Thursday 7 August 2014

मुक्तिबोध और परसाई



मेरे  सामने कुछ किताबें रखी हैं। इनमें से एक है ''महागुरु मुक्तिबोध : जुम्मा टैंक की सीढिय़ों पर"। इसी वर्ष प्रकाशित इस पुस्तक के लेखक कांतिकुमार जैन हैं जो संस्मरण विधा को नई ऊंचाइयों तक ले गए हैं। उनकी आत्मकथात्मक पुस्तक- ''बैकुण्ठपुर में बचपन" पर मैं अक्षर पर्व में पूर्व में चर्चा कर चुका हूं। दूसरी पुस्तक है- ''दर्पण देखे मांज के (परसाई : जीवन और चिंतन)"।  डॉ. रामशंकर मिश्र इस पुस्तक के लेखक हैं। जबलपुर निवासी मिश्र जी आत्मप्रचार से दूर भागते हैं। उन्हें खामोशी के साथ अपना काम करना भाता है, यद्यपि वे एक संवेदनशील कवि, उपन्यासकार व अनुवादक होने के साथ-साथ सही मायनों में सुधी समीक्षक भी हैं। मिश्र जी की हाल में दो और पुस्तकें आई हैं- ''युग की पीड़ा का सामना (परसाई : साहित्य-समीक्षा)" तथा ''त्रासदी का सौंदर्यशास्त्र और परसाई"। ये सारी पुस्तकें परसाई जी को समझने के लिए मूल्यवान संदर्भ हैं। 

पाठकों को स्मरण होगा कि कांतिकुमार जैन ने भी ''तुम्हारा परसाई" शीर्षक से परसाई जी की जीवनी लिखी है। इसके अलावा उन्होंने ''भारतीय साहित्य" पत्रिका के परसाई विशेषांक का भी संपादन किया था। यह सारा उल्लेख मैंने प्रसंगवश किया है, लेकिन मुख्यत: मेरी बात पहली दो पुस्तकों पर केन्द्रित होगी। मुक्तिबोध पर लिखने वाले कांतिकुमार पहले व्यक्ति नहीं हैं। मुक्तिबोध स्कूल के ही वरिष्ठ कवि मलय ने भी उन पर शोध प्रबंध लिखा था और हास्य कवि के रूप में बेहतर चर्चित अशोक चक्रधर ने भी। मुक्तिबोध के कृतित्व पर मेरी समझ में सबसे अच्छा काम अगर किसी ने किया है तो प्रतिष्ठित कवि चंद्रकांत देवताले ने। उन्होंने मुक्तिबोध की रचनाओं की जो पड़ताल की है उसमें विस्तार और गहराई दोनों है। जो हिन्दी अध्यापक मुक्तिबोध के कठिन होने या उन्हें न समझ पाने की शिकायत करते हैं वे अगर देवताले जी की पुस्तक पढ़ लें तो अपना उद्धार कर सकेंगे। इन कामों के अलावा भी मुक्तिबोध जी पर बहुतों ने लिखा होगा जो मेरी जानकारी में नहीं है। 

बहरहाल कांतिकुमार जैन तथा रामशंकर मिश्र इन दोनों मित्रों की अपने दो वरिष्ठ मित्रों पर लिखी गई पुस्तकों को लगभग एक ही समय में पढ़ पाना मेरे लिए एक अद्भुत संयोग ही नहीं बल्कि आनंद का विषय भी सिद्ध हुआ। मैं स्वयं मुक्तिबोध जी को थोड़ा बहुत जानने का दावा रखता हूं तथा परसाई जी को एक लंबी अवधि तक निकट से जानने का सौभाग्य भी मुझे मिला है। मैं ही नहीं, मुझ जैसे अनगिन लोग हैं जिन्होंने मुक्तिबोध और परसाई से विचारों की पूंजी हासिल की है। पाठक चाहे मुक्तिबोध को पढ़ें या परसाई को, पढऩे के बाद वह एक ही बिन्दु पर पहुंचता है। भले ही इसका भान उसे न हो पाता हो। हम पाते हैं कि दोनों के व्यक्तित्व और विचारों में कैसी अभिन्नता है। हम इन दोनों को शायद विचारों के सहोदर कह सकते हैं। इस दृष्टि से ''महागुरु मुक्तिबोध" और ''दर्पण देखे मांज के" इन दोनों पुस्तकों को पढऩा याने एक दुर्लभ नक्शा प्राप्त कर लेना है जो हमें किसी पुराने खजाने तक पहुंचने का रास्ता बताता हो। 

रामशंकर मिश्र ने अपनी पुस्तक में परसाई के हवाले से मुक्तिबोध के विचारों को एक जगह इन शब्दों में प्रकट किया है- 'एक विचित्र विरोधाभास था उनकी प्रकृति में। वे पैसे-पैसे के मोहताज थे, पर अच्छा पारिश्रमिक देने वाली, प्रचार-प्रसारवाली पत्रिकाओं में नहीं लिखते थे। मैं आग्रह भी करता कि इन पत्रिकाओं में लिखिए। आपकी रचनाएं और आपके विचार लाखों लोगों तक पहुंचेंगे और पैसे मिलेगा तो कुछ आर्थिक कष्ट कम होगा। वे जवाब देते ''पार्टनर, ये पत्रिकाएं किनकी हैं, आप जानते हैं। इनसे अपनी पटरी नहीं बैठेगी। अपन उस खेमे में नहीं जाएंगे।" उनकी कुछ जड़ीभूत मान्यताएं थीं। पत्रिकाओं का प्रकाशन, मुख्यत: व्यावसायिक मामला है। उन्हें अच्छी सामग्री चाहिए, जो बाजार में चले। लेखक को प्रकाशन और पैसा चाहिए। यह सीधा सौदा है। यह भी सही है कि इन पत्रिकाओं की विचारधारा दक्षिणपंथी है। पर वामपंथी लेखक को छापना उनकी मजबूरी भी है। उन्हें बाजार में अच्छा माल लाना है। मगर मुक्तिबोध यह समझौता नहीं करते थे।'

यह स्मरणीय है कि हरिशंकर परसाई ने जबलपुर से अपने मित्रों रामेश्वर गुरु और श्रीबाल पाण्डेय के साथ मिलकर वसुधा का प्रकाशन प्रारंभ किया था। थोड़े ही समय में इस पत्रिका ने जो धाक जमाई थी वह साहित्य के इतिहास में दर्ज है। परसाई जी के आग्रह पर मुक्तिबोध जी ने वसुधा में ''एक साहित्यिक की डायरी" शीर्षक से नियमित स्तंभ लिखना चालू किया था। इसी सिलसिले में परसाई जी ने उपरोक्त बात लिखी थी। रामशंकर मिश्र कहते हैं कि ''नए साहित्य शास्त्रीय मूल्यों के निर्धारण की दिशा में एक साहित्यिक की डायरी का अतुलनीय योगदान रहा है।" इसके साथ वे ये टिप्पणी भी करते हैं कि ''वसुधा की निर्धनता के साथ उन्होंने उत्साह के साथ समझौता कर लिया था।" यह एक दिलचस्प लेकिन मर्मस्पर्शी टिप्पणी है। न तो परसाई पैसे के धनी थे और न मुक्तिबोध। पत्रिका इसलिए निकाली कि अपने विचारों को जितना बने उतना फैलाया जाए और उसमें लिखना है तो भी उद्देश्य वही था। ऐसी प्रतिबद्धता और ऐसी ईमानदारी भला और कहां देखने मिलती है? 

कांतिकुमार जैन और रामशंकर मिश्र दोनों के नायक अलग-अलग हैं, लेकिन यह बात मजेदार है कि कांतिकुमार जी जब मुक्तिबोध पर लिख रहे हैं तो उसमें परसाई बार-बार आकर झांक जाते हैं। इसी तरह जब मिश्र जी परसाई पर लिखते हैं तो उसमें मुक्तिबोध बीच-बीच में आकर जुड़ जाते हैं। दोनों एक राह के मुसाफिर और दोनों के मित्र भी वही जिन्हें हम ''कॉमन फ्रैंड्स" कहते हैं। कांतिकुमार जी ने मुक्तिबोध मंडल या मंडली की परिकल्पना की है और उन्हें इस मंडली के महागुरु के उपाधि से विभूषित किया है। इसके काफी पहले वे मुक्तिबोध स्कूल की अवधारणा भी दे चुके हैं। इस बारे में उन्होंने अपनी पुस्तक के पहले अध्याय में कुछ विस्तार से लिखा है जिसका सार इन शब्दों में व्यक्त है- ''उनकी यह मंडली बौद्धिकता के संसार में विचरण करने वाले मित्रों की मंडली थी, जिसके सदस्य मिलते थे, उन सारी समस्याओं पर विचार करने के लिए जो आज के मनुष्य की नियति को नियंत्रित एवं अनुशासित करती है।"

इस मंडली का जिक्र हम आगे करेंगे। अभी यह देखें कि कांतिकुमार इस मंडली में साहित्य की सोद्देश्यता का जो लक्ष्य देख रहे हैं कुछ वैसा ही रामशंकर मिश्र भी परसाई में पाते हैं। वे कहते हैं- ''परसाई का व्यक्तित्व एक सचेत रचनाकार का व्यक्तित्व था। वे राजनीतिक परिस्थितियों में और राजनीतिज्ञों के नैतिक अवमूल्यन को देखकर उससे विमुख नहीं रह सकते थे। यह उनके प्रतिबद्ध लेखन की बाध्यता थी कि वे उन असंगतियों की शव परीक्षा करें।" यहां सीधे-सीधे राजनीति की बात की गई है जबकि कांतिकुमार का कथन वृहत्तर संदर्भ में प्रतीत होता है। लेकिन यह नहीं भूला जा सकता कि जनतांत्रिक समाज में राजनीति मनुष्य की नियति को नियंत्रित करती है। इस तरह एक ही मंडली के दोनों सदस्यों की वैचारिक सहमति स्पष्ट हो जाती है। पूछा जा सकता है कि मुक्तिबोध मंडली के महागुरु कैसे? एक तो उम्र में बाकी सबसे बड़े होने के कारण और दूसरे शायद यह उपाधि मंडली के सदस्यों द्वारा ही दी गई थी। 

मुक्तिबोध जबलपुर-नागपुर होते हुए राजनांदगांव पहुंचे। परसाई का पूरा जीवन ही जबलपुर में कटा। दोनों का प्रथम परिचय नागपुर में हुआ और मुक्तिबोध मंडली की स्थापना भी नागपुर में ही हुई। 1956 में नया मध्यप्रदेश बन जाने के बाद अधिकतर लोग भोपाल, जबलपुर या अन्य स्थानों पर आ गए। स्वयं मुक्तिबोध भी उसके बाद डेढ़-दो साल ही नागपुर में रहे। वहां जो रह गए उनमें एक थे भाऊ समर्थ- सुप्रसिद्ध चित्रकार और दूसरे शैलेन्द्र कुमार, पत्रकार-कथाकार। एक अन्य सदस्य रामकृष्ण श्रीवास्तव विदर्भ के अकोला में निवासरत थे और वे वहीं बने रहे। यह मंडली कोई रोज अड्डा जमानेवालों का समूह नहीं था। इनमें से हरेक प्रखर कलम का धनी लेखक था तथा लगभग सभी ने अपनी समाजधर्मिता को अंत तक निभाया। अब इनमें से कोई भी जीवित नहीं है। 

कांतिकुमार ने अपनी पुस्तक में मुक्तिबोध मंडली के बारह सदस्यों को लिया है। पुस्तक का शीर्षक चुनने में उन्होंने कविसुलभ औदार्य का परिचय दिया है- ''जुम्मा टैंक की सीढिय़ों पर बैठकर तालाब की काली स्याह लहरों में दीप्त होने वाली बल्बों और ट्यूब लाइटों की चमक उन्हें भावी बेहतर जीवन के प्रति आश्वस्त करती है।" लेखक ने इन सबके बहाने ''नागपुर के दिनों के बौद्धिक और रचनात्मक परिवेश" का आख्यान करने का प्रयास किया है। दूसरी तरफ रामशंकर मिश्र जबलपुर में हरिशंकर परसाई के करीबी लोगों में रहे। किन्तु उन्होंने अपनी पुस्तक में कोई प्रस्तावना नहीं दी है। फिर भी पहले अध्याय की अंतिम पंक्ति हम ले सकते हैं- ''यह एक जिम्मेदार व्यक्ति और लेखक की महायात्रा रही है।" दिलचस्प तथ्य यह है कि कांतिकुमार की मुक्तिबोध मंडली के बारह सदस्यों में से अधिकतर इस महायात्रा के भी साक्षी के रूप में हमारे सामने आते हैं।

महागुरु मुक्तिबोध पुस्तक का गठन इस मायने में बेहतर है कि उसमें हरेक पात्र के लिए एक पृथक अध्याय है एवं नामकरण पर टिप्पणी और भूमिका के अलावा एक आनुषांगिक अंतिम अध्याय भी है। जबकि ''दर्पण देखे ..."  गोया एक ही प्रवाह में लिख दी गई है। अध्याय तो उसमें भी हैं, लेकिन वे सांचे में बंधे हुए नहीं हैं। यात्रा चल रही है, उसमें व्यक्ति, दृश्य, घटनाएं आ-जा रहे हैं। कभी-कभी पीछे मुड़कर भी देख लेते हैं जैसे पिछले स्टेशन पर सामान छूट गया हो और उसे लेने वापिस आए हों। दोनों पुस्तकों को मिलाकर एक पूरा युग पाठक के सामने सजीव हो उठता है। इसमें जो लोग आए इनमें से कुछ हिन्दी जगत के बड़े नाम हैं, कुछ उतने बड़े नहीं है, कुछ हैं जिनकी यात्रा बीच में ही टूट जाती है। इसके अलावा बहुत से सामान्य लोग भी हैं जिनके बिना किसी भी व्यक्ति की जीवन कथा मुक्कमल तौर पर नहीं लिखी जा सकती। कांतिकुमार ने अंग्रेजी परंपरा के हवाले से औचित्य सिद्ध किया है कि ''अंग्रेजी में माइनर पोएट को इतना हेय या अस्मरणीय नहीं माना जाता।"

इन दोनों किताबों को मिलाकर नरेश मेहता, श्रीकांत वर्मा, प्रमोद वर्मा, भाऊ समर्थ जैसे सुप्रसिद्ध रचनाकारों के मुक्तिबोध और परसाई से कैसे आत्मीय संबंध रहे, यह हमें पता चलता है। इनके अलावा केशव पाठक, इन्द्रबहादुर खरे, प्रभात तिवारी, सतीश चौबे की काव्य-प्रतिभा से एक बार फिर परिचय पाते हैं। ये वो लोग थे जिनसे हिन्दी जगत को बहुत अपेक्षाएं थीं, जिन्हें मृत्यु असमय छीनकर ले गई। केशव पाठक के बारे में जिक्र करना उचित होगा कि उन्होंने उमर खय्याम की रुबाइयों का हिन्दी अनुवाद किया था। इनके अलावा हम उन लेखकों से भी परिचय पाते हैं जो अपने दौर के चर्चित और प्रतिष्ठित लेखक थे, लेकिन जिन्हें समय बीतते न बीतते भुला दिया गया और अफसोस की बात कि उनके कृतित्व के मूल्यांकन की कोई व्यवस्थित कोशिश नहीं की गई। 

मुझे महागुरु मुक्तिबोध में यह देखकर आत्मिक सुख मिला कि स्वामी कृष्णानंद सोख्ता, जीवनलाल वर्मा विद्रोही, रामकृष्ण श्रीवास्तव जैसे समर्थ रचनाकारों की संभवत: पहली बार किसी ने सुध ली। पाठक याद करें कि सोख्ता जी नागपुर से ''नया खून" शीर्षक विद्रोही तेवरों वाला साप्ताहिक प्रकाशित करते थे जिसमें मुक्तिबोध उनके सहयोगी थे। सोख्ता जी की कविताओं का एक संकलन ''कलामे सोख्ता के नाम से प्रकाशित भी हुआ था। उनके जैसे अक्खड़ शैली में बात करने वाले कवि कम ही होंगे। मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि सोख्ताजी व अन्य पर लिखकर कांतिकुमार जैन ने हिन्दी भाषा के इतिहास की एक बड़ी कमी पूरी की है और इस तरह भाषा का कर्ज चुकाया है। एक अध्याय मशरिकीजी पर भी है। उनकी मुक्तिबोध जी से कितनी घनिष्ठता थी, इस बारे में मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हूं। रामशंकर मिश्र ने यह काम सीधे-सीधे तो नहीं किया लेकिन वे भी रामानुजलाल श्रीवास्तव,पन्नालाल श्रीवास्तव 'नूर', भवानी प्रसाद तिवारी आदि के कृतित्व से पाठकों का परिचय करवाने का महत्वपूर्ण काम करते हैं।

कांतिकुमार जी और रामशंकर जी दोनों ने मुक्तिबोध जी और परसाई जी के निजी जीवन के ब्यौरे भी अपनी-अपनी पुस्तक में प्रस्तुत किए हैं। ऐसा करने में कहीं-कहीं संभवत: स्मृतिभ्रम से ही, छोटी-मोटी चूकें हुई हैं, लेकिन कुल मिलाकर अपने इन प्रिय लेखकों के बारे में हमें प्रामाणिक जानकारियां उपलब्ध होती हैं। दोनों लेखकों ने अपने-अपने नायक के साथ गहरे आत्मीय संबंध होने के बावजूद अपनी वस्तुनिष्ठता सिद्ध की है। इस साल जब मुक्तिबोध जी के निधन को पचास साल पूरे होने आए हैं और परसाई जी की उन्नीसवीं पुण्यतिथि भी इसी माह पड़ रही है तब ये दोनों पुस्तकें हमारे लिए कुछ और ज्यादा मूल्यवान हो जाएंगी। 

अक्षर पर्व अगस्त 2014 में प्रकाशित


 

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