Friday, 24 October 2014

वंशवाद चिरजीवी हो!

 

महाराष्ट्र
और हरियाणा- इन दोनों के विधानसभा चुनावों के नतीजे लगभग वैसे ही हैं जिसका लोग पहले से अनुमान लगा रहे थे। यद्यपि चुनाव सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियों ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि वे सही भविष्यवाणी करने में समर्थ नहीं हैं। किसी का एक अनुमान सच निकला, तो किसी का दूसरा, लेकिन संपूर्ण, सटीक पूर्वानुमान कोई भी नहीं लगा सका। अब इनकी उपयोगिता सिर्फ इतनी है कि निठल्ले लोगों का वक्त इनको देखते हुए और इन पर बहस करते हुए कट जाता है। यही स्थिति उन कथित विशेषज्ञों की भी है, जो टी.वी. के पर्दे पर कुछ देर के लिए आकर अपने आपको गौरवान्वित कर लेते हैं। बहरहाल, भाजपा ने उपचुनावों में मिली हार को दरकिनार करते हुए विधानसभा चुनावों में विजय हासिल की है और स्वाभाविक रूप से उसके कार्यकर्ता और समर्थक उत्साहित हैं।

चुनाव परिणाम आने के बाद विशेषज्ञों ने जो विश्लेषण किया उसमें तीन बातें मुख्य रूप से कही गईं। एक तो यह दावा किया गया कि भारत से वंशवाद की राजनीति अब समाप्त हो चुकी है। दूसरे यह कि मतदाताओं ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना निर्णय सुनाया है और अंतिम कि कांग्रेस पार्टी अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है। मैंने इन नतीजों को जितना समझा है उसके आधार पर उपरोक्त निष्कर्षों से सहमत होना संभव नहीं है। चूंकि वंशवाद के मुद्दे को कुछ प्रमुखता के साथ ही उठाया गया है अत: पहले उसे ही देख लिया जाए। एक सरसरी निगाह से देखने से ही पता चल जाता है कि भारतीय राजनीति में वंशवाद खत्म होना तो दूर, बल्कि तेजी के साथ बढ़ रहा है। विधानसभा के साथ-साथ लोकसभा का एक उपचुनाव भी हुआ और उसमें गोपीनाथ मुंडे की बेटी प्रीतम मुंडे ने रिकार्ड बहुमत याने लगभग सात लाख अंतर के साथ विजय हासिल की। कह सकते हैं कि मतदाताओं ने श्री मुंडे की वंश-परंपरा जारी रखने के लिए ही यह उपहार दिया है।

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे भले ही चुनाव हार गए हों, लेकिन उनके बेटे नितेश को विजयी बनाने में मतदाताओं ने संकोच नहीं किया। सुशील कुमार शिंदे की बेटी भी दुबारा विधायक चुन ली गई हैं। भले ही इसके पूर्व उनके माता-पिता दोनों चुनाव हार चुके हैं। विलासराव देशमुख के बेटे भी जीत गए हैं, जबकि छगन भुजबल एवं उनके पुत्र दोनों एक साथ विधानसभा में होंगे। इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे की दूसरी बेटी पंकजा न सिर्फ चुनाव जीत गई हैं बल्कि वे पिछले दो माह से लगातार दावा कर रही हैं कि महाराष्ट्र के युवा मतदाता उनको ही मुख्यमंत्री की गद्दी पर आसीन देखना चाहते हैं। यह कुछ वैसी ही बात हुई जैसे मेनका गांधी ने अपने बेटे वरुण को उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का दावा ठोक रखा है।

अब तक कांग्रेस पर वंशवाद को बढ़ावा देने का एकांगी आरोप लगता रहा है, लेकिन ये तथ्य बतलाते हैं कि भारतीय जनता पार्टी भी इस रवायत से मुक्त नहीं है। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना भाजपा से युति तोड़कर दूसरे नंबर की पार्टी बन कर उभरी है। इसका अर्थ यह हुआ कि बाल ठाकरे की राजनैतिक विरासत लुप्त नहीं हुई है। विद्रोही राज ठाकरे की मनसे को सिर्फ एक सीट पर विजय मिली वह भी संकेत करती है कि लोग राज को नहीं बल्कि उद्धव को ही सही वारिस मानते हैं। उधर हरियाणा में भी जो राजनीतिक परिवार हैं उनका दबदबा कमोबेश पहले की तरह कायम है। सुषमा स्वराज की बहन की पराजय को अपवाद स्वरूप देखा जा सकता है। संभव है कि इसके लिए पार्टी की अंदरूनी खींचतान जिम्मेदार हो। याने इस तरह सुषमा स्वराज का प्रभाव कम करने की कोशिश की गई है! कुल मिलाकर देखा जा सकता है कि राजनीति में वंशवाद समाप्त होने की कल्पना फिलहाल एक असंभव कल्पना ही है।

इसी तरह भ्रष्टाचार का मुद्दा है।  एक टीकाकार ने निवर्तमान मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की जीत पर उत्साहपूर्ण टिप्पणी की कि राजनीति में व्यक्तिगत ईमानदारी की कद्र अभी बाकी है। यह कथन आंशिक रूप से सही है। पृथ्वीराज चव्हाण निष्कलंक व्यक्तित्व के धनी हैं। उनकी विजय का स्वागत है। लेकिन क्या हर ईमानदार उम्मीदवार जीत पाता है और क्या वोटर बेईमान उम्मीदवार को सचमुच नापसंद करता है? अगर पृथ्वीराज चौहान की जीत ईमानदारी की जीत है तो फिर अजीत पवार की जीत को किस रूप में देखा जाएगा, जिनके ऊपर तमाम आरोप लगे और जिन्हें कुछ समय के लिए उपमुख्यमंत्री पद भी छोडऩा पड़ा? ऐसे अन्य उदाहरण महाराष्ट्र में भी हैं और हरियाणा में भी। इनको देखकर यही धारणा बनती है कि चुनाव जीतने या हारने के लिए कोई एक कारण जिम्मेदार नहीं होता।

जहां तक कांग्रेस पार्टी के दिन लदने की बात है तो आज के माहौल में इस तरह की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक नहीं है। यह तो दिख ही रहा है कि कांग्रेस का जनाधार सिमटा है और पार्टी के सामने नेतृत्व का संकट  है। लेकिन अगर जनतांत्रिक राजनीति में विपक्षी दल की कोई भूमिका है तो राष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए कांग्रेस के अलावा दूसरी कौन सी पार्टी है? समाजवादियों के बीच नए-नए समीकरण बन रहे हैं। पुराने गिले-शिकवे मिटाकर बड़े नेता हाथ भी मिलाकर रहे हैं, गले भी लग रहे हैं, लेकिन एक शरद यादव के अलावा कौन है, जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति की समझ रखता हो?  वैसे भी हिन्दी प्रदेशों के बाहर समाजवादी पार्टियां फिलहाल कहां हंै? कुछ ऐसी ही स्थिति कम्युनिस्ट पार्टियों की भी है। इसलिए कांग्रेस की सत्ता से बेदखली से भले ही लोगों को खुशी हो, देश की राजनीतिक सेहत के लिए विपक्ष के रूप में आज भी उसकी प्रासंगिकता बरकरार है।

इन दो राज्यों के चुनावी नतीजों से जुड़े दो-तीन और बिन्दु हैं जिन्हें ध्यान में रखना उचित होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं धुंआधार चुनावी सभाएं दोनों राज्यों में कीं। ऐसा पहली बार हुआ है कि प्रधानमंत्री विधानसभा चुनावों में इतनी दिलचस्पी ले। फिर भाजपा की रणनीति की बात भी सामने आती है। बहुत से विश्लेषक मानते हैं कि महाराष्ट्र में भाजपा ने शरद पवार की राकांपा के साथ कोई गुप्त समझौता कर लिया था। अगर यह सच है तो, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। दूसरी तरफ हरियाणा में भाजपा ने डेरा सच्चा सौदा से खुला समर्थन हासिल किया। ज्ञातव्य है कि शिरोमणि अकाली दल और डेरा सच्चा सौदा के बीच भारी कटुता है। इसका अर्थ यह हुआ कि हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों प्रदेशों में भाजपा ने अपने पूर्व सहयोगियों का साथ छोड़ दिया। यही नहीं, एक तरफ नरेंद्र मोदी ने महाराष्ट्र के अखंड रहने की सिंह गर्जना की तो देवेंद्र फडऩवीस ने पृथक विदर्भ का मुद्दा उठाने में कोई संकोच नहीं किया। इन कलाबाजियों के क्या परिणाम होते हैं यह भविष्य बताएगा।

कांग्रेस का जहां तक सवाल है उसके चुनाव अभियान में कोई गर्माहट नहीं थी। क्या इसकी वजह यह है कि सोनिया गांधी स्वास्थ्य के चलते संगठन पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रहीं हैं? राहुल गांधी की सक्रिय राजनीति से वितृष्णा दिनोंदिन ज्यादा प्रकट होती जा रही है। प्रियंका गांधी बड़ी जिम्मेदारी लेने से बार-बार इंकार कर चुकी हैं। ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए यह उचित होगा कि वे चाटुकारों, अवसरवादियों और जमीन से कट चुके नेताओं को रिटायर कर नयी टीम को जिम्मेदारी सौंप दें ताकि पार्टी अपनी ऐतिहासिक भूमिका की अर्थवत्ता को कायम रख सके।
देशबन्धु में 23 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित

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