के प्रति वे अपनी कोई जवाबदारी महसूस करते हैं। इसके विपरीत वे अपने पैसे के बल पर राजनेताओं को खरीदते हैं तथा उनसे अपने हित में गलत-सलत निर्णय लेने की अपेक्षा करते हैं। यही लोग ''कौआ कान ले गया" की तर्ज पर विदेशों में कालाधन का मुद्दा उठाते हैं ताकि इनके अपने अपराधों पर परदा पड़ा रहे।
देशबन्धु में 21 अगस्त 2014 को प्रकाशित

No comments:

Post a Comment