लोकतंत्र की यह एकमात्र शर्त नहीं है कि
निर्धारित अवधि में आम चुनाव सम्पन्न हो जाएं और बहुमत के आधार पर एक
सरकार बन जाए। लोकतंत्र का अर्थ है कि व्यवस्था में अधिकतम लोगों की
भागीदारी हो तथा ऐसा सुनिश्चित करने के लिए स्वायत्त संस्थाओं का गठन हो।
एक चुनी हुई सरकार अपने दायित्व से विमुख होती है जब वह इस स्वायत्तता की
रक्षा करने में असफल होती है अथवा स्वयं अपनी पहल पर स्वायत्तता को बाधित
करती है। आज इस अवधारणा पर गौर करना बहुत आवश्यक हो गया है। वह इसलिए कि
लोकतांत्रिक समाज में अनिवार्य रूप से विचारों की बहुलता का सम्मान होता
है, नागरिक समूहों को आत्मनिर्णय के अवसर मिलते हैं एवं इस तरह अलग-अलग
दिशाओं में समाज-रचना का काम होकर एक वृहत्तर पहचान के साथ समाज आगे बढ़ता
है।
सिर्फ चार दिन बाद भारत अपने गणतंत्र के पैंसठ वर्ष पूर्ण करेगा। इधर एक जुमला खासा प्रचलित हो गया है कि साठ-पैंसठ साल में कुछ नहीं हुआ। कुछ लोग आगे बढ़-चढ़कर यह भी कह देते हैं कि जो हुआ सब गलत हुआ। यह अपने-अपने राजनीतिक विश्वास से उपजी प्रतिक्रिया है। आश्चर्य की बात यह है कि इस आलोचना में कभी यह सुनने में नहीं मिला कि लोकतंत्र के लिए आवश्यक स्वायत्त संस्थाओं की शक्ति कैसे बाधित की गई। ऐसा क्या इसलिए है कि जब जिसके हाथ में सत्ता आई उसने अपने तरीके से इन संस्थाओं का दोहन करने व इनके माध्यम से अपने संकीर्ण स्वार्थ साधने की ही कोशिश की? हमने केन्द्र व प्रदेशों में कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी के अलावा वामपंथियों, समाजवादियों व क्षेत्रीय दलों के शासन को देखा है। इनमें से किसी ने भी लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति वह आदर नहीं दर्शाया जिसकी उनसे अपेक्षा थी।
सबसे ताजा उदाहरण केन्द्रीय फिल्म प्रमाणीकरण मंडल याने सेंसर बोर्ड का है। यूपीए द्वारा नियुक्त सुप्रसिद्ध नृत्यांगना लीला सेमसन एवं अन्य सदस्य इस्तीफा देकर जा चुके हैं व नए बोर्ड का गठन हो गया है। इस नए बोर्ड में अधिकतर सदस्य वे हैं जो भाजपा की राजनीति में सक्रिय हैं। सत्तारूढ़ दल अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाए इसमें कोई बुराई नहीं, लेकिन क्या यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि जिन्हें नियुक्त किया गया है वे इस पद के योग्य हैं? अटल बिहारी वाजपेयी के समय अभिनेता अनुपम खेर को अध्यक्ष बनाया गया था, उस समय वह सवाल नहीं उठा था क्योंकि श्री खेर की इस पद के लिए योग्यता असंदिग्ध थी। अभी पहलाज निहलानी अध्यक्ष बने हैं। वे दोयम दर्जे के फिल्मकार हैं तथा नरेन्द्र मोदी के लिए चुनावी फिल्म बना चुके हैं। अन्य की योग्यताएं भी कुछ इसी तरह की हैं। उनकी तुलना में लीला सेमसन कला जगत का एक प्रतिष्ठित नाम था एवं अधिकतर सदस्यों की योग्यता पर भी कोई सवाल नहीं था।
यह नियुक्ति तो एक बात हुई। लीला सेमसन ने टीवी पत्रकार करन थापर से साक्षात्कार में जो कहा वह अधिक विचारणीय है। जिस यूपीए ने उन्हें नियुक्त किया था उसी के सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी पर उन्होंने सेंसर बोर्ड के कामकाज में अनुचित हस्तक्षेप करने तथा बोर्ड की स्वायत्तता का सम्मान न करने का आरोप लगाया। उन्होंने यहां कहा कि मंत्रालय से बोर्ड के छोटे-मोटे अधिकारियों के पास सीधे फोन पर निर्देश आते थे याने बोर्ड को अंधेरे में रखकर काम किया जाता था। आज जो कांग्रेसजन भारतीय जनता पार्टी पर लीला सेमसन को दबावपूर्वक हटाने का आरोप लगा रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि कांग्रेस का अपना रिकार्ड इस मामले में क्या रहा है। यह ठीक है कि अनुपम खेर को एनडीए-1 ने मनोनीत किया था, लेकिन वे अगर अपना कार्यकाल पूरा कर लेते तो इसमें कौन सा पहाड़ टूटने वाला था। क्या कांग्रेस ने उस समय अपना छोटा दिल होने का परिचय नहीं दिया?
मुझे सुश्री सेमसन की बात से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस और भाजपा में इस बारे में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। इतना अवश्य है कि भाजपाई अपने और पराए का भेद जानते हैं। भाजपा सरकार में वही लोग नियुक्त होते हैं, जिनकी संघ या पार्टी के प्रति प्रतिश्रुति में संदेह की रंचमात्र की गुंजाइश नहीं होती। कांग्रेस में एक अलग तरह की उदारता है। वहां पार्टी के सिद्धांतों के प्रति निष्ठा रखने वालों की बजाय उन लोगों को पसंद किया जाता है जो मंत्रियों के करीबी होते हैं या वे जिन्हें चाटुकार कहा जा सकता है। नेहरु युग में तो ऐसा नहीं था किन्तु धीरे-धीरे योग्यता पर चाटुकारिता हावी होते चली गई है। इसके सैकड़ों-हजारों नहीं, बल्कि असंख्य उदाहरण पेश किए जा सकते हैं। कहने का मतलब यह कि स्वायत्तता का हनन उत्तर नेहरु युग में प्रारंभ हो गया था जो अब चरम परिणति पर पहुंच चुका है।
हम अपनी बात कुछेक उदाहरणों से स्पष्ट कर सकते हैं। एक समय देश में सहकारिता आंदोलन काफी मजबूत अवस्था में था। सहकारी संस्था के चुनाव बाकायदा होते थे। वही स्थिति नगरीय निकायों की भी थी। जो राजनीतिक कार्यकर्ता संसद या विधानसभा की सीढ़ी चढऩे से वंचित रह जाते थे वे सहकारी संस्था अथवा नगरपालिका इत्यादि में अपने लिए जगह तलाश कर लिया करते थे। इसमें कई बार ऐसा भी होता था कि जो जीतकर आए वे मुख्यमंत्री, मंत्री या संसद सदस्य के विरोधी खेमे के हों। जैसे रायपुर में नगरपालिका अध्यक्ष बुलाकीलाल पुजारी और विधायक शारदाचरण तिवारी एक-दूसरे के विरोधी थे। जब तिवारीजी मंत्री बने तो नगरपालिका भंग कर प्रशासक बैठा दिया गया और फिर बरसों तक चुनाव नहीं हुए। नगरीय निकायों के चुनाव तो अब खैर तिहत्तरवें संविधान संशोधन विधेयक के चलते होने लगे हैं, लेकिन पाठक याद करें कि हमारे यहां सहकारी चुनाव आखिरी बार कब हुए थे!
इस सोच का एक दुष्परिणाम तो यह हुआ है कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं को व्यवस्था के भीतर जो भी छोटा-मोटा अवसर मिल जाता था वे उससे वंचित हो गए हैं। इसका दूसरा दु:खद नतीजा यह भी हुआ है कि दूसरी और तीसरी पंक्ति का नेतृत्व सुचारु रूप से विकसित नहीं हो पा रहा है। रायपुर के रमेश बैस पहले पार्षद, फिर विधायक, फिर संसद सदस्य बने। यह सही रास्ता था, लेकिन ऐसा अपवादस्वरूप ही होता है। अब शायद नेताओं को डर लगने लगा है कि यदि दूसरी पंक्ति का नेतृत्व विकसित हुआ तो इससे कहीं उनका भविष्य खतरे में न पड़ जाए।
जिन संस्थाओं का चरित्र गैर-राजनीतिक है जैसे साहित्य अकादमी, सेंसर बोर्ड, विश्वविद्यालय या आईआईटी, उनकी भी स्थिति बेहतर नहीं है। ये वे संस्थाएं हैं जिन्हें काम करने दिया जाए तो ''लेस गवर्नमेंट" याने कम सरकार का लक्ष्य फलीभूत होता है। किन्तु जब इनके ऊपर प्रतिबंध लगाया जाए और ऊपर से आदेश दिए जाएं तो फिर ये संस्थाएं एक प्राणहीन सरकारी दफ्तर बनकर रह जाती हैं। इनमें न तो नवाचार की गुंजाइश होती और न नवोन्मेष की। मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में विवि की स्वायत्तता कैसे छीनी गई है इसे मैंने निकट से देखा है। अब तो केन्द्रीय विवि जैसे दिल्ली विवि तक पर मंत्रालय के तुगलकी फरमान चलने लगे हैं। यह कितना शर्मनाक है कि राज्यपाल याने कुलाधिपति पर वाइस चासंलर की नियुक्ति में पैसे लेने का आरोप लगे। इसके बाद आप शिक्षण संस्थाओं से देश का भविष्य बनाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
मैंने ऊपर नरेन्द्र मोदी के नारे का जिक्र किया है-''लेस गवर्नमेंट" का। यदि प्रधानमंत्री सचमुच इस पर विश्वास करते हैं तो उन्हें इन लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता बहाल करने के बारे में सोचना पड़ेगा और चाटुकारों के बजाय उन सुपात्रों को मौका देना होगा जो सरकारी बाबुओं के इशारे पर नहीं, बल्कि अपने अनुभव और योग्यता के बल पर निर्णय लेने में सक्षम हों।
सिर्फ चार दिन बाद भारत अपने गणतंत्र के पैंसठ वर्ष पूर्ण करेगा। इधर एक जुमला खासा प्रचलित हो गया है कि साठ-पैंसठ साल में कुछ नहीं हुआ। कुछ लोग आगे बढ़-चढ़कर यह भी कह देते हैं कि जो हुआ सब गलत हुआ। यह अपने-अपने राजनीतिक विश्वास से उपजी प्रतिक्रिया है। आश्चर्य की बात यह है कि इस आलोचना में कभी यह सुनने में नहीं मिला कि लोकतंत्र के लिए आवश्यक स्वायत्त संस्थाओं की शक्ति कैसे बाधित की गई। ऐसा क्या इसलिए है कि जब जिसके हाथ में सत्ता आई उसने अपने तरीके से इन संस्थाओं का दोहन करने व इनके माध्यम से अपने संकीर्ण स्वार्थ साधने की ही कोशिश की? हमने केन्द्र व प्रदेशों में कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी के अलावा वामपंथियों, समाजवादियों व क्षेत्रीय दलों के शासन को देखा है। इनमें से किसी ने भी लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति वह आदर नहीं दर्शाया जिसकी उनसे अपेक्षा थी।
सबसे ताजा उदाहरण केन्द्रीय फिल्म प्रमाणीकरण मंडल याने सेंसर बोर्ड का है। यूपीए द्वारा नियुक्त सुप्रसिद्ध नृत्यांगना लीला सेमसन एवं अन्य सदस्य इस्तीफा देकर जा चुके हैं व नए बोर्ड का गठन हो गया है। इस नए बोर्ड में अधिकतर सदस्य वे हैं जो भाजपा की राजनीति में सक्रिय हैं। सत्तारूढ़ दल अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाए इसमें कोई बुराई नहीं, लेकिन क्या यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि जिन्हें नियुक्त किया गया है वे इस पद के योग्य हैं? अटल बिहारी वाजपेयी के समय अभिनेता अनुपम खेर को अध्यक्ष बनाया गया था, उस समय वह सवाल नहीं उठा था क्योंकि श्री खेर की इस पद के लिए योग्यता असंदिग्ध थी। अभी पहलाज निहलानी अध्यक्ष बने हैं। वे दोयम दर्जे के फिल्मकार हैं तथा नरेन्द्र मोदी के लिए चुनावी फिल्म बना चुके हैं। अन्य की योग्यताएं भी कुछ इसी तरह की हैं। उनकी तुलना में लीला सेमसन कला जगत का एक प्रतिष्ठित नाम था एवं अधिकतर सदस्यों की योग्यता पर भी कोई सवाल नहीं था।
यह नियुक्ति तो एक बात हुई। लीला सेमसन ने टीवी पत्रकार करन थापर से साक्षात्कार में जो कहा वह अधिक विचारणीय है। जिस यूपीए ने उन्हें नियुक्त किया था उसी के सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी पर उन्होंने सेंसर बोर्ड के कामकाज में अनुचित हस्तक्षेप करने तथा बोर्ड की स्वायत्तता का सम्मान न करने का आरोप लगाया। उन्होंने यहां कहा कि मंत्रालय से बोर्ड के छोटे-मोटे अधिकारियों के पास सीधे फोन पर निर्देश आते थे याने बोर्ड को अंधेरे में रखकर काम किया जाता था। आज जो कांग्रेसजन भारतीय जनता पार्टी पर लीला सेमसन को दबावपूर्वक हटाने का आरोप लगा रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि कांग्रेस का अपना रिकार्ड इस मामले में क्या रहा है। यह ठीक है कि अनुपम खेर को एनडीए-1 ने मनोनीत किया था, लेकिन वे अगर अपना कार्यकाल पूरा कर लेते तो इसमें कौन सा पहाड़ टूटने वाला था। क्या कांग्रेस ने उस समय अपना छोटा दिल होने का परिचय नहीं दिया?
मुझे सुश्री सेमसन की बात से कोई आश्चर्य नहीं हुआ। यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस और भाजपा में इस बारे में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। इतना अवश्य है कि भाजपाई अपने और पराए का भेद जानते हैं। भाजपा सरकार में वही लोग नियुक्त होते हैं, जिनकी संघ या पार्टी के प्रति प्रतिश्रुति में संदेह की रंचमात्र की गुंजाइश नहीं होती। कांग्रेस में एक अलग तरह की उदारता है। वहां पार्टी के सिद्धांतों के प्रति निष्ठा रखने वालों की बजाय उन लोगों को पसंद किया जाता है जो मंत्रियों के करीबी होते हैं या वे जिन्हें चाटुकार कहा जा सकता है। नेहरु युग में तो ऐसा नहीं था किन्तु धीरे-धीरे योग्यता पर चाटुकारिता हावी होते चली गई है। इसके सैकड़ों-हजारों नहीं, बल्कि असंख्य उदाहरण पेश किए जा सकते हैं। कहने का मतलब यह कि स्वायत्तता का हनन उत्तर नेहरु युग में प्रारंभ हो गया था जो अब चरम परिणति पर पहुंच चुका है।
हम अपनी बात कुछेक उदाहरणों से स्पष्ट कर सकते हैं। एक समय देश में सहकारिता आंदोलन काफी मजबूत अवस्था में था। सहकारी संस्था के चुनाव बाकायदा होते थे। वही स्थिति नगरीय निकायों की भी थी। जो राजनीतिक कार्यकर्ता संसद या विधानसभा की सीढ़ी चढऩे से वंचित रह जाते थे वे सहकारी संस्था अथवा नगरपालिका इत्यादि में अपने लिए जगह तलाश कर लिया करते थे। इसमें कई बार ऐसा भी होता था कि जो जीतकर आए वे मुख्यमंत्री, मंत्री या संसद सदस्य के विरोधी खेमे के हों। जैसे रायपुर में नगरपालिका अध्यक्ष बुलाकीलाल पुजारी और विधायक शारदाचरण तिवारी एक-दूसरे के विरोधी थे। जब तिवारीजी मंत्री बने तो नगरपालिका भंग कर प्रशासक बैठा दिया गया और फिर बरसों तक चुनाव नहीं हुए। नगरीय निकायों के चुनाव तो अब खैर तिहत्तरवें संविधान संशोधन विधेयक के चलते होने लगे हैं, लेकिन पाठक याद करें कि हमारे यहां सहकारी चुनाव आखिरी बार कब हुए थे!
इस सोच का एक दुष्परिणाम तो यह हुआ है कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं को व्यवस्था के भीतर जो भी छोटा-मोटा अवसर मिल जाता था वे उससे वंचित हो गए हैं। इसका दूसरा दु:खद नतीजा यह भी हुआ है कि दूसरी और तीसरी पंक्ति का नेतृत्व सुचारु रूप से विकसित नहीं हो पा रहा है। रायपुर के रमेश बैस पहले पार्षद, फिर विधायक, फिर संसद सदस्य बने। यह सही रास्ता था, लेकिन ऐसा अपवादस्वरूप ही होता है। अब शायद नेताओं को डर लगने लगा है कि यदि दूसरी पंक्ति का नेतृत्व विकसित हुआ तो इससे कहीं उनका भविष्य खतरे में न पड़ जाए।
जिन संस्थाओं का चरित्र गैर-राजनीतिक है जैसे साहित्य अकादमी, सेंसर बोर्ड, विश्वविद्यालय या आईआईटी, उनकी भी स्थिति बेहतर नहीं है। ये वे संस्थाएं हैं जिन्हें काम करने दिया जाए तो ''लेस गवर्नमेंट" याने कम सरकार का लक्ष्य फलीभूत होता है। किन्तु जब इनके ऊपर प्रतिबंध लगाया जाए और ऊपर से आदेश दिए जाएं तो फिर ये संस्थाएं एक प्राणहीन सरकारी दफ्तर बनकर रह जाती हैं। इनमें न तो नवाचार की गुंजाइश होती और न नवोन्मेष की। मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में विवि की स्वायत्तता कैसे छीनी गई है इसे मैंने निकट से देखा है। अब तो केन्द्रीय विवि जैसे दिल्ली विवि तक पर मंत्रालय के तुगलकी फरमान चलने लगे हैं। यह कितना शर्मनाक है कि राज्यपाल याने कुलाधिपति पर वाइस चासंलर की नियुक्ति में पैसे लेने का आरोप लगे। इसके बाद आप शिक्षण संस्थाओं से देश का भविष्य बनाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
मैंने ऊपर नरेन्द्र मोदी के नारे का जिक्र किया है-''लेस गवर्नमेंट" का। यदि प्रधानमंत्री सचमुच इस पर विश्वास करते हैं तो उन्हें इन लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता बहाल करने के बारे में सोचना पड़ेगा और चाटुकारों के बजाय उन सुपात्रों को मौका देना होगा जो सरकारी बाबुओं के इशारे पर नहीं, बल्कि अपने अनुभव और योग्यता के बल पर निर्णय लेने में सक्षम हों।
देशबन्धु में 22 जनवरी 2015 को प्रकाशित
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