Wednesday, 29 October 2014

वंशवाद चिरजीवी हो ! - 2


 वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी. चिदम्बरम ने यह कहकर थोड़ी सी हलचल मचा दी है कि कांग्रेस का अध्यक्ष नेहरू-गांधी परिवार के बाहर से भी हो सकता है। श्री चिदम्बरम ने वक्तव्य देने के लिए यही अवसर क्यों पसंद किया यह हम नहीं जानते, लेकिन वे ऐसे नेता के रूप में सामने आते हैं, जो कंबल छोडऩा चाहते हैं किन्तु जिन्हें कंबल नहीं छोड़ता। लोकसभा चुनाव न लड़कर उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूर रहने का इरादा जाहिर किया था, लेकिन कमबख्त राजनीति ही कुछ ऐसी शै है जो ऐसे भले इरादे वाले नेताओं को चैन से नहीं बैठने देती। खैर, श्री चिदम्बरम ने अपने बयान में यह स्पष्ट करना आवश्यक समझा  कि सोनिया गांधी का नेतृत्व फिलहाल कायम रहेगा, कि वे भविष्य की संभावनाओं की तरफ इशारा कर रहे हैं। ऐसा कहकर उन्होंने अपनी सुरक्षा का प्रबंध करने का प्रयत्न किया है।

यह जानी-मानी बात है कि भारतीय राजनीति में वंशवाद की जब भी बात होती है तो उसका एकमात्र निशाना गांधी-नेहरू परिवार ही होता है। पंडित नेहरू से लेकर राहुल गांधी बल्कि प्रियंका गांधी और उनके बच्चों तक को लेकर लक्ष्य कर जितनी भी फिकरेबाजी की जाती है उसमें कुछ प्रासंगिक तथ्यों को अनदेखा कर दिया जाता है। कांग्रेसविरोधी आरोप लगाएं, फिकरेबाजी करें, चुटकुले बनाएं, यह सब एक हद तक समझ आता है, लेकिन जब चिदम्बरम जैसे कांग्रेसी भी उसी रौ में बहने लगे तो फिर शंका होती है कि राजनीति इनके लिए साधन है या साध्य? कांग्रेस-विरोधियों द्वारा कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगे तो कांग्रेसियों के पास पलटवार करने के लिए मसाले की कोई कमी नहीं होना चाहिए। वे सही तरीके से अपने तीर क्यों नहीं चला पाते या चलाना नहीं चाहते, यह तो स्वयं कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के ही विचार करने का विषय है। दरअसल कांग्रेस की सबसे बड़ी दुर्बलता यही है कि वह अपने बड़े-बड़े नेताओं की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश नहीं लगा पाती।

कांग्रेस का भविष्य क्या है इस बारे में हम कोई अटकलबाजी नहीं करना चाहते और न कोई तात्कालिक निर्णय देना ही उचित समझते। तथापि वंशवाद को लेकर भ्रम का जो कुहासा रचा गया है उसे साफ करना इसलिए जरूरी है कि राजनीतिक इतिहास की सही तस्वीर सामने आ सके। जो लोग पंडित नेहरू से लेकर अब तक की चर्चा उठाते हैं वे एक लंबी श्रृंखला की कुछ कडिय़ों को या तो भुला देते हैं या उनके बारे में अनजान बने रहते हैं। हमारा मानना है कि गत सड़सठ वर्षों में ऐसे कम से कम दर्जन मौके आए हैं जब नेहरू-गांधी परिवार के वंशवाद को चुनौती दी गई या राजनीतिक परिदृश्य पर परिवार ने कोई भूमिका नहीं निभाई। इन कडिय़ों को जोडऩे से बात साफ हो सकेगी।

1. इतिहास के अध्येता जानते हैं कि कांग्रेस के 1950 के नासिक अधिवेशन के दौरान पंडित नेहरू के नेतृत्व को चुनौती देने की पूरी तैयारी कर ली गई थी। उस वक्त बंबई से नासिक की यात्रा करते हुए जनता ने पंडितजी का जैसा अद्भुत स्वागत किया उससे सबको यह समझ आ गया कि पंडित नेहरू अप्रतिम जननायक हैं एवं उन्हें अपदस्थ करना कांग्रेस के लिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।

2. सन् 1951 में एक बार फिर पंडित नेहरू के नेतृत्व को चुनौती देने की योजना बनी। तत्कालीन सीपी एंड बरार प्रांत के गृहमंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने पंडित नेहरू के खिलाफ खुला बयान दिया।  योजना थी कि आठ मुख्यमंत्री उनके समर्थन में सामने आएंगे और बदलाव को अंजाम दिया जा सकेगा, लेकिन जनसामान्य में एवं कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच मिश्राजी के बयान की प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई। उन्हें पीछे से प्रश्रय देने वाले नेताओं के हाथ-पांव फूल गए। परिणामत: मिश्रजी को बलि का बकरा बनाते हुए पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। वे 1952 में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़े और बुरी तरह हारे। आगे चलकर 1962 में इंदिराजी ने उनका पुनर्वास किया।

3. 1954 व 56 इत्यादि वर्षों में भी पंडित नेहरू ने स्वेच्छा से पद त्याग की पेशकश की। भारतीय जनमानस ने इसे स्वीकार नहीं किया। उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहोवर तक ने नेहरूजी को निजी पत्र लिखा कि विश्व के राजनीतिक मंच पर आपकी सेवाओं की आवश्यकता है और आपको  इस्तीफा देने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए।  अमेरिकी और सोवियत- इन दो ध्रुवों के बीच नेहरू के नेतृत्व में भारत जो संतुलनकारी भूमिका निभा रहा था उसका महत्व विश्व समुदाय जान रहा था।

4. 1962 के आम चुनावों के पहले चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी खड़ी कर ली थी। उसे टाटा-बिड़ला जैसे उद्योगपतियों और राजा-महाराजाओं का सक्रिय समर्थन प्राप्त था। राजाजी तो स्वयं प्रकाण्ड विद्वान और चतुर राजनीतिज्ञ थे। वे गांधीजी के समधी भी थे। मीनू मसानी जैसे बहुत से पुराने कांग्रेसी उनके साथ आ गए थे। इस सबके बावजूद स्वतंत्र पार्टी कांग्रेस की सत्ता समाप्त नहीं कर सकी। पंडित नेहरू का नेतृत्व कायम रहा आया।

5. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद देश का मनोबल गिरा हुआ था। उस गंभीर घड़ी में भी पंडित नेहरू को हटाने की बात किसी ने नहीं सोची।

6. ठीक पचास साल पहले 27 मई 1964 को पंडित नेहरू का निधन हुआ। यह सामान्य सोच थी कि नेहरूजी के बाद लाल बहादुर शास्त्री ही उनके उत्तराधिकारी बनेंगे और वही हुआ। उस समय इंदिराजी की सत्ता की राजनीति में आने की कोई इच्छा नहीं थी, लेकिन उन्होंने मंत्री पद सिर्फ इसलिए स्वीकार किया कि वे उसके  वेतन से अपना परिवार चला सकेंगी। इसके तमाम साक्ष्य प्रकाशित हैं।

7. अगर 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में शास्त्रीजी का आकस्मिक निधन न हुआ होता तो इंदिराजी के प्रधानमंत्री बन पाने का सवाल ही नहीं उठता था। यह भी प्रकट तथ्य है कि इंदिराजी को प्रधानमंत्री बनाया कामराज एवं अन्य वरिष्ठ कांग्रेसियों ने क्योंकि वे मोरारजी भाई को इस पद पर नहीं देखना चाहते थे।

8. तीन साल बीतते न बीतते इंदिराजी के इन्हीं प्रस्तावकों ने उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटाने का खेल रचा।  लेकिन इसमें वे सफल नहीं हो पाए। डॉ. जाकिर हुसैन की मृत्यु से रिक्त राष्ट्रपति पद पर इंदिरा समर्थित उम्मीदवार वी.वी. गिरी ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को थोड़े से अंतर से पराजित कर दिया और इंदिराजी का सिक्का चलने लगा।

9. 1977 में गैरकांग्रेसियों के हाथ एक बड़ा मौका लगा जब आम चुनाव में इंदिराजी पराजित हुईं और मोरारजी देसाई जनता पार्टी के प्रधानमंत्री बने। वे अपनी सरकार पूरे पांच साल क्यों नहीं चला पाए और नेहरू-गांधी वंश को  हाशिए से बाहर क्यों न कर पाए? इसका जवाब जनता सरकार में शामिल नेताओं से पूछा जाना चाहिए।

10. 1989 में राजीव गांधी चुनाव हार चुके थे। पहले वी.पी. सिंह, फिर चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने। ये अगर अपनी सरकार पूरे पांच साल नहीं चला पाए तो इसमें किसका दोष है?

11. 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद पी.वी. नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री बने। वे पूरे पांच साल काबिज भी रहे। इसके बावजूद कथित वंशवाद क्यों समाप्त नहीं हुआ?

12. 1996 से 99 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी, एच.डी. देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री हुए- इन सबने  क्या किया?

13. सोनिया गांधी तो सक्रिय राजनीति से कोसों दूर थीं। उन्होंने 1998 में आकर अध्यक्ष पद संभाला। उनके पहले सीताराम केसरी अध्यक्ष थे। उधर 1999 में वाजपेयीजी पांच साल के लिए आ चुके थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि 2004  में और दुबारा 2009 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी?


उपरोक्त तथ्य सिद्ध करते हैं कि यदि नेहरू-गांधी परिवार का कथित वंशवाद चल रहा है तो उसका श्रेय परिवार को नहीं, बल्कि उन लोगों को है जिनकी अपनी संकुचित राजनीति से जनता का मोहभंग होकर ''परिवार" को बार-बार आगे आने का मौका मिल जाता है।

प्रसंगवश यह कह देना चाहिए कि मोतीलाल नेहरू से लेकर सोनिया गांधी तक स्वाधीनता आंदोलन में और फिर स्वाधीन भारत की राजनीति में इस परिवार ने बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाई है, तकलीफें उठाई हैं, कुर्बानियां भी दी हैं; जब जनता उनसे नाखुश हुई है तो उसने इनके नेतृत्व को खारिज करने में भी कोई संकोच नहीं किया, लेकिन उन नेताओं को क्या कहिएगा जिन्होंने मात्र दस-बीस साल के राजनैतिक कॅरियर का उपयोग अपने परिवारजनों को सत्तासुख हासिल करवाने में बेशर्मी के साथ किया? कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टियां और क्षेत्रीय दल- सब इस व्याधि से ग्रस्त हैं।
देशबन्धु में 30 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित

Friday, 24 October 2014

वंशवाद चिरजीवी हो!

 

महाराष्ट्र
और हरियाणा- इन दोनों के विधानसभा चुनावों के नतीजे लगभग वैसे ही हैं जिसका लोग पहले से अनुमान लगा रहे थे। यद्यपि चुनाव सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियों ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि वे सही भविष्यवाणी करने में समर्थ नहीं हैं। किसी का एक अनुमान सच निकला, तो किसी का दूसरा, लेकिन संपूर्ण, सटीक पूर्वानुमान कोई भी नहीं लगा सका। अब इनकी उपयोगिता सिर्फ इतनी है कि निठल्ले लोगों का वक्त इनको देखते हुए और इन पर बहस करते हुए कट जाता है। यही स्थिति उन कथित विशेषज्ञों की भी है, जो टी.वी. के पर्दे पर कुछ देर के लिए आकर अपने आपको गौरवान्वित कर लेते हैं। बहरहाल, भाजपा ने उपचुनावों में मिली हार को दरकिनार करते हुए विधानसभा चुनावों में विजय हासिल की है और स्वाभाविक रूप से उसके कार्यकर्ता और समर्थक उत्साहित हैं।

चुनाव परिणाम आने के बाद विशेषज्ञों ने जो विश्लेषण किया उसमें तीन बातें मुख्य रूप से कही गईं। एक तो यह दावा किया गया कि भारत से वंशवाद की राजनीति अब समाप्त हो चुकी है। दूसरे यह कि मतदाताओं ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना निर्णय सुनाया है और अंतिम कि कांग्रेस पार्टी अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है। मैंने इन नतीजों को जितना समझा है उसके आधार पर उपरोक्त निष्कर्षों से सहमत होना संभव नहीं है। चूंकि वंशवाद के मुद्दे को कुछ प्रमुखता के साथ ही उठाया गया है अत: पहले उसे ही देख लिया जाए। एक सरसरी निगाह से देखने से ही पता चल जाता है कि भारतीय राजनीति में वंशवाद खत्म होना तो दूर, बल्कि तेजी के साथ बढ़ रहा है। विधानसभा के साथ-साथ लोकसभा का एक उपचुनाव भी हुआ और उसमें गोपीनाथ मुंडे की बेटी प्रीतम मुंडे ने रिकार्ड बहुमत याने लगभग सात लाख अंतर के साथ विजय हासिल की। कह सकते हैं कि मतदाताओं ने श्री मुंडे की वंश-परंपरा जारी रखने के लिए ही यह उपहार दिया है।

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे भले ही चुनाव हार गए हों, लेकिन उनके बेटे नितेश को विजयी बनाने में मतदाताओं ने संकोच नहीं किया। सुशील कुमार शिंदे की बेटी भी दुबारा विधायक चुन ली गई हैं। भले ही इसके पूर्व उनके माता-पिता दोनों चुनाव हार चुके हैं। विलासराव देशमुख के बेटे भी जीत गए हैं, जबकि छगन भुजबल एवं उनके पुत्र दोनों एक साथ विधानसभा में होंगे। इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे की दूसरी बेटी पंकजा न सिर्फ चुनाव जीत गई हैं बल्कि वे पिछले दो माह से लगातार दावा कर रही हैं कि महाराष्ट्र के युवा मतदाता उनको ही मुख्यमंत्री की गद्दी पर आसीन देखना चाहते हैं। यह कुछ वैसी ही बात हुई जैसे मेनका गांधी ने अपने बेटे वरुण को उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का दावा ठोक रखा है।

अब तक कांग्रेस पर वंशवाद को बढ़ावा देने का एकांगी आरोप लगता रहा है, लेकिन ये तथ्य बतलाते हैं कि भारतीय जनता पार्टी भी इस रवायत से मुक्त नहीं है। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना भाजपा से युति तोड़कर दूसरे नंबर की पार्टी बन कर उभरी है। इसका अर्थ यह हुआ कि बाल ठाकरे की राजनैतिक विरासत लुप्त नहीं हुई है। विद्रोही राज ठाकरे की मनसे को सिर्फ एक सीट पर विजय मिली वह भी संकेत करती है कि लोग राज को नहीं बल्कि उद्धव को ही सही वारिस मानते हैं। उधर हरियाणा में भी जो राजनीतिक परिवार हैं उनका दबदबा कमोबेश पहले की तरह कायम है। सुषमा स्वराज की बहन की पराजय को अपवाद स्वरूप देखा जा सकता है। संभव है कि इसके लिए पार्टी की अंदरूनी खींचतान जिम्मेदार हो। याने इस तरह सुषमा स्वराज का प्रभाव कम करने की कोशिश की गई है! कुल मिलाकर देखा जा सकता है कि राजनीति में वंशवाद समाप्त होने की कल्पना फिलहाल एक असंभव कल्पना ही है।

इसी तरह भ्रष्टाचार का मुद्दा है।  एक टीकाकार ने निवर्तमान मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की जीत पर उत्साहपूर्ण टिप्पणी की कि राजनीति में व्यक्तिगत ईमानदारी की कद्र अभी बाकी है। यह कथन आंशिक रूप से सही है। पृथ्वीराज चव्हाण निष्कलंक व्यक्तित्व के धनी हैं। उनकी विजय का स्वागत है। लेकिन क्या हर ईमानदार उम्मीदवार जीत पाता है और क्या वोटर बेईमान उम्मीदवार को सचमुच नापसंद करता है? अगर पृथ्वीराज चौहान की जीत ईमानदारी की जीत है तो फिर अजीत पवार की जीत को किस रूप में देखा जाएगा, जिनके ऊपर तमाम आरोप लगे और जिन्हें कुछ समय के लिए उपमुख्यमंत्री पद भी छोडऩा पड़ा? ऐसे अन्य उदाहरण महाराष्ट्र में भी हैं और हरियाणा में भी। इनको देखकर यही धारणा बनती है कि चुनाव जीतने या हारने के लिए कोई एक कारण जिम्मेदार नहीं होता।

जहां तक कांग्रेस पार्टी के दिन लदने की बात है तो आज के माहौल में इस तरह की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक नहीं है। यह तो दिख ही रहा है कि कांग्रेस का जनाधार सिमटा है और पार्टी के सामने नेतृत्व का संकट  है। लेकिन अगर जनतांत्रिक राजनीति में विपक्षी दल की कोई भूमिका है तो राष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए कांग्रेस के अलावा दूसरी कौन सी पार्टी है? समाजवादियों के बीच नए-नए समीकरण बन रहे हैं। पुराने गिले-शिकवे मिटाकर बड़े नेता हाथ भी मिलाकर रहे हैं, गले भी लग रहे हैं, लेकिन एक शरद यादव के अलावा कौन है, जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति की समझ रखता हो?  वैसे भी हिन्दी प्रदेशों के बाहर समाजवादी पार्टियां फिलहाल कहां हंै? कुछ ऐसी ही स्थिति कम्युनिस्ट पार्टियों की भी है। इसलिए कांग्रेस की सत्ता से बेदखली से भले ही लोगों को खुशी हो, देश की राजनीतिक सेहत के लिए विपक्ष के रूप में आज भी उसकी प्रासंगिकता बरकरार है।

इन दो राज्यों के चुनावी नतीजों से जुड़े दो-तीन और बिन्दु हैं जिन्हें ध्यान में रखना उचित होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं धुंआधार चुनावी सभाएं दोनों राज्यों में कीं। ऐसा पहली बार हुआ है कि प्रधानमंत्री विधानसभा चुनावों में इतनी दिलचस्पी ले। फिर भाजपा की रणनीति की बात भी सामने आती है। बहुत से विश्लेषक मानते हैं कि महाराष्ट्र में भाजपा ने शरद पवार की राकांपा के साथ कोई गुप्त समझौता कर लिया था। अगर यह सच है तो, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। दूसरी तरफ हरियाणा में भाजपा ने डेरा सच्चा सौदा से खुला समर्थन हासिल किया। ज्ञातव्य है कि शिरोमणि अकाली दल और डेरा सच्चा सौदा के बीच भारी कटुता है। इसका अर्थ यह हुआ कि हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों प्रदेशों में भाजपा ने अपने पूर्व सहयोगियों का साथ छोड़ दिया। यही नहीं, एक तरफ नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र के अखंड रहने की सिंह गर्जना की तो देवेंद्र फडऩवीस ने पृथक विदर्भ का मुद्दा उठाने में कोई संकोच नहीं किया। इन कलाबाजियों के क्या परिणाम होते हैं यह भविष्य बताएगा।

कांग्रेस का जहां तक सवाल है उसके चुनाव अभियान में कोई गर्माहट नहीं थी। क्या इसकी वजह यह है कि सोनिया गांधी स्वास्थ्य के चलते संगठन पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रहीं हैं? राहुल गांधी की सक्रिय राजनीति से वितृष्णा दिनोंदिन ज्यादा प्रकट होती जा रही है। प्रियंका गांधी बड़ी जिम्मेदारी लेने से बार-बार इंकार कर चुकी हैं। ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए यह उचित होगा कि वे चाटुकारों, अवसरवादियों और जमीन से कट चुके नेताओं को रिटायर कर नयी टीम को जिम्मेदारी सौंप दें ताकि पार्टी अपनी ऐतिहासिक भूमिका की अर्थवत्ता को कायम रख सके।
देशबन्धु में 23 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित

Thursday, 16 October 2014

'निर्मल' बनाम 'स्वच्छ' भारत


 महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत कर एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर देशवासियों का ध्यान आकृष्ट किया है। उस दिन स्वयं प्रधानमंत्री  हाथ में झाड़ू लेकर सड़क पर आए जिसका अनुसरण उनके मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और सरकारी अफसरों ने भी कर सांकेतिक रूप से सही संदेश दिया। हम इस पहल की सराहना करते हैं यद्यपि शुरूआती उत्साह के बाद अभियान की क्या गति होगी और क्या परिणाम निकलेंगे, पूर्व अनुभवोंं के आधार पर इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। दरअसल, भारत एक उत्सवप्रिय देश है जहां अवसर कोई भी हो, उसे आनन-फानन में आडंबर में तब्दील किया जा सकता है। ऐसे  मौकों पर फोटोग्राफरों, पत्रकारों और टी.वी. कैमरों के जमावड़े से माहौल एक दिव्य अनुभूति में परिणत हो जाता है। सवाल यही है कि क्या प्रधानमंत्री की इस पहल को पर्याप्त गंभीरता से अमल में लाया जा सकता है?

हमारे देश को स्वच्छ-निर्मल बनाने का, गंदगी और कूड़ा-करकट से मुक्त करने का, जनता में नागरिकता बोध जागृत करने का यह पहला प्रयत्न नहीं हैं। पाठकों को स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं है कि यूपीए सरकार के दौरान विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने की लिए अतुल्य भारत नाम से जो अभियान चलाया गया था उसमें आमिर खान बार-बार लोगों को सभ्य आचरण करने के लिए प्रेरित करते नजर आते थे। यह अभियान लंबे समय तक चला, लेकिन इसका वांछित असर नहीं हुआ। यूपीए सरकार ने ही निर्मल भारत अभियान की भी शुरूआत की थी। हर साल राष्ट्रपति के हाथों देश के दर्जनों कथित निर्मल ग्रामों को पुरस्कृत भी किया जाता था, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही होती थी। मैंने सुना है कि अब एक सरकारी आदेश के द्वारा निर्मल भारत का ही नाम बदलकर स्वच्छ भारत कर दिया गया है। उस मद में जो बजट प्रावधान किया गया था, वह नए नाम पर हस्तांतरित कर दिया गया है। दूसरे शब्दों में योजना वही पुरानी, नाम नया!

प्रधानमंत्री अभियान को एक नया नाम देकर श्रेय लेना चाहते हैं तो इसमें कोई खास बुराई नहीं है, क्योंकि कुछ भी हो समस्या तो गंभीर है और उस पर ध्यान देना भी उतना ही आवश्यक है। श्री मोदी ने गांधी जयंती के बाद नेहरू जयंती और इंदिरा जयंती से भी इस कार्यक्रम को जोड़ दिया है। उसके राजनीतिक निहितार्थ हैं जिनका संज्ञान लेना चाहिए। श्री मोदी पर यह आरोप लग सकता है कि वे गांधी, नेहरू और इंदिरा जैसी महान शख्सियतों के योगदान को एक छोटे से दायरे में समेट कर उनका कद छोटा करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा करने से श्री मोदी का कद नहीं बढ़ेगा। उनकी राजनीति इन राष्ट्रीय नेताओं से एकदम विपरीत दिशा में है। इसलिए वे इनका नाम न भी लेते तो काम चल जाता। भाजपा के प्रधानमंत्री ने अपने प्रेरणा पुरुषों याने वी.डी.सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी अथवा दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर अभियान की शुरूआत की होती तो शायद उनकी पार्टी के भीतर भी बेहतर संदेश जाता।

बहरहाल, आइए इस मुद्दे पर राजनीति से अलग हटकर विचार करें। महात्मा गांधी के बारे में पूरी दुनिया जानती है कि वे आधी धोती पहनकर रहते थे। वे कागज के छोटे-से-छोटे पुर्जे को भी संभालकर रखते थे ताकि छोटे-मोटे संदेश उस पर लिख सकें। वे जमीन पर गिरी आलपिन भी उठाकर सहेज कर रख देते थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में हजारों पत्र लिखे होंगे किन्तु अधिकतर पत्र पोस्टकार्ड पर लिखे जाते थे। उनके जीवन का एक रोचक प्रसंग यहां एक बार फिर याद कर लेना उचित होगा। सुप्रसिद्ध लेखक जैनेन्द्र कुमार ने देश और समाज की स्थितियों पर चिंता व्यक्त करते हुए एक लंबा पत्र जब उन्हें लिखा तो बापू ने पोस्टकार्ड पर दो लाइन में उन्हें उत्तर लिखा भेजा कि- तुम अपने हाथों से पाखाने की सफाई शुरू कर दो, तुम्हारी सारी चिंताएं समाप्त हो जाएगी और आगे की राह मिल जाएगी। कहने का आशय यह कि गांधीजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। यह सत्य उनके नाम की माला जपने वाले हर व्यक्ति को याद रखना चाहिए।

यह देखें  कि भारत में स्वच्छता की समस्या इतनी बड़ी क्यों है और क्या यह सिर्फ भारत में ही है? इस समस्या के मूल में कौन से कारण हैं और क्या यह इनका निदान सिर्फ सार्वजनिक स्थलों पर झाड़ू लगाने से किया जा सकता है? गांधीजी ने तो कहा था कि यह धरती हर व्यक्ति की आवश्यकताओं को तो पूरी कर सकती है, लेकिन एक व्यक्ति के भी लालच को पूरा करने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। उनका आशय था कि हर व्यक्ति को अपनी आवश्यकता सीमित रखना चाहिए ताकि पृथ्वी के संसाधनों का अनावश्यक दोहन न हो। लेकिन आज इस बात को कौन मान रहा है और क्या यही सबसे बड़ा कारण नहीं है कि भारत और अन्य देशों में कचरों के पहाड़ दिन पर दिन ऊंचे होते जा रहे हैं?

एक सामान्य उदाहरण लीजिए। पहले हम बाजार जाते थे तो हाथ में या सायकल के हैंडिल में टांग कर एक झोला अवश्य ले जाते थे। उसी में सब्जी-किराना आ जाता था। आज हर जगह, हर वक्त प्लास्टिक की थैलियां हमें क्यों चाहिए? मैं देखता हूं कि रेडीमेड कपड़ों की पैकिंग में दुनिया भर का फिजूल सामान लगता है। झिल्ली वाला कागज, आलपिन, क्लिप, पॉलीथीन, मोटे कागज पर छपे टेग, कार्ड बोर्ड- इन सबकी क्या  जरूरत है? घर आकर इन्हें फेंकना ही पड़ता है। शादी-ब्याह की साडिय़ों आदि में भी तरह-तरह से सजावट की जाती है। उसमें भी फालतू सामान लगता है। अगर यह तय कर लिया जाए कि कपड़े हों या अन्य कोई सामग्री, उसकी पैकिंग न्यूनतम की जाएगी तो समय बचेगा, साधन बचेंगे और पैसा भी बचेगा। एक छोटा सा उदाहरण और लीजिए। शोरूम से जब नई कार बाहर निकलती है तो उसमें रिबिन क्यों लगाए जाते हैं। ये रिबिन बाद में किस काम में आते हैं?

इस तथ्य पर गौर करना उचित होगा कि पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में दुनिया में पैकेजिंग व्यवसाय बहुत तेजी के साथ बढ़ा है। इसके चलते कागज, एल्युमीनियम, लकड़ी, प्लास्टिक और भांति-भांति के रसायन- इनके उपभोग में भी बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। जो कपनियां पैकेजिंग में काम आने वाली सामग्री का निर्माण या उत्पादन करती हैं वे तो अरबपति और खरबपति हो गए हैं, लेकिन इन तमाम सामग्रियों का एक बार के बाद दुबारा उपयोग संभव नहीं होता और वही सारा कचरा नालियों में सड़क किनारों पर, रेल पटरियों के किनारे बिखरा हुआ देखने मिलता है। यूं तो रिसाइक्ंिलग की बहुत बात की जाती है, लेकिन उसका शायद पांच प्रतिशत भी रिसाइकल नहीं हो पाता। फिर सवाल यह भी उठता है कि इन कचरे को आप इकट्ठा कर भी लें तो उसे आगे कहां भेजा जाए। आजकल विशालकाय गड्ढे खोदकर उनमें कचरा भरा जा रहा है, लेकिन वह भी कब तक? उसमें भी वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण फैलने का खतरा विद्यमान है।

इधर गांवों में शौचालय निर्माण की बात जोर-शोर से हो रही है। उसकी शहरों में जरूरत तो निश्चित है, लेकिन गांवों में खेतों के बीच रहने वालों के लिए पक्के शौचालय एक छोटी सीमा तक ही उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। शहरों की समस्या यह है कि नगरपालिकाओं का काम-काज बेढब चलता है। उन्हें प्रदेश सरकार के इशारों पर नाचना पड़ता है। सही अर्थों में स्वायत्तता नहीं है इसलिए नगरपालिका या नगरनिगम में कहीं भी जिम्मेदारी का अहसास देखने नहीं मिलता। फिर सफाई कर्मचारियों के प्रति समाज का जो रवैया है वह भी किसी से छुपा नहीं है। जहां तक गांव की बात है वहां खेतों में विसर्जित मलमूत्र खाद के काम आता है यह सामान्य समझ है। कुल मिलाकर यदि प्रधानमंत्री अपने स्वच्छ भारत अभियान को सफल होते देखना चाहते हैं तो इसके लिए उन्हें समारोहप्रियता छोड़कर ठोस और दूरगामी नीति बनाने पर ध्यान देना होगा।
देशबन्धु में 16 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित

Sunday, 12 October 2014

नवसाक्षर साहित्य लेखन की चुनौतियां


 राष्ट्रीय पुस्तक न्यास याने नेशनल बुक ट्रस्ट और छत्तीसगढ़ राज्य संसाधन केंद्र ने पिछले दिनों रायपुर के निकट चंपारन में नवसाक्षर साहित्य लेखन पर एक कार्यशाला का आयोजन किया। मुझे इसका निमंत्रण मिला तो इस बहाने एक लगभग अछूते विषय पर विचार करने का अवसर भी हाथ आया। भारत में साक्षरता अभियान एक लंबे समय से चल रहा है। बहुत पहले याने लगभग साठ वर्ष पूर्व राज्यों में प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम चलता था। ऐसा मुझे ध्यान आता है कि पुराने मध्यप्रदेश (तब के सीपी एवं बरार) में नवसाक्षर प्रौढ़ों के लिए प्रदीप नाम की पत्रिका भी प्रकाशित होती थी। तीन-चार दशक तक तो यह कार्यक्रम लस्टम-पस्टम चलता रहा। इसमें गति आई 1990 के आसपास जब केरल के एर्नाकुलम जिले के उत्साही युवा जिलाधीश ने अपने जिले को संपूर्ण साक्षर करने की मुहिम शुरू की तथा इसमें केरल शास्त्र साहित्य परिषद का सहयोग हासिल किया। जैसा कि हम जानते हैं बहुत जल्दी ही एर्नाकुलम को देश का पहला संपूर्ण साक्षर जिला व केरल को पहला संपूर्ण साक्षर प्रांत बनने का गौरव हासिल हुआ।

एर्नाकुलम की सफलता से उत्साहित होकर देश में साक्षरता अभियान को एक नई ऊर्जा मिली। इस काम को गति देने के लिए एक सुव्यवस्थित ढांचा बनाया गया। अनिल बोर्डिया, लक्ष्मीधर मिश्रा, सुदीप बनर्जी तथा जगमोहन सिंह राजू जैसे ध्येयनिष्ठ अधिकारियों ने अपने-अपने समय में देश को संपूर्ण साक्षर बनाने के अभियान पर अथक परिश्रम किया। अभियान का नाम समय-समय पर बदलता रहा। स्वरूप में भी यदाकदा परिवर्तन हुए, लेकिन अभियान की मूल भावना को बरकरार रखा गया। इसका ही परिणाम है कि साक्षरता दर में निरंतर वृद्धि हो रही है। यह दर पुरुषों में ज्यादा है, लेकिन महिलाएं भी अब बहुत पीछे नहीं हैं। आदिवासी अंचलों में, पहाड़ी इलाकों में, घुमंतू समाज में वृद्धि की दर अपेक्षित स्तर पर नहीं है, लेकिन इस ओर केन्द्र और राज्य सरकारों का ध्यान लगातार बना हुआ है। शासकीय योजनाओं में जो कमजोरियां अन्य क्षेत्रों में अमूमन देखने मिलती हैं वे कुछ हद तक यहां भी विद्यमान हैं लेकिन स्थिति निराशाजनक नहीं है।

यदि प्रारंभिक काल में साक्षरता का लक्ष्य व्यक्ति को महज अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान कराने तक सीमित था तो आज उसने एक बड़ा और महत्वाकांक्षी रूप ले लिया है। अब सिर्फ प्रौढ़ साक्षरता की बात नहीं होती। उसके साथ सतत् शिक्षा का मूल्य भी जोड़ दिया गया है। अनुभव से यह पाया गया कि अक्षर ज्ञान के बाद यदि नवसाक्षर की रुचि आगे पढऩे में न हुई तो वह वापस निरक्षरता की अंधेरी गुफा में लौट सकता है। दूसरे शब्दों में साक्षरता अभियान में जुटे कार्यकर्ताओं के सामने यह चुनौती भी है कि वे नवसाक्षरों को आगे पढऩे के लिए लगातार प्रोत्साहित करते रहें। ताकि एक बार साक्षर हमेशा के लिए शिक्षित। इसके साथ यह भी माना गया कि पढऩा-लिखना सीख जाना ही अपने आप में उद्देश्य नहीं है, बल्कि साक्षर होने का लाभ व्यक्ति के कौशल विकास में अर्थात् बेहतर आजीविका हासिल करने की भावना से युक्त होना चाहिए। इधर दो-तीन वर्षों में विशेषज्ञों ने साक्षरता के भीतर निहित अन्य संभावनाओं की भी पड़ताल की। फलस्वरूप चुनावी साक्षरता, वित्तीय साक्षरता, विधिक साक्षरता जैसी संज्ञाएं अभियान में प्रचलित हुईं।

कुल मिलाकर भारत में साक्षरता अभियान एक बुनियादी चुनौती का सामना करने के स्तर से उठकर नवसाक्षरों के लिए बेहतर संभावनाओं के द्वार खोलने वाले कार्यक्रम में परिवर्तित हो गया है। मुझे लगता है कि इतनी प्रगति के बाद भी चुनौतियों का अंत नहीं है। जिस समय दुनिया में लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था उस समय निरक्षरता जैसी कोई समस्या भी नहीं थी। लिपि और उसके बाद छापाखाने के आविष्कार के बाद समाज दो हिस्सों में बंटने लगा-साक्षर और निरक्षर। फिर वाचिक परंपरा और लिखित परंपरा दोनों अपने-अपने तरीके से विकसित होते गईं। आज के दौर में उपलब्ध तकनीकों के चलते एक नए किस्म का अलगाव पैदा हो गया है। एक बड़ा वर्ग है जो कम्प्यूटर-अज्ञानी है। जिसे कम्प्यूटर, इंटरनेट और स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करना न आए वह आधुनिक समय का निरक्षर कहलाने लगा है। इसीलिए इन दिनों शिक्षा और साक्षरता दोनों क्षेत्रों में सूचना प्रौद्योगिकी पर जोर दिया जाने लगा है।

जब बात नवसाक्षरों के लिए साहित्य रचने के लिए हो तो उसमें उपरोक्त बिन्दुओं का ध्यान रखना आवश्यक है। नवसाक्षरों के लिए साहित्य सृजन कार्य में अंतर्निहित और भी जटिलताएं हैं जिनको समझे बिना उनके लिए पाठ्य सामग्री सही ढंग से तैयार नहीं की जा सकती। भारत में खासकर हिन्दी भाषा में एक बड़ी कठिनाई है। अधिकतर हिन्दी लेखक हाथीदांत की मीनारों में रहते हैं। उनका लेखन जनसामान्य के लिए नहीं होता। यही वजह है कि हमारी अपनी भाषा में बच्चों तक के लिए रचनाएं लिखने को निकृष्ट कार्य माना जाता है और जो बाल साहित्य लिखते हैं उनकी कहीं कोई गिनती ही नहीं होती। इस मानसिकता के चलते नवसाक्षरों के लिए लिखना तो और भी बड़ी जोखिम उठाना है।

नवसाक्षर अबोध बालक नहीं होता। जिनके लिए साक्षरता अभियान चलाया गया है वे पन्द्रह से पैंतीस वर्ष तक या उससे भी अधिक आयु के होते हैं। जाहिर है कि ये नवसाक्षर वैचारिक परिपक्वता एवं अनुभव के भिन्न-भिन्न स्तरों पर हैं। इनके लिए उस तरह से पठन सामग्री तैयार नहीं की जा सकती जो स्कूल में कक्षा विशेष या आयु समूह विशेष के लिए तैयार होती है। ऐसे में प्रश्न उपस्थित होता है कि पन्द्रह और पैंतीस के आयु के बीच संतुलन कैसे साधा जाए। इन्हें अब क ख ग अथवा अमर घर चल के स्तर की पढ़ाई भी नहीं करवा सकते। इनके पास अनुभवों की थोड़ी बहुत पूंजी है। जीवन और जगत को इन्होंने खुली आंखों से देखा है। इनकी रुचि ऐसा साहित्य पढऩे में ही होगी जिसका तादात्म्य वे अपने अनुभव के साथ बैठा सकें। मुझे ध्यान आता है कि 1991-1992 में जब संपूर्ण साक्षरता अभियान की शुरूआत हुई थी तब पढ़ाई अ अनार का से न होकर म मकान का से शुरू होती थी। कालांतर में इसमें और भी परिवर्तन हुए।

नवसाक्षरों के अनुभव स्तर और मनोविज्ञान को समझकर लिखना एक सीढ़ी पार कर लेना है। इसके बाद सवाल पैदा होता है कि नवसाक्षर साहित्य में किस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाए। अनेक अध्यापकनुमा लेखक संस्कृतनिष्ठ, गरिष्ठ हिन्दी का प्रयोग करते हैं। इससे लेखक की विद्वता का आतंक भले ही तारी होता हो, पाठक के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। आवश्यकता इस बात की है कि विशेष कर नवसाक्षरों के लिए लिखते हुए आमफहम शब्दावली में अपनी बात कही जाए। मैं इस दृष्टि से प्रेमचंद और हरिशंकर परसाई को आदर्श मानता हूं। उनके लिखे में एक ओर जहां विचारों की गहराई है, वहीं दूसरी ओर उनकी भाषा तरल-सरल और बोधगम्य है। नवसाक्षर को लिखित भाषा से डर नहीं लगना चाहिए बल्कि वह उसमें डूब सके ऐसा आकर्षण होना चाहिए। यदि ऐसा कर लिया तो दूसरी सीढ़ी पार कर ली।

नवसाक्षर के लिए विषय चयन में भी रोचकता का ध्यान रखना आवश्यक है। वह जिन अनुभवों से दिन-प्रतिदिन गुजरता है उनके बारे में पढऩे में उसे अधिक रुचि होती है। वह अपने स्थानीय परिवेश को जानता है। अपने नदी-पहाड़ खेत-खलिहान, पशु-पक्षी इनसे उसका आत्मीय परिचय है। इनको अवलंब बना किस तरह की कहानियां लिखी जा सकती है यह विचार करना होगा। प्रेमचंदजी की पंच परमेश्वर, दो बैलों की कहानियां, बड़े भाईसाहब, ईदगाह और पंडित मोटे राम शास्त्री की कहानी इस दिशा में लेखकों का मार्गदर्शन कर सकती है। एक बार जब नवसाक्षर का मन पढऩे में लग जाए, वह किताबों से प्रेम करने लगे, तब उसे कुछ गंभीर प्रश्नों पर किए लेखन की ओर प्रवृत्त किया जा सकता है। जब कौशल विकास अथवा चुनावी साक्षरता आदि  की बात हो तब सबसे पहले ध्यान शायद स्वराज्य और जनतंत्र जैसे अहम् मुद्दों पर देना चाहिए जो कि एक बेहतर नागरिक होने के लिए बेहद आवश्यक है।
लेखकगण विचार करें कि त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था के प्रावधानों के बारे में नवसाक्षरों की रुचि कैसे जगाई जा सकती है। वे प्रतिनिधि जनतंत्र और सहभागी जनतंत्र का फर्क समझने लगें; पंचायतीराज व्यवस्था को मजबूत करने की ओर उनका ध्यान जाए; यहां से वे अन्य विषयों की ओर आएं। इन सबके अलावा एक विशेष बात ध्यान रखने की यह भी है कि नवसाक्षर के पास, वह स्त्री हो या पुरुष, समय की कमी है। वह गृहिणी हो सकती है या फिर किसान या मजदूर या कारीगर। दिन भर की मेहनत से थकने के बाद उसे पुस्तकों की ओर आकर्षित करना आसान काम नहीं है। ये कुछ बातें हैं जो नवसाक्षर साहित्य लिखने वालों के सामने एक कठिन चुनौती के रूप में उपस्थित हैं।

 (16 सितम्बर को दिए गए उद्घाटन वक्तव्य का परिवर्धित रूप)
देशबन्धु में 8 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित

Friday, 3 October 2014

माधवराव सप्रे



 यह सन् 1965 की बात है। रायपुर के दुर्गा महाविद्यालय ने प्रदेश के पांच मूर्धन्य साहित्यकारों का सम्मान करने का निर्णय लिया, वे थे- मुकुटधर पाण्डेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, मावलीप्रसाद श्रीवास्तव, बलदेव प्रसाद मिश्र एवं सुंदरलाल त्रिपाठी। इसी अवसर पर छत्तीसगढ़ के साहित्य एवं संंस्कृति पर केन्द्रित एक स्मारिका ''व्यंजना'  शीर्षक से प्रकाशित करने का निर्णय भी लिया गया। महाविद्यालय में एक वर्ष पूर्व ही एम.ए. की पढ़ाई शुरू हुई थी। मैं अंतिम वर्ष का विद्यार्थी था। साथ ही हिन्दी साहित्य परिषद का अध्यक्ष भी। मेरे अध्यापकों ने मुझ पर विश्वास रखते हुए स्मारिका के छात्र संपादक का दायित्व भी मुझे सौंप दिया था। उस समय मैंने अपने सहपाठियों से साहित्य-संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर लेख लिखवाए, और स्वयं भी एक-दो लेख लिखे। इस निजी संस्मरण के बाद मैं आज के विषय पर आता हूं।

मैंने स्वयं व्यंजना में छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता पर निबंध लिखने का निश्चय किया था। इस सिलसिले में जब सामग्री जुटाना प्रारंभ किया तो बहुत से अन्य तथ्यों के अलावा यह भी मालूम पड़ा कि छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का श्रीगणेश नई सदी की दहलीज पर याने सन् 1900 में माधवराव सप्रे ने प्रदेश के एक छोटे से ग्राम पेण्ड्रारोड से ''छत्तीसगढ़ मित्र" नामक मासिक पत्रिका निकालकर किया था। मेरी पीढ़ी को सामान्यत: सप्रेजी के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं थी। इतना अवश्य हम जानते थे कि एक अंग्रेज अफसर के नाम पर रखे गए लॉरी स्कूल का नाम नगरपालिका ने बदलकर माधवराव सप्रे शाला कर दिया था। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा 1950 में प्रकाशित गोविन्दराव हार्डिकर द्वारा लिखित व सप्रेजी की जीवनी घर की लाइब्रेरी में थी, लेकिन उसकी ओर मेरा ध्यान पहले नहीं गया था।

इस तरह सप्रेजी को मैंने सबसे पहले छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के अग्रपुरुष के रूप में जाना।  गो कि उनकी रचनाओं से मैं बहुत ज्यादा वाकिफ नहीं हो सका था फिर भी उनके प्रति एक आदर का भाव तो मन में विकसित हो ही चुका था। आज भी छत्तीसगढ़ सप्रेजी को प्रदेश में पत्रकारिता के जनक के रूप में ही मुख्य तौर पर जानता है और उनके इस योगदान के प्रति उचित ही गर्व करता है। यह बात अलग है कि जब नया राज्य बना तो प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने उन्हें एक पितृपुरुष के रूप में स्मरण किया, किन्तु जब एक दर्जन से ज्यादा पुरस्कार स्थापित किए तो उनमें से सप्रेजी का नाम नदारद था। उनके पश्चात भाजपा सरकार आई और पत्रकारिता एवं जनसंचार वि.वि. की स्थापना होने लगी तो उसका नामकरण माधवराव सप्रे के नाम पर न कर कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर किया गया। यह देखकर नागार्जुन की पंक्ति बरबस याद आती है- शासन के सत्य कुछ और हैं, जनता के कुछ और।

खैर! इस लंबे अंतराल में माधवराव सप्रे के व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। सप्रेजी का नाम राष्ट्रव्यापी चर्चा में उस समय एकाएक उभर कर आया जब ''टोकरी भर मिट्टी का" पुनप्र्रकाशन सारिका में इस दावे के साथ हुआ कि यह हिन्दी की पहली कहानी है। यह कहानी एक पुरानी लोककथा पर आधारित थी एवं उसका प्रथम प्रकाशन अप्रैल 1901 में ही छत्तीसगढ़ मित्र में हुआ था। रायपुर के चर्चित साहित्यकार देवीप्रसाद वर्मा (बच्चू जांजगीरी) ने इसका पुनप्र्रकाशन करवाया था और तब एक तरह से सारिका के संपादक कमलेश्वर व बच्चू भाई दोनों को हिन्दी की पहली कहानी की खोज करने का श्रेय संयुक्त रूप से मिला। इस स्थापना से मेरी प्रारंभ से असहमति रही है। एक लोककथा जो सप्रेजी के समय में भी प्रचलित रही होगी, को लिपिबद्ध कर देने मात्र से क्या उसे मौलिक रचना माना जा सकता है? ऐसा कोई श्रेय स्वयं सप्रेजी ने भी नहीं लिया।

बहरहाल सप्रेजी के लेखन से मैंने कुछ बेहतर परिचय प्राप्त किया सन् 1979 में जब मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से एक पुस्तक माला के अंतर्गत ''माधवराव सप्रे के निबंध" शीर्षक पुस्तक प्रकाशित हुई। यह पहल सम्मेलन के अध्यक्ष मेरे स्व. पिता मायाराम सुरजन की थी। इस पुस्तक का संपादन बच्चू जांजगीरी ने किया। यद्यपि सप्रेजी ने अपने जीवनकाल में सैकड़ों निबंध लिखे, लेकिन बच्चू भाई ने अलग-अलग विषयों से चयन कर चौदह लेखों का संकलन तैयार किया ताकि उससे सप्रेजी के विस्तृत विचार संसार की एक झलक पाठकों को मिल सके। मुझे इस पुस्तक में छठवें क्रम पर प्रकाशित ''हड़ताल" शीर्षक लेख ने तुरंत ही प्रभावित किया। यह निबंध प्रथमत: 1907 में प्रकाशित हुआ था और मेरे लिए यह विस्मयजनक था कि सौ वर्ष पूर्व इस विषय पर कोई लेख लिखा जा सकता था ! इसमें हड़ताल के बारे में सप्रेजी ने जो विचार व्यक्त किए उनसे यह अनुमान भी हुआ कि वे अपने समय से आगे एक उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे, मुझे इस बात ने और भी आकर्षित किया।

इस निबंध के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं -


''जब किसी देश में सम्पत्ति थोड़े-से पूंजी वालों के हाथ में आ जाती है और अन्य लोगों को मजदूरी से अपना निर्वाह करना पड़ता है तब पूंजी वाले अपने व्यापार का सब नफा स्वयं आप ही ले लेते हैं और जिन लोगों के परिश्रम से यह सम्पत्ति उत्पन्न की जाती है, उनको वे पेट भर खाने को नहीं देते। ऐसी दशा में श्रम करने वाले मजदूरों को हड़ताल करनी पड़ती है।"

''मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपने नफे का हिस्सा किसी दूसरे को देना नहीं चाहता। जो पूंजी वाले अपनी पूंजी लगाकर, बड़े-बड़े व्यवसाय करते हैं, वे यही चाहते हैं कि सब नफा अपने ही हाथों में बना रहे, जिन मजदूरों के श्रम से व्यवसाय किया जाता है, उनको उस नफे का कुछ भी हिस्सा न मिले। इसी को अर्थशास्त्र में 'पूंजी और श्रम का हित-विरोध' कहते हैं।"


''यदि मजदूर अपने श्रम को कारखाने वालों के मुंहमांगे दाम पर न बेचे तो क्या वे दोषी या अपराधी हो सकते हैं? कदापि नहीं। नीति-दृष्टि से वे किसी प्रकार दोषी नहीं कहे जा सकते। अत: जब एक श्रम करने वाले मजदूर अधिक तनख्वाह पाने, या अपनी तनख्वाह की दर घटने न देने, या अपने अन्य दुखों को दूर करने के लिए एकत्र होकर हड़ताल करते हैं, तब (जब
तक वे औरों की स्वाधीनता को भंग न करें, तब तक) उन्हें किसी तरह दोषी समझना न चाहिए।"

 जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है माधवराव सप्रे पर इस बीच बहुत काम हुआ है। उनके पौत्र भौतिकीविज्ञानी डॉ. अशोक सप्रे ने रायपुर में पंडित माधवराव सप्रे साहित्य शोध केन्द्र की स्थापना की। यहां से छत्तीसगढ़ मित्र के पुराने अंक तो दुबारा छपे ही, नए कलेवर में पत्र का पुनप्र्रकाशन भी प्रारंभ हुआ। सप्रेजी की कृतियों का पुनर्मुद्रण भी अपनी गति से यहां से हो रहा है। यही नहीं, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार वि.वि. में भी माधवराव सप्रे शोधपीठ स्थापित कर दी गई है। इस पीठ की अपनी महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं। लेकिन इन सारी गतिविधियों का अवलोकन करते हुए मेरी यह धारणा बन रही है कि हमने एक ओर तो सप्रेजी को छत्तीसगढ़ तक सीमित करके रख दिया है और दूसरे यह कि उनकी कृतियों की जैसी सम्यक् विवेचना होना चाहिए उसका अभाव बना हुआ है।

ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने पर ज्ञान होता है कि सप्रेजी ने अपने रचनात्मक जीवन का एक बहुत छोटा हिस्सा छत्तीसगढ़ में व्यतीत किया। छत्तीसगढ़ मित्र को वे कोई तीन साल ही चला सके। इसके बाद उन्होंने नागपुर और जबलपुर में लंबा समय बिताया। यह दु:खद तथ्य है कि इन नगरों में सप्रेजी के योगदान को चिरस्थायी बनाने के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं हुए। जब सप्रेजी छत्तीसगढ़ मित्र निकाल रहे थे उसी समय 1902  में नागरी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी विज्ञान कोश प्रकाशन करने का निर्णय लिया था। पांच खण्डों के इस ग्रंथ में सप्रेजी को अर्थशास्त्र खंड संपादित करने का दायित्व सौंपा गया था। उनके साथी संपादकों में महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू श्याम सुंदर दास जैसे विद्वान भी थे। इससे सप्रेजी की बौद्धिक क्षमता का अनुमान किया जा सकता है।

माधवराव सप्रे 1903 के आसपास नागपुर चले गए थे। यहां उन्होंने 1905 में हिन्दी ग्रंथ प्रकाशक मंडली की स्थापना में सहयोग दिया तथा ''हिन्दी ग्रंथमाला" शीर्षक से पुस्तकों की श्रंखला प्रकाशित करने की योजना बनाई। इस ग्रंथमाला के अंतर्गत ही महावीर प्रसाद द्विवेदी के शिक्षा विषयक वे निबंध क्रमश: प्रकाशित हुए जो उन्होंने अंग्रेजी से रूपांतरित किए थे। इसके पश्चात 1907 में उन्होंने ''हिन्दी केसरी" का प्रकाशन प्रारंभ किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि माधवराव सप्रे लोकमान्य तिलक से बहुत अधिक प्रभावित थे। वह दौर ही तिलक महाराज का था। वे कांग्रेस के सबसे बड़े नेता और स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायक थे।  हिन्दी केसरी के प्रकाशन का उद्देश्य ''केसरी" में मूलरूप में प्रकाशित मराठी सामग्री को हिन्दीजनों के सामने लाना था। यह अपने आप में ऐसा महत्तर कार्य था जिसकी उपयोगिता स्वयंसिद्ध थी। यह संभवत: लोकमान्य के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का ही असर रहा होगा कि 1906 में सप्रेजी ने ''स्वदेशी आंदोलन और बायकाट" शीर्षक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसे अंगे्रज सरकार ने तीन साल बाद जब्त कर लिया।

माधवराव सप्रे के व्यक्तित्व का अनुशीलन करने से ऐसे संकेत मिलते हैं कि वे नई-नई योजनाएं बनाने में तो प्रवीण थे, लेकिन योजना प्रारंभ करने के बाद उसे आगे संभालना उनके लिए टेढ़ी खीर थी। जो हाल छत्तीसगढ़ मित्र का हुआ वही हिन्दी ग्रंथमाला का और हिन्दी केसरी का भी। वे कोई भी योजना प्रारंभ करने के लिए साधन तो जुटा लेते थे, लेकिन काम चलते रहने के लिए क्या प्रबंध हो इस बारे में उनकी असफलता ही देखने मिलती है। वे जब नागपुर में थे तभी उन्हें राजद्रोह के अपराध में जेल यात्रा भी करनी पड़ी, लेकिन तीन महीने बाद ही वे माफीनामा दे जेल से बाहर आ गए। इसमें भी हमें लगता है कि सप्रेजी किसी भी कार्य में प्रारंभिक उत्साह दर्शाने के बाद बहुत जल्दी विरक्त या विचलित होने लगते थे। वे जब एक के बाद एक उपरोक्त रचनात्मक गतिविधियों में व्यस्त थे, तभी उन्होंने वीर शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास रचित ''दास बोध" की हिन्दी टीका भी प्रकाशित की। इसके कुछ वर्ष बाद वे जबलपुर चले आए। जबलपुर में उन्होंने हिन्दी के दो महत्वपूर्ण पत्र स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 की जनवरी में सिमरिया वाली रानी की कोठी से कर्मवीर का प्रकाशन हुआ। (प्रसंगवश मेरे शैशव का कुछ समय इस स्थान पर बीता)। माखनलाल चतुर्वेदी इसके प्रधान संपादक बनाए गए व लक्ष्मण सिंह चौहान उपसंपादक। यद्यपि प्रेरणा पुरुष सप्रेजी ही थे। यह वह पत्र है जिसमें तपस्वी सुंदरलाल जैसी विभूति ने भी काम किया। इसी वर्ष अप्रैल में ''श्री शारदा" का शुभारंभ हुआ। इन दोनों पत्रों को प्रकाशित करने में जबलपुर के कांग्रेसजन व अन्य उदारमना व्यक्तियों ने भरपूर सहयोग दिया। ''श्री शारदा" में मुख्यरूप से सेठ गोविंददास का योगदान था। कर्मवीर में छत्तीसगढ़ के जांजगीर के कुलदीप सहाय भी सहायक संपादक थे। उनके योगदान का भी समुचित मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ है। इस परिदृश्य में सप्रेजी हमारे सामने एक कल्पनाशील वास्तुकार के रूप में सामने आते हैं।

यह तो हमने देखा कि सप्रेजी ने अपने जीवनकाल में बहुत सारे विषयों पर लिखा, लेकिन आज उसका शोधपरक विश्लेषण एवं पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। सप्रेजी के समय देश का जो राजनैतिक, सामाजिक वातावरण था उसका भी ध्यान इस हेतु रखना होगा। सप्रेजी के समकालीन महावीर प्रसाद द्विवेदी इत्यादि की लेखनी की दिशा क्या थी इसका भी संज्ञान लिया जाना मैं आवश्यक समझता हूं। सप्रेजी के निबंधों में ऐसे अनेक विचार व्यक्त किए गए हैं जिन्हें वर्तमान की कसौटियों पर स्वीकार करने में हमें हिचक होती है। वे भारत का उल्लेख अनेक स्थानों पर आर्यभूमि के रूप में करते हैं। क्या यह विचार उनके मन में लोकमान्य की पुस्तक ''द आर्कटिक होम ऑफ वेदाज़" से मिला? वे हिन्दी और उर्दू को बिल्कुल अलग-अलग भाषा मानते हैं तथा धर्म से भी उसे जोड़ते हैं। उनके लेख में वर्ण व्यवस्था का समर्थन भी पढऩे मिलता है। एक बात हमें समझ आती है कि सप्रेजी का महात्मा गांधी के साथ नैकट्य स्थापित नहीं हुआ अन्यथा शायद उनके विचारों को हम एक नई दिशा में विकसित होते देख पाते। यूं दावा तो किया गया है कि महात्मा गांधी ने ''हिंद स्वराज" लिखने की प्रेरणा सप्रेजी के लेख ''स्वदेशी आंदोलन और बायकॉट" से प्राप्त की, किंतु हम इसे भक्ति भाव से उपजा कल्पना-कुसुम ही मानते हैं।

(रायपुर में 8 सितंबर 2014 को माधवराव सप्रे पर आयोजित विचार गोष्ठी में प्रस्तुत आलेख का परिवद्र्धित रूप)  
 
अक्षर पर्व अक्टूबर 2014 अंक की प्रस्तावना

Wednesday, 1 October 2014

धर्म : पुल या खाई - 2




आज गांधी जयंती है, कल है दशहरा और दो दिन बाद ईदुज्जुहा या कि बकरीद। जब ऐसा संयोग है तब गांधीजी का वह प्रिय भजन याद आ जाना स्वाभाविक है- ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान। इस वक्त देश का राजनीतिक माहौल जैसा बना हुआ है उसमें गांधी को याद करना और उनके विचारों को दोहराना पहले के मुकाबले में कहीं ज्यादा आवश्यक हो गया है। देश के मतदाताओं ने अपनी बुद्धिमत्ता में सत्ता के सूत्र ''छद्म धर्मनिरपेक्षों" के हाथ से छीन कर उन लोगों के हाथों में दे दिए हैं जो स्वयं  के असली धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते हैं। पहले के सत्ताधीशों ने यदि अल्पसंख्यकों के ''तुष्टिकरण" की नीति अपनाई थी तो अब उनके साथ किस तरह न्याय हो रहा है, उन्हें आगे बढऩे के कैसे अवसर मिल रहे हैं व भारतीय समाज में उनके लिए जगह कहां बनाई जा रही है, यह सब जनता के सामने है। यह मेरा मानना रहा है कि संगठित धर्म से उदारता की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। दुनिया का इतिहास इसका गवाह है।

हम भारतवासी वसुधैव कुटुम्बकम् की बात अवश्य करते हैं और इसके बरक्स अन्य धर्मों में व्याप्त असहिष्णुता के दृष्टांत खोज-खोज कर निकालते हैं। मैं इस बारे में सिर्फ यही पूछना चाहूंगा कि आप अपने सद्गुण को छोड़कर दूसरों के दुर्गुण क्यों अपनाना चाहते हैं? अगर हमारे भीतर धार्मिक सहिष्णुता रही आई है तो इससे हमें क्या नुकसान है? जिन समाजों में सहिष्णुता एवं उदारता नहीं थी या कम थी उनका पतन या विघटन जिस तरह से हुआ उससे अगर हम अपनी तुलना करें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन नहीं है कि हमें अपने मूल स्वभाव को, अपनी सहिष्णु परंपरा को, अपनी विशाल हृदयता को कायम रखना ही श्रेयस्कर है। बहुत दूर न जाएं, अपने पड़ोस में ही देखें तो समझ आता है कि धार्मिक कट्टरता के चलते पाकिस्तान किस तरह अशांति व अवनति के रास्ते पर चल पड़ा है। इसी तरह श्रीलंका को भी एक लंबे समय तक गृहयुद्ध का सामना करना पड़ा और आज भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वहां सब कुछ ठीक है।

पश्चिम एशिया और यूरोप के भी अनेक मुल्कों में धार्मिक व जातीय असहिष्णुता, अनुदारता व अविश्वास के चलते समय-समय पर अशांत वातावरण बना है। युगोस्लाविया का विघटन हुआ तो उसके पीछे एक प्रमुख कारण आर्थोडॉक्स, लूथरन और रोमन कैथोलिक आदि पंथों के बीच व्याप्त मनोमालिन्य था। आज इस्लामिक स्टेट (आईएस) के नाम पर अरब जगत में जो कहर बरपा है उसके पीछे भी शिया, सुन्नी और कुर्द के बीच अस्मिता और वर्चस्व को लेकर चल रहा संघर्ष ही है। ऐसे और भी बहुत से उदाहरण हैं। नहीं भूलना चाहिए कि धर्म के नाम पर हुई इन लड़ाईयों के पीछे आर्थिक वर्चस्व का मामला भी प्राचीनकाल से विद्यमान रहा है। यह प्रवृत्ति वर्तमान युग में कुछ और ज्यादा स्पष्ट होकर उभर आई है। इसकी शुरूआत उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के प्रारंभ में हो गई थी जब इजरायल नामक नए देश की योजना बनाई गई। अफगानिस्तान में पहले मुजाहिदीन और फिर तालिबान भी इसी पूंजीवादी सोच से उपजे। इंडोनेशिया से तिमोर ले ईस्ट को भी अलग कर एक नया राष्ट्र अस्तित्व में आया। कुर्द आबादी क्षेत्र में भी यही हो रहा है।

इन सारे उदाहरणों को देने का एक ही मकसद है कि इतिहास के सबक नहीं भूलने चाहिए। विश्व इतिहास की यदि थोड़ी भी समझ हम विकसित कर लें तो समझ सकते हैं कि पूंजीवादी लुटेरों के गिरोह किस तरह संगठित धर्म का सहारा लेकर समाज को तोड़ते रहे हैं। अंग्रेजों की ''फूट डालो और राज करो" की कुटिल नीति का परिणाम भारत ने जिस तरह भुगता है वह कौन नहीं जानता। साम्राज्यवादी शक्तियों का तो मंसूबा था कि पाकिस्तान बनने के अलावा देशी रियासतें भी अपना-अपना सार्वभौम देश बना लें। दक्षिण अफ्रीका के नक्शे पर नज़र डालकर देखिए वहां एक देश के भीतर दो अन्य स्वतंत्र देश देखने मिल जाएंगे- लेसोथो और स्वाज़ीलैंड। भारत के बारे में भी उनका कुछ वैसा ही इरादा था। कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने का षडय़ंत्र तो 1942-43 में ही रच लिया गया था, जिसका खुलासा राजदूत नरेन्द्र सिंह सरीला ने अपनी पुस्तक 'द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ इंडियन पार्टीशन' (भारत विभाजन की अनकही कहानी) में किया है। (प्रसंगवश यह बताना उचित होगा कि उस समय माउंटबेटन के भारत आने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं थी।)

जब कश्मीर का जिक्र आ गया है तो मुझे भूतपूर्व पत्रकार व भाजपा के प्रवक्ता एम.जे. अकबर की कश्मीर पर लिखी पुस्तक का ख्याल आता है। कोई बीस साल पहले इस शोधपरक पुस्तक में उन्होंने लिखा था कि कश्मीर का बौद्ध राजा अपनी बहुसंख्यक प्रजा के धार्मिक विश्वासों का आदर करते हुए हिन्दू बन जाना चाहता था, तब वहां के पंडितों ने इसके लिए यह कहकर मना कर दिया कि हिन्दू जन्मना होता है बनाया नहीं जाता। इस उत्तर से खिन्न होकर राजा ने बौद्ध धर्म छोड़कर इस्लाम की दीक्षा ले ली क्योंकि राज्य में हिन्दुओं के बाद दूसरी बड़ी आबादी मुसलमानों की थी। राजा की देखा-देखी बहुत सारे दरबारी भी मुसलमान बन गए जिनमें पंडित भी शामिल थे। आज भी बहुत से कश्मीरी मुसलमान यह बताने में संकोच नहीं करते कि उनके दादे- परदादे हिन्दू थे। यह प्रसंग इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि धार्मिक हठवादिता और असहिष्णुता से कोई भी धर्म खुद अपना कितना नुकसान कर सकता है। अफसोस कि ऐसे प्रसंग ठीक से जनचर्चा में नहीं आ पाते।

दरअसल हमारी बहुत सारी अध्ययन सामग्री पूर्वाग्रहों से प्रेरित होती है। इसकी शुरूआत स्कूल की पाठ्य पुस्तकों से ही होने लगती है। मसलन औरंगजेब का उल्लेख एक कट्टर हिन्दू विरोधी शासक के रूप में किया जाता है। कौन नहीं जानता कि औरंगजेब एक निर्दयी यद्यपि चतुर शासक था।  उसने तो अपने भाईयों तक की हत्याएं करवाई थीं और  पिता को कारावास दे दिया था। शाहजहां को उसने कैद किया तो शायद ठीक ही किया था! जो राजा अपनी रानी का मकबरा बनाने के लिए राजकोष खाली कर दे उसे प्रजापालक तो नहीं कहा जा सकता। औरंगजेब के पक्ष में भी बहुत बातें लिखी गई हैं, लेकिन हमारा मुद्दा दूसरा है। हमारे सामाजिक अध्ययन और इतिहास की पुस्तकों में औरंगजेब के बजाय या उसके अलावा उसके बड़े भाई दारा शिकोह के बारे में विस्तारपूर्वक क्यों नहीं बताया जाता, जिसने उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया था?

देश के ताजा इतिहास की ओर आएं तो फादर कामिल बुल्के के बारे में आज की पीढ़ी कितना जानती है और अगर नहीं जानती तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है? छत्तीसगढ़ के लोगों को पता है कि स्वर्गीय दिलीप सिंह जूदेव ने आदिवासियों के लिए ''ऑपरेशन घर वापसी" चलाया था। उनके जशपुरनगर से झारखण्ड की राजधानी रांची बहुत दूर नहीं है जहां फादर कामिल बुल्के ने अपना पूरा जीवन बिता दिया। वे कोई सामान्य ईसाई नहीं, बल्कि विधिवत दीक्षित पादरी थे। लेकिन उन्हें रामकथा ने आकर्षित किया, तो वे उसी में रम गए। उन्होंने रामायण पर जो प्रामाणिक शोध की वह आज भी शोधकर्ताओं को प्रेरित करती है। यहीं नहीं, उन्होंने जो अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोष तैयार किया वैसा गुणवत्तापूर्ण कार्य हिन्दी का कोई दूसरा धुरंधर कर न सका।

मैं अगर यह कहूं कि आज जिस हिन्दी पर हम इतना गर्व करते हैं वह भी प्रारंभिक रूप में एक मुसलमान कवि की ही देन है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह पद आज से कोई सात सौ वर्ष पहले लिखा गया था-
''गोरी सोवे सेज पर
मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने
रैन भई चहुं देस।
"
इसी कवि ने ग्रामीण स्त्रियों के इसरार पर समस्यापूर्ति करते हुए हल्के-फुल्के अंदाज में एक दूसरा पद कहा था-
''खीर पकाई जतन से
चरखा दिया चला
आया कुत्ता खा गया
तू बैठी ढोल बजा।
"

हिन्दी के उद्भव का प्रमाण देते इन दोहों के रचयिता का नाम बहुत से पाठक जानते होंगे- अमीर खुसरो। अब बताइए अमीर खुसरो के योगदान को हम किस रूप में रेखांकित करना चाहेंगे? क्या हम सब हिन्दी छोड़कर देवभाषा में बात करने लगेंगे या फिर किसी दिन उनके साथ वही व्यवहार करेंगे जो सन् 2002 में एक दिन अहमदाबाद में शायर वली दक्कनी की मजार के साथ किया था? आज गांधी जयंती है तो मैं विश्वास करना चाहूंगा कि हम अंतत: गांधी के रास्ते को नहीं छोड़ेंगे।
देशबन्धु में 2 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित