Thursday, 15 January 2015

रायपुर साहित्य महोत्सव


 रायपुर साहित्य महोत्सव को बीते एक माह पूरा हो चुका है। इस बीच देश के अनेक स्थानों से मित्रों ने फोन कर जानना चाहा है कि महोत्सव को लेकर जो चर्चा छिड़ी है उसमें क्या सही, क्या गलत है। कई मित्रों ने यह सवाल भी किया है कि मैं इस कार्यक्रम में शरीक क्यों नहीं हुआ और इस बारे में मैंने स्वयं अभी तक कुछ क्यों नहीं लिखा? मेरे ख्याल से इस आखिरी सवाल का उत्तर पहले दे देना ठीक होगा। मैं दरअसल प्रतीक्षा कर रहा था कि इस मुद्दे को लेकर माहौल में जो गर्मी है वह कुछ ठण्डी हो जाए, गुबार बैठ जाए और प्याली में आया तूफान शांत हो जाए। यूं तो छुटपुट बातें अभी भी हो रही हैं, लेकिन कुल मिलाकर स्थिति सामान्य है। ऐसे समय मैं अपनी बात कहूं तो उसे शायद शांतिपूर्वक सुना जा सकेगा। मैं रायपुर में इतने बड़े पैमाने पर आयोजित साहित्यिक अनुष्ठान में शामिल क्यों नहीं हो पाया  इसका भी स्पष्टीकरण मुझे उन मित्रों को तो देना ही चाहिए जो मुझसे इसकी अपेक्षा कर रहे हैं, खासकर उनको जो यह मान बैठे हैं कि मैं भाग खड़ा हुआ था। ऐसा उन्होंने क्यों सोचा, ये वही जानें।

यह प्रारंभ में स्पष्ट कर देना उचित होगा कि छत्तीसगढ़ शासन के जनसंपर्क विभाग द्वारा महोत्सव की परिकल्पना पर विचार करने के लिए जो पहली बैठक आयोजित की गई थी उसमें मैं आमंत्रित और उपस्थित था। मुझे छत्तीसगढ़ के दो वरिष्ठ साहित्यिकों के नाम लेकर बताया गया था कि वे भी आ रहे हैं और आपको भी आना है।  इस बैठक में मुझे मिलाकर चार ऐसे व्यक्ति थे जो वृद्ध हैं या वृद्धावस्था के निकट हैं और जो साहित्य में किसी न किसी रूप में सक्रिय रहने का दावा कर सकते हैं। हमारे अलावा अगली पीढ़ी के कुछ पत्रकार भी बैठक में थे। चूंकि आमंत्रण जनसंपर्क विभाग का था इसलिए पत्रकारों की उपस्थिति स्वाभाविक ही थी,  गो कि साहित्य से उनका कितना सरोकार है यह मैं नहीं जानता। यह एक अनौपचारिक सी बैठक थी जिसमें यह तो स्पष्ट हुआ कि आयोजन होगा वह भी नवम्बर में राज्योत्सव के आस-पास, किन्तु उसकी रूपरेखा क्या होगी इसे लेकर बातचीत बेहद हल्के-फुल्के ढंग से हुई। इसके उपरांत मैंने अपना कर्तव्य मान जनसंपर्क संचालक को कार्यक्रम की एक रूपरेखा बनाकर भेज दी जो मेरे पचास साल के बड़े-छोटे साहित्यिक कार्यक्रमों के आयोजन अथवा उनमें शिरकत करने के अनुभवों पर आधारित थी। यह कार्य मैंने छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में किया। जवाब में मुझे संचालक महोदय का धन्यवाद संदेश भी प्राप्त हुआ।

इस पहली बैठक के बाद कार्यक्रम की रूपरेखा कब कैसे बनी? क्या उसके लिए बाद में कोई बैठक हुई? किन लोगों पर आयोजन की जिम्मेदारी डाली गई? इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं मिली। बस एक खबर उड़ते-उड़ते मिली कि नगरीय निकायों के प्रस्तावित चुनावों के चलते महोत्सव नवम्बर में न होकर दिसम्बर में होगा। इसके कई दिनों बाद रायपुर के चौक-चौराहों पर रायपुर साहित्य महोत्सव के होडिंग्स नज़र आने लगे। उनकी रूपाकृति और इबारत देखकर यह समझ नहीं पड़ा कि यह साहित्य महोत्सव है या लोक साहित्य महोत्सव या फिर साक्षरता महोत्सव! खैर, एक दिन अचानक मुझे फोन आया कि रायपुर में तीन दिवसीय साहित्य महोत्सव हो रहा है। उसमें अशोक बाजपेयी का एकल काव्यपाठ होगा और आपको उस सत्र का संचालन करना है और यह कि डॉ. राजेन्द्र मिश्र ऐसा चाहते हैं। मैं नहीं समझ पाया कि फोन करने वाले व्यक्ति का जनसंपर्क विभाग से या साहित्य महोत्सव से क्या लेना देना है। संभव है कि उनकी सेवाएं अनुबंध पर ली गई हों। फिर एक कवि के एकल काव्यपाठ के सत्र का संचालन करने की ऐसी क्या योग्यता मुझमें है! डॉ. राजेन्द्र मिश्र ने अगर संदेश दिया है तो किस अधिकार से और अगर वे ही इस महोत्सव के प्रभारी हैं तो फिर उन्हें स्वयं मुझसे फोन पर बात करने में क्या कष्ट या संकोच था? यह सब सोचकर मैंने फोन  पर ही अपनी असमर्थता जता दी।

दो-तीन दिन बार समाचार पत्रों को ई-मेल से जो विज्ञप्ति भेजी गई वह मुझे भी पत्रकार की हैसियत से भेजी गई। इसमें जो तीन दिन का कार्यक्रम तज़वीज था वह मेरी बुद्धि से परे था।  फिर यह मालूम पड़ा कि इस महोत्सव  में साहित्य के अलावा सिनेमा पर भी चर्चा होगी और पुरातत्व पर भी तथा शिल्पकार भी अपनी कला का जीवंत प्रदर्शन करेंगे। इन सूचनाओं से मैंने तीन निष्कर्ष निकाले। एक- कार्यक्रम प्रभारियों का पूरा ध्यान कुछ जाने-माने नामों पर ही था, खासकर जो दिल्ली की धुरी पर हैं। उनसे नैकट्य प्रगाढ़ करना व उसका भविष्य में निज लाभ उठाने की भावना इसके पीछे है। दो- मुझ जैसे अनेक को मजबूरी में ही निमंत्रित किया गया। उनका बस चलता तो न करते। तीन- कार्यक्रम सरकार का था, इसलिए आयोजक या आयोजन संचालक स्थानीय दबावों से मुक्त नहीं हो पाए। इससे भले ही कार्यक्रम की मूल अवधारणा क्यों न बदल गई हो। कुल मिलाकर एहसास हुआ कि मन में एक वृहत साहित्य कार्यक्रम को लेकर जो सोच थी उससे यह महोत्सव बिल्कुल हट कर होने वाला है। मैंने इसलिए तय किया कि इसमें शामिल न होना ही मेरे लिए उचित होगा। जब एक बहुप्रसारित अखबार के शीर्षक में छपा कि अशोक चक्रधर सहित अनेक लेखक शामिल होंगे तो एक तरह से पुष्टि हुई कि मेरा निर्णय उचित था। बहरहाल यह तो मेरी निजी बात हुई।

रायपुर साहित्य महोत्सव को लेकर जो बहस चली, वास्तव में उसका विश्लेषण किया जाना चाहिए। एक तो समारोह सम्पन्न होने के बाद बार-बार यह कहा गया कि इसमें लेखकों को आने से रोका गया। मैं जहां तक जानता हूं ऐसा न तो किसी साहित्यिक संगठन ने किया और न व्यक्तिगत रूप से किसी लेखक ने।  एक अखबार ने कुछ दिनों तक मुहिम ही चला दी कि वामपंथी लेखक बहिष्कार कर रहे हैं, किन्तु यह बात सरासर असत्य थी। प्रलेस, जलेस और जसम किसी ने भी महोत्सव का विरोध या बहिष्कार नहीं किया बल्कि अधिकतर लेखक जो आए वे सामान्य तौर पर वामपंथी या उदारवादी माने जाते हैं। सच तो यह है कि संघ परिवार के कुछ घटकों द्वारा उस समय आपत्ति दर्ज कराई गई कि भाजपा सरकार के कार्यक्रम में पार्टी विरोधी लेखकों को क्यों बुलाया गया।

हां, यह अवश्य था कि छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष ने इस कार्यक्रम का विरोध किया और कुछ लेखकों को टेलीफोन पर न आने का अनुरोध भी। यह एक खुला राजनीतिक कदम था जिसका लेखकों से कोई लेना-देना नहीं था। कांग्रेस पार्टी का विरोध प्रदेश में हो रही नक्सली हिंसा और हाल ही में हुई नसबंदी मौतों की दर्दनाक वाकये की पृष्ठभूमि में था। उन्होंने अपनी बात सामने रख दी। लेखकों को नहीं मानना थी, सो नहीं मानी। भोपाल गैस त्रासदी के बाद यदि भोपाल में विश्व कविता समारोह हो सकता था तो उसकी तुलना में तो यहां ऐसा कुछ भी नहीं था। मुझे ध्यान आता है कि मैंने 2009 में दिल्ली में ''अक्षर पर्व" द्वारा आयोजित कार्यक्रम प्रभाष जोशी के आकस्मिक निधन के कारण निरस्त कर दिया था, लेकिन उसी शाम, उसी दिल्ली में दो अन्य साहित्यिक कार्यक्रम भी आयोजित थे जो बाकायदा सम्पन्न हुए और संवेदनशील लेखकों को उनमें उपस्थिति से गुरेज नहीं हुआ।

प्रदेश कांग्रेस का विरोध तो महोत्सव प्रारंभ होने के पहले ही समाप्त हो चुका था, लेकिन मेरा अनुमान है कि जो बहस आगे हुई वह मुख्यत: जनवादी लेखक संघ की विज्ञप्ति के कारण हुई। जलेस ने महोत्सव बीत जाने के हफ्ते भर बाद विज्ञप्ति जारी कर एक तरफ तो आयोजन के पीछे भाजपा और संघ परिवार पर अपना एजेण्डा लागू करने के लिए साहित्य के मंच का उपयोग करने की दुरभिसंधि आदि के लिए लानत मलामत की; वहीं दूसरी ओर समारोह में शामिल लेखकों का बचाव यह कहकर किया कि वे तो वहां भले मन से गए थे और उन पर कोई तोहमत मढऩा गलत होगा। जलेस को यह वक्तव्य जारी करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? जबकि महोत्सव समापन के बाद से उसे लेकर आलोचना तो दूर, कहीं कोई गंभीर बात नहीं हो रही थी। इस विज्ञप्ति के बाद आरोप-प्रत्यारोप का एक संक्षिप्त अध्याय प्रारंभ हुआ। कुछ ने शामिल होने वाले लेखकों की संयत-असंयत आलोचना की तो कुछ शरीक होने वाले लोगों ने भी अपनी सफाई पेश की और वीरोचित मुद्रा में घोषित किया कि उन्होंने भाजपा सरकार के मंच का उपयोग अपनी बात कहने के लिए किया। ये सारी व्यर्थ की बातें थीं जो कुछ ही दिनों के भीतर ठंडी पड़ गईं।

मेरा मानना है कि रायपुर साहित्य महोत्सव के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा का न तो कोई निर्देश था और न उनका एजेण्डा लागू करने का कोई प्रच्छन्न प्रयत्न। इसमें अगर राजनीति थी तो सिर्फ इतनी कि रायपुर में एक महत्वाकांक्षी समारोह आयोजित करके  मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की छवि को निखारा जाए। यह अपने आप में कोई गलत विचार नहीं था। कोई भी जनतांत्रिक सरकार अपने छवि निर्माण के लिए ऐसे उपक्रम करती ही है। मैंने कई वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश में देखा था कि मेला-मड़ई के अवसर पर प्रदेश सरकार के जनसंपर्क विभाग का पैवेलियन भी सजता था। मेले में हज़ारों लोग आते हैं। उनके बीच सरकार के प्रचार का थोड़ा सा अवसर मिल जाए तो क्या बुराई है। मुझे लगता है कि आजकल देश में जगह-जगह साहित्य महोत्सव आयोजित करने का फैशन चल पड़ा है; हमारे प्रदेश के युवा और उत्साही जनसंपर्क संचालक को जयपुर लिटफेस्ट या ऐसे किसी अन्य आयोजन से रायपुर में भी वैसा ही कुछ करने की प्रेरणा मिली होगी। मैं कहूंगा कि उन्होंने कल्पनाशीलता के साथ अपने कर्तव्य का  निर्वाह करने का प्रयत्न किया। यह बात अलग है कि इस बड़े काम के लिए जैसी टीम बनना चाहिए थी वे नहीं बना पाए।

मेरा यह भी मानना है कि इस वृहद आयोजन की प्रक्रिया पर प्रारंभ से अंत तक जितना ध्यान अपेक्षित था वह नहीं दिया गया। सबसे पहले तो यही सवाल उठता है कि महोत्सव का आयोजन जनसंपर्क विभाग ने क्यों किया। जहां शासन के पास किसी काम के लिए पर्याप्त ढांचा न हो वहां तदर्थ रूप से किसी अन्य एजेंसी को काम सौंपा जाए तो बात समझ आती है, लेकिन छत्तीसगढ़ में बाकायदा एक संस्कृति विभाग है; फिर साहित्य अकादमी नामक संस्था भी है यद्यपि उसके अध्यक्ष की पात्रता के बारे में कुछ न कहना ही बेहतर है। तो शासन ने संस्कृति विभाग छोड़कर जनसंपर्क विभाग को क्यों चुना? चलिए मान लेते हैं कि इसके पीछे कोई महत्वपूर्ण वजह रही होगी। ऐसी स्थिति में क्या यह बेहतर नहीं होता कि जनसंपर्क, संस्कृति, आदिम जाति विकास, हस्तशिल्प, वन, शिक्षा इत्यादि सारे विभागों को मिलाकर एक संचालन समिति बन जाती क्योंकि महोत्सव में इन सबकी कुछ न कुछ भूमिका प्रस्तावित थी।

मैंने जैसा कि प्रारंभ में संकेत किया कि इन तीन दिवसीय कार्यक्रम की रूपरेखा युक्तियुक्त ढंग से नहीं बनाई गई। एक सत्र में जहां सिर्फ एक कवि का एकल का पाठ रखा गया वहीं ऐसे सत्र भी हुए जिनमें दस या अधिक कवियों को काव्य पाठ का बराएनाम अवसर मिल पाया। इस संयोग को क्या कहिए कि जिन अशोक बाजपेयी का 13 दिसंबर को रायपुर में एकल काव्यपाठ महोत्सव के दौरान डॉ. राजेन्द्र मिश्र की बनाई कार्य योजना के अनुसार हुआ, वे ही अशोक बाजपेयी इसी रायपुर में 18 जनवरी को फिर एक बार उन्हीं राजेन्द्र मिश्र द्वारा निर्देशित एक कार्यक्रम में एकल काव्यपाठ करेंगे! दूसरे, इसे आयोजकों की अनुभवहीनता कहिए या संकुचित दृष्टि कि एक ओर जहां परिचर्चाओं में भाग लेने वालों को इक्कीस हजार रुपए प्रत्येक दिए गए वहीं छत्तीसगढ़ के कवियों को मात्र पांच हजार के योग्य समझा गया। इस तरह का भेदभाव बरतने के पीछे आखिर क्या कारण था? और शामिल कवियों ने तत्काल यह राशि लौटा क्यों नहीं दी?

रायपुर साहित्य महोत्सव के बहाने एक बात यहां पर फिर उठी है कि सत्ता और साहित्य के बीच क्या संबंध हो? यह सत्य अपनी जगह पर है कि साहित्य और कला के विकास को या तो राजाश्रय की आवश्यकता होती है या सेठाश्रय की। इन दोनों में से कौन बेहतर है? जब सामंती युग था तब ललित कलाओं और साहित्य का उन्नयन राजाश्रय में ही होता था। राजा जिस पर खुश हो जाए उसे मोतियों की माला दे दे या उसके घर पर हाथी बंधवा दे। फिर भी उस समय ऐसे गुणीजन कम नहीं थे जो राजा की ड्योढ़ी चढऩा पसंद नहीं करते थे। अपन भले अपना घर भला यह उनका सिद्धांत होता था। सामंतवाद समाप्त हुआ। पूंजीवाद का दौर आया तो संस्कृति के संवर्धन का जिम्मा धनपतियों ने उठा लिया। आज का जो समय है उसमें जनतांत्रिक सरकारें और पूंजी के स्वामी दोनों अपने-अपने तरीके से साहित्य और संस्कृति के उन्नयन में सहयोगी हो रहे हैं। दोनों की दिलचस्पी मुख्यत: ललित कलाओं को प्रोत्साहित करने में है क्योंकि उनमें सामान्यत: ऐसा कुछ नहीं है जो उनकी संवेदनाओं पर आघात कर सके या उनके हितों के विपरीत जाए। साहित्य की स्थिति कुछ अलग है। फिर भी यदि जनतांत्रिक सरकार साहित्य को बढ़ावा देना अपने कर्तव्यों का एक हिस्सा मानती है तो पूंजीपति वर्ग भी साहित्य के प्रति अपनी अभिरुचि जतला कर श्रेय लेने में पीछे नहीं रहना चाहता।

स्पष्ट है कि यदि लेखक स्वान्त: सुखाय की भावना को तज कर अपनी रचनाओं का प्रचार-प्रसार करना चाहता है, यदि वह यश का लोभी है, यदि उसके मन में सम्मान और पुरस्कार की लालसा है तो उसे किसी न किसी रूप में माध्यम और संबल की आवश्यकता पडऩा ही है। इस संदर्भ में अक्सर कुंभनदास का हवाला देकर कहा जाता है- संतन को कहां सीकरी सों काम। यह बात अपने मन को समझाने के लिए कही जाती है। कुंभनदास मूलत: संत थे कवि नहीं।  इसलिए कवि को अपना आदर्श कुंभनदास के बजाय तुलसीदास को मानना चाहिए जिन्होंने मानस को जन-जन तक पहुंचाने के लिए रामलीला का आविष्कार किया है। किन्तु आज जब सरकार और सेठ दोनों का संरक्षण उपलब्ध है तो फिर कवि को यहां-वहां भटकने की जरूरत नहीं है! पुरस्कारों की झड़ी लगी हुई है, सम्मान अनगिनत हैं, पुस्तकें सरकारी खरीद मेें खप जाती हैं। ऐसे में जहां से भी बुलावा आए वहां चले जाने में ही श्रेय है। वैसे भी आज देश राजनीति के संक्रमण काल से गुजर रहा है। ऐसे समय अनावश्यक बहसों में उलझने और अपनी आत्मा पर बोझ लादने में कोई तुक नहीं है!
देशबन्धु में 15 जनवरी 2015 को प्रकाशित

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