मेरे सामने एक नई पुस्तक
है, आकर्षक मुखपृष्ठ, चिकने पन्ने, उम्दा छपाई, रंगीन तस्वीरें,
लालित्यपूर्ण भाषा और विषय भी एकदम नया। ऐसा विषय जिस पर अमूमन हिन्दी में
किताबें नहीं लिखी जातीं। लेखक हिंदी जगत के लिए लगभग अपरिचित व्यक्ति हैं-
शिक्षा से चिकित्सक, पेशा डॉक्टरी छोड़कर अखबार प्रबंधन, रुचि से प्रकृति
प्रेमी और कवि तो नहीं, किन्तु अवश्य ही कवि-हृदय।
पुस्तक के शीर्षक से विषय परिचय हो जाएगा- ''विकराल वनांचलों की विभीषिकाओं में एक वनप्रेमी"। विकराल और विभीषिका जैसे शब्द सुनकर डर लग सकता है; यह अंदाज हो सकता है कि यह जंगल महकमे के किसी अधिकारी या किसी शिकारी के लोमहर्षक अनुभवों की कथा है। वास्तव में ऐसा है नहीं, यह तो लेखक ने आलंकारिकता के मोह में पड़कर पाठक को कुछ पलों के लिए भ्रमित कर दिया है। पुस्तक में वनप्रेमी के अनुभव तो हैं, लेकिन वे आपको प्रकृति और वनराशि के निकट ले चलते हैं, उनसे साक्षात्कार करवाते हैं, वन्य पशुओं, पक्षी जगत और जलचरों से परिचय पाने के लिए आमंत्रित करते हैं। उनके साथ साहचर्य स्थापित करने, उनका सम्मान करने, उनकी सुरक्षा करने के लिए प्रेरित करते हैं।
आइए, लेखक से भी आपको मिलवाएं। डॉ. सुरेन्द्र तिवारी भोपाल के निवासी हैं। वन्यजीवन में लंबे समय से आपकी रुचि रही है। जब समय मिला, जंगल की सैर पर निकल पड़े। इसी शौक के चलते आज मध्यप्रदेश और अन्यत्र एक वन्यजीवन विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। यूं तो देश में इस अनुशासन के अध्येताओं/विशेषज्ञों की कमी नहीं है, लेकिन उनमें से कितने हैं जो अपने ज्ञान और अनुभवों को लिपिबद्ध करने में रुचि रखते हैं? जो लिखते हैं तो उनमें भी अधिकतर अंग्रेजी में। हो सकता है कि कुछेक ने अन्य भारतीय भाषाओं मे लिखा हो, उन्हें हम नहीं जानते। ऐसे लेखकों को उंगलियों पर गिना जा सकता है, जिन्होंने हिन्दी में प्राणीजगत और वन्य जीवन पर संस्मरण लिखे हों। एक नाम अवश्य याद आता है- रमेश बेदी का। उन्होंने वन्य पशुओं पर काफी लिखा है, सरल भाषा में, एक समय उनकी किताबें काफी लोकप्रिय हुई थीं, उस दौर में जब पुस्तकें पढ़ी जाती थीं। सुरेन्द्र तिवारी ने उनके काम को न सिर्फ आगे बढ़ाया है, बल्कि उसके क्षेत्र को विस्तृत किया है और प्रस्तुति भी बेहतरीन तरीके से की है। बेदीजी का साथ उनके पुत्रों ने दिया तो यहां श्रीमती तिवारी हाजिर हैं, जिन्हें लेखक कभी साथिन, कभी संगिनी लिखकर मधुरता से संबोधित करते हैं। श्री बेदी व श्री तिवारी के बीच मुझे याद आता है कि जानी-मानी लेखिका लीना मेहंदेले ने भी पशुजगत को लेकर आत्मीय भाव से परिपूर्ण संस्मरण लिखे हैं।
डॉ. सुरेन्द्र तिवारी इसके पूर्व एक और पुस्तक लिख चुके हैं जिसका शीर्षक ज्यादा सटीक है- ''एक प्रकृति प्रेमी के प्रेरक प्रसंग"। उनकी दूसरी पुस्तक भी ऐसे ही प्रसंगों से भरपूर है जो पाठक के मन में एक अलग तरह की प्रेरणा जगाते हैं। इस पुस्तक में चौबीस अध्याय हैं जिनमें से तेरह भारत पर और ग्यारह विदेशों में की गई यात्राओं पर आधारित हैं। लेखक उस तरह का प्रकृति प्रेमी नहीं है जिनकी भरमार आज देखी जा रही है। वाइल्ड लाइफ टूरिज्म और इको टूरिज्म आदि के नाम पर पांच सितारा होटलों व पर्यटन उद्योग ने जो प्रपंच खड़ा किया है उसके चलते ही यह भीड़ इकट्ठा हुई है। जंगल, पहाड़, समुद्र, रेगिस्तान सब देखना है, लेकिन अपनी शर्तों पर और हड़बड़ी में। ऐसे पर्यटकों का एकमात्र लक्ष्य होता है कि यात्रा से लौटकर आएं और सबको बताएं कि वे शेर देखकर आए हैं। इन्हें पर्यटन स्थल पर हर तरह की सुविधा की दरकार होती है, उनके बिना वे रह नहीं सकते, जो कुछ देखकर लौटते हैं उसकी तस्वीरें परिचितों को पोस्ट करते हैं और शायद किसी हद तक ग्लानि से मुक्त हो बताने की कोशिश करते हैं कि देखो, हम भी प्रकृति प्रेमी हैं।
डॉ. सुरेन्द्र तिवारी के संस्मरणों में एक अपवाद स्वरूप व्यक्तित्व उभरकर आता है। वे उड़ीसा की विश्व प्रसिद्ध चिलिका झील पर पहुंचते हैं तो स्वाधीनता सेनानी कवि गोपबंधु दास की कविता उद्धृत करते हैं- ''एक पल को रुको, क्या तुम रुकोगे, ओ अग्नि रथ? मुझे इस सौंदर्य को जी भर करके देख लेने दो, चिलिका के इस विहंगम दृश्य को। मुझे तो ऐसा लग रहा है मानो ये तो कोई स्वप्न-चित्र है, सत्य नहीं। क्या इस धरती पर कोई इतनी सुन्दर चीज हो सकती है? आह! ये वेदना शून्य वाहन, जो मुझे यहां से इतनी लापरवाही से भगाए लिए जा रहा है। जहां चट्टानों, शिलाओं और वृक्षों से मेरी दृष्टि अवरुद्ध हो रही है- मेरे और चिलिका के बीच और इतने सुन्दर न•ाारों को बार-बार ओझल कर देती है। ये कभी दिखाई देते हैं और कभी मेरी नजर से दूर हो जाते हैं। वैसे ही जैसे अपने अति प्रिय के सपनों में दर्शन होते हैं और ओझल हो जाते हैं। मेरी आत्मा तो हमेशा-हमेशा से इस सुंदरता की प्यासी ही रही है। अपने अति व्यस्त समय में से भी मैंने यह योजना बनाई थी कि मैं तुम्हारे किनारों पर नितान्त अकेला ही टहलूंगा और इस सुंदरता का पान करूंगा ओ मेरी प्यारी चिलिका"। वे पुस्तक के इस पहले ही लेख में चिलिका की शोभा का वर्णन करते हैं लेकिन वहीं उन्हें यह चिंता भी सताती है कि मछली और झींगे के व्यापार के चलते वृक्षों की कटाई और गाद भरने से झील को कितना नुकसान हो रहा है। यहां वे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को उद्धृत करते हैं कि ''शौकीन मानव ने इतने पशु-पक्षी मारकर खा डाले हैं कि तैरने वालों में सिर्फ नाव, उडऩे वालों में सिर्फ पतंग और चौपायों में सिर्फ खाट ही शेष बची है।"
उड़ीसा के ही भीतरकनिका अभ्यारण्य के पूरे परिवेश का वे सजीव चित्रण करते हैं। प्रकृति की एक अद्भुत लीला के बारे में बताते हैं कि कैसे हजारों किलोमीटर दूर से आलिव रिडले नामक समुद्री कछुए यहां के समुद्रतट पर हर साल आते हैं। लाखों कछुए पानी से बमुश्किल पैंतालिस मिनट के लिए बाहर निकलते हैं, घोंसले बनाते हैं, अंडे देते हैं, वे भी रात के समय और फिर तुरंत लौट जाते हैं। इसी लेख में वे बतलाना जरूरी समझते हैं कि उड़ीसा के समुद्रतट वासियों से लेकर चीन तक इन अंडों का बाजार कैसे फैला हु्आ है जिसके कारण कछुओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है। वे कछुए के साथ प्रकृति के आदिम संबंध की भी चर्चा करते हैं और विश्व में इन्हें बचाने की पहल का भी। वे एक अन्य उद्धरण देते हैं कि ''आज हम उस दोराहे पर खड़े हैं जहां से एक राह तो इन पुरातन जीवों को बचाने के लिए जाती है और दूसरी उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए खो देने के लिए।"
उड़ीसा के समुद्र तट से लेखक हमें हिमाचल प्रदेश ले जाते हैं। हिमालय की कुल्लू घाटी में, उत्तराखंड के कतरनिया घाट में, ऊपर नेपाल तक। वे अपने घर मध्यप्रदेश के मढ़ई अभ्यारण्य में भी ले चलते हैं, राजस्थान के केवलादेव पक्षी अभ्यारण्य में, महाराष्ट्र के भीमाशंकर में, कर्नाटक के दांड़ेली में, कच्छ के पिरोटन द्वीप में जिसकी जानकारी सामान्य तौर पर लोगों को कम है और भारत के अंतिम छोर अंडमान निकोबार में भी। जब ऐसी-ऐसी यात्राएं कर रहे हैं तो कुछ न कुछ मुश्किलें भी पेश आना ही है। परिणामस्वरूप जब वे पिरोटन में जाते हैं जो कि एक समुद्री अभ्यारण्य है तो वहां बीच समुद्र में शून्य तापमान पर रात बिताने की नौबत आती है, तो किसी दूसरी यात्रा में सामने बाघ आकर खड़ा हो जाता है और शायद लेखक को अपना दोस्त समझकर छोड़ देता है!
इस पुस्तक में दिए संस्मरणों में ऐसी अनूठी विविधता है जो पाठक को लगातार आनंदित करती है। लेखक चूंकि सिद्धहस्त फोटोग्राफर हैं तो उनकी ही खींची हुई सैकड़ों रंगीन तस्वीरें इस आनंद को दोगुना करती हैं। एक सामान्य शहरी व्यक्ति अपने आसपास के चिडिय़ाघर में जो पशु-पक्षी हैं उनको ही देख पाता है, उसके आगे देखने का न तो शायद समय मिलता, न ही कोई ललक होती। बहुत हुआ तो डिस्कवरी चैनल पर कोई कार्यक्रम देख लिया। लेकिन यहां तो सुरेन्द्र जी हमारे सामने एक पूरा एलबम खोलकर रख देते हैं। उसमें कहीं समुद्र तट पर कछुओं के नष्ट हुए असंख्य अंडों का चित्रण है तो कहीं लम्बी पूंछ वाली गिलहरी शेकरू, कहीं छलांग भरती कोयटी लोमड़ी है, तो कहीं पेड़ पर चढ़ी चींटीखोर पेंगोलिन। इन चित्रों को देखिए, इनके साथ दिए गए विवरण को पढि़ए और मन को प्रसन्न कीजिए।
वे केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान के वृत्तांत में साइबेरिया से आए प्रवासी पक्षियों से हमें परिचित कराते हैं। हमें पता चलता है कि सारस पक्षी अपने जीवन साथी का वियोग नहीं सह पाता। दोनों में से कोई एक मर जाए या खो जाए तो दूसरा विरह में तड़प-तड़प कर जान दे देता है। वे हमें यह भी बताते हैं कि ये पक्षी अपना यात्रा पथ कैसे तय करते हैं और फिर उनकी स्वतंत्र दिनचर्या का इन शब्दों में वर्णन करते हैं जिन्हें पढ़कर हमें शायद पक्षियों से ही ईष्र्या होने लगे- ''इन प्रवासी पक्षियों को एक देश से दूसरे देश जाने के लिए न तो कोई पासपोर्ट चाहिए न ही कोई वीसा या कोई वाहन। ये पक्षी कोई राजनीतिक बंधन में भी नहीं बंधते और जहां इनकी मर्जी, जहां सुरक्षा व उत्तम भोजन मिले, उसे ही अपना ठौर-ठिकाना बना लेते है। घने में उगी घास की जड़ें इनका प्रिय भोजन है। छिछले पानी में खड़े ये अपना भोजन तलाशते रहते हैं। इनका नृत्य देखना भी एक अत्यंत दुर्लभ और अतुलनीय आनंददायक अनुभव है। नृत्य के दौरान इनकी आवाज से ऐसा भ्रम होता है जैसे कहीं कोई मीठी बांसुरी बजा रहा है।"
हमारे प्राणीविद् लेखक नेपाल के बरदिया राष्ट्रीय उद्यान की सैर करते हैं ताकि वहां के वासी राजा गज नामक हाथी को देख सकें, जिसके दांत दुनिया के सारे हाथियों से ज्यादा लंबे हैं। इस परिवेश का वृत्त लिखते हुए लेखक इन शब्दों में अपने कवि हृदय का परिचय देता है:- अब महारात्रि अपनी चादर फैला रही थी, अपने आगोश में लेने के लिए, झींगुर, झिल्ली की झंकार ने अपना रात्रि संगीत आरंभ कर दिया था निशा प्रहरी का कर्तव्य निभाने के लिए। पंछी आवास वृक्षों पर रात्रि विश्राम के लिए बसेरा करने आने लगे थे। संध्या घाटी में उतर आई थी। समूचा महावन प्रगाढ़ निद्रा में अचेत होने को आतुर था और भय की छायाएं प्रतिक्षण मंडराने लगी थीं।"
प्रकृति के साथ लेखक ने जो तादात्म्य स्थापित कर लिया है वह उसे हमेशा परेशान करता है। वह चाहता है कि वन देवता और उसकी प्रजा दोनों की रक्षा होना चाहिए। वह बहुत व्यावहारिक होकर कहता है कि मनुष्य और वन पशु के बीच की लड़ाई तभी समाप्त हो सकती है जब राज्य याने सरकार इसमें प्रभावी ढंग से हस्तक्षेप करे। हाथियों पर मुख्यत: केन्द्रित इस लेख में वह हाथियों पर फिल्म बनाने वाले विश्वप्रसिद्ध माइक पांडे को उद्धृत करता है- ''वन्य जीवन से लगाव ऐसा होता है मानो जंगल से शादी रच ली हो और यह तो एक ऐसा रोग होता है जिसे तुम अपने खून से कभी बाहर नहीं निकाल सकते हो।"
सुरेन्द्र तिवारी भारत में अंडमान निकोबार तक जाते हैं तो सात समुंदर पार सुदूर उत्तर में अलास्का भी हो आते हैं। वे देश के भीतर कतरनिया घाट की यात्रा करते हैं तो अमेरिका का यलोस्टोन नेशनल पार्क भी उन्हें अपनी ओर खींच लेता है। ऐसा सैलानी अफ्रीका न जाए, ऐसा हो ही नहीं सकता तो वे केन्या-तंजानिया में सेंरगेटी और मसाईमारा अभ्यारण्य के भी अनुभव हासिल करते हैं। इन सारे विवरणों में जो विशेष बात है वह यह कि इनकी भाषा कवि सुलभ है। लेखक स्वयं अपने विचार आलंकारिक शब्दावली में व्यक्त करता है और उसे जहां भी उचित लगता है वहां अन्यों से उद्धरण लेने में संकोच नहीं करता। मिसाल के तौर पर एक जगह वह देश के जाने-माने बाघ विशेषज्ञ बिली अर्जुनसिंह का कथन दोहराता है- वन्य प्राणियों के लिए कोई स्वर्ग या नरक नहीं होता सिवाय उसके जिसे मनुष्य ने बनाया है। वह पक्षी वन में जाता है तो इन शब्दों में अपने भाव व्यक्त करता है- ''परिंदे अब भी पर तौले हुए हैं, हवा में सनसनी घोले हुए हैं।"
इसी तरह एक स्थान पर वह लिखता है- ''हिमालय की तराई के गहन वन में धंसे दबे हुए एक पुरातन जंगल ग्रंथ का फडफ़ड़ाता पृष्ठ है कतरनिया घाट जिसके हर सफे पर वन्य जीवन के जीवंत हस्ताक्षर हैं।" दूसरी ओर दांडेली में वह कहता है- ''वन देवता को अप्रसन्न करने का एक भी कार्य वहां न होना चाहिए। वन भूमियां सौंदर्य के अक्षय भंडार हैं, अहिंसा, प्रेम और शांति के प्रतीक हैं, वैराग्य के उद्दीपक हैं, आनंद के स्रोत हैं, पवित्रताओं के निकेतन हैं। उनके लिए हमारे हृदय में ऐसी ही सम्मान भावना रहनी चाहिए। तभी तो रस आएगा।" इस लेख का अंत वह इन पंक्तियों के साथ करता है-
''वो भयानक जंगलों को पार कर आया मगर,
आदमी था अपनी ही बस्ती में आकर डर गया।"
सुरेन्द्र तिवारी की एक और विशेषता है। वे वन्य जीवन को एकांगी दृष्टि से नहीं देखते बल्कि जो कुछ देख रहे हैं उसका व्यापक संदर्भों के साथ वर्णन करते हैं। वे पुराकथाओं का आश्रय लेते हैं, उन किंवदंतियों का भी उल्लेख करते हैं जो प्रसंग विषय से जुड़ी हुई है। ऐतिहासिक संदर्भों का भी हवाला देते हैं तथा भौगोलिक एवं प्राणीशास्त्रीय तथ्यों को भी रोचकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने जगह-जगह वन्य जीवन विशेषज्ञों के कथनों को दोहराया है तो हिन्दी तथा अन्य भाषाओं के कवियों की पंक्तियों को भी अपने विचारों के समर्थन में उठाकर उन्हें पुष्ट किया है। याने पुस्तक भले ही वन्यजीवन के संस्मरणों की हो, लेकिन भाषा शैली के चलते मानो यह एक कविता की किताब में बदल गई हो। एक जगह कहीं नदी किनारे बैठे उसे किसी कवि की ये पंक्तियां याद आती हैं-
बन जाओ तुम पत्थर मैं तुम पर,
फूल-फूल गिरता जाऊंगा,
तुम्हें कद ऊंचा इतना ऊंचा दूंगा कि,
तुम्हारी नीची आंखें पा जाऊंगा।
तो अंडमान के आदिवासी अंचल से लौटते हुए उन्हें महाकवि जयशंकर प्रसाद का स्मरण हो आता है-
''बांधकर तूफान अपनी मुट्ठियों में हम चले,
दोपहर के सूर्य जैसे इस धरा पर हम जले,
हम नदी की धार बनकर बह रहे,
उठ गए ऊपर गए, ऊंचाइयों से नभ तले।"
मैं इस पुस्तक पर चर्चा लेखक द्वारा उद्धृत दो कथनों से समाप्त करना चाहूंगा। एक जगह वह जॉन म्यूर नामक प्रकृतिविद् को उद्धृत करता है- ''जंगल की प्रत्येक यात्रा एक धार्मिक अनुष्ठान है और झरने का हर स्थान उसे बचाने का अध्यादेश।" दूसरा कथन विलियम हॉजलिट का है- ''मैं तो अपना सम्पूर्ण जीवन ही ऐसी यात्राओं में बिताना चाहता हूं, यदि मुझे एक और जीवन कहीं से उधार में मिल जाए अपने घर में बिताने के लिए।"
पुस्तक के शीर्षक से विषय परिचय हो जाएगा- ''विकराल वनांचलों की विभीषिकाओं में एक वनप्रेमी"। विकराल और विभीषिका जैसे शब्द सुनकर डर लग सकता है; यह अंदाज हो सकता है कि यह जंगल महकमे के किसी अधिकारी या किसी शिकारी के लोमहर्षक अनुभवों की कथा है। वास्तव में ऐसा है नहीं, यह तो लेखक ने आलंकारिकता के मोह में पड़कर पाठक को कुछ पलों के लिए भ्रमित कर दिया है। पुस्तक में वनप्रेमी के अनुभव तो हैं, लेकिन वे आपको प्रकृति और वनराशि के निकट ले चलते हैं, उनसे साक्षात्कार करवाते हैं, वन्य पशुओं, पक्षी जगत और जलचरों से परिचय पाने के लिए आमंत्रित करते हैं। उनके साथ साहचर्य स्थापित करने, उनका सम्मान करने, उनकी सुरक्षा करने के लिए प्रेरित करते हैं।
आइए, लेखक से भी आपको मिलवाएं। डॉ. सुरेन्द्र तिवारी भोपाल के निवासी हैं। वन्यजीवन में लंबे समय से आपकी रुचि रही है। जब समय मिला, जंगल की सैर पर निकल पड़े। इसी शौक के चलते आज मध्यप्रदेश और अन्यत्र एक वन्यजीवन विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। यूं तो देश में इस अनुशासन के अध्येताओं/विशेषज्ञों की कमी नहीं है, लेकिन उनमें से कितने हैं जो अपने ज्ञान और अनुभवों को लिपिबद्ध करने में रुचि रखते हैं? जो लिखते हैं तो उनमें भी अधिकतर अंग्रेजी में। हो सकता है कि कुछेक ने अन्य भारतीय भाषाओं मे लिखा हो, उन्हें हम नहीं जानते। ऐसे लेखकों को उंगलियों पर गिना जा सकता है, जिन्होंने हिन्दी में प्राणीजगत और वन्य जीवन पर संस्मरण लिखे हों। एक नाम अवश्य याद आता है- रमेश बेदी का। उन्होंने वन्य पशुओं पर काफी लिखा है, सरल भाषा में, एक समय उनकी किताबें काफी लोकप्रिय हुई थीं, उस दौर में जब पुस्तकें पढ़ी जाती थीं। सुरेन्द्र तिवारी ने उनके काम को न सिर्फ आगे बढ़ाया है, बल्कि उसके क्षेत्र को विस्तृत किया है और प्रस्तुति भी बेहतरीन तरीके से की है। बेदीजी का साथ उनके पुत्रों ने दिया तो यहां श्रीमती तिवारी हाजिर हैं, जिन्हें लेखक कभी साथिन, कभी संगिनी लिखकर मधुरता से संबोधित करते हैं। श्री बेदी व श्री तिवारी के बीच मुझे याद आता है कि जानी-मानी लेखिका लीना मेहंदेले ने भी पशुजगत को लेकर आत्मीय भाव से परिपूर्ण संस्मरण लिखे हैं।
डॉ. सुरेन्द्र तिवारी इसके पूर्व एक और पुस्तक लिख चुके हैं जिसका शीर्षक ज्यादा सटीक है- ''एक प्रकृति प्रेमी के प्रेरक प्रसंग"। उनकी दूसरी पुस्तक भी ऐसे ही प्रसंगों से भरपूर है जो पाठक के मन में एक अलग तरह की प्रेरणा जगाते हैं। इस पुस्तक में चौबीस अध्याय हैं जिनमें से तेरह भारत पर और ग्यारह विदेशों में की गई यात्राओं पर आधारित हैं। लेखक उस तरह का प्रकृति प्रेमी नहीं है जिनकी भरमार आज देखी जा रही है। वाइल्ड लाइफ टूरिज्म और इको टूरिज्म आदि के नाम पर पांच सितारा होटलों व पर्यटन उद्योग ने जो प्रपंच खड़ा किया है उसके चलते ही यह भीड़ इकट्ठा हुई है। जंगल, पहाड़, समुद्र, रेगिस्तान सब देखना है, लेकिन अपनी शर्तों पर और हड़बड़ी में। ऐसे पर्यटकों का एकमात्र लक्ष्य होता है कि यात्रा से लौटकर आएं और सबको बताएं कि वे शेर देखकर आए हैं। इन्हें पर्यटन स्थल पर हर तरह की सुविधा की दरकार होती है, उनके बिना वे रह नहीं सकते, जो कुछ देखकर लौटते हैं उसकी तस्वीरें परिचितों को पोस्ट करते हैं और शायद किसी हद तक ग्लानि से मुक्त हो बताने की कोशिश करते हैं कि देखो, हम भी प्रकृति प्रेमी हैं।
डॉ. सुरेन्द्र तिवारी के संस्मरणों में एक अपवाद स्वरूप व्यक्तित्व उभरकर आता है। वे उड़ीसा की विश्व प्रसिद्ध चिलिका झील पर पहुंचते हैं तो स्वाधीनता सेनानी कवि गोपबंधु दास की कविता उद्धृत करते हैं- ''एक पल को रुको, क्या तुम रुकोगे, ओ अग्नि रथ? मुझे इस सौंदर्य को जी भर करके देख लेने दो, चिलिका के इस विहंगम दृश्य को। मुझे तो ऐसा लग रहा है मानो ये तो कोई स्वप्न-चित्र है, सत्य नहीं। क्या इस धरती पर कोई इतनी सुन्दर चीज हो सकती है? आह! ये वेदना शून्य वाहन, जो मुझे यहां से इतनी लापरवाही से भगाए लिए जा रहा है। जहां चट्टानों, शिलाओं और वृक्षों से मेरी दृष्टि अवरुद्ध हो रही है- मेरे और चिलिका के बीच और इतने सुन्दर न•ाारों को बार-बार ओझल कर देती है। ये कभी दिखाई देते हैं और कभी मेरी नजर से दूर हो जाते हैं। वैसे ही जैसे अपने अति प्रिय के सपनों में दर्शन होते हैं और ओझल हो जाते हैं। मेरी आत्मा तो हमेशा-हमेशा से इस सुंदरता की प्यासी ही रही है। अपने अति व्यस्त समय में से भी मैंने यह योजना बनाई थी कि मैं तुम्हारे किनारों पर नितान्त अकेला ही टहलूंगा और इस सुंदरता का पान करूंगा ओ मेरी प्यारी चिलिका"। वे पुस्तक के इस पहले ही लेख में चिलिका की शोभा का वर्णन करते हैं लेकिन वहीं उन्हें यह चिंता भी सताती है कि मछली और झींगे के व्यापार के चलते वृक्षों की कटाई और गाद भरने से झील को कितना नुकसान हो रहा है। यहां वे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को उद्धृत करते हैं कि ''शौकीन मानव ने इतने पशु-पक्षी मारकर खा डाले हैं कि तैरने वालों में सिर्फ नाव, उडऩे वालों में सिर्फ पतंग और चौपायों में सिर्फ खाट ही शेष बची है।"
उड़ीसा के ही भीतरकनिका अभ्यारण्य के पूरे परिवेश का वे सजीव चित्रण करते हैं। प्रकृति की एक अद्भुत लीला के बारे में बताते हैं कि कैसे हजारों किलोमीटर दूर से आलिव रिडले नामक समुद्री कछुए यहां के समुद्रतट पर हर साल आते हैं। लाखों कछुए पानी से बमुश्किल पैंतालिस मिनट के लिए बाहर निकलते हैं, घोंसले बनाते हैं, अंडे देते हैं, वे भी रात के समय और फिर तुरंत लौट जाते हैं। इसी लेख में वे बतलाना जरूरी समझते हैं कि उड़ीसा के समुद्रतट वासियों से लेकर चीन तक इन अंडों का बाजार कैसे फैला हु्आ है जिसके कारण कछुओं की संख्या में लगातार कमी आ रही है। वे कछुए के साथ प्रकृति के आदिम संबंध की भी चर्चा करते हैं और विश्व में इन्हें बचाने की पहल का भी। वे एक अन्य उद्धरण देते हैं कि ''आज हम उस दोराहे पर खड़े हैं जहां से एक राह तो इन पुरातन जीवों को बचाने के लिए जाती है और दूसरी उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए खो देने के लिए।"
उड़ीसा के समुद्र तट से लेखक हमें हिमाचल प्रदेश ले जाते हैं। हिमालय की कुल्लू घाटी में, उत्तराखंड के कतरनिया घाट में, ऊपर नेपाल तक। वे अपने घर मध्यप्रदेश के मढ़ई अभ्यारण्य में भी ले चलते हैं, राजस्थान के केवलादेव पक्षी अभ्यारण्य में, महाराष्ट्र के भीमाशंकर में, कर्नाटक के दांड़ेली में, कच्छ के पिरोटन द्वीप में जिसकी जानकारी सामान्य तौर पर लोगों को कम है और भारत के अंतिम छोर अंडमान निकोबार में भी। जब ऐसी-ऐसी यात्राएं कर रहे हैं तो कुछ न कुछ मुश्किलें भी पेश आना ही है। परिणामस्वरूप जब वे पिरोटन में जाते हैं जो कि एक समुद्री अभ्यारण्य है तो वहां बीच समुद्र में शून्य तापमान पर रात बिताने की नौबत आती है, तो किसी दूसरी यात्रा में सामने बाघ आकर खड़ा हो जाता है और शायद लेखक को अपना दोस्त समझकर छोड़ देता है!
इस पुस्तक में दिए संस्मरणों में ऐसी अनूठी विविधता है जो पाठक को लगातार आनंदित करती है। लेखक चूंकि सिद्धहस्त फोटोग्राफर हैं तो उनकी ही खींची हुई सैकड़ों रंगीन तस्वीरें इस आनंद को दोगुना करती हैं। एक सामान्य शहरी व्यक्ति अपने आसपास के चिडिय़ाघर में जो पशु-पक्षी हैं उनको ही देख पाता है, उसके आगे देखने का न तो शायद समय मिलता, न ही कोई ललक होती। बहुत हुआ तो डिस्कवरी चैनल पर कोई कार्यक्रम देख लिया। लेकिन यहां तो सुरेन्द्र जी हमारे सामने एक पूरा एलबम खोलकर रख देते हैं। उसमें कहीं समुद्र तट पर कछुओं के नष्ट हुए असंख्य अंडों का चित्रण है तो कहीं लम्बी पूंछ वाली गिलहरी शेकरू, कहीं छलांग भरती कोयटी लोमड़ी है, तो कहीं पेड़ पर चढ़ी चींटीखोर पेंगोलिन। इन चित्रों को देखिए, इनके साथ दिए गए विवरण को पढि़ए और मन को प्रसन्न कीजिए।
वे केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान के वृत्तांत में साइबेरिया से आए प्रवासी पक्षियों से हमें परिचित कराते हैं। हमें पता चलता है कि सारस पक्षी अपने जीवन साथी का वियोग नहीं सह पाता। दोनों में से कोई एक मर जाए या खो जाए तो दूसरा विरह में तड़प-तड़प कर जान दे देता है। वे हमें यह भी बताते हैं कि ये पक्षी अपना यात्रा पथ कैसे तय करते हैं और फिर उनकी स्वतंत्र दिनचर्या का इन शब्दों में वर्णन करते हैं जिन्हें पढ़कर हमें शायद पक्षियों से ही ईष्र्या होने लगे- ''इन प्रवासी पक्षियों को एक देश से दूसरे देश जाने के लिए न तो कोई पासपोर्ट चाहिए न ही कोई वीसा या कोई वाहन। ये पक्षी कोई राजनीतिक बंधन में भी नहीं बंधते और जहां इनकी मर्जी, जहां सुरक्षा व उत्तम भोजन मिले, उसे ही अपना ठौर-ठिकाना बना लेते है। घने में उगी घास की जड़ें इनका प्रिय भोजन है। छिछले पानी में खड़े ये अपना भोजन तलाशते रहते हैं। इनका नृत्य देखना भी एक अत्यंत दुर्लभ और अतुलनीय आनंददायक अनुभव है। नृत्य के दौरान इनकी आवाज से ऐसा भ्रम होता है जैसे कहीं कोई मीठी बांसुरी बजा रहा है।"
हमारे प्राणीविद् लेखक नेपाल के बरदिया राष्ट्रीय उद्यान की सैर करते हैं ताकि वहां के वासी राजा गज नामक हाथी को देख सकें, जिसके दांत दुनिया के सारे हाथियों से ज्यादा लंबे हैं। इस परिवेश का वृत्त लिखते हुए लेखक इन शब्दों में अपने कवि हृदय का परिचय देता है:- अब महारात्रि अपनी चादर फैला रही थी, अपने आगोश में लेने के लिए, झींगुर, झिल्ली की झंकार ने अपना रात्रि संगीत आरंभ कर दिया था निशा प्रहरी का कर्तव्य निभाने के लिए। पंछी आवास वृक्षों पर रात्रि विश्राम के लिए बसेरा करने आने लगे थे। संध्या घाटी में उतर आई थी। समूचा महावन प्रगाढ़ निद्रा में अचेत होने को आतुर था और भय की छायाएं प्रतिक्षण मंडराने लगी थीं।"
प्रकृति के साथ लेखक ने जो तादात्म्य स्थापित कर लिया है वह उसे हमेशा परेशान करता है। वह चाहता है कि वन देवता और उसकी प्रजा दोनों की रक्षा होना चाहिए। वह बहुत व्यावहारिक होकर कहता है कि मनुष्य और वन पशु के बीच की लड़ाई तभी समाप्त हो सकती है जब राज्य याने सरकार इसमें प्रभावी ढंग से हस्तक्षेप करे। हाथियों पर मुख्यत: केन्द्रित इस लेख में वह हाथियों पर फिल्म बनाने वाले विश्वप्रसिद्ध माइक पांडे को उद्धृत करता है- ''वन्य जीवन से लगाव ऐसा होता है मानो जंगल से शादी रच ली हो और यह तो एक ऐसा रोग होता है जिसे तुम अपने खून से कभी बाहर नहीं निकाल सकते हो।"
सुरेन्द्र तिवारी भारत में अंडमान निकोबार तक जाते हैं तो सात समुंदर पार सुदूर उत्तर में अलास्का भी हो आते हैं। वे देश के भीतर कतरनिया घाट की यात्रा करते हैं तो अमेरिका का यलोस्टोन नेशनल पार्क भी उन्हें अपनी ओर खींच लेता है। ऐसा सैलानी अफ्रीका न जाए, ऐसा हो ही नहीं सकता तो वे केन्या-तंजानिया में सेंरगेटी और मसाईमारा अभ्यारण्य के भी अनुभव हासिल करते हैं। इन सारे विवरणों में जो विशेष बात है वह यह कि इनकी भाषा कवि सुलभ है। लेखक स्वयं अपने विचार आलंकारिक शब्दावली में व्यक्त करता है और उसे जहां भी उचित लगता है वहां अन्यों से उद्धरण लेने में संकोच नहीं करता। मिसाल के तौर पर एक जगह वह देश के जाने-माने बाघ विशेषज्ञ बिली अर्जुनसिंह का कथन दोहराता है- वन्य प्राणियों के लिए कोई स्वर्ग या नरक नहीं होता सिवाय उसके जिसे मनुष्य ने बनाया है। वह पक्षी वन में जाता है तो इन शब्दों में अपने भाव व्यक्त करता है- ''परिंदे अब भी पर तौले हुए हैं, हवा में सनसनी घोले हुए हैं।"
इसी तरह एक स्थान पर वह लिखता है- ''हिमालय की तराई के गहन वन में धंसे दबे हुए एक पुरातन जंगल ग्रंथ का फडफ़ड़ाता पृष्ठ है कतरनिया घाट जिसके हर सफे पर वन्य जीवन के जीवंत हस्ताक्षर हैं।" दूसरी ओर दांडेली में वह कहता है- ''वन देवता को अप्रसन्न करने का एक भी कार्य वहां न होना चाहिए। वन भूमियां सौंदर्य के अक्षय भंडार हैं, अहिंसा, प्रेम और शांति के प्रतीक हैं, वैराग्य के उद्दीपक हैं, आनंद के स्रोत हैं, पवित्रताओं के निकेतन हैं। उनके लिए हमारे हृदय में ऐसी ही सम्मान भावना रहनी चाहिए। तभी तो रस आएगा।" इस लेख का अंत वह इन पंक्तियों के साथ करता है-
''वो भयानक जंगलों को पार कर आया मगर,
आदमी था अपनी ही बस्ती में आकर डर गया।"
सुरेन्द्र तिवारी की एक और विशेषता है। वे वन्य जीवन को एकांगी दृष्टि से नहीं देखते बल्कि जो कुछ देख रहे हैं उसका व्यापक संदर्भों के साथ वर्णन करते हैं। वे पुराकथाओं का आश्रय लेते हैं, उन किंवदंतियों का भी उल्लेख करते हैं जो प्रसंग विषय से जुड़ी हुई है। ऐतिहासिक संदर्भों का भी हवाला देते हैं तथा भौगोलिक एवं प्राणीशास्त्रीय तथ्यों को भी रोचकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने जगह-जगह वन्य जीवन विशेषज्ञों के कथनों को दोहराया है तो हिन्दी तथा अन्य भाषाओं के कवियों की पंक्तियों को भी अपने विचारों के समर्थन में उठाकर उन्हें पुष्ट किया है। याने पुस्तक भले ही वन्यजीवन के संस्मरणों की हो, लेकिन भाषा शैली के चलते मानो यह एक कविता की किताब में बदल गई हो। एक जगह कहीं नदी किनारे बैठे उसे किसी कवि की ये पंक्तियां याद आती हैं-
बन जाओ तुम पत्थर मैं तुम पर,
फूल-फूल गिरता जाऊंगा,
तुम्हें कद ऊंचा इतना ऊंचा दूंगा कि,
तुम्हारी नीची आंखें पा जाऊंगा।
तो अंडमान के आदिवासी अंचल से लौटते हुए उन्हें महाकवि जयशंकर प्रसाद का स्मरण हो आता है-
''बांधकर तूफान अपनी मुट्ठियों में हम चले,
दोपहर के सूर्य जैसे इस धरा पर हम जले,
हम नदी की धार बनकर बह रहे,
उठ गए ऊपर गए, ऊंचाइयों से नभ तले।"
मैं इस पुस्तक पर चर्चा लेखक द्वारा उद्धृत दो कथनों से समाप्त करना चाहूंगा। एक जगह वह जॉन म्यूर नामक प्रकृतिविद् को उद्धृत करता है- ''जंगल की प्रत्येक यात्रा एक धार्मिक अनुष्ठान है और झरने का हर स्थान उसे बचाने का अध्यादेश।" दूसरा कथन विलियम हॉजलिट का है- ''मैं तो अपना सम्पूर्ण जीवन ही ऐसी यात्राओं में बिताना चाहता हूं, यदि मुझे एक और जीवन कहीं से उधार में मिल जाए अपने घर में बिताने के लिए।"
अक्षर पर्व फ़रवरी 2015 अंक की प्रस्तावना