महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्टूबर को
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत कर एक
महत्वपूर्ण मुद्दे पर देशवासियों का ध्यान आकृष्ट किया है। उस दिन स्वयं
प्रधानमंत्री हाथ में झाड़ू लेकर सड़क पर आए जिसका अनुसरण उनके मंत्रियों,
मुख्यमंत्रियों और सरकारी अफसरों ने भी कर सांकेतिक रूप से सही संदेश
दिया। हम इस पहल की सराहना करते हैं यद्यपि शुरूआती उत्साह के बाद अभियान
की क्या गति होगी और क्या परिणाम निकलेंगे, पूर्व अनुभवोंं के आधार पर इसका
अनुमान लगाना कठिन नहीं है। दरअसल, भारत एक उत्सवप्रिय देश है जहां अवसर
कोई भी हो, उसे आनन-फानन में आडंबर में तब्दील किया जा सकता है। ऐसे मौकों
पर फोटोग्राफरों, पत्रकारों और टी.वी. कैमरों के जमावड़े से माहौल एक
दिव्य अनुभूति में परिणत हो जाता है। सवाल यही है कि क्या प्रधानमंत्री की
इस पहल को पर्याप्त गंभीरता से अमल में लाया जा सकता है?
हमारे देश को स्वच्छ-निर्मल बनाने का, गंदगी और कूड़ा-करकट से मुक्त करने का, जनता में नागरिकता बोध जागृत करने का यह पहला प्रयत्न नहीं हैं। पाठकों को स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं है कि यूपीए सरकार के दौरान विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने की लिए अतुल्य भारत नाम से जो अभियान चलाया गया था उसमें आमिर खान बार-बार लोगों को सभ्य आचरण करने के लिए प्रेरित करते नजर आते थे। यह अभियान लंबे समय तक चला, लेकिन इसका वांछित असर नहीं हुआ। यूपीए सरकार ने ही निर्मल भारत अभियान की भी शुरूआत की थी। हर साल राष्ट्रपति के हाथों देश के दर्जनों कथित निर्मल ग्रामों को पुरस्कृत भी किया जाता था, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही होती थी। मैंने सुना है कि अब एक सरकारी आदेश के द्वारा निर्मल भारत का ही नाम बदलकर स्वच्छ भारत कर दिया गया है। उस मद में जो बजट प्रावधान किया गया था, वह नए नाम पर हस्तांतरित कर दिया गया है। दूसरे शब्दों में योजना वही पुरानी, नाम नया!
प्रधानमंत्री अभियान को एक नया नाम देकर श्रेय लेना चाहते हैं तो इसमें कोई खास बुराई नहीं है, क्योंकि कुछ भी हो समस्या तो गंभीर है और उस पर ध्यान देना भी उतना ही आवश्यक है। श्री मोदी ने गांधी जयंती के बाद नेहरू जयंती और इंदिरा जयंती से भी इस कार्यक्रम को जोड़ दिया है। उसके राजनीतिक निहितार्थ हैं जिनका संज्ञान लेना चाहिए। श्री मोदी पर यह आरोप लग सकता है कि वे गांधी, नेहरू और इंदिरा जैसी महान शख्सियतों के योगदान को एक छोटे से दायरे में समेट कर उनका कद छोटा करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा करने से श्री मोदी का कद नहीं बढ़ेगा। उनकी राजनीति इन राष्ट्रीय नेताओं से एकदम विपरीत दिशा में है। इसलिए वे इनका नाम न भी लेते तो काम चल जाता। भाजपा के प्रधानमंत्री ने अपने प्रेरणा पुरुषों याने वी.डी.सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी अथवा दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर अभियान की शुरूआत की होती तो शायद उनकी पार्टी के भीतर भी बेहतर संदेश जाता।
बहरहाल, आइए इस मुद्दे पर राजनीति से अलग हटकर विचार करें। महात्मा गांधी के बारे में पूरी दुनिया जानती है कि वे आधी धोती पहनकर रहते थे। वे कागज के छोटे-से-छोटे पुर्जे को भी संभालकर रखते थे ताकि छोटे-मोटे संदेश उस पर लिख सकें। वे जमीन पर गिरी आलपिन भी उठाकर सहेज कर रख देते थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में हजारों पत्र लिखे होंगे किन्तु अधिकतर पत्र पोस्टकार्ड पर लिखे जाते थे। उनके जीवन का एक रोचक प्रसंग यहां एक बार फिर याद कर लेना उचित होगा। सुप्रसिद्ध लेखक जैनेन्द्र कुमार ने देश और समाज की स्थितियों पर चिंता व्यक्त करते हुए एक लंबा पत्र जब उन्हें लिखा तो बापू ने पोस्टकार्ड पर दो लाइन में उन्हें उत्तर लिखा भेजा कि- तुम अपने हाथों से पाखाने की सफाई शुरू कर दो, तुम्हारी सारी चिंताएं समाप्त हो जाएगी और आगे की राह मिल जाएगी। कहने का आशय यह कि गांधीजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। यह सत्य उनके नाम की माला जपने वाले हर व्यक्ति को याद रखना चाहिए।
यह देखें कि भारत में स्वच्छता की समस्या इतनी बड़ी क्यों है और क्या यह सिर्फ भारत में ही है? इस समस्या के मूल में कौन से कारण हैं और क्या यह इनका निदान सिर्फ सार्वजनिक स्थलों पर झाड़ू लगाने से किया जा सकता है? गांधीजी ने तो कहा था कि यह धरती हर व्यक्ति की आवश्यकताओं को तो पूरी कर सकती है, लेकिन एक व्यक्ति के भी लालच को पूरा करने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। उनका आशय था कि हर व्यक्ति को अपनी आवश्यकता सीमित रखना चाहिए ताकि पृथ्वी के संसाधनों का अनावश्यक दोहन न हो। लेकिन आज इस बात को कौन मान रहा है और क्या यही सबसे बड़ा कारण नहीं है कि भारत और अन्य देशों में कचरों के पहाड़ दिन पर दिन ऊंचे होते जा रहे हैं?
एक सामान्य उदाहरण लीजिए। पहले हम बाजार जाते थे तो हाथ में या सायकल के हैंडिल में टांग कर एक झोला अवश्य ले जाते थे। उसी में सब्जी-किराना आ जाता था। आज हर जगह, हर वक्त प्लास्टिक की थैलियां हमें क्यों चाहिए? मैं देखता हूं कि रेडीमेड कपड़ों की पैकिंग में दुनिया भर का फिजूल सामान लगता है। झिल्ली वाला कागज, आलपिन, क्लिप, पॉलीथीन, मोटे कागज पर छपे टेग, कार्ड बोर्ड- इन सबकी क्या जरूरत है? घर आकर इन्हें फेंकना ही पड़ता है। शादी-ब्याह की साडिय़ों आदि में भी तरह-तरह से सजावट की जाती है। उसमें भी फालतू सामान लगता है। अगर यह तय कर लिया जाए कि कपड़े हों या अन्य कोई सामग्री, उसकी पैकिंग न्यूनतम की जाएगी तो समय बचेगा, साधन बचेंगे और पैसा भी बचेगा। एक छोटा सा उदाहरण और लीजिए। शोरूम से जब नई कार बाहर निकलती है तो उसमें रिबिन क्यों लगाए जाते हैं। ये रिबिन बाद में किस काम में आते हैं?
इस तथ्य पर गौर करना उचित होगा कि पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में दुनिया में पैकेजिंग व्यवसाय बहुत तेजी के साथ बढ़ा है। इसके चलते कागज, एल्युमीनियम, लकड़ी, प्लास्टिक और भांति-भांति के रसायन- इनके उपभोग में भी बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। जो कपनियां पैकेजिंग में काम आने वाली सामग्री का निर्माण या उत्पादन करती हैं वे तो अरबपति और खरबपति हो गए हैं, लेकिन इन तमाम सामग्रियों का एक बार के बाद दुबारा उपयोग संभव नहीं होता और वही सारा कचरा नालियों में सड़क किनारों पर, रेल पटरियों के किनारे बिखरा हुआ देखने मिलता है। यूं तो रिसाइक्ंिलग की बहुत बात की जाती है, लेकिन उसका शायद पांच प्रतिशत भी रिसाइकल नहीं हो पाता। फिर सवाल यह भी उठता है कि इन कचरे को आप इकट्ठा कर भी लें तो उसे आगे कहां भेजा जाए। आजकल विशालकाय गड्ढे खोदकर उनमें कचरा भरा जा रहा है, लेकिन वह भी कब तक? उसमें भी वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण फैलने का खतरा विद्यमान है।
इधर गांवों में शौचालय निर्माण की बात जोर-शोर से हो रही है। उसकी शहरों में जरूरत तो निश्चित है, लेकिन गांवों में खेतों के बीच रहने वालों के लिए पक्के शौचालय एक छोटी सीमा तक ही उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। शहरों की समस्या यह है कि नगरपालिकाओं का काम-काज बेढब चलता है। उन्हें प्रदेश सरकार के इशारों पर नाचना पड़ता है। सही अर्थों में स्वायत्तता नहीं है इसलिए नगरपालिका या नगरनिगम में कहीं भी जिम्मेदारी का अहसास देखने नहीं मिलता। फिर सफाई कर्मचारियों के प्रति समाज का जो रवैया है वह भी किसी से छुपा नहीं है। जहां तक गांव की बात है वहां खेतों में विसर्जित मलमूत्र खाद के काम आता है यह सामान्य समझ है। कुल मिलाकर यदि प्रधानमंत्री अपने स्वच्छ भारत अभियान को सफल होते देखना चाहते हैं तो इसके लिए उन्हें समारोहप्रियता छोड़कर ठोस और दूरगामी नीति बनाने पर ध्यान देना होगा।
हमारे देश को स्वच्छ-निर्मल बनाने का, गंदगी और कूड़ा-करकट से मुक्त करने का, जनता में नागरिकता बोध जागृत करने का यह पहला प्रयत्न नहीं हैं। पाठकों को स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं है कि यूपीए सरकार के दौरान विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने की लिए अतुल्य भारत नाम से जो अभियान चलाया गया था उसमें आमिर खान बार-बार लोगों को सभ्य आचरण करने के लिए प्रेरित करते नजर आते थे। यह अभियान लंबे समय तक चला, लेकिन इसका वांछित असर नहीं हुआ। यूपीए सरकार ने ही निर्मल भारत अभियान की भी शुरूआत की थी। हर साल राष्ट्रपति के हाथों देश के दर्जनों कथित निर्मल ग्रामों को पुरस्कृत भी किया जाता था, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही होती थी। मैंने सुना है कि अब एक सरकारी आदेश के द्वारा निर्मल भारत का ही नाम बदलकर स्वच्छ भारत कर दिया गया है। उस मद में जो बजट प्रावधान किया गया था, वह नए नाम पर हस्तांतरित कर दिया गया है। दूसरे शब्दों में योजना वही पुरानी, नाम नया!
प्रधानमंत्री अभियान को एक नया नाम देकर श्रेय लेना चाहते हैं तो इसमें कोई खास बुराई नहीं है, क्योंकि कुछ भी हो समस्या तो गंभीर है और उस पर ध्यान देना भी उतना ही आवश्यक है। श्री मोदी ने गांधी जयंती के बाद नेहरू जयंती और इंदिरा जयंती से भी इस कार्यक्रम को जोड़ दिया है। उसके राजनीतिक निहितार्थ हैं जिनका संज्ञान लेना चाहिए। श्री मोदी पर यह आरोप लग सकता है कि वे गांधी, नेहरू और इंदिरा जैसी महान शख्सियतों के योगदान को एक छोटे से दायरे में समेट कर उनका कद छोटा करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा करने से श्री मोदी का कद नहीं बढ़ेगा। उनकी राजनीति इन राष्ट्रीय नेताओं से एकदम विपरीत दिशा में है। इसलिए वे इनका नाम न भी लेते तो काम चल जाता। भाजपा के प्रधानमंत्री ने अपने प्रेरणा पुरुषों याने वी.डी.सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी अथवा दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर अभियान की शुरूआत की होती तो शायद उनकी पार्टी के भीतर भी बेहतर संदेश जाता।
बहरहाल, आइए इस मुद्दे पर राजनीति से अलग हटकर विचार करें। महात्मा गांधी के बारे में पूरी दुनिया जानती है कि वे आधी धोती पहनकर रहते थे। वे कागज के छोटे-से-छोटे पुर्जे को भी संभालकर रखते थे ताकि छोटे-मोटे संदेश उस पर लिख सकें। वे जमीन पर गिरी आलपिन भी उठाकर सहेज कर रख देते थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में हजारों पत्र लिखे होंगे किन्तु अधिकतर पत्र पोस्टकार्ड पर लिखे जाते थे। उनके जीवन का एक रोचक प्रसंग यहां एक बार फिर याद कर लेना उचित होगा। सुप्रसिद्ध लेखक जैनेन्द्र कुमार ने देश और समाज की स्थितियों पर चिंता व्यक्त करते हुए एक लंबा पत्र जब उन्हें लिखा तो बापू ने पोस्टकार्ड पर दो लाइन में उन्हें उत्तर लिखा भेजा कि- तुम अपने हाथों से पाखाने की सफाई शुरू कर दो, तुम्हारी सारी चिंताएं समाप्त हो जाएगी और आगे की राह मिल जाएगी। कहने का आशय यह कि गांधीजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। यह सत्य उनके नाम की माला जपने वाले हर व्यक्ति को याद रखना चाहिए।
यह देखें कि भारत में स्वच्छता की समस्या इतनी बड़ी क्यों है और क्या यह सिर्फ भारत में ही है? इस समस्या के मूल में कौन से कारण हैं और क्या यह इनका निदान सिर्फ सार्वजनिक स्थलों पर झाड़ू लगाने से किया जा सकता है? गांधीजी ने तो कहा था कि यह धरती हर व्यक्ति की आवश्यकताओं को तो पूरी कर सकती है, लेकिन एक व्यक्ति के भी लालच को पूरा करने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। उनका आशय था कि हर व्यक्ति को अपनी आवश्यकता सीमित रखना चाहिए ताकि पृथ्वी के संसाधनों का अनावश्यक दोहन न हो। लेकिन आज इस बात को कौन मान रहा है और क्या यही सबसे बड़ा कारण नहीं है कि भारत और अन्य देशों में कचरों के पहाड़ दिन पर दिन ऊंचे होते जा रहे हैं?
एक सामान्य उदाहरण लीजिए। पहले हम बाजार जाते थे तो हाथ में या सायकल के हैंडिल में टांग कर एक झोला अवश्य ले जाते थे। उसी में सब्जी-किराना आ जाता था। आज हर जगह, हर वक्त प्लास्टिक की थैलियां हमें क्यों चाहिए? मैं देखता हूं कि रेडीमेड कपड़ों की पैकिंग में दुनिया भर का फिजूल सामान लगता है। झिल्ली वाला कागज, आलपिन, क्लिप, पॉलीथीन, मोटे कागज पर छपे टेग, कार्ड बोर्ड- इन सबकी क्या जरूरत है? घर आकर इन्हें फेंकना ही पड़ता है। शादी-ब्याह की साडिय़ों आदि में भी तरह-तरह से सजावट की जाती है। उसमें भी फालतू सामान लगता है। अगर यह तय कर लिया जाए कि कपड़े हों या अन्य कोई सामग्री, उसकी पैकिंग न्यूनतम की जाएगी तो समय बचेगा, साधन बचेंगे और पैसा भी बचेगा। एक छोटा सा उदाहरण और लीजिए। शोरूम से जब नई कार बाहर निकलती है तो उसमें रिबिन क्यों लगाए जाते हैं। ये रिबिन बाद में किस काम में आते हैं?
इस तथ्य पर गौर करना उचित होगा कि पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में दुनिया में पैकेजिंग व्यवसाय बहुत तेजी के साथ बढ़ा है। इसके चलते कागज, एल्युमीनियम, लकड़ी, प्लास्टिक और भांति-भांति के रसायन- इनके उपभोग में भी बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। जो कपनियां पैकेजिंग में काम आने वाली सामग्री का निर्माण या उत्पादन करती हैं वे तो अरबपति और खरबपति हो गए हैं, लेकिन इन तमाम सामग्रियों का एक बार के बाद दुबारा उपयोग संभव नहीं होता और वही सारा कचरा नालियों में सड़क किनारों पर, रेल पटरियों के किनारे बिखरा हुआ देखने मिलता है। यूं तो रिसाइक्ंिलग की बहुत बात की जाती है, लेकिन उसका शायद पांच प्रतिशत भी रिसाइकल नहीं हो पाता। फिर सवाल यह भी उठता है कि इन कचरे को आप इकट्ठा कर भी लें तो उसे आगे कहां भेजा जाए। आजकल विशालकाय गड्ढे खोदकर उनमें कचरा भरा जा रहा है, लेकिन वह भी कब तक? उसमें भी वायु प्रदूषण व जल प्रदूषण फैलने का खतरा विद्यमान है।
इधर गांवों में शौचालय निर्माण की बात जोर-शोर से हो रही है। उसकी शहरों में जरूरत तो निश्चित है, लेकिन गांवों में खेतों के बीच रहने वालों के लिए पक्के शौचालय एक छोटी सीमा तक ही उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। शहरों की समस्या यह है कि नगरपालिकाओं का काम-काज बेढब चलता है। उन्हें प्रदेश सरकार के इशारों पर नाचना पड़ता है। सही अर्थों में स्वायत्तता नहीं है इसलिए नगरपालिका या नगरनिगम में कहीं भी जिम्मेदारी का अहसास देखने नहीं मिलता। फिर सफाई कर्मचारियों के प्रति समाज का जो रवैया है वह भी किसी से छुपा नहीं है। जहां तक गांव की बात है वहां खेतों में विसर्जित मलमूत्र खाद के काम आता है यह सामान्य समझ है। कुल मिलाकर यदि प्रधानमंत्री अपने स्वच्छ भारत अभियान को सफल होते देखना चाहते हैं तो इसके लिए उन्हें समारोहप्रियता छोड़कर ठोस और दूरगामी नीति बनाने पर ध्यान देना होगा।
देशबन्धु में 16 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित
पिछली सरकारों की योजनायें कितनी जनता तक पहुंची कहा नहीं जा सकता। स्वच्छ भारत अभियान से लोग जुड़ रहे हैं। अभी अभी सचिन तेंदुलकर प्रधानमंत्री से मिले और एक गाँव को गोद लेने पर बात हुई। लीडरशिप की कमी को मोदी ने पूरा किया है ।
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