हिन्दी जगत के लिए यह सुखद खबर है कि नीरज
इस 4 जनवरी को नब्बे साल के हो गए हैं। वे पिछले साठ साल से अधिक समय से
सर्जनारत हैं और पांच पीढिय़ों को उनकी कविताएं पढऩे व सुनने का सौभाग्य
मिला है। हिन्दी साहित्य में गीत विधा को प्रतिष्ठित करने में उनकी अनन्य
भूमिका रही है। हम नीरज को नौ दशक की जीवन यात्रा पूरी करने पर बधाई देते
हैं और यह विश्वास करना चाहते हैं कि वे निरंतर सक्रिय रहेंगे और हमें उनकी
जन्मशती उनके साथ मनाने का अवसर मिलेगा। फिलहाल अवसर है कि हिन्दी
साहित्य में नीरज के योगदान एवं उनकी विधा के बारे में कुछ बात की जाए।
हिन्दी की विडंबना है कि गीत और गेय कविता को पिछले तीस-चालीस साल के दौरान दोयम दर्जे का साहित्य मान लिया गया है। ऐसी कुछ धारणा बन गई है जो गीत लिखता है वह कवि ही नहीं है। ऐसा क्यों हुआ है हम उसकी भी संक्षिप्त चर्चा करेंगे किन्तु क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि गीत जो कि साहित्य रचना का मूल है उसका इस तरह से अवमूल्यन हो जाए! यदि हिन्दी साहित्य के इतिहास पर गौर करें तो यह तथ्य सामने आता है कि अनेक वरेण्य रचनाकारों ने गीत अथवा छांदिक रचना के माध्यम से ही यश अर्जित किया। यह बात तो स्कूल के विद्यार्थी भी जानते हैं कि द्विवेदी युग से से लेकर छायावाद-रहस्यवाद तक सब कवियों ने गीत ही लिखे। यहां तक कि प्रयोगवाद और नई कविता के कवियों ने भी अपने प्रारंभिक दौर में गीत ही लिखे। तर सभी कवि गीतकार भी थे। यह कहने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए कि वृहतर हिन्दी भाषी समाज में साहित्य से अनुराग उत्पन्न करने में गीत विधा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
मैंने अपने स्कूली दिनों में जाना था कि एक समय देवकीनंदन खत्री के रहस्य रोमांच से भरे तिलस्मी उपन्यास यथा चन्द्रकांता आदि को पढऩे के लिए लोगों ने हिन्दी सीखी थी; फिर यह बात भी सामने आई कि अहिन्दी भाषी जनता ने बंबईया फिल्में देख-देखकर हिन्दी सीखी। दूसरे शब्दों में, हिन्दी भाषा को जनस्वीकृति दिलवाने में और साहित्य को लोकप्रियता दिलवाने में ये सहज, सरल, सुबोध रचनाएं कारगर साबित हुईं। यही बात तो गीतों पर लागू होती हैं। बच्चन की 'मधुशाला' एक प्रबल दृष्टांत के रूप में हमारे सामने है। यह ज्ञातव्य है कि एक समय हिन्दी के तमाम बड़े कवि कवि सम्मेलन के मंच पर आते थे, और उनकी कविताएं सुनने के लिए श्रोता रात-रात भर जागते थे। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में इन कवियों ने गुलामी के खिलाफ लडऩे के लिए भी जनता का मनोबल बढ़ाने में खासी भूमिका निभाई।
गोपालदास सक्सेना 'नीरज' उस परंपरा के ही कवि हैं। मैं जहां तक समझता हूं वे 1940 के दशक में मंच पर आ चुके थे। पचास और साठ के दशक उनकी अपार लोकप्रियता के वर्ष थे। नीरज के कविता संकलन प्रकाशित होते थे और देखते ही देखते बिक जाते थे। उनके अनेक गीत फिल्मों में भी लिए गए और उन्होंने पृथक से फिल्मी गीत भी लिखे। उनके ढेर सारे गीत हैं जो उस समय हम जैसे किशोरों की जुबान पर चढ़े रहते थे जैसे- कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे, या फिर- आज मिलूंगा, रोज निकलता हूं इसी विचार से, किन्तु बिना मिले पलट आता हूं तुम्हारे द्वार से... इत्यादि इत्यादि। मैंने नीरज और उनके अनेक समकालीनों को मंच से कविता पाठ करते सुना है। नीरज की बराबरी के ही लोकप्रिय कवि थे- गोपाल सिंह नेपाली। इनके अलावा वीरेन्द्र मिश्र, मुकुट बिहारी सरोज, देवराज दिनेश, बालस्वरूप राही, रामावतार त्यागी, भारतभूषण, सोम ठाकुर व रमानाथ अवस्थी आदि ने धूम मचा रखी थी।
सच है कि इनमें से अधिकतर कवि जो लिखते थे उन्हें प्रेम गीत या देशभक्ति गीत जैसे खांचों में बांटा जा सकता था, तथापि ऐसा नहीं कि इनमें सिर्फ शब्द विलास ही होता था। ये भावनाप्रधान गीत श्रोताओं के दिल को छूते थे और कहीं न कहीं उनके मनोभावों का परिष्कार भी करते थे। इन कवियों ने निरी भावुकता से हटकर विचार-सम्पन्न गीत भी लिखे। और मैं मानता हूं कि किसी हद तक उनमें लोकशिक्षण का तत्व था। नीरज की ही एक कविता याद आती है- अगर तीसरा युद्ध छिड़ा तो क्या होगा, नई उमर की नई फसल का क्या होगा...। मुकुट बिहारी सरोज, उमाकांत मालवीय और वीरेन्द्र मिश्र के साथ नीरज आदि कवियों में लोक की चिंता बराबर देखने मिलती है। यह दुर्भाग्य की बात है कि पिछले तीस-पैंतीस साल के दौरान कवि सम्मेलन का मंच लगभग पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। इसकी जिम्मेदारी बदलते हुए सामाजिक परिवेश को दी जाए, कि कवि सम्मेलन के आयोजकों को, कि नयी पीढ़ी को, कि स्वयं मंचीय कवियों को या फिर साहित्य के मठाधीशों को?
मुझे कभी-कभी लगता है कि जो अपने आपको गंभीर साहित्य का प्रवक्ता मानते हैं उन्होंने अपने ही पैरों आप कुल्हाड़ी मारी है। आज यदि देवकीनंदन खत्री हमारे बीच होते तो उन्हें शायद लेखक मानने से ही इंकार कर दिया जाता। हमारे बीच ऐसे गुणीजन उपस्थित हैं जो मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी को कवि नहीं मानते। यदि इनकी कविता सुनकर कोई वाह-वाह करे या ताली बजाए तो ये उसका बुरा मान जाते हैं। गोया कविता गूंगे का गुड़ है। ये बंद कमरों में दस-बीस लोगों के बीच कविता सुनाने में गौरव अनुभव करते हैं और कवि सम्मेलन के मंच पर जाने में इनके हाथ-पैर कांपने लगते हैं। ऐसे में अगर मंच पर जोकरों का कब्जा हो गया हो तो आश्चर्य की क्या बात है?
चिंतनीय है कि हिन्दी के पाठ्यक्रम से गीत विधा अब लगभग खारिज कर दी गई है। इस बात का ख्याल नहीं रखा गया कि अन्य विधाओं की तरह इसमें भी परिवर्तन और विकास हुआ है। ऐसे अनेक समर्थ रचनाकार हैं जिन्होंने अपने गीतों में इक्कीसवीं सदी के चित्र प्रखरता के साथ अंकित किए हैं। गीत हो या नवगीत, उनमें वर्तमान की विसंगतियों को शिद्दत के साथ उभारा गया है। लेकिन हमारे अध्यापक, समीक्षक और स्वयंभू मर्मज्ञ ऐसी रचनाओं को पाठ्यक्रम में स्थान ही नहीं देना चाहते। वे इतना भी मानने को तैयार नहीं हैं कि इनकी चर्चा किए बगैर हिन्दी साहित्य का इतिहास अधूरा माना जाएगा। एक तरह से हिन्दी जगत में एक श्रेष्ठतावादी वर्ग तैयार हो गया है, जो पुरानी कहावत के अनुसार अपनी हाथीदांत की मीनारों में बैठा नीचे देखने को तैयार नहीं है।
यह विडंबना उस समय ज्यादा स्पष्ट हो जाती है जब हम पाते हैं कि यही श्रेष्ठतावादी लेखक पाठकों के न मिलने का और पुस्तकें न बिकने का रोना रोते हैं। ये मराठी, बंगला और मलयाली में साहित्यकार को मिले सम्मान का उल्लेख करते हैं, यह भूल करके कि उन भाषाओं में लोकप्रिय लेखन को हमारी तरह से खारिज नहीं किया जाता। हम भारतीय अंग्रेजी लेखकों की पुस्तकों पर मिल रहे करोड़ों की रायल्टी पर ईष्र्या करते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि हिंदी पुस्तक की एक हजार कापियां भी बिक जाएं तो गनीमत है। जब सारा दायित्व पाठक पर ही मढ़ दिया गया है कि आप उसके पास न जाएं, वह आपके पास आए तो फिर जो मिल रहा है उसमें खुश रहिए। शिकायत किस बात की?
मेरा मानना है कि हिन्दी को आज भी नीरज जैसे कवि की आवश्यकता है। हमें ऐसे कवि चाहिए जो पांच-दस हजार की भीड़ में जाकर भी सुंदर भाषा, सुंदर भाव और सुंदर विचारों के गीत सुना सकें : ऐसे गीत जिन्हें गुनगुनाने का मन हो आए। हिन्दी साहित्य की समृद्धि में इनका कम-ज्यादा जो योगदान है उसे भी खुले मन से स्वीकार करना चाहिए। आज के समय में कवि सम्मेलन के मंच का परिष्कार करने की आवश्यकता तो है ही, जिन मसखरों ने उस पर कब्जा जमा रखा है उन्हें हटाना ही होगा ताकि हिन्दी समाज को फूहड़ता, छद्म विद्रोह और घटिया रोमांस के आक्रमण से बचाया जा सके। इससे भी ज्यादा आवश्यक है कि आज जो विचारहीनता और समाज निरपेक्षता की स्थिति उत्पन्न हो रही है उसे तोड़ा जाए। नीरज की परंपरा को आगे बढ़ाने से इस मकसद में मदद मिलेगी, ऐसा सोचना गलत नहीं होगा।
हिन्दी की विडंबना है कि गीत और गेय कविता को पिछले तीस-चालीस साल के दौरान दोयम दर्जे का साहित्य मान लिया गया है। ऐसी कुछ धारणा बन गई है जो गीत लिखता है वह कवि ही नहीं है। ऐसा क्यों हुआ है हम उसकी भी संक्षिप्त चर्चा करेंगे किन्तु क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि गीत जो कि साहित्य रचना का मूल है उसका इस तरह से अवमूल्यन हो जाए! यदि हिन्दी साहित्य के इतिहास पर गौर करें तो यह तथ्य सामने आता है कि अनेक वरेण्य रचनाकारों ने गीत अथवा छांदिक रचना के माध्यम से ही यश अर्जित किया। यह बात तो स्कूल के विद्यार्थी भी जानते हैं कि द्विवेदी युग से से लेकर छायावाद-रहस्यवाद तक सब कवियों ने गीत ही लिखे। यहां तक कि प्रयोगवाद और नई कविता के कवियों ने भी अपने प्रारंभिक दौर में गीत ही लिखे। तर सभी कवि गीतकार भी थे। यह कहने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए कि वृहतर हिन्दी भाषी समाज में साहित्य से अनुराग उत्पन्न करने में गीत विधा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
मैंने अपने स्कूली दिनों में जाना था कि एक समय देवकीनंदन खत्री के रहस्य रोमांच से भरे तिलस्मी उपन्यास यथा चन्द्रकांता आदि को पढऩे के लिए लोगों ने हिन्दी सीखी थी; फिर यह बात भी सामने आई कि अहिन्दी भाषी जनता ने बंबईया फिल्में देख-देखकर हिन्दी सीखी। दूसरे शब्दों में, हिन्दी भाषा को जनस्वीकृति दिलवाने में और साहित्य को लोकप्रियता दिलवाने में ये सहज, सरल, सुबोध रचनाएं कारगर साबित हुईं। यही बात तो गीतों पर लागू होती हैं। बच्चन की 'मधुशाला' एक प्रबल दृष्टांत के रूप में हमारे सामने है। यह ज्ञातव्य है कि एक समय हिन्दी के तमाम बड़े कवि कवि सम्मेलन के मंच पर आते थे, और उनकी कविताएं सुनने के लिए श्रोता रात-रात भर जागते थे। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में इन कवियों ने गुलामी के खिलाफ लडऩे के लिए भी जनता का मनोबल बढ़ाने में खासी भूमिका निभाई।
गोपालदास सक्सेना 'नीरज' उस परंपरा के ही कवि हैं। मैं जहां तक समझता हूं वे 1940 के दशक में मंच पर आ चुके थे। पचास और साठ के दशक उनकी अपार लोकप्रियता के वर्ष थे। नीरज के कविता संकलन प्रकाशित होते थे और देखते ही देखते बिक जाते थे। उनके अनेक गीत फिल्मों में भी लिए गए और उन्होंने पृथक से फिल्मी गीत भी लिखे। उनके ढेर सारे गीत हैं जो उस समय हम जैसे किशोरों की जुबान पर चढ़े रहते थे जैसे- कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे, या फिर- आज मिलूंगा, रोज निकलता हूं इसी विचार से, किन्तु बिना मिले पलट आता हूं तुम्हारे द्वार से... इत्यादि इत्यादि। मैंने नीरज और उनके अनेक समकालीनों को मंच से कविता पाठ करते सुना है। नीरज की बराबरी के ही लोकप्रिय कवि थे- गोपाल सिंह नेपाली। इनके अलावा वीरेन्द्र मिश्र, मुकुट बिहारी सरोज, देवराज दिनेश, बालस्वरूप राही, रामावतार त्यागी, भारतभूषण, सोम ठाकुर व रमानाथ अवस्थी आदि ने धूम मचा रखी थी।
सच है कि इनमें से अधिकतर कवि जो लिखते थे उन्हें प्रेम गीत या देशभक्ति गीत जैसे खांचों में बांटा जा सकता था, तथापि ऐसा नहीं कि इनमें सिर्फ शब्द विलास ही होता था। ये भावनाप्रधान गीत श्रोताओं के दिल को छूते थे और कहीं न कहीं उनके मनोभावों का परिष्कार भी करते थे। इन कवियों ने निरी भावुकता से हटकर विचार-सम्पन्न गीत भी लिखे। और मैं मानता हूं कि किसी हद तक उनमें लोकशिक्षण का तत्व था। नीरज की ही एक कविता याद आती है- अगर तीसरा युद्ध छिड़ा तो क्या होगा, नई उमर की नई फसल का क्या होगा...। मुकुट बिहारी सरोज, उमाकांत मालवीय और वीरेन्द्र मिश्र के साथ नीरज आदि कवियों में लोक की चिंता बराबर देखने मिलती है। यह दुर्भाग्य की बात है कि पिछले तीस-पैंतीस साल के दौरान कवि सम्मेलन का मंच लगभग पूरी तरह से नष्ट हो चुका है। इसकी जिम्मेदारी बदलते हुए सामाजिक परिवेश को दी जाए, कि कवि सम्मेलन के आयोजकों को, कि नयी पीढ़ी को, कि स्वयं मंचीय कवियों को या फिर साहित्य के मठाधीशों को?
मुझे कभी-कभी लगता है कि जो अपने आपको गंभीर साहित्य का प्रवक्ता मानते हैं उन्होंने अपने ही पैरों आप कुल्हाड़ी मारी है। आज यदि देवकीनंदन खत्री हमारे बीच होते तो उन्हें शायद लेखक मानने से ही इंकार कर दिया जाता। हमारे बीच ऐसे गुणीजन उपस्थित हैं जो मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी को कवि नहीं मानते। यदि इनकी कविता सुनकर कोई वाह-वाह करे या ताली बजाए तो ये उसका बुरा मान जाते हैं। गोया कविता गूंगे का गुड़ है। ये बंद कमरों में दस-बीस लोगों के बीच कविता सुनाने में गौरव अनुभव करते हैं और कवि सम्मेलन के मंच पर जाने में इनके हाथ-पैर कांपने लगते हैं। ऐसे में अगर मंच पर जोकरों का कब्जा हो गया हो तो आश्चर्य की क्या बात है?
चिंतनीय है कि हिन्दी के पाठ्यक्रम से गीत विधा अब लगभग खारिज कर दी गई है। इस बात का ख्याल नहीं रखा गया कि अन्य विधाओं की तरह इसमें भी परिवर्तन और विकास हुआ है। ऐसे अनेक समर्थ रचनाकार हैं जिन्होंने अपने गीतों में इक्कीसवीं सदी के चित्र प्रखरता के साथ अंकित किए हैं। गीत हो या नवगीत, उनमें वर्तमान की विसंगतियों को शिद्दत के साथ उभारा गया है। लेकिन हमारे अध्यापक, समीक्षक और स्वयंभू मर्मज्ञ ऐसी रचनाओं को पाठ्यक्रम में स्थान ही नहीं देना चाहते। वे इतना भी मानने को तैयार नहीं हैं कि इनकी चर्चा किए बगैर हिन्दी साहित्य का इतिहास अधूरा माना जाएगा। एक तरह से हिन्दी जगत में एक श्रेष्ठतावादी वर्ग तैयार हो गया है, जो पुरानी कहावत के अनुसार अपनी हाथीदांत की मीनारों में बैठा नीचे देखने को तैयार नहीं है।
यह विडंबना उस समय ज्यादा स्पष्ट हो जाती है जब हम पाते हैं कि यही श्रेष्ठतावादी लेखक पाठकों के न मिलने का और पुस्तकें न बिकने का रोना रोते हैं। ये मराठी, बंगला और मलयाली में साहित्यकार को मिले सम्मान का उल्लेख करते हैं, यह भूल करके कि उन भाषाओं में लोकप्रिय लेखन को हमारी तरह से खारिज नहीं किया जाता। हम भारतीय अंग्रेजी लेखकों की पुस्तकों पर मिल रहे करोड़ों की रायल्टी पर ईष्र्या करते हैं, लेकिन भूल जाते हैं कि हिंदी पुस्तक की एक हजार कापियां भी बिक जाएं तो गनीमत है। जब सारा दायित्व पाठक पर ही मढ़ दिया गया है कि आप उसके पास न जाएं, वह आपके पास आए तो फिर जो मिल रहा है उसमें खुश रहिए। शिकायत किस बात की?
मेरा मानना है कि हिन्दी को आज भी नीरज जैसे कवि की आवश्यकता है। हमें ऐसे कवि चाहिए जो पांच-दस हजार की भीड़ में जाकर भी सुंदर भाषा, सुंदर भाव और सुंदर विचारों के गीत सुना सकें : ऐसे गीत जिन्हें गुनगुनाने का मन हो आए। हिन्दी साहित्य की समृद्धि में इनका कम-ज्यादा जो योगदान है उसे भी खुले मन से स्वीकार करना चाहिए। आज के समय में कवि सम्मेलन के मंच का परिष्कार करने की आवश्यकता तो है ही, जिन मसखरों ने उस पर कब्जा जमा रखा है उन्हें हटाना ही होगा ताकि हिन्दी समाज को फूहड़ता, छद्म विद्रोह और घटिया रोमांस के आक्रमण से बचाया जा सके। इससे भी ज्यादा आवश्यक है कि आज जो विचारहीनता और समाज निरपेक्षता की स्थिति उत्पन्न हो रही है उसे तोड़ा जाए। नीरज की परंपरा को आगे बढ़ाने से इस मकसद में मदद मिलेगी, ऐसा सोचना गलत नहीं होगा।
देशबन्धु में 8 जनवरी 2015 को प्रकाशित
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