यह सन् 1965 की बात है। रायपुर के
दुर्गा महाविद्यालय ने प्रदेश के पांच मूर्धन्य साहित्यकारों का सम्मान
करने का निर्णय लिया, वे थे- मुकुटधर पाण्डेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी,
मावलीप्रसाद श्रीवास्तव, बलदेव प्रसाद मिश्र एवं सुंदरलाल त्रिपाठी। इसी
अवसर पर छत्तीसगढ़ के साहित्य एवं संंस्कृति पर केन्द्रित एक स्मारिका
''व्यंजना' शीर्षक से प्रकाशित करने का निर्णय भी लिया गया। महाविद्यालय
में एक वर्ष पूर्व ही एम.ए. की पढ़ाई शुरू हुई थी। मैं अंतिम वर्ष का
विद्यार्थी था। साथ ही हिन्दी साहित्य परिषद का अध्यक्ष भी। मेरे अध्यापकों
ने मुझ पर विश्वास रखते हुए स्मारिका के छात्र संपादक का दायित्व भी मुझे
सौंप दिया था। उस समय मैंने अपने सहपाठियों से साहित्य-संस्कृति के विभिन्न
पहलुओं पर लेख लिखवाए, और स्वयं भी एक-दो लेख लिखे। इस निजी संस्मरण के
बाद मैं आज के विषय पर आता हूं।
मैंने स्वयं व्यंजना में छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता पर निबंध लिखने का निश्चय किया था। इस सिलसिले में जब सामग्री जुटाना प्रारंभ किया तो बहुत से अन्य तथ्यों के अलावा यह भी मालूम पड़ा कि छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का श्रीगणेश नई सदी की दहलीज पर याने सन् 1900 में माधवराव सप्रे ने प्रदेश के एक छोटे से ग्राम पेण्ड्रारोड से ''छत्तीसगढ़ मित्र" नामक मासिक पत्रिका निकालकर किया था। मेरी पीढ़ी को सामान्यत: सप्रेजी के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं थी। इतना अवश्य हम जानते थे कि एक अंग्रेज अफसर के नाम पर रखे गए लॉरी स्कूल का नाम नगरपालिका ने बदलकर माधवराव सप्रे शाला कर दिया था। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा 1950 में प्रकाशित गोविन्दराव हार्डिकर द्वारा लिखित व सप्रेजी की जीवनी घर की लाइब्रेरी में थी, लेकिन उसकी ओर मेरा ध्यान पहले नहीं गया था।
इस तरह सप्रेजी को मैंने सबसे पहले छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के अग्रपुरुष के रूप में जाना। गो कि उनकी रचनाओं से मैं बहुत ज्यादा वाकिफ नहीं हो सका था फिर भी उनके प्रति एक आदर का भाव तो मन में विकसित हो ही चुका था। आज भी छत्तीसगढ़ सप्रेजी को प्रदेश में पत्रकारिता के जनक के रूप में ही मुख्य तौर पर जानता है और उनके इस योगदान के प्रति उचित ही गर्व करता है। यह बात अलग है कि जब नया राज्य बना तो प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने उन्हें एक पितृपुरुष के रूप में स्मरण किया, किन्तु जब एक दर्जन से ज्यादा पुरस्कार स्थापित किए तो उनमें से सप्रेजी का नाम नदारद था। उनके पश्चात भाजपा सरकार आई और पत्रकारिता एवं जनसंचार वि.वि. की स्थापना होने लगी तो उसका नामकरण माधवराव सप्रे के नाम पर न कर कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर किया गया। यह देखकर नागार्जुन की पंक्ति बरबस याद आती है- शासन के सत्य कुछ और हैं, जनता के कुछ और।
खैर! इस लंबे अंतराल में माधवराव सप्रे के व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। सप्रेजी का नाम राष्ट्रव्यापी चर्चा में उस समय एकाएक उभर कर आया जब ''टोकरी भर मिट्टी का" पुनप्र्रकाशन सारिका में इस दावे के साथ हुआ कि यह हिन्दी की पहली कहानी है। यह कहानी एक पुरानी लोककथा पर आधारित थी एवं उसका प्रथम प्रकाशन अप्रैल 1901 में ही छत्तीसगढ़ मित्र में हुआ था। रायपुर के चर्चित साहित्यकार देवीप्रसाद वर्मा (बच्चू जांजगीरी) ने इसका पुनप्र्रकाशन करवाया था और तब एक तरह से सारिका के संपादक कमलेश्वर व बच्चू भाई दोनों को हिन्दी की पहली कहानी की खोज करने का श्रेय संयुक्त रूप से मिला। इस स्थापना से मेरी प्रारंभ से असहमति रही है। एक लोककथा जो सप्रेजी के समय में भी प्रचलित रही होगी, को लिपिबद्ध कर देने मात्र से क्या उसे मौलिक रचना माना जा सकता है? ऐसा कोई श्रेय स्वयं सप्रेजी ने भी नहीं लिया।
बहरहाल सप्रेजी के लेखन से मैंने कुछ बेहतर परिचय प्राप्त किया सन् 1979 में जब मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से एक पुस्तक माला के अंतर्गत ''माधवराव सप्रे के निबंध" शीर्षक पुस्तक प्रकाशित हुई। यह पहल सम्मेलन के अध्यक्ष मेरे स्व. पिता मायाराम सुरजन की थी। इस पुस्तक का संपादन बच्चू जांजगीरी ने किया। यद्यपि सप्रेजी ने अपने जीवनकाल में सैकड़ों निबंध लिखे, लेकिन बच्चू भाई ने अलग-अलग विषयों से चयन कर चौदह लेखों का संकलन तैयार किया ताकि उससे सप्रेजी के विस्तृत विचार संसार की एक झलक पाठकों को मिल सके। मुझे इस पुस्तक में छठवें क्रम पर प्रकाशित ''हड़ताल" शीर्षक लेख ने तुरंत ही प्रभावित किया। यह निबंध प्रथमत: 1907 में प्रकाशित हुआ था और मेरे लिए यह विस्मयजनक था कि सौ वर्ष पूर्व इस विषय पर कोई लेख लिखा जा सकता था ! इसमें हड़ताल के बारे में सप्रेजी ने जो विचार व्यक्त किए उनसे यह अनुमान भी हुआ कि वे अपने समय से आगे एक उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे, मुझे इस बात ने और भी आकर्षित किया।
इस निबंध के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं -
''जब किसी देश में सम्पत्ति थोड़े-से पूंजी वालों के हाथ में आ जाती है और अन्य लोगों को मजदूरी से अपना निर्वाह करना पड़ता है तब पूंजी वाले अपने व्यापार का सब नफा स्वयं आप ही ले लेते हैं और जिन लोगों के परिश्रम से यह सम्पत्ति उत्पन्न की जाती है, उनको वे पेट भर खाने को नहीं देते। ऐसी दशा में श्रम करने वाले मजदूरों को हड़ताल करनी पड़ती है।"
''मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपने नफे का हिस्सा किसी दूसरे को देना नहीं चाहता। जो पूंजी वाले अपनी पूंजी लगाकर, बड़े-बड़े व्यवसाय करते हैं, वे यही चाहते हैं कि सब नफा अपने ही हाथों में बना रहे, जिन मजदूरों के श्रम से व्यवसाय किया जाता है, उनको उस नफे का कुछ भी हिस्सा न मिले। इसी को अर्थशास्त्र में 'पूंजी और श्रम का हित-विरोध' कहते हैं।"
''यदि मजदूर अपने श्रम को कारखाने वालों के मुंहमांगे दाम पर न बेचे तो क्या वे दोषी या अपराधी हो सकते हैं? कदापि नहीं। नीति-दृष्टि से वे किसी प्रकार दोषी नहीं कहे जा सकते। अत: जब एक श्रम करने वाले मजदूर अधिक तनख्वाह पाने, या अपनी तनख्वाह की दर घटने न देने, या अपने अन्य दुखों को दूर करने के लिए एकत्र होकर हड़ताल करते हैं, तब (जब तक वे औरों की स्वाधीनता को भंग न करें, तब तक) उन्हें किसी तरह दोषी समझना न चाहिए।"
जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है माधवराव सप्रे पर इस बीच बहुत काम हुआ है। उनके पौत्र भौतिकीविज्ञानी डॉ. अशोक सप्रे ने रायपुर में पंडित माधवराव सप्रे साहित्य शोध केन्द्र की स्थापना की। यहां से छत्तीसगढ़ मित्र के पुराने अंक तो दुबारा छपे ही, नए कलेवर में पत्र का पुनप्र्रकाशन भी प्रारंभ हुआ। सप्रेजी की कृतियों का पुनर्मुद्रण भी अपनी गति से यहां से हो रहा है। यही नहीं, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार वि.वि. में भी माधवराव सप्रे शोधपीठ स्थापित कर दी गई है। इस पीठ की अपनी महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं। लेकिन इन सारी गतिविधियों का अवलोकन करते हुए मेरी यह धारणा बन रही है कि हमने एक ओर तो सप्रेजी को छत्तीसगढ़ तक सीमित करके रख दिया है और दूसरे यह कि उनकी कृतियों की जैसी सम्यक् विवेचना होना चाहिए उसका अभाव बना हुआ है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने पर ज्ञान होता है कि सप्रेजी ने अपने रचनात्मक जीवन का एक बहुत छोटा हिस्सा छत्तीसगढ़ में व्यतीत किया। छत्तीसगढ़ मित्र को वे कोई तीन साल ही चला सके। इसके बाद उन्होंने नागपुर और जबलपुर में लंबा समय बिताया। यह दु:खद तथ्य है कि इन नगरों में सप्रेजी के योगदान को चिरस्थायी बनाने के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं हुए। जब सप्रेजी छत्तीसगढ़ मित्र निकाल रहे थे उसी समय 1902 में नागरी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी विज्ञान कोश प्रकाशन करने का निर्णय लिया था। पांच खण्डों के इस ग्रंथ में सप्रेजी को अर्थशास्त्र खंड संपादित करने का दायित्व सौंपा गया था। उनके साथी संपादकों में महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू श्याम सुंदर दास जैसे विद्वान भी थे। इससे सप्रेजी की बौद्धिक क्षमता का अनुमान किया जा सकता है।
माधवराव सप्रे 1903 के आसपास नागपुर चले गए थे। यहां उन्होंने 1905 में हिन्दी ग्रंथ प्रकाशक मंडली की स्थापना में सहयोग दिया तथा ''हिन्दी ग्रंथमाला" शीर्षक से पुस्तकों की श्रंखला प्रकाशित करने की योजना बनाई। इस ग्रंथमाला के अंतर्गत ही महावीर प्रसाद द्विवेदी के शिक्षा विषयक वे निबंध क्रमश: प्रकाशित हुए जो उन्होंने अंग्रेजी से रूपांतरित किए थे। इसके पश्चात 1907 में उन्होंने ''हिन्दी केसरी" का प्रकाशन प्रारंभ किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि माधवराव सप्रे लोकमान्य तिलक से बहुत अधिक प्रभावित थे। वह दौर ही तिलक महाराज का था। वे कांग्रेस के सबसे बड़े नेता और स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायक थे। हिन्दी केसरी के प्रकाशन का उद्देश्य ''केसरी" में मूलरूप में प्रकाशित मराठी सामग्री को हिन्दीजनों के सामने लाना था। यह अपने आप में ऐसा महत्तर कार्य था जिसकी उपयोगिता स्वयंसिद्ध थी। यह संभवत: लोकमान्य के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का ही असर रहा होगा कि 1906 में सप्रेजी ने ''स्वदेशी आंदोलन और बायकाट" शीर्षक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसे अंगे्रज सरकार ने तीन साल बाद जब्त कर लिया।
माधवराव सप्रे के व्यक्तित्व का अनुशीलन करने से ऐसे संकेत मिलते हैं कि वे नई-नई योजनाएं बनाने में तो प्रवीण थे, लेकिन योजना प्रारंभ करने के बाद उसे आगे संभालना उनके लिए टेढ़ी खीर थी। जो हाल छत्तीसगढ़ मित्र का हुआ वही हिन्दी ग्रंथमाला का और हिन्दी केसरी का भी। वे कोई भी योजना प्रारंभ करने के लिए साधन तो जुटा लेते थे, लेकिन काम चलते रहने के लिए क्या प्रबंध हो इस बारे में उनकी असफलता ही देखने मिलती है। वे जब नागपुर में थे तभी उन्हें राजद्रोह के अपराध में जेल यात्रा भी करनी पड़ी, लेकिन तीन महीने बाद ही वे माफीनामा दे जेल से बाहर आ गए। इसमें भी हमें लगता है कि सप्रेजी किसी भी कार्य में प्रारंभिक उत्साह दर्शाने के बाद बहुत जल्दी विरक्त या विचलित होने लगते थे। वे जब एक के बाद एक उपरोक्त रचनात्मक गतिविधियों में व्यस्त थे, तभी उन्होंने वीर शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास रचित ''दास बोध" की हिन्दी टीका भी प्रकाशित की। इसके कुछ वर्ष बाद वे जबलपुर चले आए। जबलपुर में उन्होंने हिन्दी के दो महत्वपूर्ण पत्र स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 की जनवरी में सिमरिया वाली रानी की कोठी से कर्मवीर का प्रकाशन हुआ। (प्रसंगवश मेरे शैशव का कुछ समय इस स्थान पर बीता)। माखनलाल चतुर्वेदी इसके प्रधान संपादक बनाए गए व लक्ष्मण सिंह चौहान उपसंपादक। यद्यपि प्रेरणा पुरुष सप्रेजी ही थे। यह वह पत्र है जिसमें तपस्वी सुंदरलाल जैसी विभूति ने भी काम किया। इसी वर्ष अप्रैल में ''श्री शारदा" का शुभारंभ हुआ। इन दोनों पत्रों को प्रकाशित करने में जबलपुर के कांग्रेसजन व अन्य उदारमना व्यक्तियों ने भरपूर सहयोग दिया। ''श्री शारदा" में मुख्यरूप से सेठ गोविंददास का योगदान था। कर्मवीर में छत्तीसगढ़ के जांजगीर के कुलदीप सहाय भी सहायक संपादक थे। उनके योगदान का भी समुचित मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ है। इस परिदृश्य में सप्रेजी हमारे सामने एक कल्पनाशील वास्तुकार के रूप में सामने आते हैं।
यह तो हमने देखा कि सप्रेजी ने अपने जीवनकाल में बहुत सारे विषयों पर लिखा, लेकिन आज उसका शोधपरक विश्लेषण एवं पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। सप्रेजी के समय देश का जो राजनैतिक, सामाजिक वातावरण था उसका भी ध्यान इस हेतु रखना होगा। सप्रेजी के समकालीन महावीर प्रसाद द्विवेदी इत्यादि की लेखनी की दिशा क्या थी इसका भी संज्ञान लिया जाना मैं आवश्यक समझता हूं। सप्रेजी के निबंधों में ऐसे अनेक विचार व्यक्त किए गए हैं जिन्हें वर्तमान की कसौटियों पर स्वीकार करने में हमें हिचक होती है। वे भारत का उल्लेख अनेक स्थानों पर आर्यभूमि के रूप में करते हैं। क्या यह विचार उनके मन में लोकमान्य की पुस्तक ''द आर्कटिक होम ऑफ वेदाज़" से मिला? वे हिन्दी और उर्दू को बिल्कुल अलग-अलग भाषा मानते हैं तथा धर्म से भी उसे जोड़ते हैं। उनके लेख में वर्ण व्यवस्था का समर्थन भी पढऩे मिलता है। एक बात हमें समझ आती है कि सप्रेजी का महात्मा गांधी के साथ नैकट्य स्थापित नहीं हुआ अन्यथा शायद उनके विचारों को हम एक नई दिशा में विकसित होते देख पाते। यूं दावा तो किया गया है कि महात्मा गांधी ने ''हिंद स्वराज" लिखने की प्रेरणा सप्रेजी के लेख ''स्वदेशी आंदोलन और बायकॉट" से प्राप्त की, किंतु हम इसे भक्ति भाव से उपजा कल्पना-कुसुम ही मानते हैं।
मैंने स्वयं व्यंजना में छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता पर निबंध लिखने का निश्चय किया था। इस सिलसिले में जब सामग्री जुटाना प्रारंभ किया तो बहुत से अन्य तथ्यों के अलावा यह भी मालूम पड़ा कि छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का श्रीगणेश नई सदी की दहलीज पर याने सन् 1900 में माधवराव सप्रे ने प्रदेश के एक छोटे से ग्राम पेण्ड्रारोड से ''छत्तीसगढ़ मित्र" नामक मासिक पत्रिका निकालकर किया था। मेरी पीढ़ी को सामान्यत: सप्रेजी के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं थी। इतना अवश्य हम जानते थे कि एक अंग्रेज अफसर के नाम पर रखे गए लॉरी स्कूल का नाम नगरपालिका ने बदलकर माधवराव सप्रे शाला कर दिया था। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा 1950 में प्रकाशित गोविन्दराव हार्डिकर द्वारा लिखित व सप्रेजी की जीवनी घर की लाइब्रेरी में थी, लेकिन उसकी ओर मेरा ध्यान पहले नहीं गया था।
इस तरह सप्रेजी को मैंने सबसे पहले छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के अग्रपुरुष के रूप में जाना। गो कि उनकी रचनाओं से मैं बहुत ज्यादा वाकिफ नहीं हो सका था फिर भी उनके प्रति एक आदर का भाव तो मन में विकसित हो ही चुका था। आज भी छत्तीसगढ़ सप्रेजी को प्रदेश में पत्रकारिता के जनक के रूप में ही मुख्य तौर पर जानता है और उनके इस योगदान के प्रति उचित ही गर्व करता है। यह बात अलग है कि जब नया राज्य बना तो प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने उन्हें एक पितृपुरुष के रूप में स्मरण किया, किन्तु जब एक दर्जन से ज्यादा पुरस्कार स्थापित किए तो उनमें से सप्रेजी का नाम नदारद था। उनके पश्चात भाजपा सरकार आई और पत्रकारिता एवं जनसंचार वि.वि. की स्थापना होने लगी तो उसका नामकरण माधवराव सप्रे के नाम पर न कर कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर किया गया। यह देखकर नागार्जुन की पंक्ति बरबस याद आती है- शासन के सत्य कुछ और हैं, जनता के कुछ और।
खैर! इस लंबे अंतराल में माधवराव सप्रे के व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। सप्रेजी का नाम राष्ट्रव्यापी चर्चा में उस समय एकाएक उभर कर आया जब ''टोकरी भर मिट्टी का" पुनप्र्रकाशन सारिका में इस दावे के साथ हुआ कि यह हिन्दी की पहली कहानी है। यह कहानी एक पुरानी लोककथा पर आधारित थी एवं उसका प्रथम प्रकाशन अप्रैल 1901 में ही छत्तीसगढ़ मित्र में हुआ था। रायपुर के चर्चित साहित्यकार देवीप्रसाद वर्मा (बच्चू जांजगीरी) ने इसका पुनप्र्रकाशन करवाया था और तब एक तरह से सारिका के संपादक कमलेश्वर व बच्चू भाई दोनों को हिन्दी की पहली कहानी की खोज करने का श्रेय संयुक्त रूप से मिला। इस स्थापना से मेरी प्रारंभ से असहमति रही है। एक लोककथा जो सप्रेजी के समय में भी प्रचलित रही होगी, को लिपिबद्ध कर देने मात्र से क्या उसे मौलिक रचना माना जा सकता है? ऐसा कोई श्रेय स्वयं सप्रेजी ने भी नहीं लिया।
बहरहाल सप्रेजी के लेखन से मैंने कुछ बेहतर परिचय प्राप्त किया सन् 1979 में जब मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से एक पुस्तक माला के अंतर्गत ''माधवराव सप्रे के निबंध" शीर्षक पुस्तक प्रकाशित हुई। यह पहल सम्मेलन के अध्यक्ष मेरे स्व. पिता मायाराम सुरजन की थी। इस पुस्तक का संपादन बच्चू जांजगीरी ने किया। यद्यपि सप्रेजी ने अपने जीवनकाल में सैकड़ों निबंध लिखे, लेकिन बच्चू भाई ने अलग-अलग विषयों से चयन कर चौदह लेखों का संकलन तैयार किया ताकि उससे सप्रेजी के विस्तृत विचार संसार की एक झलक पाठकों को मिल सके। मुझे इस पुस्तक में छठवें क्रम पर प्रकाशित ''हड़ताल" शीर्षक लेख ने तुरंत ही प्रभावित किया। यह निबंध प्रथमत: 1907 में प्रकाशित हुआ था और मेरे लिए यह विस्मयजनक था कि सौ वर्ष पूर्व इस विषय पर कोई लेख लिखा जा सकता था ! इसमें हड़ताल के बारे में सप्रेजी ने जो विचार व्यक्त किए उनसे यह अनुमान भी हुआ कि वे अपने समय से आगे एक उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे, मुझे इस बात ने और भी आकर्षित किया।
इस निबंध के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं -
''जब किसी देश में सम्पत्ति थोड़े-से पूंजी वालों के हाथ में आ जाती है और अन्य लोगों को मजदूरी से अपना निर्वाह करना पड़ता है तब पूंजी वाले अपने व्यापार का सब नफा स्वयं आप ही ले लेते हैं और जिन लोगों के परिश्रम से यह सम्पत्ति उत्पन्न की जाती है, उनको वे पेट भर खाने को नहीं देते। ऐसी दशा में श्रम करने वाले मजदूरों को हड़ताल करनी पड़ती है।"
''मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपने नफे का हिस्सा किसी दूसरे को देना नहीं चाहता। जो पूंजी वाले अपनी पूंजी लगाकर, बड़े-बड़े व्यवसाय करते हैं, वे यही चाहते हैं कि सब नफा अपने ही हाथों में बना रहे, जिन मजदूरों के श्रम से व्यवसाय किया जाता है, उनको उस नफे का कुछ भी हिस्सा न मिले। इसी को अर्थशास्त्र में 'पूंजी और श्रम का हित-विरोध' कहते हैं।"
''यदि मजदूर अपने श्रम को कारखाने वालों के मुंहमांगे दाम पर न बेचे तो क्या वे दोषी या अपराधी हो सकते हैं? कदापि नहीं। नीति-दृष्टि से वे किसी प्रकार दोषी नहीं कहे जा सकते। अत: जब एक श्रम करने वाले मजदूर अधिक तनख्वाह पाने, या अपनी तनख्वाह की दर घटने न देने, या अपने अन्य दुखों को दूर करने के लिए एकत्र होकर हड़ताल करते हैं, तब (जब तक वे औरों की स्वाधीनता को भंग न करें, तब तक) उन्हें किसी तरह दोषी समझना न चाहिए।"
जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है माधवराव सप्रे पर इस बीच बहुत काम हुआ है। उनके पौत्र भौतिकीविज्ञानी डॉ. अशोक सप्रे ने रायपुर में पंडित माधवराव सप्रे साहित्य शोध केन्द्र की स्थापना की। यहां से छत्तीसगढ़ मित्र के पुराने अंक तो दुबारा छपे ही, नए कलेवर में पत्र का पुनप्र्रकाशन भी प्रारंभ हुआ। सप्रेजी की कृतियों का पुनर्मुद्रण भी अपनी गति से यहां से हो रहा है। यही नहीं, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार वि.वि. में भी माधवराव सप्रे शोधपीठ स्थापित कर दी गई है। इस पीठ की अपनी महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं। लेकिन इन सारी गतिविधियों का अवलोकन करते हुए मेरी यह धारणा बन रही है कि हमने एक ओर तो सप्रेजी को छत्तीसगढ़ तक सीमित करके रख दिया है और दूसरे यह कि उनकी कृतियों की जैसी सम्यक् विवेचना होना चाहिए उसका अभाव बना हुआ है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने पर ज्ञान होता है कि सप्रेजी ने अपने रचनात्मक जीवन का एक बहुत छोटा हिस्सा छत्तीसगढ़ में व्यतीत किया। छत्तीसगढ़ मित्र को वे कोई तीन साल ही चला सके। इसके बाद उन्होंने नागपुर और जबलपुर में लंबा समय बिताया। यह दु:खद तथ्य है कि इन नगरों में सप्रेजी के योगदान को चिरस्थायी बनाने के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं हुए। जब सप्रेजी छत्तीसगढ़ मित्र निकाल रहे थे उसी समय 1902 में नागरी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी विज्ञान कोश प्रकाशन करने का निर्णय लिया था। पांच खण्डों के इस ग्रंथ में सप्रेजी को अर्थशास्त्र खंड संपादित करने का दायित्व सौंपा गया था। उनके साथी संपादकों में महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू श्याम सुंदर दास जैसे विद्वान भी थे। इससे सप्रेजी की बौद्धिक क्षमता का अनुमान किया जा सकता है।
माधवराव सप्रे 1903 के आसपास नागपुर चले गए थे। यहां उन्होंने 1905 में हिन्दी ग्रंथ प्रकाशक मंडली की स्थापना में सहयोग दिया तथा ''हिन्दी ग्रंथमाला" शीर्षक से पुस्तकों की श्रंखला प्रकाशित करने की योजना बनाई। इस ग्रंथमाला के अंतर्गत ही महावीर प्रसाद द्विवेदी के शिक्षा विषयक वे निबंध क्रमश: प्रकाशित हुए जो उन्होंने अंग्रेजी से रूपांतरित किए थे। इसके पश्चात 1907 में उन्होंने ''हिन्दी केसरी" का प्रकाशन प्रारंभ किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि माधवराव सप्रे लोकमान्य तिलक से बहुत अधिक प्रभावित थे। वह दौर ही तिलक महाराज का था। वे कांग्रेस के सबसे बड़े नेता और स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायक थे। हिन्दी केसरी के प्रकाशन का उद्देश्य ''केसरी" में मूलरूप में प्रकाशित मराठी सामग्री को हिन्दीजनों के सामने लाना था। यह अपने आप में ऐसा महत्तर कार्य था जिसकी उपयोगिता स्वयंसिद्ध थी। यह संभवत: लोकमान्य के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का ही असर रहा होगा कि 1906 में सप्रेजी ने ''स्वदेशी आंदोलन और बायकाट" शीर्षक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसे अंगे्रज सरकार ने तीन साल बाद जब्त कर लिया।
माधवराव सप्रे के व्यक्तित्व का अनुशीलन करने से ऐसे संकेत मिलते हैं कि वे नई-नई योजनाएं बनाने में तो प्रवीण थे, लेकिन योजना प्रारंभ करने के बाद उसे आगे संभालना उनके लिए टेढ़ी खीर थी। जो हाल छत्तीसगढ़ मित्र का हुआ वही हिन्दी ग्रंथमाला का और हिन्दी केसरी का भी। वे कोई भी योजना प्रारंभ करने के लिए साधन तो जुटा लेते थे, लेकिन काम चलते रहने के लिए क्या प्रबंध हो इस बारे में उनकी असफलता ही देखने मिलती है। वे जब नागपुर में थे तभी उन्हें राजद्रोह के अपराध में जेल यात्रा भी करनी पड़ी, लेकिन तीन महीने बाद ही वे माफीनामा दे जेल से बाहर आ गए। इसमें भी हमें लगता है कि सप्रेजी किसी भी कार्य में प्रारंभिक उत्साह दर्शाने के बाद बहुत जल्दी विरक्त या विचलित होने लगते थे। वे जब एक के बाद एक उपरोक्त रचनात्मक गतिविधियों में व्यस्त थे, तभी उन्होंने वीर शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास रचित ''दास बोध" की हिन्दी टीका भी प्रकाशित की। इसके कुछ वर्ष बाद वे जबलपुर चले आए। जबलपुर में उन्होंने हिन्दी के दो महत्वपूर्ण पत्र स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 की जनवरी में सिमरिया वाली रानी की कोठी से कर्मवीर का प्रकाशन हुआ। (प्रसंगवश मेरे शैशव का कुछ समय इस स्थान पर बीता)। माखनलाल चतुर्वेदी इसके प्रधान संपादक बनाए गए व लक्ष्मण सिंह चौहान उपसंपादक। यद्यपि प्रेरणा पुरुष सप्रेजी ही थे। यह वह पत्र है जिसमें तपस्वी सुंदरलाल जैसी विभूति ने भी काम किया। इसी वर्ष अप्रैल में ''श्री शारदा" का शुभारंभ हुआ। इन दोनों पत्रों को प्रकाशित करने में जबलपुर के कांग्रेसजन व अन्य उदारमना व्यक्तियों ने भरपूर सहयोग दिया। ''श्री शारदा" में मुख्यरूप से सेठ गोविंददास का योगदान था। कर्मवीर में छत्तीसगढ़ के जांजगीर के कुलदीप सहाय भी सहायक संपादक थे। उनके योगदान का भी समुचित मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ है। इस परिदृश्य में सप्रेजी हमारे सामने एक कल्पनाशील वास्तुकार के रूप में सामने आते हैं।
यह तो हमने देखा कि सप्रेजी ने अपने जीवनकाल में बहुत सारे विषयों पर लिखा, लेकिन आज उसका शोधपरक विश्लेषण एवं पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। सप्रेजी के समय देश का जो राजनैतिक, सामाजिक वातावरण था उसका भी ध्यान इस हेतु रखना होगा। सप्रेजी के समकालीन महावीर प्रसाद द्विवेदी इत्यादि की लेखनी की दिशा क्या थी इसका भी संज्ञान लिया जाना मैं आवश्यक समझता हूं। सप्रेजी के निबंधों में ऐसे अनेक विचार व्यक्त किए गए हैं जिन्हें वर्तमान की कसौटियों पर स्वीकार करने में हमें हिचक होती है। वे भारत का उल्लेख अनेक स्थानों पर आर्यभूमि के रूप में करते हैं। क्या यह विचार उनके मन में लोकमान्य की पुस्तक ''द आर्कटिक होम ऑफ वेदाज़" से मिला? वे हिन्दी और उर्दू को बिल्कुल अलग-अलग भाषा मानते हैं तथा धर्म से भी उसे जोड़ते हैं। उनके लेख में वर्ण व्यवस्था का समर्थन भी पढऩे मिलता है। एक बात हमें समझ आती है कि सप्रेजी का महात्मा गांधी के साथ नैकट्य स्थापित नहीं हुआ अन्यथा शायद उनके विचारों को हम एक नई दिशा में विकसित होते देख पाते। यूं दावा तो किया गया है कि महात्मा गांधी ने ''हिंद स्वराज" लिखने की प्रेरणा सप्रेजी के लेख ''स्वदेशी आंदोलन और बायकॉट" से प्राप्त की, किंतु हम इसे भक्ति भाव से उपजा कल्पना-कुसुम ही मानते हैं।
(रायपुर में 8 सितंबर 2014 को माधवराव सप्रे पर आयोजित विचार गोष्ठी में प्रस्तुत आलेख का परिवद्र्धित रूप)
अक्षर पर्व अक्टूबर 2014 अंक की प्रस्तावना
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