छत्तीसगढ़ की रमन सरकार ने प्रदेश में
पॉलीथिन के निर्माण, विक्रय और उपयोग पर आंशिक प्रतिबंध लगा दिया है।
पर्यावरण सुधार की दिशा में यह एक सही किन्तु अधूरा कदम है। यह हम जानते
हैं कि पॉलीथिन झिल्लियों के उपयोग से बहुत सी परेशानियां खड़ी होती हैं।
जहां-तहां पॉलीथिन के ढेर खड़े हो जाते हैं, नालियों की सफाई में बाधा
उत्पन्न होती है, किसी के गले में फंस जाए तो मौत हो जाए, मवेशी के पेट में
चले जाए तो उसकी भी मौत हो जाने का अंदेशा, किन्तु पॉलीथिन खासकर सस्ते
हल्के झिल्लीनुमा बैग पर रोक लगा देने मात्र से समस्या का हल नहीं निकलने
वाला। मैं कहूंगा कि यह एक आलस भरी सोच है। जो सामने दिख रहा है उसे बंद कर
दो, लेकिन जो एकदम से दिखाई न दे उसकी तरफ झांकने की कोशिश भी न करो। यदि
सरकार प्लास्टिक एवं अन्य वस्तुओं से हो रही पर्यावरण हानि को रोकना चाहती
है तो उसे कुछ ठोस और कठोर कदम उठाना चाहिए अन्यथा यह पहल मोदीजी के स्वच्छ
भारत मिशन जैसी दिखावटी मुहिम बनकर रह जाएगी।
चलिए, पहले प्लास्टिक की ही बात करते हैं। क्या सरकार के पास इस बारे में कोई आंकड़े या ठीक-ठाक अनुमान है कि पेयजल की बोतलों में प्लास्टिक की कितनी खपत होती है और प्रतिदिन कितनी बोतलें उपयोग के बाद सड़क पर या कूड़े के ढेर पर फेंक दी जाती हैं? इन बोतलों का निर्माण कहां होता है? क्या ये बाहर से आती हैं या छत्तीसगढ़ में बनती हैं? इनके निर्माण, विक्रय और उपयोग पर कैसे रोक लग सकती है? अगर पानी प्लास्टिक की बोतल में न बिके तो किस पदार्थ से बने? सस्ता पेयजल तो प्लास्टिक के पाउच में भी बिक रहा है। क्या उस पर भी रोक लगायी गई है? होटलों में होने वाली सरकारी, गैर-सरकारी बैठकों में सौ, दो सौ और पांच सौ मिलीलीटर की बोतलें उपयोग में लाई जाती हैं। इसमें पानी की भी बर्बादी है और प्लास्टिक का उपयोग तो है ही। कुछ साल पहले मैंने नागपुर रेलवे स्टेशन पर देखा था- आर.ओ. या अन्य किसी मशीन से पानी शुद्ध कर यात्रियों को दिया जा रहा था। क्या ऐसी व्यवस्था प्रदेश के बड़े रेलवे स्टेशनों पर सरकारी दफ्तरों में एवं होटलों में नहीं हो सकती? इसमें प्लास्टिक की खपत में भी काफी कमी आएगी और बोतलबंद पानी खरीदने में पैसा भी बचेगा।
यही बात कोक, पेप्सी आदि शीतल पेय के बारे में व फलों के रस पर लागू होती है। इनमें भी कांच की बोतल छोड़ प्लास्टिक की बोतलों का चलन तेजी से बढ़ा है। पी लेने के बाद इन बोतलों का क्या उपयोग होता है? पेप्सी, कोक आदि के बाटलिंग संयंत्र छत्तीसगढ़ में अनेक स्थानों पर लगे हैं? क्या इन पर रोक लगाने का सरकार का कोई विचार है? अगर है भी तो विकल्प क्या है? क्या निर्माताओं को मजबूर किया जा सकता है कि वे कांच की बोतल या कागज के पैकेट का ही इस्तेमाल करें? आशंका होती है कि सरकार ने हिम्मत कर ऐसा निर्णय ले भी लिया तो कंपनियां हाईकोर्ट से जाकर स्टे आर्डर न ले आएं।
हमारी राय में सरकार को यह भी देखना चाहिए कि उसके दफ्तरों में प्लास्टिक का कितना उपयोग होता है। पुराने समय में कागज और पुट्ठे की फाइलें इस्तेमाल होती थीं, लेकिन आजकल प्लास्टिक की फाइल-फोल्डरों का उपयोग करना आम हो गया है। इस दिशा में पहल की जा सकती है कि प्लास्टिक की फाइलों की खरीद बिल्कुल न की जाए। इनके बजाय गत्ते या मोटे कागज से बनी फाइलों को बढ़ावा दिया जाए। जहां आवश्यक हो वहां जूट या कपड़े के कवर वाली फाइलें भी उपयोग में लायी जा सकती हैं। सभा-सेमीनार आदि में ऐसी आकर्षक फाइलों का उपयोग कभी-कभार देखने आता है। गैर-सरकारी क्षेत्र को भी इस दिशा में सोचना चाहिए।
26 जनवरी और 15 अगस्त को प्लास्टिक के तिरंगे बड़ी संख्या में बिकते हैं इन पर शायद रोक लगा दी गई है, किन्तु इसकी जांच करना बेहतर होगा कि प्लास्टिक के तिरंगे ध्वज न बनें, न बिकें। इनके साथ-साथ सजावट के लिए भी प्लास्टिक की झंडियां, तोरण और फूल आदि बनाए जाते हैं। यहीं नहीं, आजकल तो लोहे और टिन के होर्डिंग्स का स्थान भी प्लास्टिक के फ्लैक्स ने ले लिया है। नि:संदेह फ्लैक्स में कलाकारी ज्यादा अच्छे से होती है व इन्हें काफी जल्दी बनाया जा सकता है। लेकिन इनसे बने बैनर व होर्डिंग्स का बाद में क्या उपयोग होता है। अंत में जाकर ये भी कचरे के ढेर की ही शोभा बढ़ाते हैं। तो क्या यह संभव है कि वापिस पुराने नमूने के होर्डिंग्स पर लौटा जाए और पेंटरों को उनका व्यवसाय वापिस मिल जाए!
इसी सिलसिले में यह भी ध्यान आता है कि पॉलीथिन-झिल्ली का एक बड़ा दुरुपयोग शादी-ब्याह व अन्य समारोह में होता है। इसकी शुरुआत निमंत्रण पत्रिका से हो जाती है। इधर दसेक साल से निमंत्रण पत्र पर प्लास्टिक का आवरण चढ़ाने का शौक चल पड़ा है। यह मूर्खता भरा प्रयोग मालूम नहीं किसने शुरू किया। हाथ में कार्ड आए तो पहले झिल्ली हटाओ, फिर लिफाफा खोलो। यह झिल्ली भी कचरे की पेटी में ही पहुंचती है। फिर समारोह के दौरान प्लास्टिक के कप में चाय-काफी, प्लास्टिक के गिलास में पेयजल व शीतल पेय; औसत दर्जे के समारोह में प्लास्टिक के प्लेट में खाना याने इसका कोई अंत नहीं है। क्या सरकार प्रिटिंग प्रेसों को और कैटररों को रोक सकती है कि वे प्लास्टिक का उपयोग बिल्कुल भी न करें?
इसी तरह की एक और कवायद करने की जरूरत है। रेडीमेड कपड़ों की दुकानों से जो कचरा निकलता है उसकी तरफ सामान्यत: ध्यान नहीं जाता। सबसे ऊपर गत्ते का डिब्बा उसके भीतर प्लास्टिक में लिपटा रेडीमेड वस्त्र एवं उसमें टँकी ढेर सारी ऑलपिनें और लेबल, शर्ट के कॉलर के लिए कड़ा प्लास्टिक और न जाने क्या-क्या। मालूम नहीं इतना प्रपंच क्यों किया जाता है! ऐसे उदाहरण अन्य दूकानों पर भी मिल जाएंगे। इसमें अगर अपराधी की तलाश की जाए तो हमारी खोज पैकेजिंग इंडस्ट्री पर जाकर टिकती है।
जैसा कि आजकल सुबह-शाम कहा जाता है यह बाजार का समय है। बाजार अब ग्राहक की आवश्यकता पूर्ति के लिए नहीं है। उसकी निगाह तो ग्राहक की जेब काटना तो क्या, उसकी सारी जमा पूंजी हड़प लेने की है। इसीलिए बाजार दिनोंदिन ज्यादा लुभावना, ज्यादा आकर्षक होते जा रहा है। यह पैकेजिंग इंडस्ट्री की देन है। यहां सादगी से काम नहीं होता। जितना ज्यादा दिखावा उतना बड़ा डाका। बहरहाल यह तो जनता की समझने की बात है। वह जब समझेगी तब समझेगी। सवाल यह है कि सरकार अभी क्या करे। यहां सिर्फ छत्तीसगढ़ राज्य की बात नहीं है। यदि सरकारें स्वच्छ सुरक्षित पर्यावरण वापिस लाना चाहती हैं तो प्लास्टिक की झिल्लियों का निर्माण रोकने के अलावा और भी बहुत से काम करना पड़ेंगे। इसके समानांतर यह भी सोचना पड़ेगा कि प्लास्टिक के व्यवसाय में जो लोग जुड़े हुए हैं उनके रोजगार व रोजी दोनों का क्या होगा। समस्या कठिन है। प्लास्टिक का पुराना विकल्प कागज है, लेकिन कागज के लिए पेड़ कटते हैं। दूसरा विकल्प कांच है, किन्तु उसमें टूट-फूट ज्यादा है। ईंधन का इस्तेमाल और परिवहन की लागत ये दोनों समस्याएं कागज व कांच दोनों के साथ जुड़ी हैं। तब फिर क्या हो?
हमारी राय में यह सरकार का भी दायित्व है और बुद्धिजीवियों का भी कि वे अनावश्यक उपभोग के विरुद्ध जनता को सचेत करने के लिए निरंतर मुहिम चलाएं। 'यूज एंड थ्रो' याने उपयोग करो और फेंको की मनोवृत्ति उचित नहीं है। उसका हर स्तर पर विरोध होना चाहिए। जो भी समाज टिकाऊ विकास चाहता है, उसे टिकाऊ वस्तुओं का उपयोग करना सीखना होगा। आज ही कहीं खबर पढ़ी थी विश्व के एक प्रतिशत लोगों के पास दुनिया का पचास प्रतिशत धन हो गया है। इसका सीधा अर्थ है कि निन्यानबे प्रतिशत जनता को एक प्रतिशत लुटेरों के साथ लडऩे के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक प्लास्टिक की झिल्ली का न उपयोग करने का संकल्प लें और इस खुशफहमी में रहें कि आपने पर्यावरण की रक्षा कर ली है।
चलिए, पहले प्लास्टिक की ही बात करते हैं। क्या सरकार के पास इस बारे में कोई आंकड़े या ठीक-ठाक अनुमान है कि पेयजल की बोतलों में प्लास्टिक की कितनी खपत होती है और प्रतिदिन कितनी बोतलें उपयोग के बाद सड़क पर या कूड़े के ढेर पर फेंक दी जाती हैं? इन बोतलों का निर्माण कहां होता है? क्या ये बाहर से आती हैं या छत्तीसगढ़ में बनती हैं? इनके निर्माण, विक्रय और उपयोग पर कैसे रोक लग सकती है? अगर पानी प्लास्टिक की बोतल में न बिके तो किस पदार्थ से बने? सस्ता पेयजल तो प्लास्टिक के पाउच में भी बिक रहा है। क्या उस पर भी रोक लगायी गई है? होटलों में होने वाली सरकारी, गैर-सरकारी बैठकों में सौ, दो सौ और पांच सौ मिलीलीटर की बोतलें उपयोग में लाई जाती हैं। इसमें पानी की भी बर्बादी है और प्लास्टिक का उपयोग तो है ही। कुछ साल पहले मैंने नागपुर रेलवे स्टेशन पर देखा था- आर.ओ. या अन्य किसी मशीन से पानी शुद्ध कर यात्रियों को दिया जा रहा था। क्या ऐसी व्यवस्था प्रदेश के बड़े रेलवे स्टेशनों पर सरकारी दफ्तरों में एवं होटलों में नहीं हो सकती? इसमें प्लास्टिक की खपत में भी काफी कमी आएगी और बोतलबंद पानी खरीदने में पैसा भी बचेगा।
यही बात कोक, पेप्सी आदि शीतल पेय के बारे में व फलों के रस पर लागू होती है। इनमें भी कांच की बोतल छोड़ प्लास्टिक की बोतलों का चलन तेजी से बढ़ा है। पी लेने के बाद इन बोतलों का क्या उपयोग होता है? पेप्सी, कोक आदि के बाटलिंग संयंत्र छत्तीसगढ़ में अनेक स्थानों पर लगे हैं? क्या इन पर रोक लगाने का सरकार का कोई विचार है? अगर है भी तो विकल्प क्या है? क्या निर्माताओं को मजबूर किया जा सकता है कि वे कांच की बोतल या कागज के पैकेट का ही इस्तेमाल करें? आशंका होती है कि सरकार ने हिम्मत कर ऐसा निर्णय ले भी लिया तो कंपनियां हाईकोर्ट से जाकर स्टे आर्डर न ले आएं।
हमारी राय में सरकार को यह भी देखना चाहिए कि उसके दफ्तरों में प्लास्टिक का कितना उपयोग होता है। पुराने समय में कागज और पुट्ठे की फाइलें इस्तेमाल होती थीं, लेकिन आजकल प्लास्टिक की फाइल-फोल्डरों का उपयोग करना आम हो गया है। इस दिशा में पहल की जा सकती है कि प्लास्टिक की फाइलों की खरीद बिल्कुल न की जाए। इनके बजाय गत्ते या मोटे कागज से बनी फाइलों को बढ़ावा दिया जाए। जहां आवश्यक हो वहां जूट या कपड़े के कवर वाली फाइलें भी उपयोग में लायी जा सकती हैं। सभा-सेमीनार आदि में ऐसी आकर्षक फाइलों का उपयोग कभी-कभार देखने आता है। गैर-सरकारी क्षेत्र को भी इस दिशा में सोचना चाहिए।
26 जनवरी और 15 अगस्त को प्लास्टिक के तिरंगे बड़ी संख्या में बिकते हैं इन पर शायद रोक लगा दी गई है, किन्तु इसकी जांच करना बेहतर होगा कि प्लास्टिक के तिरंगे ध्वज न बनें, न बिकें। इनके साथ-साथ सजावट के लिए भी प्लास्टिक की झंडियां, तोरण और फूल आदि बनाए जाते हैं। यहीं नहीं, आजकल तो लोहे और टिन के होर्डिंग्स का स्थान भी प्लास्टिक के फ्लैक्स ने ले लिया है। नि:संदेह फ्लैक्स में कलाकारी ज्यादा अच्छे से होती है व इन्हें काफी जल्दी बनाया जा सकता है। लेकिन इनसे बने बैनर व होर्डिंग्स का बाद में क्या उपयोग होता है। अंत में जाकर ये भी कचरे के ढेर की ही शोभा बढ़ाते हैं। तो क्या यह संभव है कि वापिस पुराने नमूने के होर्डिंग्स पर लौटा जाए और पेंटरों को उनका व्यवसाय वापिस मिल जाए!
इसी सिलसिले में यह भी ध्यान आता है कि पॉलीथिन-झिल्ली का एक बड़ा दुरुपयोग शादी-ब्याह व अन्य समारोह में होता है। इसकी शुरुआत निमंत्रण पत्रिका से हो जाती है। इधर दसेक साल से निमंत्रण पत्र पर प्लास्टिक का आवरण चढ़ाने का शौक चल पड़ा है। यह मूर्खता भरा प्रयोग मालूम नहीं किसने शुरू किया। हाथ में कार्ड आए तो पहले झिल्ली हटाओ, फिर लिफाफा खोलो। यह झिल्ली भी कचरे की पेटी में ही पहुंचती है। फिर समारोह के दौरान प्लास्टिक के कप में चाय-काफी, प्लास्टिक के गिलास में पेयजल व शीतल पेय; औसत दर्जे के समारोह में प्लास्टिक के प्लेट में खाना याने इसका कोई अंत नहीं है। क्या सरकार प्रिटिंग प्रेसों को और कैटररों को रोक सकती है कि वे प्लास्टिक का उपयोग बिल्कुल भी न करें?
इसी तरह की एक और कवायद करने की जरूरत है। रेडीमेड कपड़ों की दुकानों से जो कचरा निकलता है उसकी तरफ सामान्यत: ध्यान नहीं जाता। सबसे ऊपर गत्ते का डिब्बा उसके भीतर प्लास्टिक में लिपटा रेडीमेड वस्त्र एवं उसमें टँकी ढेर सारी ऑलपिनें और लेबल, शर्ट के कॉलर के लिए कड़ा प्लास्टिक और न जाने क्या-क्या। मालूम नहीं इतना प्रपंच क्यों किया जाता है! ऐसे उदाहरण अन्य दूकानों पर भी मिल जाएंगे। इसमें अगर अपराधी की तलाश की जाए तो हमारी खोज पैकेजिंग इंडस्ट्री पर जाकर टिकती है।
जैसा कि आजकल सुबह-शाम कहा जाता है यह बाजार का समय है। बाजार अब ग्राहक की आवश्यकता पूर्ति के लिए नहीं है। उसकी निगाह तो ग्राहक की जेब काटना तो क्या, उसकी सारी जमा पूंजी हड़प लेने की है। इसीलिए बाजार दिनोंदिन ज्यादा लुभावना, ज्यादा आकर्षक होते जा रहा है। यह पैकेजिंग इंडस्ट्री की देन है। यहां सादगी से काम नहीं होता। जितना ज्यादा दिखावा उतना बड़ा डाका। बहरहाल यह तो जनता की समझने की बात है। वह जब समझेगी तब समझेगी। सवाल यह है कि सरकार अभी क्या करे। यहां सिर्फ छत्तीसगढ़ राज्य की बात नहीं है। यदि सरकारें स्वच्छ सुरक्षित पर्यावरण वापिस लाना चाहती हैं तो प्लास्टिक की झिल्लियों का निर्माण रोकने के अलावा और भी बहुत से काम करना पड़ेंगे। इसके समानांतर यह भी सोचना पड़ेगा कि प्लास्टिक के व्यवसाय में जो लोग जुड़े हुए हैं उनके रोजगार व रोजी दोनों का क्या होगा। समस्या कठिन है। प्लास्टिक का पुराना विकल्प कागज है, लेकिन कागज के लिए पेड़ कटते हैं। दूसरा विकल्प कांच है, किन्तु उसमें टूट-फूट ज्यादा है। ईंधन का इस्तेमाल और परिवहन की लागत ये दोनों समस्याएं कागज व कांच दोनों के साथ जुड़ी हैं। तब फिर क्या हो?
हमारी राय में यह सरकार का भी दायित्व है और बुद्धिजीवियों का भी कि वे अनावश्यक उपभोग के विरुद्ध जनता को सचेत करने के लिए निरंतर मुहिम चलाएं। 'यूज एंड थ्रो' याने उपयोग करो और फेंको की मनोवृत्ति उचित नहीं है। उसका हर स्तर पर विरोध होना चाहिए। जो भी समाज टिकाऊ विकास चाहता है, उसे टिकाऊ वस्तुओं का उपयोग करना सीखना होगा। आज ही कहीं खबर पढ़ी थी विश्व के एक प्रतिशत लोगों के पास दुनिया का पचास प्रतिशत धन हो गया है। इसका सीधा अर्थ है कि निन्यानबे प्रतिशत जनता को एक प्रतिशत लुटेरों के साथ लडऩे के लिए स्वयं को तैयार करना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक प्लास्टिक की झिल्ली का न उपयोग करने का संकल्प लें और इस खुशफहमी में रहें कि आपने पर्यावरण की रक्षा कर ली है।
देशबन्धु में 29 जनवरी 2015 को प्रकाशित
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