Wednesday, 27 May 2015

मोदी सरकार : पहला पड़ाव


प्र धानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने अपने पांच साला कार्यकाल का पहला पड़ाव पार कर लिया है। चूंकि भाजपा के पास अपने तईं स्पष्ट बहुमत है इसलिए यह सहज उम्मीद है कि अगले चार साल भी बिना किसी विघ्न-बाधा के बीत जाएंगे। यूं कहने को तो सरकार एनडीए की है, लेकिन इसमें घटक दलों की भूमिका बच्चों को बहलाने के अंदाज में दूध-भात की ही है। सरकार के कामकाज को लेकर बीच-बीच में शिवसेना और अकालीदल सीमित मुद्दों पर अपना असंतोष व्यक्त करते हैं और फिर वापिस पटरी पर लौट आते हैं। लोजपा के रामविलास पासवान ने तो कुछ इस तरह से आत्मसमर्पण कर रखा है मानो उनकी पार्टी का विलय भाजपा में हो चुका है। आज इसलिए मोदी सरकार के एक वर्ष की समीक्षा करना है तो वह मुख्यत: भारतीय जनता पार्टी शासन की समीक्षा होगी। एनडीए बस नाममात्र के लिए है।

यह पहला मौका है जब प्रधानमंत्री लगातार सुर्खियों में बने हुए हैं। एक दिन नहीं जाता जब स्वयं प्रधानमंत्री की ओर से उनका प्रचार न होता हो। इसका स्वाभाविक परिणाम है कि विभिन्न मंचों पर नरेन्द्र मोदी के पक्ष व विपक्ष दोनों में टीका-टिप्पणियां चलती रहती हैं। कुल मिलाकर हुआ यह है कि प्रधानमंत्री सरकार से ऊपर उठ गए हैं। जो कुछ बात होती है वह उनको केन्द्र में रखकर होती है। जब प्रधानमंत्री स्वयं पूरे समय मंच पर छाए रहते हैं तो उसका नतीजा यह भी होता है कि चर्चाओं का स्वर, अनुकूल हो या प्रतिकूल, व्यक्तिमुखी हो जाता है। एक चुनी हुई सरकार द्वारा लिए गए निर्णयों और लागू किए गए कार्यक्रमों के बारे में जनता के प्रति जो जवाबदेही होना चाहिए वह इस वातावरण में एक सिरे से गायब हो चुकी है। विचारणीय है कि यह स्थिति जनतंत्र के लिए कितनी शुभ है।

जो लोग नरेन्द्र मोदी के अंधसमर्थक हैं वे तो यह मानकर चलते हैं कि वे किसी अवतारी पुरुष की तरह चमत्कार कर भारत को दुनिया का सिरमौर बना देंगे। उनकी श्रद्धा पर हम टिप्पणी नहीं करेंगे। किन्तु जो एक बड़ा वर्ग संघ के सिद्धांतों में आस्था रखता है और जिसने बड़ी उम्मीदों के साथ इसी बिना पर नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तन-मन (धन देने वाले दूसरे थे)  से काम किया था अब उसमें निराशा गहराने लगी है। वे मोदी सरकार से जिस सुशासन की अपेक्षा रखते थे वह पूरी होते दिखाई नहीं देती। इस निराशा को रोकने के लिए ही शायद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने अनुयायियों को सलाह दी है कि शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करें। उन्होंने नरेन्द्र मोदी की तुलना अभिमन्यु से करते हुए विश्वास प्रकट किया है कि वे एक न एक दिन चक्रव्यूह भेदने में अवश्य सफल होंगे। जाहिर है कि श्री भागवत मोदीजी को द्वापर नहीं बल्कि कलयुग के अभिमन्यु के रूप में देख रहे हैं।

 हमें इस बात से ऐतराज नहीं कि सरसंघचालक अपने परम प्रिय एवं विश्वस्त स्वयंसेवक की तुलना एक पौराणिक चरित्र से करें, लेकिन क्या श्री भागवत सचमुच यह मानते हैं कि इक्कीसवीं सदी की दुनिया में कोई एक व्यक्ति जटिल राजनीतिक समीकरणों का समाधान सिर्फ अपने बलबूते कर सकता है? दूसरे, अभिमन्यु की भूमिका तो चलते युद्ध के बीच थी; यहां तो नरेन्द्र मोदी चुनावी समर में विजयी हो चुके हैं, फिर उन्हें अभिमन्यु बनकर अब किससे लडऩा है? श्री मोदी के सामने चुनौती देश को एक सक्षम, पारदर्शी और उत्तरदायी प्रशासन देने की है। इसके लिए उन्हें केसरिया बाना धारण करने की आवश्यकता नहीं बल्कि  मनोयोग से जटिल समीकरणों को समझने की है।

मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक साल के कार्यकाल के बारे में विचार करता हूं तो अनायास ही पुरानी फिल्मों के गीत-संगीत का ध्यान हो आता है। वह दौर था जब फिल्मी गीतों को सुनते हुए श्रोता उनमें पूरी तरह डूब जाया करते थे। गीतकार जो लिखते थे उसकी एक-एक पंक्ति और एक-एक शब्द में अर्थ भरा होता था और गायक जब उन्हें स्वर देते थे तो गीत के भाव श्रोता के सामने ज्यादा मुखर और ज्यादा स्पष्ट होने लगते थे। पाश्र्व संगीत एहसास को तरल बनाते चलता था। इसकी तुलना उन शोर-शराबे वाली पार्टियों से कीजिए जिनमें एक तरफ पैमाने छलकते रहते हैं और दूसरी तरफ कोई गज़ल गायक अपनी गायकी से हाकारीन को चमत्कृत करने की भरसक कोशिश करते रहता है। गायक के हावभाव और अंदाज पर तालियां पिटतीं है, वाह वाह के स्वर उठते हैं, लेकिन शायद ही कोई श्रोता गज़ल के भाव समझ पाता है। वह तो सिर्फ अदाओं पर मुग्ध हुए जाता है। क्या ऐसी ही कुछ स्थिति आज नहीं है?

विगत एक वर्ष में केन्द्र सरकार के क्रियाकलापों पर नकार दौड़ाएं तो यह समझ नहीं पड़ता कि तालियां क्यों बज रही हैं। ऊपर हमने मोहन भागवत को उद्धृत किया है। यह भी याद कर लें कि उद्योगपतियों के सिरमौर रतन टाटा ने भी वाणिज्य जगत को धीरज धरने की सलाह कुछ दिन पहले दी है। कुछ पूंजीपति हैं जो सरकार की वाहवाही में लगे हैं, लेकिन उन्हीं के बीच में दीपक पारेख जैसे श्रेष्ठि भी हैं जो इस बात से चिंतित हैं कि पिछले सालों के मुकाबले बीते वर्ष अधोसंरचना में निवेश में गिरावट आई है। नरेन्द्र मोदी पर सबसे अधिक भरोसा तो कार्पोरेट जगत को ही था किन्तु कराधान ढांचे में मैट, पिछली तारीख से टैक्स आदि की बातें कर वित्तमंत्री ने उद्योग जगत को ऊहापोह में डाल दिया है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की स्वायत्तता में हस्तक्षेप करने के जो प्रयत्न हुए उसका भी कोई अच्छा परिणाम सामने नहीं आया।

प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं से प्राप्त सफलता का काफी यशगान किया जा रहा है। श्री मोदी यदि इस मोर्चे पर अपनी ओर से आगे बढक़र रुचि ले रहे हैं तो यह प्रसन्नता की बात है। वे विदेशों में भी अपने व्यक्तिगत छवि निर्माण के लिए साधन और अवसर जुटा लेते हैं, हमें इस पर भी कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन यह तो पूछना ही होगा कि प्रधानमंत्री की शिखर वार्ताओं से क्या ठोस परिणाम सामने आए। अभी जैसे दक्षिण कोरिया से दस बिलियन डालर निवेश की घोषणा हुई, लेकिन वहीं के अखबार कह रहे हैं कि इसमें नया कुछ नहीं है। इसी तरह चीन से बीस अरब डॉलर निवेश के समझौते हुए हैं, परन्तु इसकी तुलना में चीन ने पाकिस्तान में पैंसठ बिलियन डॉलर निवेश के पक्के समझौते किए हैं। दूसरे शब्दों में, भारत को सावधानी बरतना चाहिए कि जो वस्तुस्थिति है उसी का प्रचार हो अन्यथा जग-हंसाई हो सकती है।

यह तो सभी देख रहे हैं कि मोदीजी एक व्यक्तिकेन्द्रित सरकार चला रहे हैं। प्रधानमंत्री के रूप में उनकी सर्वोच्चता स्पष्ट है, लेकिन अपने मंत्रिमंडल में उन्हें दो मोर्चों पर ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है। एक तो उनके पास अनुभवी मंत्रियों की कमी है, इसलिए जो अनुभवी हैं खासकर उन्हें अपने कार्य संपादन में स्वतंत्रता मिलना चाहिए। अभी शायद यह स्वतंत्रता अरुण जेटली के अलावा अन्य किसी को हासिल नहीं है। ऐसे में अन्य मंत्री बुझे मन से कितना काम कर पाएंगे। दूसरे, प्रधानमंत्री को अपने अनुभवहीन किन्तु वाचाल मंत्रियों पर लगाम कसने की आवश्यकता है। मसलन मनोहर पार्रिकर भले ही एक सफल मुख्यमंत्री रहे हों रक्षामंत्री के रूप में उनकी असावधान टिप्पणियों से सरकार की छवि को नुकसान पहुंचता है। इस तरह जैसे असंयत बयान गिरिराज सिंह देते रहे हैं, वैसी अपेक्षा मुख्तार अब्बास नकवी से नहीं की जाती थी।

इन दो बातों के अलावा प्रधानमंत्री को यह भी समझना होगा कि शिक्षा और संस्कृति इन दोनों विषयों पर उनकी सरकार जो निर्णय ले रही हैं उनसे सरकार की छवि को व्यापक नुकसान पहुंचता है। ललित कला अकादमी, राष्ट्रीय संग्रहालय, एनबीटी,आई आई टी आदि प्रतिष्ठित संस्थानों में जो हो रहा है, वह ठीक नहीं है।
कहने को बहुत कुछ है, बहुत सी टिप्पणियां अध्येताओं ने की भी हैं, किन्तु प्रधानमंत्री यदि अपने पहले वर्ष की समीक्षा तटस्थ भाव से करें तो स्वयं ही जान जाएंगे कि उन्हें आगे क्या करना चाहिए।
देशबन्धु में 28 मई 2015 को प्रकाशित

Wednesday, 20 May 2015

पीकू : नई सोच की फिल्म


 उस दिन सिनेमा घर से ‘पीकू’ फिल्म देखकर बाहर निकले तो मन हुआ कि इसके बारे में लिखना चाहिए। फिल्म की तारीफ मैं सुन चुका था, पारिवारिक मित्रों का साथ मिल गया था तो छह महीने के भीतर ही दुबारा मल्टीप्लेक्स में जाकर फिल्म देखने का योग बन गया। वरना अपना रिकार्ड यह है कि पिछले छह साल में टॉकीज जाकर शायद छह फिल्में भी नहीं देखी होंगी। टीवी पर जो फिल्में आती हैं बीच-बीच में उन्हें ही आधी-अधूरी देखकर काम चल जाता है। यह भी एक रोचक संयोग था कि छह महीने जो फिल्म देखी थी उसका टाइटिल था ‘पीके’ और अब यह ‘पीकू’। ह`मारे फिल्म बनाने वालों की कल्पनाशक्ति का भी कोई जवाब नहीं है। कहां-कहां से ऐसे शीर्षक ढूंढ लाते हैं।

‘पीकू’ फिल्म जिन लोगों ने भी देखी होगी उन सबने इसे एक स्वस्थ्य मनोरंजन वाली फिल्म के रूप में ही देखा होगा! फिल्म की कथा जैसा कि आप जानते हैं एक परिवार के इर्द-गिर्द बुनी गई है। इसमें अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण तथा इरफान खान जैसे वर्तमान में लोकप्रिय कलाकार तो हैं ही, आज से तीन-चार दशक पहले की लोकप्रिय अभिनेत्री मौसमी चटर्जी को भी लम्बे अरसे बाद देखने का मौका मिला।  मेरे प्रिय अभिनेता रघुवीर यादव भी एक नए मेकअप में प्रकट हुए। उनकी अभिनय प्रतिभा का जो लाभ सिनेमा जगत को उठाना चाहिए था वह नहीं उठा पाया। इनके अलावा और कौन-कौन से अभिनेता थे, मुझे मालूम नहीं। मालूम करने की आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि उनमें से कोई भी साधारण अभिनय से ऊपर नहीं उठ पाया।

प्रथम दृष्टि में ‘पीकू’ एक हास्यप्रधान फिल्म प्रतीत होती है। इसका कथानक जिस बिन्दु से उठाया गया है वहां हास्य की सर्जना अपने-आप होती है। श्री बनर्जी याने अमिताभ बच्चन अपने कब्ज से परेशान हैं और इसके चलते उनके स्वभाव में जो चिड़चिड़ापन आ गया है वह दूसरों को भी परेशान करता है और चिड़चिड़ा बना देता है। घर में एक पुराना सेवक है जो स्वामीभक्ति में कोई कमी नहीं रखता। रघुवीर यादव ने डॉक्टर मित्र का रोल अदा किया है, वह भी मित्रता में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ता। रघुवीर यादव के रोल को देखकर पुरानी फिल्मों में डेविड द्वारा निभाए गए परिवार-मित्र डॉक्टर के रोल का ध्यान आ जाता है। लेकिन मिस्टर बनर्जी के चिड़चिड़ेपन का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है फिल्म की नायिका उनकी बेटी पीकू याने दीपिका पादुकोण पर। पिता के पास दवाईयों का भंडार है, लेकिन उन्हें किसी से फायदा नहीं होता। डॉक्टर की सलाह भी सुनी-अनसुनी कर दी जाती है। बेटी को विधुर पिता की देखभाल भी करना है और अपना कामकाज भी संभालना है। पीकू के स्वभाव में भी चिड़चिड़ापन आ गया है और इससे वह न तो घर को व्यवस्थित रख पाती है, न दफ्तर में मनोयोग से काम करना हो पाता है और न मित्रों के साथ फुर्सत के पल आराम से बीत पाते हैं।

फिल्म की कहानी सबको पता है कि किस तरह राणा चौधरी इरफान की टैक्सी में सवार होकर पिता पुत्री-कोलकाता अपने पुराने घर को देखने के लिए निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में और उसके बाद भी जगह-जगह पर हास्य की सृष्टि हुई है, कहीं दृश्यों से, कहीं संवादों से। लेकिन मैं सोच रहा हूं कि क्या फिल्म सिर्फ इतनी ही है! इसमें कथा के भीतर जो उपकथाएं पिरोई गई हैं, क्या मेरी तरह अन्य दर्शकों ने भी उन्हें महसूस किया है? ये जो उपकथाएं हैं वे किस उद्देश्य से जोड़ी गई हैं और क्या उनका निर्वहन करने में डायरेक्टर सफल हो सका है? मुझे लगता है कि फिल्म के माध्यम से एक बहुत महीन संदेश देने का सायास प्रयत्न किया गया है जिसे चारों तरफ फूटते हँसी फव्वारों के बीच शायद दर्शक पकड़ पाने में चूक गए! इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।

फिल्म में एक उपकथा है- अपने अतीत की स्मृतियों को जीवित रखने की। श्री बनर्जी की कोलकाता में चंपाकुंज नाम से विशाल हवेली है, जो उनकी मां के नाम पर है। वे उसे नहीं बेचना चाहते। बेटी सोचती है कि इसे बेच देना चाहिए। एक जमीन दलाल आकर्षक ऑफर लेकर बार-बार आता है।  फिलहाल कोठी में पीकू के काका-काकी रहते हैं, उन्हें भय है कि कोठी बिक गई तो वे कहां जाएंगे। टैक्सी मालिक राणा चौधरी पीकू का मित्र भी है। वह उसे समझाता है कि अतीत से इस तरह खुद को नहीं काटना चाहिए। स्मृतियों से कटने का मतलब अपनी जड़ों से कट जाना है। उसकी यह बात पीकू को समझ आ जाती है। मिस्टर बनर्जी अपने पुराने घर में आकर एक नए किस्म की प्रफुल्लता महसूस करते हैं और वहीं बहुत शांति के साथ, उनकी मृत्यु हो जाती है। पीकू घर पहुंचने का इरादा छोडक़र यह तय करती है कि इस हवेली का रख-रखाव कैसे किया जाए। यह उपकथा विरासत संरक्षण करने वालों की प्रशंसा पाने योग्य है!

एक और उपकथा है जो सर्वोदयी किस्म के गांधीवादियों को अवश्य पसंद आएगी। चौधरी की कार में ड्राइवर द्वारा रखा एक चाकू मिल जाता है जिसे फेंकने के लिए मिस्टर बनर्जी किाद पकड़ लेते हैं। अंत में पीकू के आग्रह पर चौधरी चाकू फेंक देता है। इस तरह हिंसा पर अहिंसा की विजय हो जाती है। इसके अलावा राणा चौधरी मिस्टर बनर्जी को कब्ज से मुक्ति पाने के लिए उकड़ू बैठकर शौच करने व तुलसी, पुदीना का काढ़ा पीने आदि की सलाह भी देता है जिस पर वे अमल भी करते हैं। इसे हम अंग्रेजी दवाइयों पर प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति की विजय मान सकते हैं।

बहरहाल, पीकू के कथानक में एक अन्य उपकथा है जो हमारी पारंपरिक सोच व सामाजिक रूढिय़ों को चुनौती देती है, उनका तिरस्कार करती है। इस उपकथा पर भारतीय संस्कृति का दंभ भरने वालों का ध्यान क्यों नहीं गया, यह अपने आप में आश्चर्यजनक है। पीकू आज के जमाने की एक आत्मनिर्भर कुंवारी युवती है। एक मित्र के साथ उसके दैहिक संबंध हैं। उसके इन संबंधों के बारे में पिता को भी मालूम है और उसी शहर में रहने वाली मौसी को भी। घर के इन दो बुजुर्गों को पीकू के संबंधों पर कोई एतराज नहीं है बल्कि मिस्टर चौधरी तो अपरिचित लोगों के सामने भी यह कहने में नहीं हिचकिचाते कि उनकी बेटी के विवाहेतर संबंध हैं। एक तरह से फिल्म का परिवेश ऐसा गढ़ा गया है जिसमें विवाहेतर संबंध को बहुत बारीक ढंग से मान्यता मिली हुई है।

भारतीय सिनेमा ने सौ साल का सफर पूरा कर अगली सदी में प्रवेश कर लिया है। इस लम्बी अवधि में फिल्मों में अभिनय और तकनीक के अलावा कथानक याने विचार के स्तर पर भी बहुत सारे परिवर्तन हुए हैं। ऐसी तमाम फिल्में अलग-अलग समय में बनी हैं जिनमें विगलित सामाजिक रूढिय़ों से मुक्त होने का संदेश दिया गया है। कभी बेमेल विवाह का विरोध हुआ, तो कभी विधवा विवाह की वकालत हुई। धर्म, जाति, भाषा, रंग, प्रांतीयता के नाम पर हो रहे भेदभावों को समाप्त करने का संदेश देने वाली फिल्में भी बनीं। अपराधियों का हृदय परिवर्तन संभव है, यह भी दर्शाया गया। वेश्यावृत्ति के लिए स्त्री नहीं बल्कि समाज जिम्मेदार है, यह संदेश भी सामने आया। गरज यह कि एक नए समाज की रचना का विश्वास लेकर सैकड़ों फिल्में पिछले सौ साल के दौरान बनी होंगी।

लगता है कि अब परिर्वतन की एक नई लहर चल पड़ी है। इन दिनों बन रही अनेक फिल्मों के विषय ऐसे हैं जिनके बारे में चार दशक पहले सोचना भी मुश्किल था। फिल्मों में भाषा के साथ जो सलूक हो रहा है, वह भी एक समय अकल्पनीय था। इसमें क्या अच्छा है और क्या बुरा, इस पर मैं टिप्पणी नहीं करना चाहता। यदि सामाजिक सोच में परिवर्तन आ रहा है तो वह आंखें मूंद लेने से तो नहीं रुक जाएगा। इस परिवर्तन का प्रतिबिंब यदि साहित्य में एवं फिल्मों पर पड़ रहा है तो उसे भी अनदेखा करने से काम नहीं चलेगा। यदि ‘पीकू’ में बिना विवाह किए युवाओं के बीच शारीरिक संबंध स्थापित होने का चित्रण आज के समाज का यथार्थ है तो मानना होगा कि फिल्मकार ने समय के अनुरूप विषय चुनकर अपनी कलाधर्मिता को ही निभाया है। दूसरी ओर फिल्मकार की शायद यह सोच भी हो कि विवाहेतर संबंध तो होते हैं, उस बारे में ढकोसलेबाजी क्यों की जाए; समाज में इस विषय पर खुल कर बहस हो तो इस तर्क को मान लेने में आपत्ति नहीं होना चाहिए।

देशबन्धु में 21 मई 2015 को प्रकाशित 

Thursday, 14 May 2015

ग्रेट ब्रिटेन के आखिरी (?) चुनाव




 ग्रेट ब्रिटेन अथवा यूके के घटनाचक्र में भारत की दिलचस्पी मुख्यत: दो कारणों से रहती है। एक तो इसलिए कि अंग्रेजों के साथ हमारे संबंधों की एक लंबी ऐतिहासिक कड़ी जुड़ी हुई है। दूसरे इसलिए कि पिछले तीन दशकों के दौरान ब्रिटिश समाज में भारतवंशियों ने अच्छी खासी पैठ बना ली है। यही वजह थी कि ग्रेट ब्रिटेन में हाल में सम्पन्न आम चुनावों के प्रति भी भारत में काफी उत्सुकता देखी गई। इसके पीछे एक और कारण भी था। भारतीय मीडिया में इन चुनावों के बारे में कुछ ऐसी तस्वीर पेश की गई मानो भारतवंशी वोटर ही चुनावों में निर्णायक भूमिका अदा करेंगे। इसमें जो अतिरंजना थी उसका विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं समझी गई। इतना अवश्य था कि पिछली बार के मुकाबले इस बार अधिक संख्या में भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिक चुनावी मैदान में अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।

बहरहाल चुनाव परिणाम सामने आ चुके हैं और इनसे ऐसे कुछ तर्क उभरते हैं जो भारतवासियों के लिए दिलचस्पी का सबब होने के साथ-साथ विचार मंथन का अवसर भी प्रदान करते हैं। सबसे पहले नोट करने लायक तथ्य तो यही है कि पूरे देश में एक साथ साढ़े छ: सौ सीटों पर 7 मई को चुनाव सम्पन्न हुए और उसी रात नतीजे आना भी शुरु हो गए। चौबीस घंटे बीतते न बीतते सारे परिणाम घोषित हो चुके थे। हमारे देश में जहां चुनाव प्रक्रिया सम्पन्न होने में डेढ़-दो माह का समय लग जाता है यह एक आश्चर्यजनक खबर ही है। हमारा चुनाव आयोग जो तैयारियां करता है वे हनुमान की पूंछ की तरह कभी खत्म होने में ही नहीं आती। उम्मीदवार और वोटर दोनों थकने और ऊबने लगते हैं। कई-कई हफ्तों तक जरूरी सरकारी काम भी ठप्प पड़ जाते हैं। ब्रिटेन के चुनावों से क्या हम अपनी चुनावी प्रक्रिया को अधिक सुगम बनाने की कोई तरकीब हासिल कर सकते हैं?

यह सही है कि ब्रिटेन की आबादी कम है, मतदाताओं की संख्या भी उस अनुपात में भारत के मुकाबले कहीं नहीं ठहरती, सुरक्षा प्रबंध भी देखना पड़ते हैं, किन्तु प्रश्न उठता है कि अपने लोकतंत्र के परिपक्व होने का प्रमाण हम कब दे पाएंगे? यह भी गौरतलब है कि हाउस ऑफ कॉमन्स के लिए छह सौ पचास सीटों पर चुनाव होता है। मोटे तौर पर एक-सवा लाख आबादी के लिए एक संसद सदस्य। जबकि हमारे यहां प्रति लोकसभा सीट मतदाताओं की संख्या औसतन दस लाख से अधिक ही होती है। मैं लंबे समय से वकालत करते आया हूं कि हमारी लोकसभा में कम से कम एक हजार सदस्य होना चाहिए याने आज की संख्या से दुगुने। तभी संसद सदस्य मतदाताओं के साथ किसी हद तक न्याय कर पाएगा तथा भ्रष्टाचार व लापरवाही पर भी अंकुश लगाने में कुछ मदद मिलेगी।

इन चुनावों में एक बेहद महत्वपूर्ण तथ्य और उभरा है कि सारे चुनाव पूर्व सर्वेक्षण ध्वस्त हो गए। सामान्य तौर पर माना जाता है कि इंग्लैंड, अमेरिका आदि में चुनावी सर्वेक्षण खरे उतरते हैं क्योंकि मतदाता वहां शिक्षित हैं तथा अपनी राय बेबाकी से प्रकट करने में हिचकते नहीं। यह धारणा इस बार टूट गई। ऐसा क्यों हुआ इसका विश्लेषण अभी मेरी निगाह से गुजरा नहीं है, लेकिन इतना तो तय है कि सर्वेक्षण करने वाली एजेंसियों की विश्सनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग गया है। इसमें भारत के लिए सबक छुपा हुआ है। हमारे यहां चुनावी सर्वेक्षण को अपने पक्ष में प्रदर्शित करने के लिए राजनीतिक दल, खासकर भाजपा, जिस तरह का व्यायाम करते हैं वह जनता के सामने है। चुनावी सर्वेक्षण एजेंसी व उसे प्रकाशित करने वाले मीडिया दोनों की साख पर बार-बार धब्बा लगता है, लेकिन वे लोभ से बच नहीं पाते। आज एक बार फिर सोचने का वक्त है कि इन सर्वेक्षणों और भविष्यवाणियों पर पूरी तरह से पाबंदी क्यों न लगा दी जाए?

इस बार भारतवंशियों में चुनाव लडऩे के प्रति बेहद उत्साह था। भारतीय मूल के 59 प्रत्याशी चुनाव में खड़े हुए थे। इनमें से मात्र दस ही विजयी हुए, जबकि पिछली संसद में इनकी संख्या आठ थी। पारंपरिक तौर पर भारतवंशी लेबर पार्टी के साथ रहते आए हैं, लेकिन अब कईयों का रुख कंजर्वेटिव पार्टी या टोरियों की तरफ मुड़ गया है। प्रधानमंत्री कैमरन ने तो यहां तक उन्हें कहकर बहलाया कि आने वाले समय में कंजर्वेटिव पार्टी से ही कोई एशियाई या अश्वेत प्रधानमंत्री बनेगा। खैर! इसमें नोट करने लायक यह भी है कि भारतवंशियों के अलावा पाकिस्तानी, चीनी तथा अन्य आप्रवासी समुदायों के लोग चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे। पाकिस्तानी मूल की एक उम्मीदवार ने तो वरिष्ठ एवं चर्चित नेता जॉन गॉलवे को ही करारी मात दी।  इस बार भारतवंशी कीथ वाज तो फिर से चुने ही गए। उनकी बहन वैलेरी वाज पहली दफा संसद में आ गईं। क्या इसे वंशवाद माना जा सकता है?

ऐसा अनुमान लगाया जा रहा था कि लेबर पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी और सरकार उसकी ही बनेगी। उसके मत प्रतिशत में खासी बढ़ोतरी होने का अनुमान था। कंजर्वेटिव पार्टी को भी मत प्रतिशत में हल्की बढ़ोतरी, लेकिन सीट संख्या में कमी आने की भविष्यवाणी की गई थी। अभी डेविड कैमरन लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ मिलकर साझा सरकार चला रहे थे। इसके बरक्स कयास लगाए जा रहे थे कि लेबर पार्टी के नेता एड मिलिबैंड किस दल के साथ गठबंधन करेंगे। ये सारे अनुमान धरे के धरे रह गए। लेबर पार्टी की सीटें बढऩे के बजाय कम हो गईं और कंजर्वेटिव पार्टी ने स्पष्ट बहुमत से आगे बढ़कर पांच अधिक सीटें जीत लीं। अब कैमरन देश को किए गए अपने वायदों पर बिना किसी दबाव के निर्णय ले सकते हैं।

दरअसल, लेबर पार्टी को सबसे बड़ा झटका स्काटलैंड में लगा जहां अलगाववादी स्कॉटिश नेशनल पार्टी ने 59 में से 56 सीटें पाकर लेबर का सूपड़ा साफ कर दिया। अभी एक साल पहले ही स्कॉटिश जनता ने जनमत संग्रह में ग्रेट ब्रिटेन के साथ बने रहने का फैसला किया था। इन नतीजों के बाद आशंका उभरती है कि क्या स्कॉटलैंड में स्वतंत्र सार्वभौम देश बनने की मांग फिर से उठेगी? प्रधानमंत्री कैमरन ने जीत के तुरंत बाद वायदा किया कि ग्रेट ब्रिटेन के सभी राष्ट्रों अर्थात् वेल्स, उत्तर आयरलैंड और स्कॉटलैंड को अधिकतम स्वायत्तता दी जाएगी तथा चारों राष्ट्र (इंग्लैंड सहित) मिलकर एक देश बने रहेंगे, लेकिन इस पर विश्वास करने के  लिए राजनीतिक पर्यवेक्षक फिलहाल तैयार नहीं हैं। कईयों का कहना है कि यह शायद ग्रेट ब्रिटेन का आखिरी आम चुनाव सिद्ध हो सकता है।

डेविड कैमरन ने चुनाव के दौरान मतदाताओं से यह वायदा भी किया था कि वे यूरोपीय संघ की सदस्यता छोडऩे पर गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे। यह एक बड़ा कूटनीतिक निर्णय होगा किन्तु अपनी घोषणा पर अमल करना प्रधानमंत्री के लिए शायद बहुत आसान न हो। यूरोप के सम्पन्न देशों में एक भावना बलवती होती जा रही है कि उन्हें कमजोर देशों का बोझ उठाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। ग्रीस, पुर्तगाल तथा पूर्वी यूरोप के अनेक देश निर्धन की श्रेणी में आ जाते हैं। इनके विरुद्ध जर्मनी और फ्रांस में भी आवा•ों उठ रही हैं। अगर ग्रेट ब्रिटेन इस दिशा में पहल करता है तो एक यूरोप का सपना बिखरते देर न लगेगी। किन्तु इससे स्वयं ब्रिटेन को क्या फायदा होगा यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। अगर स्कॉटलैंड अलग हो गया तो उसका विपरीत प्रभाव इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा।

यह विचारणीय है कि लेबर पार्टी के हाथों में विजय आते-आते कैसे फिसल गई। एक तो स्कॉटलैंड के मतदाताओं ने उसका साथ नहीं दिया, दूसरे यह भी कहा जा रहा है कि लेबर पार्टी ने इंग्लैंड के ग्रामीण श्रमिक वर्ग की ओर ध्यान देना पिछले कई सालों से छोड़ दिया था। ये दोनों उसके पारंपरिक गढ़ थे। मोहभंग होने पर हार होना ही थी। युवा एड मिलिबैंड ने अपने सगे भाई डेविड मिलिबैंड को नेता पद के चुनाव में हराया था, लेकिन वे अपने पारंपरिक मतदाताओं का विश्वास जीतने में असफल सिद्ध हुए।

चलते-चलते यह खबर कि पुनर्निर्वाचित प्रधानमंत्री डेविड कैमरन अपनी पत्नी सामन्था कैमरन के साथ जीत की खुशी मनाने लंदन के सबसे महंगे और संभ्रांत वर्ग के लिए सुरक्षित मेफेयर क्लब में रात्रि भोज पर गए। पूंजीवादी जनतंत्र में नेतृत्व की दिशा का संकेत इसमें मिलता है।
देशबन्धु में 14 मई 2014 को प्रकाशित

Wednesday, 6 May 2015

राजनीति बनाम व्यापार


 भारत के व्यापारी वर्ग में एक मान्यता लंबे समय से चली आ रही है- कोऊ हो नृप हमें का हानि। तुलसीकृत मानस में मंथरा के इस कथन का आगे चलकर यही अर्थ लगाया गया कि व्यापारी राजनीति के प्रपंचों में पड़े बिना अपना धंधा करता रहे। सच पूछें तो यह उक्ति पूरे विश्व के व्यापारी समाज पर लागू होती है। राजतंत्र हो या जनतंत्र, अधिनायकवाद हो या सैन्य शासन, व्यापारी अपनी भलाई इसी में देखता है कि जो सत्ता में बैठे हैं उन्हें समय-समय पर भेंट-पूजा चढ़ाकर वह अपना काम निकाल ले। यदि वह राजकाज में सक्रिय दिलचस्पी लेने लगे तो कभी भी राजा के कोप का शिकार बन उसे अपना सर्वस्व गंवाना पड़ सकता है। प्रभा खेतान ने अपने उपन्यास "पीली आंधी" में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है कि राजस्थान से वणिकों को समय-समय पर पलायन करने क्यों मजबूर होना पड़ा। वर्तमान समय में सोवियत संघ के विघटन के बाद शेष रूस का उदाहरण हमारे सामने है जहां पूंजीपतियों ने कम्युनिस्ट-विरोधी सत्ता के साथ मिलकर अरबों-खरबों की दौलत इकट्ठा कर ली, किन्तु बाद में उनमें से कई को देश छोड़कर भागना पड़ा, तो कई देश में ही सलाखों के पीछे कैद हैं।

इसके समानांतर एक दूसरी सोच भी काफी लंबे समय से चली आ रही है जो कहती है कि राजा को व्यापार नहीं करना चाहिए। इसके अनुसार राजा या कि सत्ता को, व्यवसायी वर्ग को अपना व्यापार निर्बाध रूप से कर पाने के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराने के अलावा और कुछ नहीं करना चाहिए। जो लोग इस धारणा में विश्वास रखते हैं उनका मानना है कि व्यापार-व्यवसाय पर किसी भी तरह की बंदिश न हो। बाजार अपने नियम खुद ही तय कर लेगा; जिसकी सामथ्र्य होगी उसकी दुकान चलेगी, जो अक्षम होगा वह अपने आप बाहर हो जाएगा। इस सोच के लोग सरकार द्वारा लागू किए गए नियम कायदों की समय-समय पर आलोचना करते हैं। यह सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं कि आयकर, बिक्री कर, प्रवेश कर, लायसेंस, परमिट इत्यादि से व्यापार का ही नहीं, देश का कितना बड़ा नुकसान होता है। छत्तीसगढ़ की जनता को याद होगा कि जब राज्य नया-नया बना था तब यहां बिक्री कर और वाणिज्य कर खत्म करने की मांग इस आधार पर की गई थी कि देवभोग में हीरा उत्खनन से इतना पैसा आएगा कि प्रदेश के विकास के लिए किसी अन्य साधन से पैसा जुटाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आज पन्द्रह साल बाद छत्तीसगढ़ चेंबर ऑफ कॉमर्स जैसी संस्थाओं से यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि देवभोग के हीरों का और उससे मिलने वाले राजस्व का क्या हुआ? खासकर तब जबकि प्रदेश में व्यापारियों का हितचिंतक माने जाने वाली पार्टी की सरकार चल रही है।

भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने तब प्रकारांतर से उन्होंने भी व्यापार-व्यवसाय को निर्बाध रूप से चलने की वकालत की। उन्होंने ''अधिक सुशासन और कम शासन" जैसा कोई नारा दिया था। उनका मंतव्य यही था कि सरकार किसी भी क्षेत्र में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप न करे। वे अपनी पार्टी की प्रारंभ से चली आ रही सोच को ही प्रतिध्वनित कर रहे थे। जनता को याद होगा कि वाजपेयी सरकार के समय एक विनिवेश मंत्रालय भी बनाया गया था जिसने सार्वजनिक क्षेत्र की खरबों की संपदा निजी क्षेत्र को मानो कौडिय़ों के मोल बेच दी थी। यह एक राजनीतिक प्रहसन ही है कि वाजपेयी सरकार के अर्थविशेषज्ञ अरुण शौरी आज नरेन्द्र मोदी के कटु आलोचक बन गए हैं। कृपया यह न समझें कि मैं विषयांतर कर रहा हूं बल्कि मेरी कोशिश कुछ विलुप्त कडिय़ों को जोडऩे की है।

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर एक निगाह डालने से समझ आ जाता है कि बाबा तुलसीदास ने पांच सौ साल पहले जो बात कही थी उस पर अमल करने में ही व्यापारी समाज की भलाई निहित है। व्यापारी अपने आपको सक्रिय राजनीति से जितना दूर रखे उसके लिए उतना ही अच्छा है। एक व्यापारी के अपने राजनीतिक उसूल हो सकते हैं, लेकिन वह सामान्य तौर पर सभी राजनीतिक दलों को चंदा देता है, मना शायद किसी को भी नहीं करता। संभव है कि जिस पार्टी के विचार उसे अधिक अनुकूल लगते हैं वह उसके प्रति दूसरी पार्टी के मुकाबले ज्यादा उदारता दिखाता हो। हमने ऐसे उदाहरण भी देखे हंै कि एक व्यापारी किसी राजनीतिक दल का सक्रिय कार्यकर्ता है, किन्तु वह अन्य दलों से भी मधुर संबंध बनाकर चलता है। याने उसे पता है कि सबको मिलाकर चलने में ही फायदा है।

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि राजनीति और व्यापार दोनों किसी हद तक एक-दूसरे पर आश्रित हैं, इसके बावजूद दोनों के बीच एक अदृश्य रेखा है जिसका उल्लंघन करना अभी हाल तक ठीक नहीं माना जाता था। कोई भी देशकाल हो, व्यापार उसमें एक अनिवार्य गतिविधि की तरह होगा तथा सत्ताधीशों को पूंजीपतियों से समय-असमय सहयोग लेने की भी आवश्यकता होगी। दूसरी तरफ उद्यमी वर्ग अपने कामकाज के लिए बेहतर परिस्थितियां मांगने के लिए सरकार पर जब-तब दबाव और प्रलोभन का भी सहारा लेगा, लेकिन पारंपरिक सोच कहती है कि बात इसके आगे नहीं बढऩा चाहिए। यही कारण है कि सामान्य तौर पर व्यापारी अपने आपको राजनीति से दूर रखते आया है। चुनावी राजनीति उसे अक्सर रास नहीं आती तथा राजनीति में किसी बड़े पद पर पहुंचने की वह इच्छा भी नहीं रखता। यही कारण है कि हमारे अधिकतर चुने हुए नेता या तो किसान हैं या वकील या अध्यापक या फिर शुद्ध राजनेता।

यह स्थिति अब बदलने लगी है। उद्योगपतियों और व्यापारियों के बीच एक नयी सोच विकसित होने लगी है कि वे जब दूसरों को चंदा देकर चुनाव लड़वाते हैं तो खुद क्यों चुनाव नहीं लड़ सकते। यह सोच उन बाहुबलियों की सोच से अलग नहीं है जो चुनाव के वक्त नेताओं की मदद करने के बदले खुद विधायक, सांसद, मंत्री बनने का सपना देखने लगते हैं। इस नयी बयार में हमने देखा कि कितने सारे उद्योगपति और व्यापारी राज्य सभा के रास्ते से राजनीति में आ गए। इनमें विजय माल्या जैसे लोग भी शामिल हैं जिन्हें राज्य सभा के सभापति के निधन के दिन भी अपनी भव्य दावत निरस्त करने का ध्यान नहीं आया। उन्हें देश आज दिवालिया उद्यमी के रूप में जान रहा है।  हमारे सामने उन चुने गए राजनेताओं के उदाहरण भी हैं जो संदिग्ध व्यापारों में संलिप्त होने के कारण जेल की हवा खा रहे हैं।

इस नयी सोच ने राजनेताओं के मन में भी व्यापारी बनने की लालसा जागृत कर दी है जिसका सबसे ताजा एवं ज्वलंत उदाहरण पंजाब के उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल के रूप में जनता के सामने है। बादल परिवार के दर्जन भर सदस्य राजनीति में लाभ के पदों पर हैं, लेकिन इतने से उनका मन नहीं भरा। सुखबीर सिंह बादल को बस ऑपरेटर बन जाने की ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी थी? वह भी ऐसी जिसका संचालन प्राप्त जानकारी के अनुसार हर तरह के नियम कायदे तोड़कर हो रहा है। ऐसे और भी दृष्टांत काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एवं गुवाहाटी से लेकर गोवा तक जनता के समक्ष हैं। देश को याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि लाल बहादुर शास्त्री ने 1954 में रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मंत्री पद त्याग दिया था। इस तरह की आशा श्री बादल जैसे व्यक्तियों से रखना व्यर्थ ही होगी। विजय माल्या और सुखबीर सिंह बादल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक व्यक्ति ने व्यवसाय से राजनीति में पदार्पण किया और दूसरे ने राजनीति का उपयोग व्यापार करने के लिए किया। दोनों की सोच में हमें कोई अंतर नहीं दिखाई देता। यह एक नया युग है जिसमें लालच ही सबसे बड़ी प्रेरणा है और धनसंग्रह ही अंतिम लक्ष्य।


देशबन्धु में 07 मई 2015 को प्रकाशित

Monday, 4 May 2015

कुछ साहित्यिक यात्रा संस्मरण

 
 
उज्जैन, अवंतिका या उज्जयिनी। महाकाल, कालिदास, भर्तृहरि और चार कुंभों में से एक सिंहस्थ कुंभ की नगरी। जनमान्यता है कि यह विक्रमादित्य की राजधानी भी थी। इसलिए वेताल की नगरी भी! जाहिर है कि देश के प्राचीनतम नगरों में से एक उज्जैन में आकर्षण बहुत है। महाकालेश्वर की गणना बारह ज्योतिर्लिंगों में की जाती है। श्रद्धालु यहां दर्शन के लिए आते ही हैं, लेकिन बहुत पहले मैंने किसी कहानी में पढ़ा था (बिलासपुर की स्वर्गीय शशि तिवारी रचित)  कि महाकाल जब बुलाएं तभी उनके दर्शनों का योग बनता है। अगर ऐसा है तो मेरे जीवन में ऐसा एकमात्र योग सन् 1957 में आया था जब मैंने स्कूल के विद्यार्थी के रूप में महाकालेश्वर तथा उज्जैन के अन्य आकर्षण केन्द्रों के दर्शन किए थे। उसके बाद दो-तीन बार अन्य कारणों से उज्जैन जाना तो हुआ, लेकिन बुलावा नहीं था इसलिए दर्शन लाभ नहीं हुआ। इस पृष्ठभूमि में ही कुछ सप्ताह पहले उज्जैन की एक और यात्रा हो गई।

इंदौर में स्वर्गीय सोहनलाल सांघी स्मृति संगीत समारोह विगत पैंतालीस वर्ष से हो रहा है। भारतीय सांस्कृतिक निधि अर्थात् इंटैक के इंदौर अध्याय ने इस आयोजन का जिम्मा ले लिया है। इस नाते इस साल 25-26 मार्च को संपन्न समारोह में इंटैक का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मुझे मिला। आयोजकों ने फोन पर चर्चा करते हुए प्रलोभन दिया कि आप चाहेंगे तो उज्जैन प्रवास की व्यवस्था भी हो जाएगी। मैंने ज्यों ही यह बात सुनी कार्यक्रम में आने के लिए तुरंत हामी भर दी। संस्था के मित्रों ने शायद यह सोचा होगा कि मैं महाकालेश्वर के दर्शन करने जाऊंगा। उनका बुलावा तो था नहीं, किंतु उज्जैन में अपने एक बहुत प्रिय बंधु से मिलने का आकर्षण था और मैं इस अवसर को गंवाना नहीं चाहता था।

हिन्दी कविता को वर्तमान में मध्यप्रदेश के जिन लोगों ने समृद्ध किया है उनमें एक प्रमुख नाम चंद्रकांत देवताले का है और साहित्य रसिक जानते हैं कि वे उज्जैन में वास करते हैं। रायपुर से इंदौर के लिए रवाना होने से पहले ही मैंने देवतालेजी को धमकी दे दी थी कि मैं आपसे मिलने आ रहा हूं और वे भी व्यग्रता से इस धमकी के पूरा होने की राह देख रहे थे। आयु के 79वें वर्ष में स्वाभाविक कारणों से अब उनकी यात्राएं लगभग बंद हो गई हैं, लेकिन मन तो करता ही है कि मित्रों से मुलाकातें होती रहें। देवतालेजी के घर में मेरा सबसे पहले स्वागत तीन-चार श्वानों ने किया। मालूम पड़ा कि राजनीतिशास्त्र की प्रोफेसर उनकी बेटी कनुप्रिया सड़क पर दुर्दशा को प्राप्त श्वान शावकों को उठा लाती हैं  और फिर वे इस छोटे से परिवार के स्थायी सदस्य बन जाते हैं।

मुझे ध्यान आया कि देवतालेजी पिछले दो-तीन सालों से बकु पंडित पर अक्षर पर्व के लिए संस्मरण भेजने का वायदा कर रहे हैं। ये बकु पंडित भी उनके एक प्रिय श्वान थे, जो दिवंगत हो चुके हैं। खैर! इस स्वागत के बाद कवि का हुक्म हुआ कि हम लोग कुछ देर आंगन के छतनार पेड़ की छाया में बैठें। आदेश का पालन करना ही था। हम लोग भरी दोपहरी उस पेड़ की छाया में बैठकर उनके छोटे से बगीचे की शोभा का आनंद लेते रहे। यह देखकर मजा आया कि उस पेड़ पर पान की दो-तीन बेलें चढ़ी हुई हैं। एक बेल बंगला पान की थी, जो स्वाद में काफी तीखा होता है और एक हल्के पीले रंग वाले नाजुक से कपूरी पान की। एक अच्छी दोपहरी चंद्रकांतजी और बेटी के साथ बीती। बरसों बाद हमने दुनिया जहान की बातें कीं, साथ में खाना खाया, उनकी कुछ नई, कुछ अधूरी कविताएं सुनीं। उनकी नई पुस्तक भी भेंटस्वरूप प्राप्त की और हम दोनों के अजीज़  सुदीप बनर्जी को भावुक मन से याद किया। जब वापिस चलने का समय आया तो मैं पान की दोनों बेलों में से पान तोड़कर स्वाद लेने के मोह से नहीं बच सका।

मुझे अपने अग्रज से जल्दी विदा इसलिए भी लेनी पड़ी कि जिस कार्यक्रम के निमित्त इंदौर आया हूं वहां समय पर पहुंच जाऊं। मैं संगीत का ज्ञाता तो नहीं हूं, लेकिन पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की दो शिष्याओं मुखर्जी बहनों ने बांसुरी पर जिस कलाकारी का परिचय दिया वह अत्यन्त सराहनीय थी। इंदौर के इस कार्यक्रम के बहाने कई संस्कृतिकर्मियों से परिचय हुआ। गीता सांघी जो कि आयोजन समिति की प्रमुख हैं; हिमांशु दुधवलकर जो आर्किटेक्ट हैं और जिन्होंने इंदौर के प्रसिद्ध राजवाड़े के जल जाने के बाद पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है; संजय पटेल जो एक गुणी कला समीक्षक हैं और जिन्होंने इंदौर का एक नक्शा बनाया है और जो मालवी के जाने-माने गीतकार व लेखक नरहरि पटेल के बेटे हैं। इस तरह जब समान रुचि के मित्रों से मिलना होता है तब आनंद होता ही है।

इंदौर-उज्जैन जाने के कुछ दिन पहले एक संक्षिप्त यात्रा धमतरी की हुई। यूं कार्यक्रम तो मुजगहन नामक गांव में था, लेकिन वह शहर से लगकर इतना विकसित हो चुका है कि धमतरी का नया सर्किट हाउस इस गांव में बनाया गया है। यहां हम लोग याने प्रभाकर चौबे, विनोदशंकर शुक्ल और मैं, अपने एक प्रिय मित्र त्रिभुवन पांडेय पर केन्द्रित एक ग्रंथ के लोकार्पण और लेखक के सम्मान समारोह में अपनी उपस्थिति देने आए थे। हमारे अलावा दुर्ग, भिलाई तथा आसपास के साहित्यकार भी पहुंचे थे। त्रिभुवन अब 77 के हो गए हैं। दो साल पहले उनकी 75वीं वर्षगांठ पर दोस्तों ने तय किया था कि त्रिभुवन पांडेय के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक अभिनंदन ग्रंथ का प्रकाशन किया जाएगा। ऐसे काम में समय लगता भी है, अड़चनें भी पेश आती हैं। किन्तु मुजगहन के निवासी युवा साथी डुमनलाल ध्रुव इस योजना को मूर्तरूप देने में जुटे रहे और अंतत: उनकी मेहनत रंग लाई। 375 पृष्ठ के ग्रंथ में त्रिभुवन पांडेय पर मुझ सहित कुछ मित्रों के संस्मरण हैं, उनके अपने लेखहैं, कविताएं हैं, साक्षात्कार हैं, पत्र हैं। उनके कृतित्व पर सुधी मित्रों द्वारा लिखी गई समीक्षाएं हैं। इस तमाम सामग्री में त्रिभुवन द्वारा व्यंग्य पर लिखे गए जो छह लेख लिए गए हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं।

त्रिभुवन पाण्डेय अक्षर पर्व के सुपरिचित लेखक हैं। वे एक अच्छे व्यंग्यकार, नवगीतकार और समीक्षक हैं। पिछले पचास साल में उन्होंने बहुत लिखा है और सार्थक लिखा है। व्यंग्य पर लिखे उपरोक्त लेखों से साहित्य के प्रति उनकी सोच का परिचय हमें मिलता है। हम यह भी जान पाते हैं कि धमतरी जैसे एक छोटे कस्बे में, जो अब शहर बन रहा है, रहते हुए भी त्रिभुवन पांडेय का अध्ययन कितना विशाल है। प्रभाकर चौबे की तरह त्रिभुवन भी परसाई की धारा के लेखक हैं। वे कहते हैं कि व्यंग्य बेहद विवेकशील, न्यायबुद्धि तथा निरपेक्ष हृदय की अभिव्यक्ति है। जो लेखक मानवीय संबंधों की तह में नहीं जाता, जो राजनीति का विश्लेषण नहीं कर सकता वह कभी व्यंग्य नहीं लिख सकता, यह उनका मानना है।

पाठकगण आज्ञा दें तो मैं आपका परिचय धमतरी के एक अन्य निवासी से करवाना चाहता हूं। मुजगहन से लौटते हुए हम थोड़ी देर के लिए रमाकांत शर्मा के घर गए। शर्माजी एक शासकीय विद्यालय से प्राचार्य के रूप में कोई पन्द्रह बरस पहले सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वे अपनी तरह के एक अनोखे व्यक्ति हैं। शर्माजी को पढऩे का व्यसन है। उन्होंने अपने घर में एक पुस्तकालय बना रखा है। जो पुस्तक उन्हें अच्छी लगती है उसे अपने संग्रह के लिए ले लेते हैं। आज जब पुस्तक पढऩे वालों की ही संख्या घट रही है तब अपने आपमें एक खुशी की बात है कि एक रिटायर्ड व्यक्ति अपनी पेंशन का एक हिस्सा पुस्तकें खरीदने में खर्च करता है। इतना ही नहीं, वे नियमित रूप से कई अखबार भी पढ़ते हैं। उन्हें जो लेख पसंद आते हैं उनकी कतरनें या फोटोकॉपी सहेजकर रख लेते हैं। इस तरह उनके पास हजारों लेखों का संग्रह है। उनका दृढ़ विश्वास है कि जो लोग ऐसे सुंदर लेख लिखते हैं, वे ही समाज को बदल सकते हैं। एक तरह से वे चाहते हैं कि समाज अपने लेखकों का सम्मान करना सीखे और उनसे प्रेरणा ले। उनका यह आदर्शवाद किसी भी लेखक के कानों के लिए मधुर झंकार हो सकता है। मुझे अच्छा लगता है कि हमारे बीच ऐसे व्यक्ति मौजूद हैं जिन्हें आज के विचारशून्य समय में भी शब्द की शक्ति पर ऐसा अटूट विश्वास है।

इस बीच एक शाम भिलाई जाना भी हो गया। भिलाई में लेखकों के अनेक संगठन हैं, पर यह सुखद है कि कार्यक्रम कोई भी करे, सब तरफ से साथी जुट जाते हैं। 25 मार्च को प्रोफेसर कमला प्रसाद की पुण्यतिथि थी। इस अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ की भिलाई इकाई ने अन्य संस्थाओं को साथ लेकर एक आयोजन किया जिसका विषय था- ''प्रगतिशील लेखन की दशा और दिशा"। यह विषय इसलिए प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है क्योंकि लेखक संगठनों से जुड़े रचनाकर्मियों के सामने प्रश्न है कि वे क्या करें। इस समय देश में तीन लेखक संगठन समानांतर चल रहे हैं- प्रलेस, जलेस और जसम। एक चौथा संगठन कसम याने क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच भी हाल-हाल में कुछ सक्रिय हुआ है। सवाल है कि वर्तमान परिस्थितियों में लेखक संगठनों की भूमिका क्या हो और किस सीमा तक हो? लेखक की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और संगठन की अपेक्षा क्या किसी बिन्दु पर जाकर मिलती है? यह भी सवाल है कि रचनाकार तो अपने काम में जुटा हुआ है उसे संगठन की क्या आवश्यकता है? बहुत से रचनाकर्मियों के मन में यह आशंका भी है कि वर्तमान परिस्थितियों में किसी मंच पर उपस्थित होना उनके लिए हानिकारक तो नहीं होगा? ऐसी स्थिति भारत में पहली बार उत्पन्न नहीं हुई है तथा अन्य देशों में भी संस्कृतिकर्मियों को इन प्रश्नों का सामना करना पड़ा है।

इस वर्ष भीष्म साहनी की जन्मशताब्दी है। वे प्रगतिशील लेखक संघ से प्रारंभ से जुड़े रहे तथा अपने समय के एक अत्यंत प्रमुख लेखक के रूप में उन्होंने प्रतिष्ठा अर्जित की। अक्षर पर्व उन पर केन्द्रित विशेषांक दो महीने बाद प्रकाशित करने जा रहा है। इधर छत्तीसगढ़ प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने 5 अप्रैल को भीष्म साहनी जन्मशती पर एक दिन भर का कार्यक्रम आयोजन किया। इस कार्यक्रम में जैसी उपस्थिति थी वैसी रायपुर के साहित्यिक  कार्यक्रमों में अमूमन दिखाई नहीं देती। इससे भीष्म जी की लोकप्रियता का पता चलता है। प्रसंगवश कह देना चाहिए कि संभवत: पूरे देश में भीष्म साहनी जन्मशताब्दी पर आयोजित यह पहला कार्यक्रम था। इसके पूर्व सम्मेलन ने ख्वाजा अहमद अब्बास एवं कृश्न चंदर की जन्मशताब्दी पर भी इसी तरह कार्यक्रम किए थे। कुल मिलाकर बीते दो-तीन सप्ताह पूरी तरह से साहित्य को समर्पित रहे, जिसकी यह झलक आपने शायद पसंद की हो।
अक्षर पर्व मई 2015 अंक की प्रस्तावना