''बची उम्र को
बचाने की फिकर क्या
इस रात में भी
दोपहरी सा
दूना धधकता हूं।''
कवि मलय के नए संकलन ''असंभव की आंच'' की एक कविता ''रात में दूना'' की ये अंतिम पंक्तियां हैं। कह सकते हैं कि यह मलय का आत्मपरिचय है और मैं उन्हें जितना जानता हूं, उनके संघर्षपूर्ण जीवन की शायद इससे बेहतर और कोई व्याख्या नहीं हो सकती थी।
मलय पच्यासी साल के हो गए हैं। इस संकलन का प्रकाशन इसलिए सुखकारक है कि कवि ने इस आयु में भी अपनी सक्रियता बरकरार रखी है, किन्तु मेरे लिए यह ज्यादा प्रसन्नता का विषय है कि इन कविताओं में कवि ने खुद को किसी हद तक नए सिरे से तराशा है। प्रस्तुत कविताओं में जो बिंब-विधान, जो प्रतीक उन्होंने प्रयुक्त किए हैं, वे उनकी चिर-परिचित शैली से काफी भिन्न हैं। यह ताजगी प्रसन्न करती है। आशय यह कि मलय जी इस आयु में भी ऊर्जा से लबरेज होकर नए अंदाज में अपने विचारों को प्रगट करने का सफल यत्न कर रहे हैं।
मैं इन कविताओं से गुजरते हुए फिर एक जगह रुकता हूं। ''चाबियां" शीर्षक कविता में वे कहते हैं-
''इस तरह उम्र यह
खुल खिलकर
कुछ छूटती है खुद
और आगे बढ़ चलती है
रास्ते तलाशती है
जान की जोखिम से
पूरी निडर होकर।"
इस कविता में भी वही भाव है जो हम पहले देख आए हैं। कवि को अपनी बढ़ती उम्र का अहसास है जो बार-बार झलकता है, लेकिन कवि हार मानने के लिए तैयार नहीं है। जीवन है तो सुख-दुख के बीच, आशा-निराशा के बीच, उजाले-अंधेरे के बीच उसे पूरी तरह जीना चाहिए, पूरे तेज के साथ, पूरी जिजीविषा के साथ, लेकिन वह भी खुद के लिए नहीं। जिसने साहित्य के संस्कार, मुक्तिबोध और परसाई से पाए हों उससे आप स्वान्त: सुखाय लिखने या जीने की उम्मीद कर भी कैसे सकते हैं? इसीलिए कवि कहता है-
''लापरवाह-
अपने डबरों में
मस्ती के आख्यान
सुनने की फुर्सत किसे है?
मैं भूख से तिलमिलाते
दिलों में दावानल से
रोज ही झुलसता हूं।"
कवि का अंतर-बाह्य एक ही है और इसीलिए वह खुद के बारे में कह सकता है-
''पानी की
पारदर्शिता में
डूबता हूं
गहरी जड़ों तक।"
मलय जी को मैं तबसे जानता हूं जब मैं जबलपुर में कॉलेज का विद्यार्थी था और वे एक स्कूल के अध्यापक। यह सन् 1961 की बात है। एक कवि के रूप में उनकी पहचान बनना प्रारंभ हो चुकी थी। अगर मुझे ठीक याद है तो उनका पहला कविता संकलन ''हथेलियों का समुद्र" 1963 में प्रकाशित हो गया था। इस संकलन में सौ कविताएं थीं। वे जिन वैचारिक मूल्यों को लेकर आगे बढ़े, उनका प्रथम परिचय इस संकलन की कविताओं से ही मिल गया था। यद्यपि कविता के शिल्प से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ था। मुझे ऐसा लगा था कि उन्हें कुछ बिबों और प्रतीकों से ज्यादा मोह हो गया है जिन्हें दोहराए बिना वे नहीं रह पा रहे हैं। आगे चलकर मलय जी ने लम्बी कविताएं भी लिखीं। इसे लेकर उन पर मुक्तिबोध की कॉपी करने जैसी टिप्पणियां भी की गईं। मेरी भी धारणा है कि मलय जी लंबी कविताओं को पूरी तरह से साध नहीं पाए। उन्होंने कुछ कहानियां भी लिखीं। एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ, यद्यपि उसकी बहुत चर्चा नहीं हुई। शायद मलय जी ने भी जल्दी ही समझ लिया कि उनकी मूल प्रवृत्ति कविता की ही है।
मलय प्रारंभ से ही प्रगतिशील आंदोलन में सक्रिय रहे हैं। जबलपुर में जब हम कुछ तरुणों ने ''संगम" नामक साहित्यिक संस्था बनाई थी तो उसके पहले अध्यक्ष कवि पुरुषोत्तम खरे (''सृजन के पीडि़त क्षणों में") और दूसरे अध्यक्ष मलय बने। उनकी ही अध्यक्षता में हमने परसाई जी के मार्गदर्शन में मुक्तिबोध को जबलपुर आमंत्रित किया था। मलय जी के लिए यह समय व्यक्तिगत जीवन में कड़े संकट का था। स्कूल में अध्यापन के साथ-साथ वे अखबार में अंशकालीन काम भी कर रहे थे। कुछ वर्षों बाद वे राजनांदगांव के उसी दिग्विजय महाविद्यालय में प्राध्यापक होकर आए जहां मुक्तिबोध जी ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष बिताए थे। राजनांदगांव में मलय जी को लिखने-पढऩे का कुछ वैसा ही वातावरण मिला होगा जो कि जबलपुर में था। जब 1974 में प्रगतिशील लेखक संघ का राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्गठन हुआ और छत्तीसगढ़ में उसकी गतिविधियां प्रारंभ हुईं तो मलय जी स्वाभाविक रूप से उसकी अग्रपंक्ति में थे।
मैं जब उनके नए कविता संग्रह पर चर्चा करने बैठा हूं तो उन्हें एक व्यक्ति के रूप में मैंने जैसा देखा है उसका ध्यान हो आना स्वाभाविक है। यदि उसमें पाठकों को विषयांतर लग रहा हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूं। राजनांदगांव में मलय जी ने अपने साथी अध्यापकों और विद्यार्थियों को लिखने-पढऩे की ओर काफी प्रेरित और प्रोत्साहित किया। सुप्रसिद्ध कथाकार पुन्नी सिंह वहां उनके सहयोगी थे, वे आगे चलकर मध्यप्रदेश प्रगतिशील संघ के अध्यक्ष बने। रामकुमार रामरिया, (स्व.) लक्ष्मण कवष इत्यादि अनेक विद्यार्थियों को उन्होंने साहित्य के संस्कार दिए। प्रलेस के शिविरों में वे लगातार शिरकत करते रहे। बहरहाल कवि मलय इन तमाम गतिविधियों में इसीलिए सक्रिय रहे कि वे ईश्वर या भाग्य पर भरोसा करने के बजाय मानते थे कि मनुष्य स्वयं अपनी तकदीर बदल सकता है। इसलिए वे लिखते हैं-
''कांटों की
कठिन क्रूर
क्षुद्रता पर
जिन्दगी को
छोड़ा नहीं जा सकता।"
जीवन में चारों ओर कांटे बिखरे हुए हैं। वे चुभते हैं, उनसे बिंधकर शरीर लहूलुहान भी हो सकता है, लेकिन क्या सिर्फ इसी डर से मनुष्य चलना बंद कर देगा? कांटों में क्रूरता है और एक क्षुद्रता भी। यह क्षुद्रता क्या है? जिनके हाथों में कांटे हैं, जो कांटे बो रहे हैं या जो स्वयं कांटे बनकर खड़े हैं उनका मन छोटा है, उनकी सोच छोटी है, वे चालाक हो सकते हैं और स्वार्थी भी, वे अपने बारे में सोचते हैं, समाज के बारे में नहीं; वे समाज के शत्रु हैं और उसके खिलाफ षडय़ंत्र रचते रहते हैं। मलय जी इसे समझते हैं-
''-प्यास से पसरे संसार में
पानी के धोखे का
पूरा तालाब।"
भूख, प्यास और अभाव का सामना कर रहे लोगों के सामने मृग मरीचिका खड़ी कर दी गई है। कवि इसे समझता है और आगाह करता है कि यह प्यासे मृगों की मूर्खता नहीं है, बल्कि उन वर्ग शत्रुओं की दुरभि संधि है जिसे समझना बाकी है। वह कहता है कि- ''दिल के खुले दरवाजों पर अंधेरे का पहरा है।" वह इस अंधेरे को मिटाना चाहता है। दूसरे शब्दों में कवि जानता है कि लोक शिक्षण मुक्ति के लिए पहली और अनिवार्य शर्त है।
'धुआं' शीर्षक कविता में मलय आगे और चेतावनी देते हैं। वे कहते हैं कि आग धधकती रहे, लेकिन धुआं बनकर न उड़ जाए। निजी महत्वाकांक्षा के चलते आग पर पानी पड़ सकता है। संकल्प अगर धुआं बनकर उड़ गया तो आकाश में छितरा जाएगा और यथास्थिति कायम रही आएगी।
इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगता है कि यहां जैसे कवि ने अपने समूचे व्यक्तित्व को इन कविताओं में विसर्जित कर दिया है। एक-दो कविताएं ऐसी हैं जहां बाहर से किसी विषय को उठाकर कवि काव्य-दृष्टि से उसकी विवेचना करता है जैसे कि ''कभी नहीं डरता" शीर्षक कविता। यहां कवि एक तरफ है और उसके सामने गांव से पलायन करके आया मंगलू है। दोनों की पृथक सत्ता है। बाकी तमाम कविताओं में तो कवि ने स्वयं को विषय बनाया है और स्वयं की ही व्याख्या की है। तथापि यहां जो स्वयं है वह पूरे समाज में रूपांतरित, विस्तारित, और उपस्थित है। समाज के बाहर कवि की अपनी कोई इयत्ता नहीं है। जिस तरह मुक्तिबोध ''मेरे मित्र : मेरे सहचर" में अपने आपको समाज के साथ एकाकार करते हैं, कुछ वैसी ही कशिश, वैसी ही तड़प मलय की इन कविताओं में भी दिख पड़ती है। वह जब कहता है कि मैं बाजार में या कहीं और बिकने से बचता हूं तो यहां भी ''मैं" में हम सब शामिल हो जाते हैं। और जब वह कहता है कि गिरते-हांफते बच्चे धूल भरी ताकत में खेलना नहीं छोड़ते तो यहां भी बच्चे पूरे समाज का बिंब बन जाते हैं।
इन कविताओं में कुछ स्थानों पर संविधान का जिक्र हुआ है। वे एक अनूठी उपमा देते हैं कि-
''संविधान हमारा वसंत है
चहुं दिशी
खुशहाली का पैरोकार"
इसके आगे वे फिर स्पष्ट करते हैं कि चुनावी घोषणा पत्रों से बसंत को सजाकर जनता को किस तरह भरमाया जाता है। इस भाव में कुछ और कविताएं भी हैं।
मलय जी के इस संकलन में ''बेबस" शृंखला के अंतर्गत आठ कविताएं हैं। सहज ही अनुमान होता है कि ये कविताएं उन्होंने अपनी दिवंगता पत्नी की स्मृति में लिखी हैं। जीवन का एकाकीपन कविताओं में ध्वनित-प्रतिबिंबित है। लेकिन कवि मानो इस अभाव से भी जीवन शक्ति हासिल करता है। एक जगह कहता है-
''-याद के बढ़ते
गहराते ताप में
ढलकर-
मिट जाने के सिवाय
हीरा हो जाता हूं।"
इसी तरह वह फिर कहता है-
''जिन्दगी के बीहड़ में
रहते हुए भी
तुम्हारे केन्द्र से
जुड़ी आवाज का
फैलना प्रकाश
हो रहता हूं।"
मैंने मलय जी का पहला संकलन उन्हें तीन रुपया देकर नगद खरीदा था। उसके बाद उनकी बाकी की पुस्तकें भी खरीद कर ही पढ़ीं। इसलिए नोट करना जरूरी है कि यह संकलन मलय जी ने मुझे बहुत प्यार के साथ भेंट किया है। मेरी शुभकामना है कि हमारे प्रिय मित्र और साथी मलय जी अभी कई बरस इसी ऊर्जा के साथ लिखते रहें और अपना अगला संकलन भी इसी प्यार के साथ मुझे भेंट करें। यह शुभेच्छा प्रकट करना इसलिए भी आवश्यक है कि मलय एक अपवाद के रूप में हमारे सामने हैं वरना अधिकतर लेखक तो पचास-पचपन आते तक अपना श्रेष्ठ लिख चुके होते हैं और अपने को पुन: आविष्कृत करने की इच्छा से मुक्त हो चुके होते हैं।
बचाने की फिकर क्या
इस रात में भी
दोपहरी सा
दूना धधकता हूं।''
कवि मलय के नए संकलन ''असंभव की आंच'' की एक कविता ''रात में दूना'' की ये अंतिम पंक्तियां हैं। कह सकते हैं कि यह मलय का आत्मपरिचय है और मैं उन्हें जितना जानता हूं, उनके संघर्षपूर्ण जीवन की शायद इससे बेहतर और कोई व्याख्या नहीं हो सकती थी।
मलय पच्यासी साल के हो गए हैं। इस संकलन का प्रकाशन इसलिए सुखकारक है कि कवि ने इस आयु में भी अपनी सक्रियता बरकरार रखी है, किन्तु मेरे लिए यह ज्यादा प्रसन्नता का विषय है कि इन कविताओं में कवि ने खुद को किसी हद तक नए सिरे से तराशा है। प्रस्तुत कविताओं में जो बिंब-विधान, जो प्रतीक उन्होंने प्रयुक्त किए हैं, वे उनकी चिर-परिचित शैली से काफी भिन्न हैं। यह ताजगी प्रसन्न करती है। आशय यह कि मलय जी इस आयु में भी ऊर्जा से लबरेज होकर नए अंदाज में अपने विचारों को प्रगट करने का सफल यत्न कर रहे हैं।
मैं इन कविताओं से गुजरते हुए फिर एक जगह रुकता हूं। ''चाबियां" शीर्षक कविता में वे कहते हैं-
''इस तरह उम्र यह
खुल खिलकर
कुछ छूटती है खुद
और आगे बढ़ चलती है
रास्ते तलाशती है
जान की जोखिम से
पूरी निडर होकर।"
इस कविता में भी वही भाव है जो हम पहले देख आए हैं। कवि को अपनी बढ़ती उम्र का अहसास है जो बार-बार झलकता है, लेकिन कवि हार मानने के लिए तैयार नहीं है। जीवन है तो सुख-दुख के बीच, आशा-निराशा के बीच, उजाले-अंधेरे के बीच उसे पूरी तरह जीना चाहिए, पूरे तेज के साथ, पूरी जिजीविषा के साथ, लेकिन वह भी खुद के लिए नहीं। जिसने साहित्य के संस्कार, मुक्तिबोध और परसाई से पाए हों उससे आप स्वान्त: सुखाय लिखने या जीने की उम्मीद कर भी कैसे सकते हैं? इसीलिए कवि कहता है-
''लापरवाह-
अपने डबरों में
मस्ती के आख्यान
सुनने की फुर्सत किसे है?
मैं भूख से तिलमिलाते
दिलों में दावानल से
रोज ही झुलसता हूं।"
कवि का अंतर-बाह्य एक ही है और इसीलिए वह खुद के बारे में कह सकता है-
''पानी की
पारदर्शिता में
डूबता हूं
गहरी जड़ों तक।"
मलय जी को मैं तबसे जानता हूं जब मैं जबलपुर में कॉलेज का विद्यार्थी था और वे एक स्कूल के अध्यापक। यह सन् 1961 की बात है। एक कवि के रूप में उनकी पहचान बनना प्रारंभ हो चुकी थी। अगर मुझे ठीक याद है तो उनका पहला कविता संकलन ''हथेलियों का समुद्र" 1963 में प्रकाशित हो गया था। इस संकलन में सौ कविताएं थीं। वे जिन वैचारिक मूल्यों को लेकर आगे बढ़े, उनका प्रथम परिचय इस संकलन की कविताओं से ही मिल गया था। यद्यपि कविता के शिल्प से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ था। मुझे ऐसा लगा था कि उन्हें कुछ बिबों और प्रतीकों से ज्यादा मोह हो गया है जिन्हें दोहराए बिना वे नहीं रह पा रहे हैं। आगे चलकर मलय जी ने लम्बी कविताएं भी लिखीं। इसे लेकर उन पर मुक्तिबोध की कॉपी करने जैसी टिप्पणियां भी की गईं। मेरी भी धारणा है कि मलय जी लंबी कविताओं को पूरी तरह से साध नहीं पाए। उन्होंने कुछ कहानियां भी लिखीं। एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ, यद्यपि उसकी बहुत चर्चा नहीं हुई। शायद मलय जी ने भी जल्दी ही समझ लिया कि उनकी मूल प्रवृत्ति कविता की ही है।
मलय प्रारंभ से ही प्रगतिशील आंदोलन में सक्रिय रहे हैं। जबलपुर में जब हम कुछ तरुणों ने ''संगम" नामक साहित्यिक संस्था बनाई थी तो उसके पहले अध्यक्ष कवि पुरुषोत्तम खरे (''सृजन के पीडि़त क्षणों में") और दूसरे अध्यक्ष मलय बने। उनकी ही अध्यक्षता में हमने परसाई जी के मार्गदर्शन में मुक्तिबोध को जबलपुर आमंत्रित किया था। मलय जी के लिए यह समय व्यक्तिगत जीवन में कड़े संकट का था। स्कूल में अध्यापन के साथ-साथ वे अखबार में अंशकालीन काम भी कर रहे थे। कुछ वर्षों बाद वे राजनांदगांव के उसी दिग्विजय महाविद्यालय में प्राध्यापक होकर आए जहां मुक्तिबोध जी ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष बिताए थे। राजनांदगांव में मलय जी को लिखने-पढऩे का कुछ वैसा ही वातावरण मिला होगा जो कि जबलपुर में था। जब 1974 में प्रगतिशील लेखक संघ का राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्गठन हुआ और छत्तीसगढ़ में उसकी गतिविधियां प्रारंभ हुईं तो मलय जी स्वाभाविक रूप से उसकी अग्रपंक्ति में थे।
मैं जब उनके नए कविता संग्रह पर चर्चा करने बैठा हूं तो उन्हें एक व्यक्ति के रूप में मैंने जैसा देखा है उसका ध्यान हो आना स्वाभाविक है। यदि उसमें पाठकों को विषयांतर लग रहा हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूं। राजनांदगांव में मलय जी ने अपने साथी अध्यापकों और विद्यार्थियों को लिखने-पढऩे की ओर काफी प्रेरित और प्रोत्साहित किया। सुप्रसिद्ध कथाकार पुन्नी सिंह वहां उनके सहयोगी थे, वे आगे चलकर मध्यप्रदेश प्रगतिशील संघ के अध्यक्ष बने। रामकुमार रामरिया, (स्व.) लक्ष्मण कवष इत्यादि अनेक विद्यार्थियों को उन्होंने साहित्य के संस्कार दिए। प्रलेस के शिविरों में वे लगातार शिरकत करते रहे। बहरहाल कवि मलय इन तमाम गतिविधियों में इसीलिए सक्रिय रहे कि वे ईश्वर या भाग्य पर भरोसा करने के बजाय मानते थे कि मनुष्य स्वयं अपनी तकदीर बदल सकता है। इसलिए वे लिखते हैं-
''कांटों की
कठिन क्रूर
क्षुद्रता पर
जिन्दगी को
छोड़ा नहीं जा सकता।"
जीवन में चारों ओर कांटे बिखरे हुए हैं। वे चुभते हैं, उनसे बिंधकर शरीर लहूलुहान भी हो सकता है, लेकिन क्या सिर्फ इसी डर से मनुष्य चलना बंद कर देगा? कांटों में क्रूरता है और एक क्षुद्रता भी। यह क्षुद्रता क्या है? जिनके हाथों में कांटे हैं, जो कांटे बो रहे हैं या जो स्वयं कांटे बनकर खड़े हैं उनका मन छोटा है, उनकी सोच छोटी है, वे चालाक हो सकते हैं और स्वार्थी भी, वे अपने बारे में सोचते हैं, समाज के बारे में नहीं; वे समाज के शत्रु हैं और उसके खिलाफ षडय़ंत्र रचते रहते हैं। मलय जी इसे समझते हैं-
''-प्यास से पसरे संसार में
पानी के धोखे का
पूरा तालाब।"
भूख, प्यास और अभाव का सामना कर रहे लोगों के सामने मृग मरीचिका खड़ी कर दी गई है। कवि इसे समझता है और आगाह करता है कि यह प्यासे मृगों की मूर्खता नहीं है, बल्कि उन वर्ग शत्रुओं की दुरभि संधि है जिसे समझना बाकी है। वह कहता है कि- ''दिल के खुले दरवाजों पर अंधेरे का पहरा है।" वह इस अंधेरे को मिटाना चाहता है। दूसरे शब्दों में कवि जानता है कि लोक शिक्षण मुक्ति के लिए पहली और अनिवार्य शर्त है।
'धुआं' शीर्षक कविता में मलय आगे और चेतावनी देते हैं। वे कहते हैं कि आग धधकती रहे, लेकिन धुआं बनकर न उड़ जाए। निजी महत्वाकांक्षा के चलते आग पर पानी पड़ सकता है। संकल्प अगर धुआं बनकर उड़ गया तो आकाश में छितरा जाएगा और यथास्थिति कायम रही आएगी।
इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगता है कि यहां जैसे कवि ने अपने समूचे व्यक्तित्व को इन कविताओं में विसर्जित कर दिया है। एक-दो कविताएं ऐसी हैं जहां बाहर से किसी विषय को उठाकर कवि काव्य-दृष्टि से उसकी विवेचना करता है जैसे कि ''कभी नहीं डरता" शीर्षक कविता। यहां कवि एक तरफ है और उसके सामने गांव से पलायन करके आया मंगलू है। दोनों की पृथक सत्ता है। बाकी तमाम कविताओं में तो कवि ने स्वयं को विषय बनाया है और स्वयं की ही व्याख्या की है। तथापि यहां जो स्वयं है वह पूरे समाज में रूपांतरित, विस्तारित, और उपस्थित है। समाज के बाहर कवि की अपनी कोई इयत्ता नहीं है। जिस तरह मुक्तिबोध ''मेरे मित्र : मेरे सहचर" में अपने आपको समाज के साथ एकाकार करते हैं, कुछ वैसी ही कशिश, वैसी ही तड़प मलय की इन कविताओं में भी दिख पड़ती है। वह जब कहता है कि मैं बाजार में या कहीं और बिकने से बचता हूं तो यहां भी ''मैं" में हम सब शामिल हो जाते हैं। और जब वह कहता है कि गिरते-हांफते बच्चे धूल भरी ताकत में खेलना नहीं छोड़ते तो यहां भी बच्चे पूरे समाज का बिंब बन जाते हैं।
इन कविताओं में कुछ स्थानों पर संविधान का जिक्र हुआ है। वे एक अनूठी उपमा देते हैं कि-
''संविधान हमारा वसंत है
चहुं दिशी
खुशहाली का पैरोकार"
इसके आगे वे फिर स्पष्ट करते हैं कि चुनावी घोषणा पत्रों से बसंत को सजाकर जनता को किस तरह भरमाया जाता है। इस भाव में कुछ और कविताएं भी हैं।
मलय जी के इस संकलन में ''बेबस" शृंखला के अंतर्गत आठ कविताएं हैं। सहज ही अनुमान होता है कि ये कविताएं उन्होंने अपनी दिवंगता पत्नी की स्मृति में लिखी हैं। जीवन का एकाकीपन कविताओं में ध्वनित-प्रतिबिंबित है। लेकिन कवि मानो इस अभाव से भी जीवन शक्ति हासिल करता है। एक जगह कहता है-
''-याद के बढ़ते
गहराते ताप में
ढलकर-
मिट जाने के सिवाय
हीरा हो जाता हूं।"
इसी तरह वह फिर कहता है-
''जिन्दगी के बीहड़ में
रहते हुए भी
तुम्हारे केन्द्र से
जुड़ी आवाज का
फैलना प्रकाश
हो रहता हूं।"
मैंने मलय जी का पहला संकलन उन्हें तीन रुपया देकर नगद खरीदा था। उसके बाद उनकी बाकी की पुस्तकें भी खरीद कर ही पढ़ीं। इसलिए नोट करना जरूरी है कि यह संकलन मलय जी ने मुझे बहुत प्यार के साथ भेंट किया है। मेरी शुभकामना है कि हमारे प्रिय मित्र और साथी मलय जी अभी कई बरस इसी ऊर्जा के साथ लिखते रहें और अपना अगला संकलन भी इसी प्यार के साथ मुझे भेंट करें। यह शुभेच्छा प्रकट करना इसलिए भी आवश्यक है कि मलय एक अपवाद के रूप में हमारे सामने हैं वरना अधिकतर लेखक तो पचास-पचपन आते तक अपना श्रेष्ठ लिख चुके होते हैं और अपने को पुन: आविष्कृत करने की इच्छा से मुक्त हो चुके होते हैं।
अक्षर पर्व जनवरी 2015 अंक की प्रस्तावना
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