राष्ट्रीय पुस्तक न्यास याने नेशनल बुक
ट्रस्ट और छत्तीसगढ़ राज्य संसाधन केंद्र ने पिछले दिनों रायपुर के निकट
चंपारन में नवसाक्षर साहित्य लेखन पर एक कार्यशाला का आयोजन किया। मुझे
इसका निमंत्रण मिला तो इस बहाने एक लगभग अछूते विषय पर विचार करने का अवसर
भी हाथ आया। भारत में साक्षरता अभियान एक लंबे समय से चल रहा है। बहुत पहले
याने लगभग साठ वर्ष पूर्व राज्यों में प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम चलता
था। ऐसा मुझे ध्यान आता है कि पुराने मध्यप्रदेश (तब के सीपी एवं बरार) में
नवसाक्षर प्रौढ़ों के लिए प्रदीप नाम की पत्रिका भी प्रकाशित होती थी।
तीन-चार दशक तक तो यह कार्यक्रम लस्टम-पस्टम चलता रहा। इसमें गति आई 1990
के आसपास जब केरल के एर्नाकुलम जिले के उत्साही युवा जिलाधीश ने अपने जिले
को संपूर्ण साक्षर करने की मुहिम शुरू की तथा इसमें केरल शास्त्र साहित्य
परिषद का सहयोग हासिल किया। जैसा कि हम जानते हैं बहुत जल्दी ही एर्नाकुलम
को देश का पहला संपूर्ण साक्षर जिला व केरल को पहला संपूर्ण साक्षर प्रांत
बनने का गौरव हासिल हुआ।
एर्नाकुलम की सफलता से उत्साहित होकर देश में साक्षरता अभियान को एक नई ऊर्जा मिली। इस काम को गति देने के लिए एक सुव्यवस्थित ढांचा बनाया गया। अनिल बोर्डिया, लक्ष्मीधर मिश्रा, सुदीप बनर्जी तथा जगमोहन सिंह राजू जैसे ध्येयनिष्ठ अधिकारियों ने अपने-अपने समय में देश को संपूर्ण साक्षर बनाने के अभियान पर अथक परिश्रम किया। अभियान का नाम समय-समय पर बदलता रहा। स्वरूप में भी यदाकदा परिवर्तन हुए, लेकिन अभियान की मूल भावना को बरकरार रखा गया। इसका ही परिणाम है कि साक्षरता दर में निरंतर वृद्धि हो रही है। यह दर पुरुषों में ज्यादा है, लेकिन महिलाएं भी अब बहुत पीछे नहीं हैं। आदिवासी अंचलों में, पहाड़ी इलाकों में, घुमंतू समाज में वृद्धि की दर अपेक्षित स्तर पर नहीं है, लेकिन इस ओर केन्द्र और राज्य सरकारों का ध्यान लगातार बना हुआ है। शासकीय योजनाओं में जो कमजोरियां अन्य क्षेत्रों में अमूमन देखने मिलती हैं वे कुछ हद तक यहां भी विद्यमान हैं लेकिन स्थिति निराशाजनक नहीं है।
यदि प्रारंभिक काल में साक्षरता का लक्ष्य व्यक्ति को महज अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान कराने तक सीमित था तो आज उसने एक बड़ा और महत्वाकांक्षी रूप ले लिया है। अब सिर्फ प्रौढ़ साक्षरता की बात नहीं होती। उसके साथ सतत् शिक्षा का मूल्य भी जोड़ दिया गया है। अनुभव से यह पाया गया कि अक्षर ज्ञान के बाद यदि नवसाक्षर की रुचि आगे पढऩे में न हुई तो वह वापस निरक्षरता की अंधेरी गुफा में लौट सकता है। दूसरे शब्दों में साक्षरता अभियान में जुटे कार्यकर्ताओं के सामने यह चुनौती भी है कि वे नवसाक्षरों को आगे पढऩे के लिए लगातार प्रोत्साहित करते रहें। ताकि एक बार साक्षर हमेशा के लिए शिक्षित। इसके साथ यह भी माना गया कि पढऩा-लिखना सीख जाना ही अपने आप में उद्देश्य नहीं है, बल्कि साक्षर होने का लाभ व्यक्ति के कौशल विकास में अर्थात् बेहतर आजीविका हासिल करने की भावना से युक्त होना चाहिए। इधर दो-तीन वर्षों में विशेषज्ञों ने साक्षरता के भीतर निहित अन्य संभावनाओं की भी पड़ताल की। फलस्वरूप चुनावी साक्षरता, वित्तीय साक्षरता, विधिक साक्षरता जैसी संज्ञाएं अभियान में प्रचलित हुईं।
कुल मिलाकर भारत में साक्षरता अभियान एक बुनियादी चुनौती का सामना करने के स्तर से उठकर नवसाक्षरों के लिए बेहतर संभावनाओं के द्वार खोलने वाले कार्यक्रम में परिवर्तित हो गया है। मुझे लगता है कि इतनी प्रगति के बाद भी चुनौतियों का अंत नहीं है। जिस समय दुनिया में लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था उस समय निरक्षरता जैसी कोई समस्या भी नहीं थी। लिपि और उसके बाद छापाखाने के आविष्कार के बाद समाज दो हिस्सों में बंटने लगा-साक्षर और निरक्षर। फिर वाचिक परंपरा और लिखित परंपरा दोनों अपने-अपने तरीके से विकसित होते गईं। आज के दौर में उपलब्ध तकनीकों के चलते एक नए किस्म का अलगाव पैदा हो गया है। एक बड़ा वर्ग है जो कम्प्यूटर-अज्ञानी है। जिसे कम्प्यूटर, इंटरनेट और स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करना न आए वह आधुनिक समय का निरक्षर कहलाने लगा है। इसीलिए इन दिनों शिक्षा और साक्षरता दोनों क्षेत्रों में सूचना प्रौद्योगिकी पर जोर दिया जाने लगा है।
जब बात नवसाक्षरों के लिए साहित्य रचने के लिए हो तो उसमें उपरोक्त बिन्दुओं का ध्यान रखना आवश्यक है। नवसाक्षरों के लिए साहित्य सृजन कार्य में अंतर्निहित और भी जटिलताएं हैं जिनको समझे बिना उनके लिए पाठ्य सामग्री सही ढंग से तैयार नहीं की जा सकती। भारत में खासकर हिन्दी भाषा में एक बड़ी कठिनाई है। अधिकतर हिन्दी लेखक हाथीदांत की मीनारों में रहते हैं। उनका लेखन जनसामान्य के लिए नहीं होता। यही वजह है कि हमारी अपनी भाषा में बच्चों तक के लिए रचनाएं लिखने को निकृष्ट कार्य माना जाता है और जो बाल साहित्य लिखते हैं उनकी कहीं कोई गिनती ही नहीं होती। इस मानसिकता के चलते नवसाक्षरों के लिए लिखना तो और भी बड़ी जोखिम उठाना है।
नवसाक्षर अबोध बालक नहीं होता। जिनके लिए साक्षरता अभियान चलाया गया है वे पन्द्रह से पैंतीस वर्ष तक या उससे भी अधिक आयु के होते हैं। जाहिर है कि ये नवसाक्षर वैचारिक परिपक्वता एवं अनुभव के भिन्न-भिन्न स्तरों पर हैं। इनके लिए उस तरह से पठन सामग्री तैयार नहीं की जा सकती जो स्कूल में कक्षा विशेष या आयु समूह विशेष के लिए तैयार होती है। ऐसे में प्रश्न उपस्थित होता है कि पन्द्रह और पैंतीस के आयु के बीच संतुलन कैसे साधा जाए। इन्हें अब क ख ग अथवा अमर घर चल के स्तर की पढ़ाई भी नहीं करवा सकते। इनके पास अनुभवों की थोड़ी बहुत पूंजी है। जीवन और जगत को इन्होंने खुली आंखों से देखा है। इनकी रुचि ऐसा साहित्य पढऩे में ही होगी जिसका तादात्म्य वे अपने अनुभव के साथ बैठा सकें। मुझे ध्यान आता है कि 1991-1992 में जब संपूर्ण साक्षरता अभियान की शुरूआत हुई थी तब पढ़ाई अ अनार का से न होकर म मकान का से शुरू होती थी। कालांतर में इसमें और भी परिवर्तन हुए।
नवसाक्षरों के अनुभव स्तर और मनोविज्ञान को समझकर लिखना एक सीढ़ी पार कर लेना है। इसके बाद सवाल पैदा होता है कि नवसाक्षर साहित्य में किस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाए। अनेक अध्यापकनुमा लेखक संस्कृतनिष्ठ, गरिष्ठ हिन्दी का प्रयोग करते हैं। इससे लेखक की विद्वता का आतंक भले ही तारी होता हो, पाठक के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। आवश्यकता इस बात की है कि विशेष कर नवसाक्षरों के लिए लिखते हुए आमफहम शब्दावली में अपनी बात कही जाए। मैं इस दृष्टि से प्रेमचंद और हरिशंकर परसाई को आदर्श मानता हूं। उनके लिखे में एक ओर जहां विचारों की गहराई है, वहीं दूसरी ओर उनकी भाषा तरल-सरल और बोधगम्य है। नवसाक्षर को लिखित भाषा से डर नहीं लगना चाहिए बल्कि वह उसमें डूब सके ऐसा आकर्षण होना चाहिए। यदि ऐसा कर लिया तो दूसरी सीढ़ी पार कर ली।
नवसाक्षर के लिए विषय चयन में भी रोचकता का ध्यान रखना आवश्यक है। वह जिन अनुभवों से दिन-प्रतिदिन गुजरता है उनके बारे में पढऩे में उसे अधिक रुचि होती है। वह अपने स्थानीय परिवेश को जानता है। अपने नदी-पहाड़ खेत-खलिहान, पशु-पक्षी इनसे उसका आत्मीय परिचय है। इनको अवलंब बना किस तरह की कहानियां लिखी जा सकती है यह विचार करना होगा। प्रेमचंदजी की पंच परमेश्वर, दो बैलों की कहानियां, बड़े भाईसाहब, ईदगाह और पंडित मोटे राम शास्त्री की कहानी इस दिशा में लेखकों का मार्गदर्शन कर सकती है। एक बार जब नवसाक्षर का मन पढऩे में लग जाए, वह किताबों से प्रेम करने लगे, तब उसे कुछ गंभीर प्रश्नों पर किए लेखन की ओर प्रवृत्त किया जा सकता है। जब कौशल विकास अथवा चुनावी साक्षरता आदि की बात हो तब सबसे पहले ध्यान शायद स्वराज्य और जनतंत्र जैसे अहम् मुद्दों पर देना चाहिए जो कि एक बेहतर नागरिक होने के लिए बेहद आवश्यक है।
लेखकगण विचार करें कि त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था के प्रावधानों के बारे में नवसाक्षरों की रुचि कैसे जगाई जा सकती है। वे प्रतिनिधि जनतंत्र और सहभागी जनतंत्र का फर्क समझने लगें; पंचायतीराज व्यवस्था को मजबूत करने की ओर उनका ध्यान जाए; यहां से वे अन्य विषयों की ओर आएं। इन सबके अलावा एक विशेष बात ध्यान रखने की यह भी है कि नवसाक्षर के पास, वह स्त्री हो या पुरुष, समय की कमी है। वह गृहिणी हो सकती है या फिर किसान या मजदूर या कारीगर। दिन भर की मेहनत से थकने के बाद उसे पुस्तकों की ओर आकर्षित करना आसान काम नहीं है। ये कुछ बातें हैं जो नवसाक्षर साहित्य लिखने वालों के सामने एक कठिन चुनौती के रूप में उपस्थित हैं।
(16 सितम्बर को दिए गए उद्घाटन वक्तव्य का परिवर्धित रूप)
एर्नाकुलम की सफलता से उत्साहित होकर देश में साक्षरता अभियान को एक नई ऊर्जा मिली। इस काम को गति देने के लिए एक सुव्यवस्थित ढांचा बनाया गया। अनिल बोर्डिया, लक्ष्मीधर मिश्रा, सुदीप बनर्जी तथा जगमोहन सिंह राजू जैसे ध्येयनिष्ठ अधिकारियों ने अपने-अपने समय में देश को संपूर्ण साक्षर बनाने के अभियान पर अथक परिश्रम किया। अभियान का नाम समय-समय पर बदलता रहा। स्वरूप में भी यदाकदा परिवर्तन हुए, लेकिन अभियान की मूल भावना को बरकरार रखा गया। इसका ही परिणाम है कि साक्षरता दर में निरंतर वृद्धि हो रही है। यह दर पुरुषों में ज्यादा है, लेकिन महिलाएं भी अब बहुत पीछे नहीं हैं। आदिवासी अंचलों में, पहाड़ी इलाकों में, घुमंतू समाज में वृद्धि की दर अपेक्षित स्तर पर नहीं है, लेकिन इस ओर केन्द्र और राज्य सरकारों का ध्यान लगातार बना हुआ है। शासकीय योजनाओं में जो कमजोरियां अन्य क्षेत्रों में अमूमन देखने मिलती हैं वे कुछ हद तक यहां भी विद्यमान हैं लेकिन स्थिति निराशाजनक नहीं है।
यदि प्रारंभिक काल में साक्षरता का लक्ष्य व्यक्ति को महज अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान कराने तक सीमित था तो आज उसने एक बड़ा और महत्वाकांक्षी रूप ले लिया है। अब सिर्फ प्रौढ़ साक्षरता की बात नहीं होती। उसके साथ सतत् शिक्षा का मूल्य भी जोड़ दिया गया है। अनुभव से यह पाया गया कि अक्षर ज्ञान के बाद यदि नवसाक्षर की रुचि आगे पढऩे में न हुई तो वह वापस निरक्षरता की अंधेरी गुफा में लौट सकता है। दूसरे शब्दों में साक्षरता अभियान में जुटे कार्यकर्ताओं के सामने यह चुनौती भी है कि वे नवसाक्षरों को आगे पढऩे के लिए लगातार प्रोत्साहित करते रहें। ताकि एक बार साक्षर हमेशा के लिए शिक्षित। इसके साथ यह भी माना गया कि पढऩा-लिखना सीख जाना ही अपने आप में उद्देश्य नहीं है, बल्कि साक्षर होने का लाभ व्यक्ति के कौशल विकास में अर्थात् बेहतर आजीविका हासिल करने की भावना से युक्त होना चाहिए। इधर दो-तीन वर्षों में विशेषज्ञों ने साक्षरता के भीतर निहित अन्य संभावनाओं की भी पड़ताल की। फलस्वरूप चुनावी साक्षरता, वित्तीय साक्षरता, विधिक साक्षरता जैसी संज्ञाएं अभियान में प्रचलित हुईं।
कुल मिलाकर भारत में साक्षरता अभियान एक बुनियादी चुनौती का सामना करने के स्तर से उठकर नवसाक्षरों के लिए बेहतर संभावनाओं के द्वार खोलने वाले कार्यक्रम में परिवर्तित हो गया है। मुझे लगता है कि इतनी प्रगति के बाद भी चुनौतियों का अंत नहीं है। जिस समय दुनिया में लिपि का आविष्कार नहीं हुआ था उस समय निरक्षरता जैसी कोई समस्या भी नहीं थी। लिपि और उसके बाद छापाखाने के आविष्कार के बाद समाज दो हिस्सों में बंटने लगा-साक्षर और निरक्षर। फिर वाचिक परंपरा और लिखित परंपरा दोनों अपने-अपने तरीके से विकसित होते गईं। आज के दौर में उपलब्ध तकनीकों के चलते एक नए किस्म का अलगाव पैदा हो गया है। एक बड़ा वर्ग है जो कम्प्यूटर-अज्ञानी है। जिसे कम्प्यूटर, इंटरनेट और स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करना न आए वह आधुनिक समय का निरक्षर कहलाने लगा है। इसीलिए इन दिनों शिक्षा और साक्षरता दोनों क्षेत्रों में सूचना प्रौद्योगिकी पर जोर दिया जाने लगा है।
जब बात नवसाक्षरों के लिए साहित्य रचने के लिए हो तो उसमें उपरोक्त बिन्दुओं का ध्यान रखना आवश्यक है। नवसाक्षरों के लिए साहित्य सृजन कार्य में अंतर्निहित और भी जटिलताएं हैं जिनको समझे बिना उनके लिए पाठ्य सामग्री सही ढंग से तैयार नहीं की जा सकती। भारत में खासकर हिन्दी भाषा में एक बड़ी कठिनाई है। अधिकतर हिन्दी लेखक हाथीदांत की मीनारों में रहते हैं। उनका लेखन जनसामान्य के लिए नहीं होता। यही वजह है कि हमारी अपनी भाषा में बच्चों तक के लिए रचनाएं लिखने को निकृष्ट कार्य माना जाता है और जो बाल साहित्य लिखते हैं उनकी कहीं कोई गिनती ही नहीं होती। इस मानसिकता के चलते नवसाक्षरों के लिए लिखना तो और भी बड़ी जोखिम उठाना है।
नवसाक्षर अबोध बालक नहीं होता। जिनके लिए साक्षरता अभियान चलाया गया है वे पन्द्रह से पैंतीस वर्ष तक या उससे भी अधिक आयु के होते हैं। जाहिर है कि ये नवसाक्षर वैचारिक परिपक्वता एवं अनुभव के भिन्न-भिन्न स्तरों पर हैं। इनके लिए उस तरह से पठन सामग्री तैयार नहीं की जा सकती जो स्कूल में कक्षा विशेष या आयु समूह विशेष के लिए तैयार होती है। ऐसे में प्रश्न उपस्थित होता है कि पन्द्रह और पैंतीस के आयु के बीच संतुलन कैसे साधा जाए। इन्हें अब क ख ग अथवा अमर घर चल के स्तर की पढ़ाई भी नहीं करवा सकते। इनके पास अनुभवों की थोड़ी बहुत पूंजी है। जीवन और जगत को इन्होंने खुली आंखों से देखा है। इनकी रुचि ऐसा साहित्य पढऩे में ही होगी जिसका तादात्म्य वे अपने अनुभव के साथ बैठा सकें। मुझे ध्यान आता है कि 1991-1992 में जब संपूर्ण साक्षरता अभियान की शुरूआत हुई थी तब पढ़ाई अ अनार का से न होकर म मकान का से शुरू होती थी। कालांतर में इसमें और भी परिवर्तन हुए।
नवसाक्षरों के अनुभव स्तर और मनोविज्ञान को समझकर लिखना एक सीढ़ी पार कर लेना है। इसके बाद सवाल पैदा होता है कि नवसाक्षर साहित्य में किस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाए। अनेक अध्यापकनुमा लेखक संस्कृतनिष्ठ, गरिष्ठ हिन्दी का प्रयोग करते हैं। इससे लेखक की विद्वता का आतंक भले ही तारी होता हो, पाठक के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। आवश्यकता इस बात की है कि विशेष कर नवसाक्षरों के लिए लिखते हुए आमफहम शब्दावली में अपनी बात कही जाए। मैं इस दृष्टि से प्रेमचंद और हरिशंकर परसाई को आदर्श मानता हूं। उनके लिखे में एक ओर जहां विचारों की गहराई है, वहीं दूसरी ओर उनकी भाषा तरल-सरल और बोधगम्य है। नवसाक्षर को लिखित भाषा से डर नहीं लगना चाहिए बल्कि वह उसमें डूब सके ऐसा आकर्षण होना चाहिए। यदि ऐसा कर लिया तो दूसरी सीढ़ी पार कर ली।
नवसाक्षर के लिए विषय चयन में भी रोचकता का ध्यान रखना आवश्यक है। वह जिन अनुभवों से दिन-प्रतिदिन गुजरता है उनके बारे में पढऩे में उसे अधिक रुचि होती है। वह अपने स्थानीय परिवेश को जानता है। अपने नदी-पहाड़ खेत-खलिहान, पशु-पक्षी इनसे उसका आत्मीय परिचय है। इनको अवलंब बना किस तरह की कहानियां लिखी जा सकती है यह विचार करना होगा। प्रेमचंदजी की पंच परमेश्वर, दो बैलों की कहानियां, बड़े भाईसाहब, ईदगाह और पंडित मोटे राम शास्त्री की कहानी इस दिशा में लेखकों का मार्गदर्शन कर सकती है। एक बार जब नवसाक्षर का मन पढऩे में लग जाए, वह किताबों से प्रेम करने लगे, तब उसे कुछ गंभीर प्रश्नों पर किए लेखन की ओर प्रवृत्त किया जा सकता है। जब कौशल विकास अथवा चुनावी साक्षरता आदि की बात हो तब सबसे पहले ध्यान शायद स्वराज्य और जनतंत्र जैसे अहम् मुद्दों पर देना चाहिए जो कि एक बेहतर नागरिक होने के लिए बेहद आवश्यक है।
लेखकगण विचार करें कि त्रिस्तरीय पंचायतीराज व्यवस्था के प्रावधानों के बारे में नवसाक्षरों की रुचि कैसे जगाई जा सकती है। वे प्रतिनिधि जनतंत्र और सहभागी जनतंत्र का फर्क समझने लगें; पंचायतीराज व्यवस्था को मजबूत करने की ओर उनका ध्यान जाए; यहां से वे अन्य विषयों की ओर आएं। इन सबके अलावा एक विशेष बात ध्यान रखने की यह भी है कि नवसाक्षर के पास, वह स्त्री हो या पुरुष, समय की कमी है। वह गृहिणी हो सकती है या फिर किसान या मजदूर या कारीगर। दिन भर की मेहनत से थकने के बाद उसे पुस्तकों की ओर आकर्षित करना आसान काम नहीं है। ये कुछ बातें हैं जो नवसाक्षर साहित्य लिखने वालों के सामने एक कठिन चुनौती के रूप में उपस्थित हैं।
(16 सितम्बर को दिए गए उद्घाटन वक्तव्य का परिवर्धित रूप)
देशबन्धु में 8 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित
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