वरिष्ठ कांग्रेस नेता पी. चिदम्बरम ने यह
कहकर थोड़ी सी हलचल मचा दी है कि कांग्रेस का अध्यक्ष नेहरू-गांधी परिवार
के बाहर से भी हो सकता है। श्री चिदम्बरम ने वक्तव्य देने के लिए यही अवसर
क्यों पसंद किया यह हम नहीं जानते, लेकिन वे ऐसे नेता के रूप में सामने आते
हैं, जो कंबल छोडऩा चाहते हैं किन्तु जिन्हें कंबल नहीं छोड़ता। लोकसभा
चुनाव न लड़कर उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूर रहने का इरादा जाहिर किया
था, लेकिन कमबख्त राजनीति ही कुछ ऐसी शै है जो ऐसे भले इरादे वाले नेताओं
को चैन से नहीं बैठने देती। खैर, श्री चिदम्बरम ने अपने बयान में यह स्पष्ट
करना आवश्यक समझा कि सोनिया गांधी का नेतृत्व फिलहाल कायम रहेगा, कि वे
भविष्य की संभावनाओं की तरफ इशारा कर रहे हैं। ऐसा कहकर उन्होंने अपनी
सुरक्षा का प्रबंध करने का प्रयत्न किया है।
यह जानी-मानी बात है कि भारतीय राजनीति में वंशवाद की जब भी बात होती है तो उसका एकमात्र निशाना गांधी-नेहरू परिवार ही होता है। पंडित नेहरू से लेकर राहुल गांधी बल्कि प्रियंका गांधी और उनके बच्चों तक को लेकर लक्ष्य कर जितनी भी फिकरेबाजी की जाती है उसमें कुछ प्रासंगिक तथ्यों को अनदेखा कर दिया जाता है। कांग्रेसविरोधी आरोप लगाएं, फिकरेबाजी करें, चुटकुले बनाएं, यह सब एक हद तक समझ आता है, लेकिन जब चिदम्बरम जैसे कांग्रेसी भी उसी रौ में बहने लगे तो फिर शंका होती है कि राजनीति इनके लिए साधन है या साध्य? कांग्रेस-विरोधियों द्वारा कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगे तो कांग्रेसियों के पास पलटवार करने के लिए मसाले की कोई कमी नहीं होना चाहिए। वे सही तरीके से अपने तीर क्यों नहीं चला पाते या चलाना नहीं चाहते, यह तो स्वयं कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के ही विचार करने का विषय है। दरअसल कांग्रेस की सबसे बड़ी दुर्बलता यही है कि वह अपने बड़े-बड़े नेताओं की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश नहीं लगा पाती।
कांग्रेस का भविष्य क्या है इस बारे में हम कोई अटकलबाजी नहीं करना चाहते और न कोई तात्कालिक निर्णय देना ही उचित समझते। तथापि वंशवाद को लेकर भ्रम का जो कुहासा रचा गया है उसे साफ करना इसलिए जरूरी है कि राजनीतिक इतिहास की सही तस्वीर सामने आ सके। जो लोग पंडित नेहरू से लेकर अब तक की चर्चा उठाते हैं वे एक लंबी श्रृंखला की कुछ कडिय़ों को या तो भुला देते हैं या उनके बारे में अनजान बने रहते हैं। हमारा मानना है कि गत सड़सठ वर्षों में ऐसे कम से कम दर्जन मौके आए हैं जब नेहरू-गांधी परिवार के वंशवाद को चुनौती दी गई या राजनीतिक परिदृश्य पर परिवार ने कोई भूमिका नहीं निभाई। इन कडिय़ों को जोडऩे से बात साफ हो सकेगी।
1. इतिहास के अध्येता जानते हैं कि कांग्रेस के 1950 के नासिक अधिवेशन के दौरान पंडित नेहरू के नेतृत्व को चुनौती देने की पूरी तैयारी कर ली गई थी। उस वक्त बंबई से नासिक की यात्रा करते हुए जनता ने पंडितजी का जैसा अद्भुत स्वागत किया उससे सबको यह समझ आ गया कि पंडित नेहरू अप्रतिम जननायक हैं एवं उन्हें अपदस्थ करना कांग्रेस के लिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।
2. सन् 1951 में एक बार फिर पंडित नेहरू के नेतृत्व को चुनौती देने की योजना बनी। तत्कालीन सीपी एंड बरार प्रांत के गृहमंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने पंडित नेहरू के खिलाफ खुला बयान दिया। योजना थी कि आठ मुख्यमंत्री उनके समर्थन में सामने आएंगे और बदलाव को अंजाम दिया जा सकेगा, लेकिन जनसामान्य में एवं कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच मिश्राजी के बयान की प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई। उन्हें पीछे से प्रश्रय देने वाले नेताओं के हाथ-पांव फूल गए। परिणामत: मिश्रजी को बलि का बकरा बनाते हुए पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। वे 1952 में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़े और बुरी तरह हारे। आगे चलकर 1962 में इंदिराजी ने उनका पुनर्वास किया।
3. 1954 व 56 इत्यादि वर्षों में भी पंडित नेहरू ने स्वेच्छा से पद त्याग की पेशकश की। भारतीय जनमानस ने इसे स्वीकार नहीं किया। उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहोवर तक ने नेहरूजी को निजी पत्र लिखा कि विश्व के राजनीतिक मंच पर आपकी सेवाओं की आवश्यकता है और आपको इस्तीफा देने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। अमेरिकी और सोवियत- इन दो ध्रुवों के बीच नेहरू के नेतृत्व में भारत जो संतुलनकारी भूमिका निभा रहा था उसका महत्व विश्व समुदाय जान रहा था।
4. 1962 के आम चुनावों के पहले चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी खड़ी कर ली थी। उसे टाटा-बिड़ला जैसे उद्योगपतियों और राजा-महाराजाओं का सक्रिय समर्थन प्राप्त था। राजाजी तो स्वयं प्रकाण्ड विद्वान और चतुर राजनीतिज्ञ थे। वे गांधीजी के समधी भी थे। मीनू मसानी जैसे बहुत से पुराने कांग्रेसी उनके साथ आ गए थे। इस सबके बावजूद स्वतंत्र पार्टी कांग्रेस की सत्ता समाप्त नहीं कर सकी। पंडित नेहरू का नेतृत्व कायम रहा आया।
5. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद देश का मनोबल गिरा हुआ था। उस गंभीर घड़ी में भी पंडित नेहरू को हटाने की बात किसी ने नहीं सोची।
6. ठीक पचास साल पहले 27 मई 1964 को पंडित नेहरू का निधन हुआ। यह सामान्य सोच थी कि नेहरूजी के बाद लाल बहादुर शास्त्री ही उनके उत्तराधिकारी बनेंगे और वही हुआ। उस समय इंदिराजी की सत्ता की राजनीति में आने की कोई इच्छा नहीं थी, लेकिन उन्होंने मंत्री पद सिर्फ इसलिए स्वीकार किया कि वे उसके वेतन से अपना परिवार चला सकेंगी। इसके तमाम साक्ष्य प्रकाशित हैं।
7. अगर 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में शास्त्रीजी का आकस्मिक निधन न हुआ होता तो इंदिराजी के प्रधानमंत्री बन पाने का सवाल ही नहीं उठता था। यह भी प्रकट तथ्य है कि इंदिराजी को प्रधानमंत्री बनाया कामराज एवं अन्य वरिष्ठ कांग्रेसियों ने क्योंकि वे मोरारजी भाई को इस पद पर नहीं देखना चाहते थे।
8. तीन साल बीतते न बीतते इंदिराजी के इन्हीं प्रस्तावकों ने उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटाने का खेल रचा। लेकिन इसमें वे सफल नहीं हो पाए। डॉ. जाकिर हुसैन की मृत्यु से रिक्त राष्ट्रपति पद पर इंदिरा समर्थित उम्मीदवार वी.वी. गिरी ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को थोड़े से अंतर से पराजित कर दिया और इंदिराजी का सिक्का चलने लगा।
9. 1977 में गैरकांग्रेसियों के हाथ एक बड़ा मौका लगा जब आम चुनाव में इंदिराजी पराजित हुईं और मोरारजी देसाई जनता पार्टी के प्रधानमंत्री बने। वे अपनी सरकार पूरे पांच साल क्यों नहीं चला पाए और नेहरू-गांधी वंश को हाशिए से बाहर क्यों न कर पाए? इसका जवाब जनता सरकार में शामिल नेताओं से पूछा जाना चाहिए।
10. 1989 में राजीव गांधी चुनाव हार चुके थे। पहले वी.पी. सिंह, फिर चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने। ये अगर अपनी सरकार पूरे पांच साल नहीं चला पाए तो इसमें किसका दोष है?
11. 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद पी.वी. नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री बने। वे पूरे पांच साल काबिज भी रहे। इसके बावजूद कथित वंशवाद क्यों समाप्त नहीं हुआ?
12. 1996 से 99 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी, एच.डी. देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री हुए- इन सबने क्या किया?
13. सोनिया गांधी तो सक्रिय राजनीति से कोसों दूर थीं। उन्होंने 1998 में आकर अध्यक्ष पद संभाला। उनके पहले सीताराम केसरी अध्यक्ष थे। उधर 1999 में वाजपेयीजी पांच साल के लिए आ चुके थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि 2004 में और दुबारा 2009 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी?
उपरोक्त तथ्य सिद्ध करते हैं कि यदि नेहरू-गांधी परिवार का कथित वंशवाद चल रहा है तो उसका श्रेय परिवार को नहीं, बल्कि उन लोगों को है जिनकी अपनी संकुचित राजनीति से जनता का मोहभंग होकर ''परिवार" को बार-बार आगे आने का मौका मिल जाता है।
प्रसंगवश यह कह देना चाहिए कि मोतीलाल नेहरू से लेकर सोनिया गांधी तक स्वाधीनता आंदोलन में और फिर स्वाधीन भारत की राजनीति में इस परिवार ने बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाई है, तकलीफें उठाई हैं, कुर्बानियां भी दी हैं; जब जनता उनसे नाखुश हुई है तो उसने इनके नेतृत्व को खारिज करने में भी कोई संकोच नहीं किया, लेकिन उन नेताओं को क्या कहिएगा जिन्होंने मात्र दस-बीस साल के राजनैतिक कॅरियर का उपयोग अपने परिवारजनों को सत्तासुख हासिल करवाने में बेशर्मी के साथ किया? कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टियां और क्षेत्रीय दल- सब इस व्याधि से ग्रस्त हैं।
यह जानी-मानी बात है कि भारतीय राजनीति में वंशवाद की जब भी बात होती है तो उसका एकमात्र निशाना गांधी-नेहरू परिवार ही होता है। पंडित नेहरू से लेकर राहुल गांधी बल्कि प्रियंका गांधी और उनके बच्चों तक को लेकर लक्ष्य कर जितनी भी फिकरेबाजी की जाती है उसमें कुछ प्रासंगिक तथ्यों को अनदेखा कर दिया जाता है। कांग्रेसविरोधी आरोप लगाएं, फिकरेबाजी करें, चुटकुले बनाएं, यह सब एक हद तक समझ आता है, लेकिन जब चिदम्बरम जैसे कांग्रेसी भी उसी रौ में बहने लगे तो फिर शंका होती है कि राजनीति इनके लिए साधन है या साध्य? कांग्रेस-विरोधियों द्वारा कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगे तो कांग्रेसियों के पास पलटवार करने के लिए मसाले की कोई कमी नहीं होना चाहिए। वे सही तरीके से अपने तीर क्यों नहीं चला पाते या चलाना नहीं चाहते, यह तो स्वयं कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के ही विचार करने का विषय है। दरअसल कांग्रेस की सबसे बड़ी दुर्बलता यही है कि वह अपने बड़े-बड़े नेताओं की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश नहीं लगा पाती।
कांग्रेस का भविष्य क्या है इस बारे में हम कोई अटकलबाजी नहीं करना चाहते और न कोई तात्कालिक निर्णय देना ही उचित समझते। तथापि वंशवाद को लेकर भ्रम का जो कुहासा रचा गया है उसे साफ करना इसलिए जरूरी है कि राजनीतिक इतिहास की सही तस्वीर सामने आ सके। जो लोग पंडित नेहरू से लेकर अब तक की चर्चा उठाते हैं वे एक लंबी श्रृंखला की कुछ कडिय़ों को या तो भुला देते हैं या उनके बारे में अनजान बने रहते हैं। हमारा मानना है कि गत सड़सठ वर्षों में ऐसे कम से कम दर्जन मौके आए हैं जब नेहरू-गांधी परिवार के वंशवाद को चुनौती दी गई या राजनीतिक परिदृश्य पर परिवार ने कोई भूमिका नहीं निभाई। इन कडिय़ों को जोडऩे से बात साफ हो सकेगी।
1. इतिहास के अध्येता जानते हैं कि कांग्रेस के 1950 के नासिक अधिवेशन के दौरान पंडित नेहरू के नेतृत्व को चुनौती देने की पूरी तैयारी कर ली गई थी। उस वक्त बंबई से नासिक की यात्रा करते हुए जनता ने पंडितजी का जैसा अद्भुत स्वागत किया उससे सबको यह समझ आ गया कि पंडित नेहरू अप्रतिम जननायक हैं एवं उन्हें अपदस्थ करना कांग्रेस के लिए अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।
2. सन् 1951 में एक बार फिर पंडित नेहरू के नेतृत्व को चुनौती देने की योजना बनी। तत्कालीन सीपी एंड बरार प्रांत के गृहमंत्री पं. द्वारिका प्रसाद मिश्र ने पंडित नेहरू के खिलाफ खुला बयान दिया। योजना थी कि आठ मुख्यमंत्री उनके समर्थन में सामने आएंगे और बदलाव को अंजाम दिया जा सकेगा, लेकिन जनसामान्य में एवं कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच मिश्राजी के बयान की प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई। उन्हें पीछे से प्रश्रय देने वाले नेताओं के हाथ-पांव फूल गए। परिणामत: मिश्रजी को बलि का बकरा बनाते हुए पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। वे 1952 में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़े और बुरी तरह हारे। आगे चलकर 1962 में इंदिराजी ने उनका पुनर्वास किया।
3. 1954 व 56 इत्यादि वर्षों में भी पंडित नेहरू ने स्वेच्छा से पद त्याग की पेशकश की। भारतीय जनमानस ने इसे स्वीकार नहीं किया। उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहोवर तक ने नेहरूजी को निजी पत्र लिखा कि विश्व के राजनीतिक मंच पर आपकी सेवाओं की आवश्यकता है और आपको इस्तीफा देने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। अमेरिकी और सोवियत- इन दो ध्रुवों के बीच नेहरू के नेतृत्व में भारत जो संतुलनकारी भूमिका निभा रहा था उसका महत्व विश्व समुदाय जान रहा था।
4. 1962 के आम चुनावों के पहले चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने स्वतंत्र पार्टी खड़ी कर ली थी। उसे टाटा-बिड़ला जैसे उद्योगपतियों और राजा-महाराजाओं का सक्रिय समर्थन प्राप्त था। राजाजी तो स्वयं प्रकाण्ड विद्वान और चतुर राजनीतिज्ञ थे। वे गांधीजी के समधी भी थे। मीनू मसानी जैसे बहुत से पुराने कांग्रेसी उनके साथ आ गए थे। इस सबके बावजूद स्वतंत्र पार्टी कांग्रेस की सत्ता समाप्त नहीं कर सकी। पंडित नेहरू का नेतृत्व कायम रहा आया।
5. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद देश का मनोबल गिरा हुआ था। उस गंभीर घड़ी में भी पंडित नेहरू को हटाने की बात किसी ने नहीं सोची।
6. ठीक पचास साल पहले 27 मई 1964 को पंडित नेहरू का निधन हुआ। यह सामान्य सोच थी कि नेहरूजी के बाद लाल बहादुर शास्त्री ही उनके उत्तराधिकारी बनेंगे और वही हुआ। उस समय इंदिराजी की सत्ता की राजनीति में आने की कोई इच्छा नहीं थी, लेकिन उन्होंने मंत्री पद सिर्फ इसलिए स्वीकार किया कि वे उसके वेतन से अपना परिवार चला सकेंगी। इसके तमाम साक्ष्य प्रकाशित हैं।
7. अगर 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में शास्त्रीजी का आकस्मिक निधन न हुआ होता तो इंदिराजी के प्रधानमंत्री बन पाने का सवाल ही नहीं उठता था। यह भी प्रकट तथ्य है कि इंदिराजी को प्रधानमंत्री बनाया कामराज एवं अन्य वरिष्ठ कांग्रेसियों ने क्योंकि वे मोरारजी भाई को इस पद पर नहीं देखना चाहते थे।
8. तीन साल बीतते न बीतते इंदिराजी के इन्हीं प्रस्तावकों ने उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटाने का खेल रचा। लेकिन इसमें वे सफल नहीं हो पाए। डॉ. जाकिर हुसैन की मृत्यु से रिक्त राष्ट्रपति पद पर इंदिरा समर्थित उम्मीदवार वी.वी. गिरी ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को थोड़े से अंतर से पराजित कर दिया और इंदिराजी का सिक्का चलने लगा।
9. 1977 में गैरकांग्रेसियों के हाथ एक बड़ा मौका लगा जब आम चुनाव में इंदिराजी पराजित हुईं और मोरारजी देसाई जनता पार्टी के प्रधानमंत्री बने। वे अपनी सरकार पूरे पांच साल क्यों नहीं चला पाए और नेहरू-गांधी वंश को हाशिए से बाहर क्यों न कर पाए? इसका जवाब जनता सरकार में शामिल नेताओं से पूछा जाना चाहिए।
10. 1989 में राजीव गांधी चुनाव हार चुके थे। पहले वी.पी. सिंह, फिर चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने। ये अगर अपनी सरकार पूरे पांच साल नहीं चला पाए तो इसमें किसका दोष है?
11. 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद पी.वी. नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री बने। वे पूरे पांच साल काबिज भी रहे। इसके बावजूद कथित वंशवाद क्यों समाप्त नहीं हुआ?
12. 1996 से 99 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी, एच.डी. देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री हुए- इन सबने क्या किया?
13. सोनिया गांधी तो सक्रिय राजनीति से कोसों दूर थीं। उन्होंने 1998 में आकर अध्यक्ष पद संभाला। उनके पहले सीताराम केसरी अध्यक्ष थे। उधर 1999 में वाजपेयीजी पांच साल के लिए आ चुके थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि 2004 में और दुबारा 2009 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी?
उपरोक्त तथ्य सिद्ध करते हैं कि यदि नेहरू-गांधी परिवार का कथित वंशवाद चल रहा है तो उसका श्रेय परिवार को नहीं, बल्कि उन लोगों को है जिनकी अपनी संकुचित राजनीति से जनता का मोहभंग होकर ''परिवार" को बार-बार आगे आने का मौका मिल जाता है।
प्रसंगवश यह कह देना चाहिए कि मोतीलाल नेहरू से लेकर सोनिया गांधी तक स्वाधीनता आंदोलन में और फिर स्वाधीन भारत की राजनीति में इस परिवार ने बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाई है, तकलीफें उठाई हैं, कुर्बानियां भी दी हैं; जब जनता उनसे नाखुश हुई है तो उसने इनके नेतृत्व को खारिज करने में भी कोई संकोच नहीं किया, लेकिन उन नेताओं को क्या कहिएगा जिन्होंने मात्र दस-बीस साल के राजनैतिक कॅरियर का उपयोग अपने परिवारजनों को सत्तासुख हासिल करवाने में बेशर्मी के साथ किया? कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टियां और क्षेत्रीय दल- सब इस व्याधि से ग्रस्त हैं।
देशबन्धु में 30 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित